स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी 

Story of Lucknow and its poetic mannerism

Madhushala Podcast, Episode 26

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In the previous episode, we spoke about what Bachchan used to say about the men-women relationship and discussed a controversy often attached to a line by Goswami Tulsidas.


पिछले अंक में हमने बात की थी कि बच्चन बाबू स्त्री-पुरुष संबंधों के बारे में क्या कहते थे और चर्चा की थी गोस्वामी तुलसीदास जी की एक पंक्ति पर, जिसका सहारा लेकर अक्सर विवाद खड़ा किया जाता है – “ढोल, गँवार, शूद्र, पशु, नारी – सकल ताड़ना के अधिकारी”। आज के अंक में सुनते हैं एक किस्सा लखनऊ से।


लखनऊ में बारे में तो काफी प्रसिद्ध है कि ये शहर अपने अंदाज़-ए-गुफ़्तगू के लिए जाना जाता है! सवाल है कि क्यों मशहूर है लखनऊ की ज़बान दुनिया भर में? हिमांशु बाजपेयी की लिखी एक बहुत ही उत्कृष्ट किताब है – “किस्सा किस्सा लखनऊवा”, इस किताब में वो इस सवाल पर चर्चा करते हैं और कहते हैं कि इसी सवाल का जवाब ढूँढ़ने के लिए दिल्ली से एक साहब चले... कि चलो देखें लखनऊ में आखिर है क्या वाकई? लखनऊ वालों की ज़बान, उनका अन्दाज़-ए-बयान, उनकी गुफ़्तगू, बात करने का सलीक़ा बहुत मशहूर है। तो वो आए लखनऊ, और चारबाग़ स्टेशन से सीधे अमीनाबाद पार्क पहुँचे। पुराने समय में गुलफ़रोश यानी फूल बेचने वालियाँ वहाँ बैठा करती थीं। तो ये साहब एक सब्ज़ लिबास औरत के सामने गए जो स्वयं बड़ी ख़ूबसूरत थी, फूलों की टोकरी उसके सामने रखी हुई थी ये साहब उसे घूर-घूरकर देखने लगे। बात अजीब थी - सो गुलफ़रोश ने उन्हें बड़ी तीखी निगाहों से देखा और पूछा – “क्या देख रहे हो, क्यों देख रहे हो?” 

इस पर वो बोले – “कुछ नहीं, बस सब्ज़ साड़ी में तुझे देखा”। 

इस पर फूल वाली ने ज़रा तेवर कड़े किए और सख़्त लहज़े में पूछा – “कहाँ के रहने वाले हो”? 

तो उन्होंने झूठमूठ कहा कि हम लखनऊ के रहने वाले हैं। वो बोली – “नहीं, लखनऊ के तो नहीं हो”। 

ये बोले – “नहीं, हम लखनऊ के रहने वाले हैं”। 

उसने फिर कहा – “हो ही नहीं सकता। लखनऊ के होते तो इस तरह न कहते”। 

तो साहब ने फूल वाली से पूछा कि “अगर लखनऊ के होते तो किस तरह कहते”? 

इस पर उस फूल वाली ने कहा कि अगर लखनऊ के होते तो कहते – “सब्ज़ फ़ानूस में इक शमअ को रौशन देखा”! 


तो साहब ये है लखनऊ! और ये हैं वहाँ के नाज़ अदा अंदाज़! अब इसी बात पर मधुशाला की ये वाली कविता - 


दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साकीबाला,

भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला,

नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ,

अब तो कर देती है केवल, फ़र्ज़ अदाई मधुशाला (६५)

(फ़र्ज़ अदाई = formality)


अर्थ और भावार्थ: साकी बाला तो बस दो ही दिन मुझे मधु पीला कर ऊब उठी है, इतना बोर हो चुकी है कि बस अब प्याला भर कर सामने खिसक देती है। अब ना वो नाज़, न अदा, न प्यार से पिलाना – अब तो बस जीवन की मधुशाला जैसे एक औपचारिकता यानी फॉर्मैलिटी कर रही है, फ़र्ज़ अदाई कर रही है!


जीवन की बात करें तो ऐसा कहा जाता है कि जब प्यार में लोग जल्दी ऊब जाते हैं – जैसे कि शादी के बाद, कुछ साल बाद ही कई लोग ये शिकायत करने लगते हैं – कि रिश्ते एक समय के बाद में केवल फ़र्ज़ अदायगी ही रह जाते हैं यानी बस फॉर्मल से – सब्ज़ी लाना, खाना पकाना, अखबार पढ़ना, और आजकल तो मोबाईल पर अपनी-अपनी दुनिया में खोए रहना। वैसे project management की भाषा में शायद इसी को normalization भी कहते हैं, वो जो पाँच अवस्थाएं या stages होती हैं एक टीम के मिलने की और बनने की – forming, storming, norming, performing, adjourning.


और उर्दू शायरी में इसी भाव पर एक प्रसिद्ध शेर है – “वो दिन हवा हुए जब पसीना गुलाब था, अब इत्र भी मलो तो मोहब्बत की बू नहीं!” 

