कर्ण अर्जुन और कोयल की तपस्या

A story from Mahabharat and Koyal's penance

Madhushala Podcast, Episode 16

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In the previous episode, we talked about the the Bachchan's struggles for publishing Madhushala as a book for the first time, and then the blessings that he received. We also spoke about "Wants vs Needs". In this episode, let's take a walk towards Hastinapur and meet Karna and Arjun there :-)


पिछले एपिसोड में हमने कहानी सुनाई थी कि मधुशाला को पहली बार किताब के रूप में प्रकाशित होने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े थे, कैसे बच्चन जी को ये काम अपने ही हाथों में लेना पड़ा था और मधुशाला को शुरू में ही क्या आशीर्वाद मिला था, और एक बात की थी Wants vs needs की लड़ाई की। आज हम चलते हैं हस्तिनापुर की ओर, और बात करते हैं कर्ण और अर्जुन की।


ये महाभारत काल वो समय है जब गुरु द्रोणाचार्य कौरव और पांडव राजकुमारों को शिक्षा दे रहे थे। एक बार गुरु द्रोण ने अपने शिष्यों की धनुर्विद्या की परीक्षा ली – निशाना लगाना था एक लंबे ऊंचे अशोक वृक्ष पर एक चिड़िया की आँख पर। लेकिन निशाना लगाने से पहले गुरु द्रोण सबसे एक प्रश्न करते हैं कि तीर को लक्ष्य पर साधते हुए आपको क्या-क्या दिखाई दे रहा है?


सबके उत्तर अलग अलग – किसी किसी को पेड़ और चिड़िया दिखी, किसी को चिड़िया के साथ हिलते हुए पत्ते दिखे, किसी को चिड़िया का पूरा चेहरा दिख रहा है। अंत में द्रोण के प्रिय शिष्य की बारी आई, अर्जुन, जो सबसे धुरंधर धनुर्धर हैं, जब द्रोणाचार्य ने अर्जुन से पूछा कि उन्हें क्या दिख रहा है – अर्जुन ने कहा, “गुरुदेव, मुझे तो न अशोक का वृक्ष दिख रहा है, न पत्ते, न कोई चिड़िया, मुझे दिख रही है केवल चिड़िया की आँख!” इतना गहरा ध्यान था अर्जुन का। लेकिन इस परीक्षा के बाद जब अश्वत्थामा ने अकेले में कर्ण को ये ही लक्ष्य भेदने के लिए कहा, और वही सवाल कर्ण से किया कि बताओ तुम्हें क्या दिखता है, तो कर्ण ने कहा – “मुझे तो कुछ भी नहीं दिख रहा! मुझे तो ऐसा लग रहा है कि कर्ण तो कर्ण रहा ही नहीं, वह खुद बाण बन चुका है, और यह बाण जब धनुष से निकला तो कर्ण बाण की नोक बन गया, जब इसने लक्ष्य को भेद – तो वह लक्ष्य भी केवल कर्ण ही था!” ये होता है ध्यान और एकाग्रता, और ये होती है एकाग्रता की पराकाष्ठा!


मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,

हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,

ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,

और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला (8)


जीवन की जटिलताओं का चित्रण है – मंजिल कभी दूर कभी पास लगती है – बिना उलझन, या बिना संघर्ष किए कुछ मिल जाए तो क्या मज़ा!

कवि ने समाधान भी दे दिया – जैसे शाहरुख खान की एक फिल्म का डायलॉग भी था – “किसी चीज को इतना शिद्दत से चाहो के सारी कायनात उसे तुमसे मिलाने की साजिश करने लगे!” वैसे ही यहाँ कहा है –


Desire हो, Discipline हो, Dedication हो तो फिर मंजिल क्यूँ न मिले?

