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"वीर शिरोमणी ठाकुर विहलजी चौहान" —
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राजस्थान की धरती शूरवीरों के बलिदानी इतिहास से भरी पड़ी है। राजस्थान के गांव-गांव में बने देवल इस बात के साक्षी है कि यहां का इतिहास गौरवशाली रहा है। उन्हीं वीरों में से एक थे वीर_शिरोमणी_विहलजी_चौहान।"
नाडोल के चौहान राजवंश के संस्थापक _राव_लक्ष्मण (लाखनसी) के दो पुत्र राव अनहल और राव अनूप ने बदनोरा राज्य के प्रतिहार राजपूतों को पराजित कर अपना शासन स्थापित किया। किशनगढ़ के पास नरवर से राजसमन्द जिले के महाराणा प्रताप की एक मात्र विजय स्थली दिवेर तक चीतावंशीय एवं बरड़वंशीय चौहानों का राज्य था। बाद में इन दोनों ने इस राज्य का बंटवारा कर लिया, जिसमें नरवर से टोगी तक का ७४ मील क्षेत्र अन्हलवशींय (चीता मोरेचा साख) चौहानों के पास और टोगी से दिवेर तक का ३४ मील क्षेत्र अनूपवंशीय (बरड़ मोरेचा साख) चौहानों के पास रहा। यह क्षेत्र कभी भी मुगलों के अधीन नहीं रहा और न ही किसी राजा अथवा अंग्रेजो के अधीन रहा।
_नाडोल के_चौहान_राजवंश के शासक_राव_लक्ष्मण (लाखनसी) के द्वितीय पुत्र राव अनूप चौहान के वंश में क्रमशः राव आहड़ जी, राव बाहड़जी, राव बरड़जी हुए।
_राव_बरड़जी चौहान अपनी वीरता एवं शौर्य के कारण काफी प्रसिद्ध थे, इसलिये इनके वंशज बरड़वंशीय मोरेचा चौहान राजपूत कहलाते है।
_राव_बरड़जी चौहान के पश्चात् क्रमशः राव जोधजी, राव जामलिगजी, राव आहिलजी, राव बाहिलजी, राव विहलजी हुए।
बदनोरा (मगरांचल) राज्य के शासक राव आहिलजी के पौत्र व राव बाहिलजी के पुत्र_विहलजी_चौहान बचपन से ही निडर व साहसी थे। नारी जाति का सम्मान करना, गौरक्षक, प्रजापालक, विपत्ति में स्वामी की रक्षा करना, संकट के समय मातृभूमि की रक्षार्थ तत्पर रहना उनके व्यक्तिगत गुण थे।
_राव_विहलजी_चौहान बदनोरा राज्य के ठिकाना चेता (वर्तमान कामलीघाट, देवगढ़, राजसमन्द) के ठिकानेदार थे और आस-पास के विस्तृत भू-भाग के स्वामी थे। यह स्थान वर्तमान में राजसमन्द जिले में भीम- देवगढ़ क्षेत्र में नेशनल हाइवे कामलीघाट चौराहे से एक किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्थित है।
राजपूत काल में ग्यारवीं सदी के समापन के साथ ही हिन्दुस्तान के अन्तिम सम्राट पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद दिल्ली पर कुछ समय बाद तुर्को का शासन स्थापित हो गया था। बादशाह शमशुद्दीन इल्तुतमिश ने दूसरे दशक से तीसरे दशक के मध्य_मेवाड़ (मेदपाट) राज्य पर अधिकार करने के लिए कई बार बड़ी सेनाओं के साथ आक्रमण किये। उन दिनों_मेवाड़ की राजधानी_नागदा हुआ करती थी। रावल_जैत्रसिंह (जैतसी) नागदा के शासक थे।
एक बार की बात है जब विहलजी को यह सूचना मिली कि दिल्ली का बादशाह इल्तुतमिश_मेवाड़ की राजधानी_नागदा पर अधिकार करने के लिए एक बड़ी सेना के साथ आया है तो वह भी अपने साथियों के साथ तत्कालीन मेवाड़ के शासक रावल जैत्रसिंह की सहायता हेतु पहुंचे। तुर्की सेना ने अपना पड़ाव_दिवेर के समीप बनाया।
