अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले प्रणय की मधुशाला

A 'young' Bachchan at Cambridge University

Madhushala Podcast, Episode 24

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In the previous episode, we spoke about the extreme criticism faced by Madhushala and how Bachchan was threatened to be shot in Patna once. There was another story of the friendship of Sumitranandan Pant and Bachchan. Today, a story from Cambridge and how Bachchan was often mistaken for being younger, and some discussion on the men-women relationships.


पिछले अंक में हमने बात की थी कि कैसे मधुशाला को कई बार कटु आलोचना का सामना करना पड़ता था, यहाँ तक कि एक बार तो बच्चन बाबू को गोली मारने की ही धमकी मिल गई थी! और एक कहानी सुनाई थी कवि सुमित्रानंदन पंत जी की ज़ुल्फ़ों की। आज हम चलते हैं कैंब्रिज विश्वविद्यालय की ओर, और बताते हैं कैसे कई बार बच्चन बाबू को कम आयु का विद्यार्थी समझ लिया जाता था! पहले मधुशाला की ये चतुष्पदी - 


आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला,

भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला,

और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ,

अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले प्रणय की मधुशाला (६३)


(प्रेयसी = beloved, अधर = lips)



अर्थ और भावार्थ: कवि कहते हैं, यौवन मधुरस की हाला लेकर अपने अधरों के प्याले को जीवंत कर लो, सजीव बना लो, अर्थात full of life! और ऐसे प्याले को मेरे अधरों पर लगा कर इसे हटाना भूल ही जाना! इस मधुरस का पान तो मैं बिना थके, बिना रुके, आजीवन कर सकता हूँ – ये ही तो होती है प्रणय की, प्रेम की मधुशाला... The tavern of love and romance!


अब देखिए यहाँ रोमांस की बातें हैं, प्रणय निवेदन है – अधर ज़िंदा हो उठें, मधुरस की हाला छलक उठे – असली प्रेमी वही हैं जो प्रेम में अथक हो के डूब जाएँ! और जो पहले प्यार की पहली खुमारी होती है वो खत्म कहाँ होती है! कनुप्रिया में राधा कृष्ण से कहती हैं कि हमारा जो प्रणय है, प्रेम है, उसका आदि, उसका आरंभ तो किसी को ज्ञात नहीं है, और उसका अंत – वह तो एक ऐसी यात्रा है, जिसका कोई अंत होता ही नहीं! 

अब यहाँ यौवन की बात आई है तो बताते चलें एक किस्सा बच्चन जी के Cambridge के दिनों से - 


जब बच्चन जी PhD करने के लिए कैंब्रिज गए थे तो उम्र 44 पार थी और वो वहाँ दो वर्ष रहे थे। अब वहाँ उन दिनों विद्यार्थियों की कक्षा के, भोजन के समय और कई और मौकों पर विशेष पोशाक पहनने के नियम थे। रात के समय कहीं भी बाहर जाने के लिए कैंब्रिज के विद्यार्थियों का गाउन पहनना आवश्यक था। कोई नियम का उल्लंघन ना करे, ये जांच करने के लिए रात को प्रॉक्टर अपने दो साथियों के साथ निकलता था - और ये लोग तेज़ दौड़ने वाले होते थे ताकि भागने वाले विद्यार्थियों को पकड़ सकें। इन्हें उस समय के स्लैंग में बुल्डॉग (bulldog) कहा जाता था। जो विद्यार्थी गाउन न पहन कर सामान्य नागरिक जैसी स्वतंत्रता लेना चाहते थे, उन्हें प्रॉक्टर पकड़ कर जुर्माना लगाता था। ये नियम 26 वर्ष के ऊपर के विद्यार्थियों पर लागू नहीं होता था। अब क्यूंकि बच्चन बाबू अक्सर बिना गाउन के शहर में घूमते थे, कई बार उन्हें 26 से कम का नौजवान समझकर पकड़ा गया और पहचान पत्र में सही आयु दिखाने पर ही छोड़ा गया! कई बार इसका उलट भी होता था कि बच्चन जी गाउन पहन कर निकले और रास्ते में वहाँ के नौजवान उन्हें अपना ही साथी समझ लेते! अब ये हाल इंग्लैंड जैसे आज़ाद देश का था, कुछ फायदे, कुछ नुकसान! (बच्चन जी की आत्मकथा: क्या भूलूँ क्या याद करूँ)


ये बात कैंब्रिज तक सीमित नहीं रही थी। बच्चन बाबू को जीवन में और कई बार अपने कई समकालीन कवियों से आयु में छोटा समझा जाता था, यद्यपि वो उनसे 4-5 साल बड़े होते थे! शायद इसीलिए विज्ञापन में कहते हैं के कई बार त्वचा से किसी की उम्र का पता ही नहीं लगता! 


आज यहीं विराम, अगले अंक में बात करेंगे प्रणय की, प्रेयसी की, रोमांस की, सौन्दर्य रस की और एक चर्चा तुलसीदास जी की उक्ति पर – “ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी – सकल ताड़ना के अधिकारी”, जिस पर कई बार सवाल उठाए जाते हैं। सुनते हैं अगले अंक में...

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