मन में साकी हो, कुछ और न बाकी हो - कदमों में चुस्ती, आँखों में मस्ती, हाथों में प्याला, अधरों पर हाला – मन में मधुशाला


लगन और तपस्या की बात हुई है तो अब ज़रा यज्ञ भूमि की ओर चलते हैं – यहाँ पृष्ठभूमि में है एक रमणीय तपोवन, तपोवन वो वन होता है यहाँ ऋषि मुनि तपस्वी विचरण करते हैं। यहाँ कवि स्वयं एक तपस्वी हैं, मधुशाला उनकी तपस्या और तपोवन है – यहीं यज्ञ है, यहीं ध्यान समाधि है। हर मदिरा पीने वाले ऋषि मुनियों जैसे ही तो ध्यान में खोया होता है – या कहें मग्न तो होता ही है।


यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला,

ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला,

मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकीबालाएँ,

किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला (54)


जिस भट्टी में तप के मधु बनती है, वो यज्ञ अग्नि जैसी धधक रही है, और हर मदिरा पान करने वाला ऋषि मुनियों जैसे ध्यान में खोया है, अपनी ही दुनिया में रमा। यहाँ मुनि कन्या साकी बाला की भूमिका में हैं – और कवि की ये मधुशाला क्या किसी तपोवन से कम है, जहां पीने वाले ऋषि मुनियों की तरह ही दुनिया की माया से ऊपर उठ चुके होते हैं।


वैसे साहित्य और दर्शन की दृष्टि से बात करें तो - हमारे ऋषि मुनियों ने सृजनशील मनुष्य को ‘सोम’ और ‘अग्नि’ का मिश्रण या विरोधाभास माना है – जैसी यज्ञशाला वैसी मधुशाला - ‘यज्ञ अग्नि-सी धधक रही है मधु की भट्ठी की ज्वाला’। सृजनशीलता या creative process वह बहती हुई हाला है जो लपट उठाती हुई चलती है – समगति, विषम-गति के साथ ऊर्ध्वगति यानि हमेशा ऊपर उठती हुई – a beautiful chaos called fire or a poem!


तपस्या की बात पर, श्री कृष्ण की कहानियों में कहीं एक किस्सा आता है जहां द्वारिका में पारिजात पुष्पों के आगमन के प्रसंग में श्वेत-कोकिल का वर्णन है। कोयल वैसे तो काली होती है किंतु कहते हैं कि पारिजात पुष्पों की महक इतनी मोहक है कि श्वेत-वर्णी या सफेद रंग की कोयल भी उससे आकर्षित हो जाती है – और ये कवि की असीमित कल्पना ही है जो कह सकती है कि कोकिल या कोयल तो पहले गौर वर्ण या श्वेत होती थी, किंतु काली तो वह मधुर कण्ठ पाने के लिए तपस्या करने से हो गई है -

"कौन तपस्या करके, कोकिल, इतना सुमधुर स्वर पाया, कौन तपस्या करके, कोकिल, काली कर डाली काया।"

वैसे कहते हैं की मादा कोयल अपने अंडों को कौवे के घोंसले में रख देती है क्यूँकि उनके अंडे एक जैसे दिखते हैं – और मादा कौवा होती है वो उनको अपना ही अंडा समझ कर सेती है – लेकिन जब कोयल के बच्चे अंडे से बाहर निकल उड़ते हैं – अपना पहला मधुर राग छेड़ते हैं – तब पता लगता है के ये तो कोयल है – आप बताइएगा क्या इस कहानी में आपको कर्ण के जीवन की भी झलक दिखाई देती है? यदि हाँ तो कैसे?

(मृत्युंजय, शिवाजी सावंत)


आज यहीं विराम। अगले अंक में बात करेंगे – Amazon rain forest यानी Amazon के घने बरसाती जंगलों और सहारा के सूखे रेतीले रेगिस्तान का आपस में क्या रिश्ता है, यहाँ Yin-Yang का क्या संदर्भ है और मधुशाला में ये बातें कहाँ से या गई! और एक कहानी बच्चन जी के बचपन की, फिर से चमारिन अम्मा से जुड़ा एक किस्सा।


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