गांधी और मधुशाला

When Gandhi heard the Madhushala for the first time

Madhushala Podcast, Episode 9

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In the previous episode, we discussed Shiv Ki Pratima in the context of Madhushala, along with what Bachchan said about Fever, Raag and Aag. In this episode, we talk about how Mohandas Karamchand Gandhi reacted when he heard Madhushala for the first time...


पिछले अंक में हमने बात की थी कि मधुशाला के संदर्भ में बच्चन जी शिव की प्रतिमा के बारे में क्या कहते हैं, बुखार के बारे में बच्चन जी के विचारों की और जीवन में राग और आग के महत्व की – आज बात करते हैं कि जब गांधी जी से लोगों ने मधुशाला की शिकायत की तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी।


ये 1940 के आगे पीछे की घटना है - एक बार एक कवि सम्मेलन हुआ था इंदौर में। बच्चन जी तीसरे दर्जे के डिब्बे में महादेवी जी और नवीन जी की संगत में यात्रा कर रहे थे। महादेवी जी बेंच पर सो रही थीं और नवीन जी उनके सिरहाने बैठे प्रेम से उनके मुख पर पंखा झल रहे थे। रास्ते में माखनलाल चतुर्वेदी ने सबको अपने यहाँ ठहराया था। बच्चन जी अपनी आत्मकथा “नीड़ का निर्माण फिर” में कहते हैं, “उस सम्मेलन के बहुत-से चित्र मन पर हैं। मंच पर महाराजा यशवंतराव होल्कर और धन-कुबेर हुकमचन्द सेठ के बीच, अधिक नहीं तो समान गरिमा से बैठा एक ‘नंगा फ़क़ीर’” – हाँ जी ये फकीर था सभा का विशेष अतिथि मोहनदास करमचंद गांधी! अब कुछ लोगों ने गांधी के पास जाके शिकायत कर दी कि जिस सम्मेलन के आप सभापति हों उसमें बच्चन नाम का कवि मदिरा का गुण-गान करने वाला है! बड़े आश्चर्य की बात है! गांधी जी को तो कहते ही हैं कि वो एक अहिंसक तानाशाह (non-violent fascist) थे, बस फिर क्या था - ठीक आधी रात के करीब गांधी जी का फरमान पहुँच गया बच्चन बाबू के पास – और फरमान मिलते ही कवि महोदय की सिट्टी-पिट्टी गुम – क्या करें? गांधी ने बुलाया है, इंकार भी नहीं कर सकते!

“लोगों को माँगने पर भी गाँधीजी से मिलने का समय नहीं मिलता था; यहाँ तो बुलवाने की खुशी थी, और डर भी; अगर कह दें कि ‘मधुशाला’ न पढ़ा करूँ या नष्ट कर दूँ तो उनकी आज्ञा को टालना कैसे सम्भव होगा।“


तो काफी सोच विचार करके तैयार हो गए मिलने के लिए – जब सामने पहुंचे तो गांधी ने कहा कि मैंने फलां-फलां बातें सुनी हैं आपके और आपकी कविताओं के बारे में – मुझे भी अपनी मधुशाला से कुछ सुनाइए। बच्चन जी भी ठहरे तो चतुर कायस्थ – उन्होंने बहुत ही सतर्कता के साथ चुन के दो कविताएँ सुनाई – पहली तो थी – “राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला” और दूसरी थी ये वाली –


मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,

एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,

दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,

बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०।


गांधी ने जब ये सुनी तो कहा कि इसमें शराब की प्रशंसा तो कहीं नहीं दिखती – बल्कि ये तो सांप्रदायिक सद्भाव बढ़ाने वाली कविता है – “मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला” – उन्होंने बच्चन जी को हरी झंडी दिखा दी के आप बेधड़क मधुशाला और अपनी अन्य कविताएँ सुनाइए – बाद बाकी – मधुशाला का सफर यूं ही सम्मान से आगे बढ़ता रहा! इसी बात पर अगली कविता सुनते हैं -


धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,

मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,

पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,

कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला ।।१७।


धर्म और जात पात को बच्चन जी कितना महत्व देते थे – ये इन पंक्तियों में साफ झलकता है। महत्वपूर्ण बात ये है कि कंधों पर सिर हो, न कि सिर पर पगड़ी या हैट – हैट या पगड़ी सिर को नहीं बदल सकते। ऐसी ही कुछ फिलासफी हमें आचार्य रजनीश “ओशो” की बातों में मिलती है – उनके आश्रम के बाहर भी लिखा होता है कि मेरा आश्रम उन्हीं का स्वागत कर सकता है जो धर्म ग्रंथ, मंदिर मस्जिद के भेदभाव बाहर ही छोड़कर आ रहे हैं। वैसे रजनीश बच्चन बाबू से काफी प्रेरित थे – वो एक लंबी कहानी है, सो फिर कभी।


बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,

बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,

लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,

रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला ।।२०।


यहाँ भावार्थ ये है के चाहे खजाने लूट जाएं, मंदिर मस्जिद का कारोबार बंद हो जाए लेकिन जब तक पीनेवाले हैं, मधुशाला भी खड़ी रहेगी। आपका आराध्य, लक्ष्य, गंतव्य हो तो ऐसा हो के कोई भी आपको उस राह से ना डिगा सके। इरादे हों तो मधुशाला जैसे बुलंद जो आंधी तूफान गर्द गुबार के बाद भी बरकरार रहें। जैसे किसी भीषण तूफान के बाद कोई बाहर निकले, यह देखने को कि क्या टूटा-फूटा, क्या उड़-उजड़ गया, क्या बचा? वैसे ही कई बार हम भी मुसीबतों से निकलते हैं - अपनी ही पुरानी शक्ल से जुदा! जैसे बच्चन जी मधुशाला के लिए कहते हैं – “ख़ैयाम के ख़ेमों को यह भयंकर बवंडर भी न उड़ा सका था; ‘मधुशाला’ ज्यों-की-त्यों खड़ी थी, अपने सब कलश-कंगूरों, गुंबदों, मीनारों के साथ - ‘मधुबाला’ अपने गीतों को उन्हीं पहले के मोहक और मादक स्वरों में गा रही थी, जैसे उस प्रबल प्रभंजन के गर्द-गुबार ने उसके गले को छुआ ही न हो। ग़नीमत है जो बचा है पहले उसी को सँभालें।”


फिलहाल यहीं विराम...

अगले अंक में बात करेंगे मर्सिया क्या होता है, कब पढ़ा जाता है और मधुशाला में हम उसकी बात क्यों कर रहे हैं, और एक कहानी सुनेंगे लखनऊ के अदब, नाज और नखरों की!


तो चलिए, मिलते हैं फिर एक बार चाय पर – तब तक आप स्वस्थ रहिए, प्रसन्न रहिए, चाय कॉफी पीते रहिए :-)

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