पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक है मधुशाला

The story of Madhushala becoming a book

Madhushala Podcast, Episode 15

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In the previous episode, we discussed the idea of “Life is a long weekend” in Madhushala and what Dr Bachchan said about the convergence of happiness and sorrow in one’s life – and its reflection in Madhushala. In this episode, let’s talk about the struggles behind publishing Madhushala as a book for the first time.


पिछले अंक में हमने बात की थी कि मधुशाला में Life is a long weekend की फिलासफी कैसे दिखाई देती है, और जीवन में सुख और दुख के साथ आने की बातें, और वो मधुशाला की कविताओं में कैसे झलकती हैं! आज सुनाते हैं कहानी कि मधुशाला को पहली बार किताब के रूप में आने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े थे!


जैसा कि हमने एपिसोड 3 में बताया था कि कैसे बच्चन जी ने pioneer प्रेस में गश्ती एजेंट का काम करते हुए मधुशाला की एक-एक चतुष्पदी लिखी थी। इस नौकरी के बाद उन्होंने अभ्युदय प्रेस में काम करना शुरू किया। तब तक बच्चन कई कवि गोष्ठियों में मधुशाला की कविताएं सुना चुके थे और इसकी कुछ चुनिंदा रुबाइयाँ कुछ पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हुई थी। अभ्युदय प्रेस के मालिक एक मालवीय साहब थे, उन्होंने बच्चन बाबू को प्रस्ताव दिया कि उनकी प्रेस में मधुशाला को मुफ़्त में प्रकाशित करवा देंगे किंतु रॉयल्टी देंगे कुछ हज़ार प्रतियां बिकने के बाद ही! अब क्यूंकि बच्चन साहब मालवीय जी की नौकरी कर रहे थे तो अपनी शर्तें तो क्या ही रखते, फटाफट तैयार हो गए। मालवीय जी ने प्रकाशित करने का वादा तो कर दिया – मगर फिर दिन बीते, हफ्ते बीते, महीने निकल गए और प्रकाशन का नाम नहीं – बच्चन जी जब भी पूछते तो हमेशा कोई न कोई बहाना, कभी प्रेस खराब, कभी कागज़ नहीं!


अब कविराज को लगने लगा कि ऐसे तो मधुशाला प्रकाशित होने से रही। तब उन्होंने अपने कुछ दोस्तों के साथ सलाह मशविरा किया और कानूनी सलाह भी ली। फिर तय हुआ कि पहले मालवीय साहब को एक लीगल नोटिस भेजा जाए कि अगर फलां तारीख तक मधुशाला प्रकाशित नहीं हुई तो बच्चन जी स्वतंत्र होंगे इसे कहीं और से प्रकाशित करवाने के लिए। लीगल नोटिस भेज दिया गया और साथ में बच्चन जी ने अपने ही बूते पर मधुशाला को किताब के रूप में छापने की तैयारियां भी शुरू कर दी – किश्तों पर कागज़ जुटाए गए और जो उनका पुराना विद्यालय था, अग्रवाल विद्यालय, वहाँ की एक प्रिंटिंग प्रेस को प्रयोग करने की बात हुई और क्योंकि बच्चन जी के पिताजी खुद एक प्रेस में काम कर चुके थे तो वो operations का काम देखने लगे और छोटे भाई शालिग्राम जो बैंक में काम करते थे, उन्होंने रुपये-पैसे का काम देखा। इस बीच लीगल नोटिस की तारीख भी निकल गई। तब तक बच्चन जी अपने बूते पर जोड़ तोड़ का जुगाड़ करके किताब छापने का प्रबंध कर चुके थे। और इस तरह उनकी अपनी प्रकाशन संस्था का जन्म हुआ जिसे नाम दिया गया – “सुषमा निकुंज”। मधुशाला की पहली प्रति एक पॉकेट बुक की शक्ल में सुषमा निकुंज प्रेस से ही प्रकाशित हुई और यहीं से किताब के रूप में मधुशाला का सफर शुरू हुआ – और फिर इसी प्रेस से आगे चलकर मधुबाला और मधुकलश भी प्रकाशित हुईं।


एक और छोटी सी कहानी भी है - बच्चन साहब जब पहली छपी कुछ प्रतियां लेकर जा रहे थे तो रास्ते में एक परिचित मिले – बच्चन साहब ने उन्हें एक प्रति भेंट करनी चाही तो उन्होंने कहा के मुफ़्त तो लेंगे नहीं, कहते हैं मुफ़्त की शुरुआत अच्छी नहीं होती – उन्होंने पूरी कीमत देकर बच्चन बाबू से किताब खरीदी और दुआ दी कि इसकी लाखों-लाख प्रतियां बिकें – और देखिए, करीब एक शताब्दी बाद ये किताब आज किन्डल पर है और खरीदी भी जा रही है। उतना ही नहीं, देखिए अब तो मधुशाला पर पॉडकास्ट भी बन रही हैं :-)


“कभी न कण भर खाली होगा लाख पियें दो लाख पियें – पाठक गण हैं पीने वाले, पुस्तक मेरी मधुशाला”


भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,

कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,

कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!

पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला (4)


मधुशाला तो अनुभवों, भावनाओं, कल्पनाओं के निचोड़ से बनी प्रेम-मदिरा है, ये कैसे खत्म हो सकती है, जब तक लोग अपने खट्टे मीठे जीवन अनुभवों की झलक इसके प्यालों में देखते रहेंगे, ये हाला यूं ही छलकती रहेगी। और जैसे बच्चन जी के मित्र मनोरंजन प्रसाद जी ने भी कहा था –


भर-भर कर देता जा, साक़ी मैं कर दूँगा दीवाला,

अजब शराबी से तेरा भी, आज पड़ा आकर पाला,

लाख पिएँ, दो लाख पिएँ, पर कभी नहीं थकनेवाला,

अगर पिलाने का दम है तो, जारी रखें यह मधुशाला।


शुरुआती वक़्त में मदिरा की प्रशंसा के लिए लोगों ने मधुशाला की खूब निंदा आलोचना की थी – यहाँ तक की बच्चन जी को गोली मारने की धमकी भी मिली थी – मगर साथ ही कुछ लोगों ने इसमें सूफी वाद और जीवन वाद की झलक भी देखी – जैसे हर रुबाई किसी न किसी की अपनी कहानी हो। आगे भी कुछ इसी तरह कहा है –


मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,

भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,

उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,

अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला (5)


अब यहाँ दो-तीन बातें कह दी कविराज ने – एक तो ये कि लोग भले ही कुछ भी कहते रहें हम अपने मन की भावनाएँ मधुर ही रखें और वो ही हमारे शब्दों और कविताओं में भी झलकें – positive attitude की भी बात है। दूसरा पहलू ये है कि जब आप अपने में ही खुश हों तो बाकी चीजों से क्या लेना देना – “स्वांत: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा” – Like being happy in lockdown isolation. Wants vs needs की लड़ाई – कितने थोड़े में गुज़ारा चल ही रहा था। इस कविता में कल्पना की बात भी आई है तो बताते चलें कि कविताएँ जो होती हैं वो यथार्थ और कल्पना के बीच एक सेतु का काम करती हैं और सेतु के रूप में ये प्राकृतिक या organic रिश्ता खुद कवि बनाता है।


मधुशाला के शुरुआती दिनों की बात है - बच्चन साहब ने एक बार कहा था – “मैं ही वक्ता, मैं ही श्रोता हूँ या ये कहें कि अकेलेपन की अभिव्यक्ति है” – ये बात हुई जब एक बार कविता पाठ करके कविराज वापस अपने कमरे में आए और बड़ा उदास हो गए! शायद कविता से कुछ भावना जागी हों जो बेचैन कर देती हैं। कवि के शब्दों में – “कविता पाठ के समय लगा कोई और सुना रहा है और मैं सुन रहा हूँ, लेकिन अकेले में - मैं ही श्रोता, मैं ही वक्ता – अपने ही में हूँ मैं साकी पीने वाला मधुशाला” (क्या भूलूँ क्या याद करूँ)


मनोविज्ञान भी ऐसा ही कुछ कहता है के जब आप किसी त्रासदी (Tragedy) से निकलें हों – आप के आस पास एक support system जैसा होता है – परिवार, पड़ोसी, मित्र, सहकर्मी या काम में मन लगा होता है – लेकिन ज्यों ही आपका सर तकिये को छूता है, आप सोने जाते हैं, आप अकेले होते हैं – नींद में तो अकेले ही जाना होता है न – उस वक्त सिर्फ आप हैं – कहने वाले भी, सुनने वाले भी – नींद भी आपकी, सपने भी आपके, और अकेलापन भी आपका।


आज यहीं विराम – अगले अंक में सुनेंगे एक किस्सा कर्ण और अर्जुन का और एक कहानी Yin-Yang की कि कैसे विज्ञान में amazon के घने जंगलों की बारिश और सहारा रेगिस्तान से उड़ने वाली धूल का एक दूर का लेकिन गहरा रिश्ता है। तब तक, स्वस्थ रहें, प्रसन्न रहें :-)


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