रात्रि पड़ाव के दौरान जब बादशाह की सेना छावनी में विश्राम कर रही थी तब कड़े पहरे को भेदते हुए, प्रहरियों की आंखों से बचकर विहलजी ने उस पड़ाव में प्रवेश कर लिया, जिसमें बादशाह इल्तुतमिश और उनकी बेगम सो रहे थे। विहलजी ने कुलदेवी माँ आशापुरा के आशीर्वाद से सोई हुई बेगम की चोटी और बादशाह की एक मूँछ काटकर प्रहरियों से बचते हुये बाहर आ गए। अगली सुबह जब बादशाह और बेगम की आंखें खुली तो बादशाह की एक मूँछ तथा बेगम की चोटी कटने की सूचना से पड़ाव में हड़कम्प मच गया। इस पर बादशाह और बेगम घबरा गए। जिस व्यक्ति ने उनकी बेगम की चोटी और बादशाह की मूँछ काटी है, वह उनका सिर भी कलम कर सकता था परन्तु उसने ऐसा न कर बादशाह को एक संकेत दिया है। बादशाह ने निर्णय किया कि जिस व्यक्ति ने इतना साहसिक कार्य किया है वह निःसंदेह_मेवाड़ की सेना का कोई बहादुर सैनिक ही होगा और जिस सेना में ऐसे देशभक्त और निर्भीक सैनिक हो, उन पर सफलता पाना मुश्किल है। यह सोचकर बादशाह भयभीत और निराश होकर अपनी सेना के साथ वापस दिल्ली की ओर प्रस्थान कर लिया।
उधर प्रातः होने पर रावल जैत्रसिंह और उनकी सेना बादशाह की सेना द्वारा आक्रमण की प्रतीक्षा कर ही रहे थे कि उनके गुप्तचरों ने उन्हें सूचना दी कि बादशाह की सेना तो दिल्ली की ओर कूच कर चुकी है। इस सूचना से रावल जैत्रसिंह बड़े आश्चर्यचकित हो गये कि बादशाह के वापस लौटने का क्या रहस्य है?
उन्होंने तत्काल अपने सभासदों और सलाहकारों की एक आवश्यक आपात बैठक बुलाई, जिसमें बादशाह के वापस लौटने पर विचार-विमर्श और चर्चा चल रही थी। उस समय विहलजी चौहान, रावल जैत्रसिंह की स्वीकृति से बैठक में बेगम की कटी हुई चोटी और बादशाह की मूँछ को लेकर उपस्थित हुए तथा विस्तार से सारा वृत्तांत बताया।
रावल जैत्रसिंह विहलजी की पराक्रमता, अदम्य साहस, शौर्य और मातृभूमि की रक्षार्थ हेतु तत्परता की मिशाल को देखकर अत्यन्त प्रसन्न एवं अभिभूत हूए और उसी समय विहलजी को "रावत" की पदवी से विभूषित कर दरबार में _सत्रहवें _उमराव की सीट दी तथा कुंभलगढ़ के समीप मेवाड़ रियासत का गढ़बोर चारभुजा का राज्य दिया। आज भी विहलजी चौहान का दुर्ग चारभुजा से सेवंत्रीे जाने वाले मार्ग पर खण्डहर हालात में विद्यमान है। उल्लेखनीय है कि विहलजी को एक जगह बोराणा (रायपुर-बोराणा) क्षेत्र के जागीरदार/शासक होना लिखा है।
विहलजी चौहान के अद्भुत साहस एवं पराक्रमी कार्य पर विभूषित किये गये _रावत के खिताब के सम्बन्ध में एक उक्ति इस प्रकार प्रसिद्ध है –
मैं हों अजमेरा का राव, चौहान मोंरी जात।
आ रवताई राव विहलजी ने मिली, हुई बात विख्यात।।
वीहलजी का निधन अल्पायु मे ही हो गया था। धन्य है_मातृभूमि_भारत जिसने_विहलजी_चौहान जैसे पुत्र को जन्म दिया। इस सम्बन्ध में एक उक्ति प्रसिद्ध है जो इस प्रकार है–
"मांई एहड़ौ पूत जणज्ये, जेहड़ो विहल सिंग।
बादशाह री मूंछ, बेगम री चोटी काटी संग।।"
राव विहलजी के पुत्रों में सत्याजी, धड़ंगजी, कल्हणजी, मानाजी, लखाजी, बावलजी, बजरंगजी, करणाजी, हंसाजी थे।
इनके तृतीय पुत्र कल्हण चौहान थे जो अपनी आराध्य देवी_मां_आशापुरा व पुजारी माल भोपा को भाणपा मेवाड़ से अपने साथ लेकर आए और माताजी की प्रतिमा को पीपल की खोह में रखी। कालान्तर में वहीं से देवी स्वतः प्रतिष्ठित हुई और_बरड़वंशीय_चौहान_राजपूत सरदारों की यह_कुलदेवी_मां_पीपलाज के नाम से विख्यात हुई।
