मधुशाला - पहली बार, पहला पाठ

The first public recitation of Madhushala by Bachchan

Madhushala Podcast, Episode 1

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How was it when a young poet Bachchan recited the Madhushala for the first time in public, at Shivaji Hall of Kashi University, circa 1933 -


दिसंबर 1933 की सर्दियों के दिन, काशी विश्वविद्यालय – शिवाजी हाल। सभा अध्यक्ष थे मनोरंजन प्रसाद, जो कि अंग्रेजी के जाने माने प्रोफेसर तो थे ही साथ ही हिन्दी साहित्य में भी उनकी काफी गहरी पैठ थी। वैसे तो कवि गोष्ठी एक दिन की थी – लेकिन शाम आते आते जब बच्चन नाम के युवा कवि ने किसी पब्लिक फोरम में पहली बार मधुशाला सुनाई – नवयुवक जैसे पागल ही हो गए।

मनोरंजन जी कहते हैं कि पागल तो मैं भी हो रहा था किन्तु वह पागलपन की सीमा तो अभी बदलने वाली थी – बात ये हुई कि पहले दिन कई कवियों ने अपनी कविताएं सुनाई और आखिर में कहीं जा के बच्चन का नंबर आया - बच्चन ने जब मधुशाला सुनाई थी तब सम्मेलन में उतने विद्यार्थी न थे, लेकिन जब उसकी शोहरत फैली और अलग-अलग आवाज़ों में, इधर-उधर मधुशाला की मादक पंक्तियाँ निकलने लगी - हवा में थिरकने लगीं- तो जिन लोगों ने सुना था वे तो पागल थे ही - जिन लोगों ने नहीं सुना था वे भी मोहित होने लगे। बस सभी का आग्रह हुआ कि एक बार फिर बच्चन जी का कविता-पाठ हो जाए, केवल बच्चन जी का - केवल मधुशाला का! किन्तु किसी भी सम्मेलन के लिए प्रिंसिपल साहब की अनुमति आवश्यक थी। विद्यार्थी प्रिंसिपल श्री ध्रुव जी के तक पहुँच गए। ध्रुव जी ने कहा कि यदि कोई प्रोफेसर उस सम्मेलन का सभापति बनना स्वीकार करें तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। तो विद्यार्थी मनोरंजन जी के पास भी पहुँच गए और उन्होंने तुरन्त अपनी स्वीकृति भी दे दी क्योंकि तब तक उन्होंने भी मधुशाला की तर्ज पर कुछ रुबाइयाँ / चतुष्पदियाँ (parodies) लिख डाली थी जो स्वयं सर्वसाधारण के समक्ष आने को मचल रही थीं।

मधुशाला का असल रंग प्रकट हुआ अगले दिन - जो केवल मधुशाला का सम्मेलन था - बच्चन का और मेरा सम्मेलन था - मधुशाला का सर्वप्रथम कवि सम्मेलन - केवल मधुशाला का!” – मनोरंजन जी कहते हैं – “बच्चन ने अपनी कई रुबाइयाँ सुनाई थीं और मैंने केवल आठ। बच्चन आदि और अन्त में थे और मैं था मध्य में, इन्टरवल में, जब सुनाते सुनाते वे थक-से गए थे और शीशे के गिलास में सादे पानी से गले की खुश्की मिटा रहे थे।“

हाल खचाखच भरा था, लड़के सीढ़ियों और दरवाजों तक पर खड़े थे - मस्ती के साथ झूमकर जब युवा बच्चन ने अपने कंठ से मधुशाला को सुर में गाना शुरू किया... भाव रसीले, शब्द सरल से, सीधे सादे, भावना के अनुसार उतार चढ़ाव, हर छंद की पंक्ति के अंत में प्याला, हाला, मधुशाला का हल्का सा तरन्नुम, मादक पंक्तियाँ जैसे हवा में थिरकने लगी... श्रोता झूम उठे, नवयुवक ही नहीं, बड़े-बूढ़े भी। बस स्वर-लहरी में लहरा रहे थे। मद की मस्ती में झूम रहे थे। और हर चौथी पंक्ति के आखिर में मधुशाला के स्वरों का झरना – उसके तरन्नुम का तो बस क्या कहना!

मनोरंजन प्रसाद जी ने मधुशाला की तारीफ भी मधुशाला के ही अंदाज़ में कविता सुनाकर की थी – कुछ इस तरह -

भूल गया तस्बीह नमाज़ी, पंडित भूल गया माला,

चला दौर जब पैमानों का, मग्न हुआ पीनेवाला।

आज नशीली-सी कविता ने, सबको ही मदहोश किया,

कवि बनकर महफ़िल में आई, चलती-फिरती मधुशाला।

(तस्बीह = माला, सुमिरणी)

रूपसी, तूने सबके ऊपर, कुछ अजीब जादू डाला

नहीं खुमारी मिटती कहते, दो बस प्याले पर प्याला,

कहाँ पड़े हैं, किधर जा रहे, है इसकी परवाह नहीं,

यही मनाते हैं, इनकी आबाद रहे यह मधुशाला।

भर-भर कर देता जा, साक़ी मैं कर दूँगा दीवाला,

अजब शराबी से तेरा भी, आज पड़ा आकर पाला,

लाख पिएँ, दो लाख पिएँ, पर कभी नहीं थकनेवाला,

अगर पिलाने का दम है तो, जारी रखें यह मधुशाला।

बच्चन जी के मित्र नरेंद्र शर्मा इसके बारे में कहते हैं कि प्रशंसा का बांध ही टूट पड़ा था। वो मधुशाला की अभूतपूर्व लोकप्रियता के रहस्य की गहराई में उतरते हुए कहते हैं की इस तरह का विषय तब तक के मध्य-कालीन कविता साहित्य से एकदम अलग हटकर था (like a refreshing break) – पुराने वक़्त के कवि मधु से भयभीत थे – पहले का काव्य हितवादी और छायावादी था और बच्चन ने वहीं, उसी किले में घुस कर मधु विस्फोट कर दिया! मध्य युग का भूत जैसे झाड़ ही दिया! मधुशाला का यह अत्यंत अप्रत्याशित, अनौपचारिक, आकस्मिक भव्य युगारंभ था। (पुस्तक से: क्या भूलूँ क्या याद करूँ).


फिलहाल यहीं विराम :-)


अगले अंक में बात करेंगे - मधुशाला आखिर क्या है? क्यूँ इसे एक विवादित कविता कहा गया, क्यूँ इसे एक Misunderstood कविता कहा जाता है? और बच्चन जी को इसे लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली? मिलते हैं फिर एक बार चाय पर।

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इन दिनों हम हर रविवार को मधुशाला की एक Live गोष्ठी भी करते हैं, आप जुड़ सकते हैं Mentza App के माध्यम से। आइएगा महफ़िल में कभी।

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