स्वाभिमान और प्रथम संकोच

Hesitation, self-respect and being an introvert

Madhushala Podcast, Episode 20

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In the previous episode, we spoke about ‘Rambha’, one of the apsaras (nymph, fairy) from Indralok (heavens), and Apsaras in the life of Dr Bachchan. There was also a story of Yagna and Som-Sura and a word Dron-Kalash. Today, we talk about the initial hesitation, self-respect, moving beyond and that humans can do anything with their own abilities.


पिछले अंक में हमने बात की थी स्वर्ग और धरती की अप्सराओं की, रंभा की, अप्सराओं के साथ यज्ञ की, सोम सुरा की और एक शब्द के बारे में बताया था – द्रोण कलश। आज कुछ बातें स्वाभिमान की, कुछ संकोच की, कुछ पहली हिचकिचाहट की, और उससे आगे बढ़ने की और यदि इंसान में सामर्थ्य हो तो वो क्या कुछ नहीं कर सकता!


कहते हैं लुढ़कते रहने वाले पत्थरों पर काई नहीं लगती (जैसे कि rolling stones) और बहते हुए पानी में मच्छर नहीं पैदा होते!


बार-बार मैंने आगे बढ़, आज नहीं माँगी हाला,

समझ न लेना इससे मुझको, साधारण पीने वाला,

हो तो लेने दो ऐ साकी, दूर प्रथम संकोचों को,

मेरे ही स्वर से फिर सारी, गूँज उठेगी मधुशाला (६०)


कितनी बार मैं आगे बढ़ा, लेकिन हिचकिचाता रहा के हाला मांग लूँ या नहीं, और कभी माँग नहीं पाया। किंतु इस कारण से मुझे कोई साधारण शर्मीला पीने वाला मत समझ लेना – एक बार मेरी शुरुआती हिचकिचाहट निकल गई तो बस सारी मधुशाला में मेरी ही आवाज़ गूँजेगी!


इन पंक्तियों में एक भाव प्रेम में संकोच का भी है – शुरुआत में हिचकिचाहट होती है – मगर एक बार प्रेमी उससे आगे निकल जाए तो फिर क्या नहीं कर गुज़र जाए। यहाँ ओशो और बच्चन जी के बीच का हल्का-फुल्का तर्क वितर्क याद आता है – बच्चन जी ने उन्हें अपनी कविता सुनाई – इसलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो। ये सुन के ओशो ने कहा के प्रेमी ने खड़े रहकर ही गलती कर दी, सीधे प्रेमिका के द्वार पर जाकर दस्तक देनी थी। इसके जवाब में बच्चन जी एक और कविता सुनाई थी लेकिन वो किसी और एपिसोड में बताते हैं।


फिलहाल यहाँ मधुशाला के संदर्भ में ठीक ही कहा है – कई सारी शुरुआती दिक्कतें थी जब पहली बार मधुशाला की किताब प्रकाशित करवानी थी, लेकिन एक बार मधुशाला प्रेस से निकल गई तो देखिए कैसे लाखों लाख लोगों तक पहुँच चुकी है, उसके शब्द और सुर आज तक गूंज ही रहे हैं, ये कहानी हमने सुनाई थी एपिसोड 15 में(Click here to play), आप भी सुनिएगा। आप सोचिए, मधुशाला लिखी गई थी 1935 में, लेकिन अभी हाल ही में पोलैंड की एक यूनिवर्सिटी के कुछ पोलिश छात्रों ने मधुशाला को गाकर उसका YouTube विडिओ भी बनाया है (watch here), इतना ही नहीं, अब तो हम मधुशाला पर पॉडकास्ट भी बना रहे हैं और इसे ही करीब 2 लाख लोग अब तक सुन चुके हैं!


