ठुकराते मंदिर मस्जिद, पालक बिछाती मधुशाला

Story of Bachchan family's social boycott

Madhushala Podcast, Episode 22

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In the previous episode, we shared a story from the life of Dr Harivansh Rai Bachchan’s father, that how he alone stood up to a mob to stop a communal riot in their colony and was successful too. There was also a story about how adamant or determined Bachchan himself was as a young boy. Today, let’s hear another one from those days, essence of which is reflected in our poem today.


पिछले अंक में हमने एक किस्सा सुनाया था श्री हरिवंश राय बच्चन के पिताजी का कि कैसे वो एक बार हिन्दू मुस्लिम दंगा रोकने के लिए स्वयं ही लाठी उठाकर खड़े हो गए थे और लोगों को समझाने में सफल भी रहे थे, और एक बात बच्चन बाबू की ज़िद के बारे में। चलिए आज के अंक में इसी तरह की एक और कहानी सुनते हैं। मगर उससे पहले उस बात से जुड़ी मधुशाला की ये कविता - 


श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला,

सबक बड़ा तुम सीख चुके यदि सीखा रहना मतवाला,

व्यर्थ बने जाते हो हिरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे,

ठुकराते हिर मंदिर वाले, पलक बिछाती मधुशाला (५८)


बच्चन जी के लड़कपन का एक किस्सा है – उनके मोहल्ले में एक कायस्थ दम्पत्ति था, पति की मृत्यु हो गई – विधवा बच्चों को लेकर कहाँ जाए? वहाँ बाहर से आए एक सरदार जी थे जिन्होंने नौकरी और रहने में कुछ मदद कर दी किन्तु कुछ समय बाद ही सरदार जी भी चल बसे। लेकिन उनके रिश्ते को समाज ने स्वीकार न करते हुए उनका बहिष्कार कर दिया – उस परिवार से रोटी-बेटी का व्यवहार बिल्कुल बंद। कुछ समय बाद उसी परिवार की एक सयानी लड़की का विवाह एक कायस्थ परिवार में तय हुआ – लेकिन लड़के वालों ने शर्त रख दी कि कुछ एक अच्छे कायस्थ घरों के लोग यदि उनके यहाँ खाने पर आ जाएँ तभी शादी स्वीकार होगी! अब ये जो बहिष्कृत परिवार था, काफी भले लोग थे – बड़े विनम्र और सब की सेवा करने को तत्पर। लोगों के काम में मदद करने आते लेकिन खाने के समय गायब हो जाते, क्यूँकि वो जानते थे कि लोग उन्हें अपने साथ बिठलाकर नहीं खिलना चाहेंगे। बहरहाल, बच्चन जी अपने उदार विचारों के चलते इस परिवार से सहानुभूति रखते थे, तो वो अपने कुछ चचेरे भाई और दोस्तों के साथ उस परिवार में खाने के लिए तैयार हो गए। उन लोगों ने बड़ी आवभगत से खाना खिलाया – और इतना प्रसन्न हुए कि उनकी आँखों में आभार और उपकार के आँसू झलक उठे! 


दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,

ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,

कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?

शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला (४६)

(more details in episode 11)

अब इस बात से बच्चन जी के चाचा लोग और कुछ दकियानूसी रिश्तेदार जले-भुने बैठे थे। कुछ समय बाद, जब बच्चन जी के भाई शालिग्राम का गौना हुआ, तो उसके बारे में बच्चन जी बताते हैं, “रिश्तेदारों को भोज के लिए न्योता भेजा गया, समय दिया था रात 8 बजे का – 8 बज गए, 9 बज गए, 10 बज गए, रात 11 बजे तक कोई नहीं पहुंचा! तब किसी से पता लगा के रिश्तेदार इसलिए नहीं आए क्यूँकि हमने एक बहिष्कृत परिवार में भोजन कर लिया था – इतना ही नहीं, दूसरे लोगों को भी चेतावनी दी गई थी के इस घटना के बाद यदि कोई बच्चन परिवार के यहाँ भोज पर गया तो उसका भी जाति समाज से बहिष्कार कर दिया जाएगा! और शायद इसी डर से शालिग्राम के गौने पर कोई नहीं आया। पिताजी बड़े दुखी हुए क्यूँकि अभी घर की एक बेटी ब्याही जानी थी।” 


तब युवा हरिवंश राय ने पिताजी को समझाया कि क्या हुआ अगर बिरादरी ने हमें छोड़ दिया – “अब हम मानव परिवार के सदस्य हैं!”


मुसलमान औ' हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,

एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,

दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,

बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला! (५०)

(more details in episode 9)



बच्चन जी ने अपनी आत्मकथा में भी सामाजिक भेदभाव के बारे में काफी बात की है, उसे नकारने के कई तर्क और उदाहरण भी दिए हैं, जैसे एक कायस्थ क्षत्रिय की भूमिका क्यों नहीं निभा सकता? अब जैसे बच्चन जी का परिवार तो कायस्थ था फिर भी उनके परबाबा स्वयं एक नायाब सूबेदार थे जो तलवार चलाने में भी उस्ताद थे और लड़ाइयों में भाग लेते थे! वो बातें विस्तार से फिर कभी सुनाएंगे, फिलहाल यहीं विराम लेते हैं।

 

अगले अंक में सुनाएंगे एक बहुतेही रोचक किस्सा – काफी लोगों ने रामवृक्ष शर्मा बेनीपुरी जी का नाम सुना ही होगा, हिन्दी साहित्य में बड़ा नाम हैं, तो अगले अंक में बताएंगे उन्होंने मधुशाला के बारे में क्या लिखा, बच्चन बाबू को क्या धमकी थी, और फिर क्या हुआ। और एक बात बताएंगे सुमित्रानंदन पंत जी की ज़ुल्फ़ों से जुड़ी हुई – क्योंकि कहते हैं के कवियों में ज़ुल्फ़ें हों तो पंत जी जैसी हो, वरना न ही हों!


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