सुमुखी तुम्हारा सुन्दर मुख ही, मेरी मधुशाला 

The controversy of 'Dhol Ganwar Shudra Pashu Naari'

Madhushala Podcast, Episode 25

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In the previous episode, we told a story from the Cambridge University days and how Bachchan was often mistaken for being younger, and of romance in Madhushala. In this episode, we talk about romance, of beauty and an analysis of Tulsidas’s line from Ramcharitmanas- “Dhol Ganwar Shudra Pashu Naari”. 


पिछले अंक में हमने बात की थी यौवन की और एक किस्सा सुनाया था कैंब्रिज विश्वविद्यालय का। आज करते हैं कुछ बातें प्रणय की, रोमांस की, सौन्दर्य रस की, और तुलसीदास की एक चौपाई की, और इन्हीं भावों से जुड़ी मधुशाला की ये कविता -  


सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कन्चन का प्याला,

छलक रही है जिसमें माणिक रूप मधुर मादक हाला,

मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हूँ

जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम़ वहीं गयी हो मधुशाला (६४)

(कन्चन = gold, माणिक = like a diamond)


अर्थ और भावार्थ: सुमुखी भी है, और फिर भी कह रहे हैं कि सुंदर मुख – यानी इतना अधिक सुंदर है – जैसे कंचन यानि स्वर्ण / सोने का चमकता प्याला हो। और सोने के इस सुंदर प्याले में रूप की हाला (wine) छलक रही है। और मधुशाला की महफ़िल वहीं जम जाती है जहाँ हम-तुम मिल जाएँ। अब यहाँ कवि स्वयं पीने वाले हैं और पिलाने वाले भी, इसलिए कवि की महफ़िल तो बस अपने स्वयं के साथ, अपनी कविता के साथ ही जम जाती है। 


इस कविता को मन्ना डे की आवाज़ में सुनिए, बहुत ही मधुर गाया है। कवि कहते हैं कि जहां प्रेमी और प्रेमिका की महफ़िल जम गई तो मधुशाला वहीं बन जाती है। शराबी फिल्म का एक गाना है – जहां चार यार मिल जाएँ, वहीं रात हो गुलज़ार! जैसे हम चाय कॉफी पीने वाले मधुशाला कुछ इस तरह से कहते हैं -

 

जाने ये कैसा मदिरालय, ना साकी ना है हाला

दिल के बहलाने को है, बस अब कॉफी का प्याला

फ़िर भी महफिल खूब जमेगी, ढेरों मस्ती फूटेगी

मिल बैठेंगे जब मतवाले, मिल जायेगी मधुशाला


और उसी में एक पैरडी हमारे मित्र प्रोफेसर द्वारिका ने भी जोड़ दी - 

जहां चार यार मिले, वहीं मिल जाती हमको हाला

बातों बातों में छलकता, यूँ उम्मीदों भरा वो प्याला

हर रंग के, हर ढंग के, घुटी हुई भंग के हम

जब चाहें, जहां चाहें वहीं सजाएँ मधुशाला


मतवाले जब साथ चलें, चल देती है मधुशाला

यूँ झोले में छलक उठती बोतल हो कि हो हाला

सूखा दिन हो तो क्या, मन गीला रहता हमेशा

आस लगाए साक़ी है, और पलक बिछाए मधुबाला


एक जगह पहले भी ज़िक्र किया था कि बच्चन बाबू कई बार कवि गोष्ठियों में कविता सुनने के बाद बड़ा एकाकी (अकेलापन) सा अनुभव करने लगते थे – उस अकेलेपन की अनुभूति के लिए वो कहते हैं, उन्हें लगता था जैसे वो ही वक्ता हैं वो ही श्रोता – “मैं ही साकी बनता मैं ही पीने वाला बनता हूँ।”

अब बात सुंदर सुमुखी और प्रणय की है तो बच्चन बाबू स्त्री पुरुष के संबंधों पर अपनी आत्मकथा में क्या कहते हैं –


पति पत्नी और स्त्री पुरुष के संबन्धों पर - पति-पत्नी के सम्बन्ध क्या हों, इस पर विभिन्न युगों और समाजों में तरह-तरह के प्रयोग होते आए हैं – कहीं आदर्श को आगे रखकर, कहीं वास्तविकता को। और मुझे लगता है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते’ और ‘देवी! माँ! सहचरि! प्राण!’ से उस सम्बन्ध के प्रति बहुत ही अन्याय हुआ है। नारी को पूजने का आदर्श बनाकर पुरुष ने अपने को कम नहीं पुजवाया और पीटने का अधिकार हाथ में रखकर शायद कम पीटा भी नहीं! (क्या भूलूँ क्या याद करूँ)


इसी बात पर तुलसीदास जी की एक चौपाई है – जिसके अर्थ का बहुत लोगों ने अनर्थ कर रखा है!

ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी – सकल ताड़ना के अधिकारी


इस चौपाई का अर्थ लोगों ने निकाल लिया कि ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी – इन सब को पीटना चाहिए! अंग्रेज़ों की योजना थी कि भारत के लोगों को अपनी ही संस्कृति के बारे में हीन भावना से भर दिया जाए और वो इसमें सफल भी रहे। और अब अंग्रेज़ों के छोड़े हुए कुछ लोग उन्हीं का ये काम देश में आगे बढ़ा रहे हैं, हमें अपनी ही संस्कृति, भाषा और इतिहास के बारे में हीन अनुभव करवाते रहने का! 


अब आइए इस चौपाई की गहराई में उतर कर देखते हैं। हिन्दी और संस्कृत में कई शब्दों के दो अर्थ होते हैं – 

जैसे कनक कनक ते सौ गुणी मदतकता अधिकाय!

या खाए बौराए नर, वा पाए बौराए


यहाँ एक कनक का अर्थ स्वर्ण है, अर्थात सोना, और दूसरे कनक का अर्थ है धतूरा। इस उक्ति का सार ये है कि सोने की मादकता, नशा, धतूरे से सौ गुणा अधिक होता है! धतूरे को तो लोग खा कर पागल होते हैं, लेकिन सोने को तो पा कर ही लोग बौरा जाते हैं, पागल हो जाते हैं! अब वापस तुलसीदास जी की चौपाई पर आयें –

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही – मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥

ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी – सकल ताड़ना के अधिकारी


पहली बात तो ये कि यहाँ शब्द ताड़ना है, न कि ताड़न। दोनों में अंतर है। ताड़न अर्थात पीटना, हानि पहुंचाना, किन्तु ताड़ना है उद्धार करना, तारण करना! बस एक आ की मात्रा का अंतर है! 


और गहराई में उतरें तो - ये चौपाई उस समय की है जब श्री राम समुद्र से विनती करते हैं कि वो उन्हें लंका पर चढ़ाई करने के लिए रास्ता दे दे, बहुत प्रसिद्ध है ये पंक्ति - 

विनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति। बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति।।


अर्थात, कई दिन तक विनम्र प्रार्थना करने के बाद भी जब समुद्र अपने हठ पर अड़ा रहा कि राम की सेना को मार्ग नहीं देगा, तब श्री राम क्रोधित होकर बोले कि लगता है ये प्रीति भय के बिना नहीं होगी! तो इस उक्ति में समुद्र श्री राम के कोप से भयभीत होकर प्रार्थना कर रहा है – श्री राम को समझाने का प्रयास कि जैसे ढोल गँवार शूद्र पशु नारी ये सब अपना स्वभाव अपने संगी साथी के अनुसार बदल लेते हैं! जैसे ढोल से वैसी ही आवाज निकलेगी जैसा ढोल बजाने वाला बजाए। और नारी का स्वभाव पानी जैसा कहा जाता है – जो अपना स्वरूप परिस्थिति के अनुसार बदल सकती है। शांत नदी, तूफ़ानी नदी। कभी चंद्रमुखी, कभी ज्वालामुखी! इसी तरह से समुद्र का जल है, उसका अपना स्वभाव है। समुद्र श्री राम से कहता है के जिस तरह ये सब ठीक से समझे जाने के अधिकारी हैं, वैसे ही प्रभु मुझे और मेरे स्वभाव को भी समझें और उसी के अनुरूप मेरे साथ व्यवहार करें। और एक बात सोचिए के जो राम एक स्त्री सीता को मुक्त करने के लिए समुद्र को सुखा देने को भी आतुर हैं, वो स्त्री को सताने की बात कैसे करेंगे? 


तुलसीदास जी ही की एक और चौपाई है – बाली वध के समय की – 

अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥

इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई॥


यहाँ राम जी कह रहे हैं - हे मूर्ख, सुन! छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या – ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसका वध करने से कुछ भी पाप नहीं होता। अब जो तुलसीदास स्त्रियों को इस सम्मान से देख रहे हैं, वो उन्हें नीचा दिखाने की वकालत क्यों करेंगे? किन्तु अभी भी हमारे देश में ऐसा एक बड़ा वर्ग है, जिसे हमारी संस्कृति, हमारे महाकाव्यों, हमारी भाषाओं तक में केवल खामियाँ ही दिखती हैं! 


खैर, हमारी मधुशाला सब में केवल अच्छा ही देखती है। और वैसे भी पिटाई हमेशा शरीर की ही थोड़े ही होती है। जब स्त्री पीटने पर आती है तो वो पीटने के ऐसे-ऐसे सूक्ष्म तरीके जानती है कि रोयाँ भी न छुए और सारे लच्छन झाड़ दे। तो चलिए इसी भाव पर आज विराम!


अगले अंक में बात करेंगे लखनऊ के नाज़ अदा अंदाज़ की, एक गुलफ़रोश यानि फूल बेचने वाली की और साकी आखिर पीने वालों से बोर क्यों हो गई? ऊब क्यों गई? और एक बात बताएंगे कि बच्चन बाबू ने ये क्यों कहा – “बन्द लगी होने खुलते ही मेरी जीवन मधुशाला”। मिलते हैं अगले अंक में। 

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