इस कविता में एक भाव स्वाभिमान का भी है, जैसे कि मधुशाला का प्रेमी साधारण तो हो नहीं सकता – वो कुछ भी मांग कर क्यूँ ले, याचना करके क्यों ले? वो तो अपनी सामर्थ्य और अधिकार के बल पर लेगा! स्वाभिमान की बात पर मेरी एक बहुत ही प्रिय कविता है, जिसका शीर्षक है – “है अमित सामर्थ्य मुझमें”, इसे आप YouTube पर सुन सकते हैं, जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस तरह है


है अमित सामर्थ्य मुझमें, याचना मैं क्यूँ करूंगा – रुद्र हूँ विष छोड़ मधु की कामना मैं क्यूँ करूंगा

मार दी ठोकर विभव को बन गया क्षण में भिखारी - किन्तु फिर भी जल रही क्यों द्वेष से आँखें तुम्हारी

आज मानव के हृदय पर राज जब मैं कर रहा हूँ - फिर क्षणिक साम्राज्य की भी कामना मैं क्यों करूँगा

(Full poem and episode on Arisudan.com)

अब जब कवि शुरुआती संकोच और हिचकिचाहट से आगे बढ़ जाते हैं तो कहते हैं के संकोच करके क्या पाया! जीवन की मधुशाला एक ही बार मिलती है तो संकोच करके व्यर्थ मत करो, जो जी में आए कर डालो, बकेट लिस्ट बना के मत रखो, वरना बकेट में जंग लग जाएगा तो लिस्ट पानी की तरह बह जाएगी! इंग्लिश का एक बड़ा सुंदर सा गाना है न – there is a hole in the bucket, dear Liza, dear Liza. So, fix it, dear Henry, dear Henry! (Watch here)

इसलिए कहते हैं – जो करने आए हो, कर डालो, निःसंकोच, निस्संदेह, निडरता से!


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अब संकोच के विषय में एक और बात है, अब से 10-20 वर्ष पहले तक इन्ट्रोवर्ट (introvert) होने को एक कमजोरी समझा जाता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से इन्ट्रोवर्ट होना सम्मान की बात समझा जाता है, आजकल लोग अपने परिचय में, CV में बड़ी शान से लिखते हैं के वो इन्ट्रोवर्ट हैं! इसलिए कहते हैं कि आप जो हैं, जैसे हैं, अपनी शक्ति, अपने सामर्थ्य को पहचानें और उसके अनुसार संसार में अपना स्थान बनाएं। वैसे आप सोच कर बताइए कि इन्ट्रोवर्ट को हिन्दी में क्या कहेंगे? तब तक अगली कविता सुन लेते हैं -


आज मिला अवसर, तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हाला

आज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला,

छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ,

एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला (६२)


यहाँ एक बहुत ही सुंदर फिलसाफिकल मैसेज है के एक ही जीवन है, 84 लाख योनियों से निकलने के बाद मानव जीवन मिलता है – एक ही बार जीना है तो क्यूँ न जी भर के जियें – stop surviving, start living या कहें – Life after all is a long weekend.


"काल करे सो आज कर, आज करे सो अब । पल में प्रलय होएगी,बहुरि करेगा कब"


लेकिन यहाँ एक Disclaimer दिए देते हैं के भाई – साकी बाला से छेड़छाड़ अपनी खुद की जिम्मेदारी पर करें - do not try this at home, or outside! लेकिन फिर भी आज में जीने के नाम पर कुछ करना है तो – मर्जी है आपकी, आखिर सर है आपका!


अब अगले अंक में सुनाएंगे एक किस्सा बच्चन जी के पिताजी का कि कैसे उन्होंने एक बार लाठी उठाकर धार्मिक दंगे को भड़कने से रोक लिया था, और एक बात ये कि बच्चन जी और उनके पिता के बीच किस तरह के तर्क होते थे, उनमें मौन का महत्व, और सुनाएंगे एक कविता जहां मधुशाला साम्यवाद के बारे में कुछ कहती है।


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