चिर विधवा है मस्जिद, सदा सुहागिन मधुशाला

Mandir, Mashjid and the house of wine

Madhushala Podcast, Episode 13

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In the previous episode, we shared the story of ‘Chamma’ (Lachhminiya aka Chamarin Amma), who was she to the newly born Harivansh Rai and what effect she had on his poetry, written much later. There was another story of Bachchan’s birth in ‘Mool Nakshatra’ and what happened because of that! Today we start with some poetic banter between Ghalib, Iqbal and others. There is also a story of Professor Amarnath Jha and how is he related to Dr. Bachchan.


पिछले अंक में हमने बात की थी की बच्चन जी के बचपन में लछमिनियाँ कौन थी, उन्हें चम्मा क्यूँ कहते थे और उनका बच्चन जी पर क्या असर रहा, और एक बात की थी उनके मूल नक्षत्र में जन्म होने की – आज शुरुआत करते हैं ग़ालिब और इकबाल की कुछ बातों से।

ग़ालिब कहते हैं –

ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर - या वो जगह बता दे जहाँ ख़ुदा न हो


इस पर इक़बाल कहते हैं

मस्जिद ख़ुदा का घर है, पीने की जगह नहीं - काफिर के दिल में जा, वहाँ ख़ुदा नहीं


लेकिन ये कहानी यहीं खत्म नहीं होती, आगे सुनिए अहमद फराज़ क्या कहते हैं –

काफिर के दिल से आया हूँ मैं ये देख कर, खुदा मौजूद है वहाँ, पर उसे पता नहीं


अब वसी इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं –

खुदा तो मौजूद दुनिया में हर जगह है, तू जन्नत में जा, वहाँ पीना मना नहीं


इस पर साक़ी की क्लोज़िंग लाइन सुनिए -

पीता हूँ ग़म-ए-दुनिया भुलाने के लिए, जन्नत में कौन सा ग़म है, इसलिए वहाँ पीने में मजा नही


जैसा शुरू में कहा, खुदा या भगवान वो तो सब जगह है – चाहे मस्जिद मंदिर और चर्च चले जाएँ या मदिरालय – हाँ मदिरालय में सब एक समान होते हैं। कवि कहते हैं चाहे मंदिर मस्जिद में उदासी छा जाए लेकिन मधुशाला हमेशा जगमग रहती है – “दिन को होली, रात दीवाली रोज़ मनाती मधुशाला” - और जहां संतुष्टि मिलती हो – वही मदिरालय है, वही स्वर्ग, वही मधुशाला...


हमारी आम बोलचाल की हिंदी में एक कहावत होती है – “खाया पिया कुछ नहीं, गिलास तोड़ा बाराना (बारह आना)”, यानी जिसने कुछ किया ही नहीं फिर भी दुनिया क कोसता रहे, वो तो मतवाला या पागल ही होता है। ये हम नहीं कहते, ये मधुशाला कहती है –


बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,

(यानी जिसने अभी तक कुछ पिया ही नहीं और मधुशाला को बुरा कह रहा है, वह तो मतवाला ही हुआ)

पी लेने पर तो उसके मुँह पर पड़ जाएगा ताला,

दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,

विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला (24)


जैसे हमेशा कहते हैं मधुशाला में कोई भेदभाव नहीं, न कोई जाती धर्म, न कोई छोटा बड़ा, न कोई दास और द्रोहियों में। मधुशाला तो उस मकाम जैसे है जिसने विश्व में सबसे ऊपर का स्थान पाया है – एक बार आप वहाँ पहुँच गए तो जैसे संसार पर विजय पा ली! जैसे महाभारत में जय और विजय के अंतर की बात करते हैं – कि एक तो होता है जहां आप अपने शत्रुओं को युद्ध में हरा कर विजयी होते हैं – और दूसरा जब आप अपने स्वयं पर जीत हासिल कर लें – अपनी इंद्रियों या अपनी भावनाओं पर – वो सही मायनों में जय है – जिसने ये जय पा ली – वो होता है “स्थितप्रज्ञ”, स्थितप्रज्ञ वह जो अपने मन में ही संतुष्ट रहना सीख गया हो।


ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला,

पंडित अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,

और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,

किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला (86)


बच्चन साहब के एक गुरु होते थे – प्रोफेसर अमरनाथ झा – उन्होंने बच्चन साहब के कॉलेज से लेकर यूनिवर्सिटी में नौकरी तक बहुत मार्ग-दर्शन किया था, एक तरह से बच्चन साहब के यूनिवर्सिटी में लेक्चरर बनने में झा साहब का बहुत बड़ा योगदान था। झा साहब बड़े ही रोचक व्यक्तित्व वाले इंसान थे – एकदम अनुशासित – टाइमटेबल के पक्के, सब एक नियत समय से करने वाले – सब सामान एक नियत जगह रखने वाले – मतलब बोरियत की हद तक अनुशासित! आजकल इसी को OCD कहते हैं। एक बार उन्होंने बच्चन जी को छुट्टियों में पहाड़ों पर अपने घर भी आमंत्रित किया था। बच्चन जी गए भी लेकिन वहाँ के कड़े अनुशासन और टाइमटेबल आदि जो थे, कि नियत समय पर नाश्ता, समय पर अखबार पढ़ना, समय पर बत्तियाँ बंद, समय पर बातें, आवाज़ें बंद – आदि आदि! ये सब अनुभव करके कवि महोदय इतना परेशान हो गए के जैसे तैसे भागने की तरकीबें सोचने लगे।


खैर, प्रोफेसर झा जो थे वो अपने जीवन ही नहीं, मृत्यु के बारे में भी इतने स्पष्ट (particular) थे कि अपनी मृत्यु से पहले चंदन की लकड़ियाँ खरीदवा दी थी और वसीयत में लिखा था उनकी चिता चंदन की लकड़ियों पर जलायी जाए। और उनकी मृत्यु के बाद हुआ भी ऐसा ही – यानि सनक हो तो ऐसी हो - "और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला, किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला"


इसी बारे में बच्चन जी की आत्मकथा “बसेरे से दूर” में एक छोटी सी कविता है –

अपने पर मैं ही रोता हूँ

मैं अपनी चिता सँजोता हूँ,

जल जाऊँगा अपने कर से

रख अपने ऊपर अंगारे।

खिड़की से झाँक रहे तारे!


फिलहाल यहीं विराम – अगले अंक में इसी सिलसिले को आगे बढ़ाएंगे और बात करेंगे मधुशाला में “Life is a long weekend” की फिलासफी की, बच्चन जी के जीवन में सुख और दुख के साथ आने की और वो मधुशाला की कविताओं में कैसे झलकता है।

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