राव कल्हण चौहान ने भी अपने पिताश्री के समान कई साहसिक कार्य किये एवं अपनी शूरवीरता का परिचय दिया। इन्होंने अपने नाम से कई नगरों और गांवों की स्थापना की जिसमें केलवा, केलवाड़ा, कालागुमान, कालेटरा, कालागुन, कालादेह प्रमुख हैं।
इसी वंश में_नोमणजी,_गालाजी,_खांखाजी,_भीमटाजी,_धोधाजी,_वराजी,_डूंगाजी,_हामाजी,_देहलाजी,_सूजाजी जैसे अनेकों प्रख्यात वीर शासक हुए हैं।
_मोरेचा_चौहान साख के_बरड़वंशीय एवं चीतावंशीय_राजपूत सरदार आज भी अपने पूर्वज को मिले "'रावत"' के खिताब को बड़े गर्व एवं शान से अपने नाम के आगे अंकित करते हैं।
इस प्रकार राजस्थान का इतिहास भारत में ही नहीं सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में गौरवशाली रहा है। ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर उक्त घटना की पुष्टि इतिहासकार स्व. श्री प्रेमसिंह चौहान, निवासी - काछबली (भीम) द्वारा लिखित "रावत-राजपूतों का इतिहास" पुस्तक में प्रकाशित शुभ संदेश में माननीय महाराणा श्रीमान् महेन्द्रसिंहजी मेवाड़, द्वारा भी की गई है।
—नारायणसिंह आपावत (दपाली, बड़ाखेड़ा) पूर्व अध्यक्ष, केन्द्रीय नवयुवक मण्डल, राजस्थान रावत-राजपूत महासभा, ब्यावर।
स्त्रोत-
(१). मगरांचल का इतिहास, लेखक - _इतिहासकार _श्री _मगनसिंह _चौहान ठि.– कूकड़ा।
(२). रावत-राजपूतों का इतिहास, लेखक - श्री प्रेमसिंह चौहान।
(३). क्षत्रिय रा.- राजपूत दर्शन, लेखक - ठाकुर गोविन्दसिंह चौहान।
(४). मगरे के शूरवीरों की गौरव गाथायें, लेखक - इतिहासकार श्री मगनसिंह चौहान ठि.– कूकड़ा।
(५). बदनोरा_राज्य का इतिहास।
(६) रावत-राजपूत प्रबोधिका, लेखक - श्री किशनसिंह जी बरार।
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___जय_मां_भवानी____
___जय_राजपूताना____
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजस्थान…
इतिहास संकलनकर्ता – सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर
"वीर शिरोमणी ठाकुर विहलजी चौहान" —
यशस्वी वीर महापुरूष ठाकुर सा. श्री भीमसिंह चौहान —
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नाडोलगढ़ के शासक रहे राव लाखनसी (लक्ष्मणसिंह) चौहान के द्वितीय पुत्र राव अनूप के वंश में राव वीहलजी चौहान की अभूतपूर्व वीरता से प्रभावित होकर मेवाड़ के शासक रावल जेतसी ने उन्हें #_चारभुजा (गढ़बोर) का ठिकाना एवं रावत की पदवी प्रदान की, दरबार में सत्रहवें उमराव की सीट दी गई। इन्हीं राव वीहलजी चौहान का वंश रावत-राजपूत के नाम से जाना जाने लगा। राव वीहलजी चौहान के वंश में क्रमशः राव कल्हण, राव गाला, धारूजी, सियाजी, सुमणजी हुए।
सूमण जी चौहान के पुत्र भीम जी (#_भीमसिंह) हुए। आप #_चेता के ठिकाणेदार थे, चेता राजसमंद जिले के गांव कामलीघाट स्टेशन के दक्षिण की तरफ है। भीमजी नाडोल के शासक राव लाखनसी की १६वीं पीढ़ी में हुए हैं। आपके पुत्रों में पातलाजी (पातलावत चौहान), देवाजी, कानाजी, राव धोधाजी, ताहड़जी और पुत्री कुम्भीबाई थी। आप वि.सं. १३५० से १३९९ तक विद्यमान रहे। आप तत्कालीन समय में ख्याति प्राप्त वीर, पराक्रमी एवं कुशल योद्धा के रूप में विख्यात थे। आपकी आराध्य देवी #_पीपलाज_माता थी। कहा जाता है कि देवी पीपलाज माता आपके अर्स-पर्स थी।