(वैसे मूल शेर में मोहब्बत नहीं, तकल्लुफ़ शब्द था और ये लिखा था लाला माधव राम जौहर ने) 


और जब रिश्ते इतने फॉर्मल से, बोरिंग से हो जाते हैं तो ग़ालिब एक शेर में क्या कहते हैं – “निकलना ख़ुल्द (paradise) से आदम का सुनते आए हैं लेकिन, बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले”

अब अगली कविता से पहले एक छोटी सी कहानी - 


1950 के दशक की बात है - इंदौर में एक कवि सम्मेलन था, प्रसिद्ध कवि शिवमंगल सिंह सुमन उसके सभा-अध्यक्ष थे। बच्चन बाबू को खास तौर पर बुलावा आया था और कवि सम्मेलन देर शाम शुरू हो के रात भर चलने वाला था। लेकिन इसी बीच तेजी बच्चन का तार आ गया कि दिल्ली से नेहरू जी का बुलावा आया है – विदेश मंत्रालय में पद ग्रहण करने के लिए – और अगले दिन ही जा के रिपोर्ट करना है! यहाँ कवि सम्मेलन की खूब तैयारी हो चुकी थी, छोड़ के जाना अत्यंत कठिन! तो बच्चन जी ने मौका निकाल कर शिवमंगल जी से इस बारे में बात की – और हालांकि सुमन थोड़ा निराश हुए लेकिन ये सुन के प्रसन्न भी हुए के स्वयं नेहरू जी ने बच्चन बाबू को बुलाया है। तो तय किया गया कि बच्चन कुछ चुनिंदा कविताएं सुनाएंगे, कुछ मधुशाला सुनाएंगे और फिर सुमन जी उनके लिए इंदौर से रतलाम तक एक कार की व्यवस्था कर देंगे ताकि समय से रतलाम से दिल्ली की रात वाली ट्रेन पकड़ सकें। और हुआ भी ऐसा ही। 


बच्चन जी उस घटना को याद करते हुए कहते हैं - “सुमन ने मेरे स्वागत और विदा में जो भाषण दिया था, वह मुझे अब तक याद है – ‘स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी।’ मेरी पंक्तियाँ मुझ पर ही जितनी सटीक बैठी हैं, शायद ही किसी और की उस समय में होंगी।” (बच्चन आत्मकथा: बसेरे से दूर)


छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लूँ हाला,

आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला',

स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,

बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला (६६)


बच्चन जी ने अपने खुद के और पड़ोसियों, दोस्तों के परिवारों में हल्की फुलकी बीमारियों से होने वाली इतनी मृत्यु देख ली थी के वो बीमारियों से तो नहीं, लेकिन उनके उपचार से अवश्य डरने लगे थे – अब होता ये था कि कविराज बीमार पड़ते तो और अधिक ज़ोर शोर से काम करने लगते, और वो इसके बारे में अपनी आत्मकथा में भी बताते हैं, बच्चन जी के शब्दों में - 


बुख़ार की गर्मी और तेजी में तो मैं और जोश से पढ़ाता – मज़दूरी करके अपनी रोटी कमानेवाले को बीमार पड़ने का क्या अधिकार है! बीमारी तो अमीरों की दोस्त है, गरीबों को उसे अपने पीछे नहीं लगाना चाहिए। और बुखार तो एक तरह की आग है जिससे अनुभूतियों में ताप आता, जिसमें गल-पिघलकर हृदय ढलता है; एक तरह की भट्ठी जो मेरे विचार, भाव, कल्पनाओं को उबाल देकर उच्छलित करती। खैर बुखार के उपचार को लेकर मैंने टालमटोल की तो श्यामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया। मैं जब तक डाक्टर को नहीं दिखाऊंगा, वह खाना नहीं खाएगी। ब्रह्मास्त्र तो मानना ही था; डॉक्टर से मिले और डॉक्टर ने एक लंबा चौड़ा नुस्खा बना के दिया जो मौत का परवाना लगा! क्या मेरी विदा का समय आ गया? क्या इतने ही दिनों के लिए आया था? इतना ही गाने, गुनगुनाने, केवल इतना श्रम-संघर्ष करने, इतने दुःख - संकट उठाने? 

‘स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी, बन्द लगी होने खुलते ही मेरी जीवन मधुशाला।’


बच्चन जी आगे कहते हैं -  मैंने डा. बी. के. मुखर्जी के पास जाकर कहा, “डाक्टर साहब, आपका इलाज बहुत महँगा है, मेरे पास आपके इलाज के लिए पैसे नहीं…” इसके पूर्व कि मैं कुछ और कहूँ या पूछूँ उन्होंने अपने बदनाम मुँहफट स्वभाव से कहा, “पैसे नहीं हैं तो जाओ मरो!(बच्चन आत्मकथा: क्या भूलूँ क्या याद करूँ)


ये अपमान भी था और एक तरह की चुनौती भी, और बच्चन बाबू को जीवन में चुनौती से बहुत बल मिलता था! 

धार को भी अति प्रबल – विपरीत उसके मोड़ देता

मैं स्वयं करता रहा हूँ – जिस तरह प्रतिरोध अपना – मानवों में कौन मेरा – उस तरह से कर सकेगा?


खैर, फिर किसी ने कविराज को आयुर्वेदिक पद्धति की स्नान-चिकित्सा बताई, क्या खाना है, कैसे नहाना है, आदतों में बदलाव, आदि! कठिन था, लेकिन जब सम्पूर्ण इच्छा शक्ति से ये सब किया तो मसला हल हो ही गया और कविराज बीमारी से सुरक्षित निकल आए - ‘राह पकड़ तू एक चलाचल पा जाएगा मधुशाला’। 


चलिए आज यहीं विराम। अगले अंक में बात करेंगे जीवन के घुमावों की, और जब बच्चन बाबू को नेहरू ने दिल्ली में विदेश मंत्रालय के हिन्दी विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त किया था, उस समय देश में अंग्रेज़ी का हिंदीकरण किस तरह की तिकड़म से निकल रहा था। 

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