अविरत मरघट और जीवंत मधुशाला

Every day is Holi, night Diwali in Madhushala

Madhushala Podcast, Episode 14

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In the previous episode, we shared a ‘shayarana’ banter between Ghalib, Iqbal, Faraz, et al. We also discussed the story of Professor Amarnath Jha, who was a mentor to Dr Bachchan and how he had decided about his last rituals even when he was alive. Let’s talk about the happiness and sorrow coming together in life and what it means when we say, "life is a long weekend".


पिछले अंक में हमने बात की थी मंदिर मस्जिद मदिरालय के बारे में नोकझोंक भरी कुछ शेरो-शायरी की – ग़ालिब, इकबाल, अहमद फराज़ आदि और बात की थी बच्चन जी के गुरु प्रोफेसर अमरनाथ झा की और उन्होंने अपनी मृत्यु के बारे में पहले से ही क्या तय कर लिया था! आज सुनते बातें सुख और दुख के साथ आने की -


सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,

सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला,

धूमधाम औ' चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,

जगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला (22)


यानी सब खत्म हो जाए तो भी सुंदर साकी बरकरार रहेगी, हलाहल और हाला बने रहेंगे, चाहे दुनिया भर की धूमधाम खत्म हो जाए – मधुशाला की धूम यूं ही बनी रहेगी!


इस कविता में दो भावनाएं दिखाई देती हैं – एक तरफ जहां दुख है, दूसरी तरफ सुख की बातें – जैसे, “सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ' हाला!”

इस बात पर बच्चन साहब के जीवन की एक कहानी याद आती है – उनकी बहन की शादी का अवसर था और उसमें सम्मिलित होने के लिए जब उनके भाई शालिग्राम अपनी पत्नी के साथ आए तो पता लगा कि उनकी पत्नी के पैर भारी है, वो गर्भवती (pregnant) हैं, मगर साथ ही उन्हें एनीमिया की बीमारी भी है। बीमारियों के बारे में बच्चन जी लिखते हैं कि बीमारियाँ इस घर में अब अति परिचित-सी अवज्ञा-योग्य हो गई थीं – यानी इतने लोगों को इतनी तरह की गंभीर बीमारियाँ हो चुकी हैं कि उन्हें अब कोई seriously लेता भी नहीं, बस उनकी उपेक्षा (ignore) कर देते हैं।

खैर, इलाज सामर्थ्य के अनुसार होता रहा। समय से एक बच्ची हुई, पर थोड़े ही काल के अन्तराल से बच्ची और बच्ची की माँ दोनों का देहावसान हो गया। शादी और मौत जैसे हाथ में हाथ डाले घर में आई थी। एक दिन घर से डोली निक़ल गई। एक दिन घर से अर्थी निकल गई। डोली और अर्थी के जीवन में साथ-साथ आने पर ही कहा है - जगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।


वैसे इस बात का एक और पहलू भी है –

चहल-पहल धूम-धाम के बाद एक सूनापन-खालीपन बाहर-भीतर घिरता है, फिर जीवन धीरे-धीरे सामान्य हो जाता है। ‘दिन को होली रात को दिवाली रोज..' कवि-कल्पना है: हो भी तो साधारण मनुष्य शायद ही उसके तूफ़ान को बर्दाश्त कर सके। दिनानुदिन का जीवन-क्रम क्या कम आकर्षक है? ये बात बच्चन बाबू ने सोची थी एक उत्सव खत्म होने पर जब अचानक से सारी चहल पहल खत्म हो गई थी। (दशद्वार से सोपान तक)


इसी तरह की एक और कविता है –

जीवन में दोनों आते हैं, मिट्टी के पल सोने के क्षण

जीवन से दोनों जाते हैं, पाने के पल, खोने के क्षण,

हम जिस क्षण में जो करते हैं, हम बाध्य वही हैं करने को

हँसने का क्षण पाकर हँसते, रोते हैं पा रोने के क्षण।

अब मधुशाला की अगली कविता सुनते हैं -


बुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, चंचल प्याला,

छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,

जैसा पहले कहा था, बच्चन जी ने मधुशाला की कई पंक्तियों को बड़ा ही संगीतमय सा बना दिया है – इसे हिन्दी में अलंकार कहते हैं, अलंकार अर्थात कविता का आभूषण – “अलंकार करोति इति अलंकार:” अर्थात जो अलंकृत करे वही अलंकार है, जैसे इन पंक्तियों में अनुप्रास अलंकार जीवंत हो उठता है -


छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,

पटे कहाँ से, मधुशाला औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं, -


मधुशाला और जग यानी दुनिया की जोड़ी बड़ी ही बेमेल है – जैसे कोई odd couple हो! और ऐसी जोड़ी बनेगी कहाँ से और क्यूँ? क्यूँकि आगे कहते हैं -


जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला (23)


यानी दुनिया को तो बुढ़ापा या गया है और जर्जर होती जा रही है – और वहीं मधुशाला – वो तो हर पल हर दिन नई नवेली नव-यौवना होती जा रही है – मधुशाला में हम कहते ही हैं न – life is a long weekend! अब अगली पंक्तियाँ भी ठीक ये ही कहती हैं, कुछ अलग और सुंदर शब्दों में, जो की मधुशाला की सबसे चर्चित पंक्तियों में से हैं -


एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,

एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,

दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,

दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला (26)


यहाँ भी एक दार्शनिक विचार है या कहें philosophical बात, कविता में कहें तो जीवन-वाद। मधुशाला अपने मन का दर्पण ही तो है – जो दुनिया की रस्मों, बंधनों, त्योहारों इत्यादि से ऊपर उठ चुकी है – यहाँ तो हर पल ही एक जश्न की तरह है, हर क्षण, हर दिन एक त्योहार! इसीलिए कहा –

दिन को होली, रात दीवाली, रोज़ मनाती मधुशाला – “Life is a long weekend, stop surviving, start living…


इसी विचार के साथ आज विराम। अगले अंक में बात करेंगे मधुशाला को पहली बार प्रकाशित करने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े थे और एक बात ये भी बताएंगे के बच्चन बाबू अपने कविता पाठ के बाद अक्सर उदास क्यूँ हो जाते थे! तब तक आप हर दिन को होली और हर रात दीवाली जैसे उत्सव मनाते रहें :-)

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