सन् १३११ ई. में जालौर के पतन के बाद कान्हड़दे चौहान का छोटा भाई मालदेव सोनगरा वंश रक्षा हित में चेता के ठाकुर भीमसिंह चौहान की शरण में आकर रहने लगा। ठाकुर भीमजी ने उनको रहने के लिए चेता के पश्चिम में एक मील दूर सुरक्षित स्थान दे दिया, जहां एक छोटा दुर्ग खंडहर हालात में आज भी विद्यमान है जो मालकोट (#_अंटाली) के नाम से जाना जाता है। कुछ समय बाद ठाकुर भीमजी ने उसे सलाह देकर दिल्ली के बादशाह की सेवा में भिजवा दिया।
सन् १२९६ से १३१६ तक दिल्ली सल्तनत पर बादशाह अलाउद्दीन खिलजी का शासन था। उनके समय एक ढूंढा नामक अत्यन्त बलशाली मानव था, जो दिल्ली में उत्पात मचाता था जिसका अन्त करने के लिए बादशाह ने मालदेव सोनगरा को चेता भेजकर ठाकुर भीमसिंह चौहान को आमंत्रित किया। भीमजी को कुलदेवी पीपलाज माता का ईष्ट था। अपनी कुलदेवी की अनुमति एवं आशीर्वाद लेकर भीमजी अपने साथ अपने गुरू जेल पुरोहित, भानेज देदा गुहिलोत, लाहड़ा मोंहरोत लोहार, भरक नगोड़ा (भीमजी के घोड़े का चरवाहदार) व मालदेव सोनगरा को साथ लेकर दिल्ली प्रस्थान करते हैं।
दिल्ली जाते समय मार्ग में सैणी चारणी मिलती है जो उन्हें महरौली में जोगमाया के मंदिर में ले गई। इस मंदिर से बहरी जोगिन (भैरवी योगिन) ने भीमजी को अति शूरवीर समझ कर ढूंढ़ा से युद्ध करने हेतु बप्पा रावल का खड़ग (दुधारी तलवार) एवं हीरों का हार भेंट किया।
एक रात्रि में ढूंढ़ा जब आंतक मचाने हेतु आता है तो भीमजी उसका सामना खड़ग से करता है एवं सवा पहर तक दोनों में भयंकर युद्ध होता है, तत्पश्चात् ठाकुर भीमजी के बल एवं पराक्रम को देखते हुए ढूंढ़ा नतमस्तक होकर आत्मसमर्पण कर देता है।
दूसरे दिन ढूंढ़ा को लेकर भीमजी अपने साथियों के साथ बादशाह के सामने उपस्थित हुए। भीमजी की इस बहादुरी से चिंतामुक्त बादशाह बहुत प्रसन्न हुए तथा कृतज्ञतास्वरूप अपनी पूर्व घोषणानुसार निस्तोदे का विवाह भीमजी के साथ सम्पन्न करवाया और मारवाड़ के सोजत परगने में लाम्बोड़ी गांव की जागीर का पट्टा दिया व साथ में भीमजी को उसी दिन से सात दिन तक की दिल्ली की बादशाही प्रदान की। भीमजी के भानेज देदा गरतुण्ड गुहिलोत को भी #_अंधेरीवन गांव का पट्टा दिया।
दिल्ली में ढाई दिन की बादशाही कर भीमजी ने अपने स्वामिभक्त सेवक भरक नगोड़ा को राज संभालने हेतु बादशाही प्रदान कर अपने साथियों के साथ चेता के लिए निकल पड़े। भरक नगोड़ा ने भीमजी के नाम से साढ़े चार दिन का राजकार्य चलाकर चमड़़े की मुहर जारी करवाई।
सन् १३१३ से १३२१ ई. तक चित्तौड़ का शासक मालदेव चौहान था जिसने अपनी पुत्री बालबाई का विवाह हम्मीर सिसोदिया से किया और मेवाड़ के ८ जिले दहेज में दिये जिसमें एक मगरा भी था। उसी हम्मीर सिसोदिया ने बाद में मालदेव चौहान से चित्तौड़ छीन लिया। इसी काल में हम्मीर सिसोदिया मेवाड़ की सुरक्षा हेतु भीमजी से बप्पा रावल का खड़ग प्राप्त करना चाहता था, अतः उसने मंडी मियाला (आमेट) के आयसजी से मिलकर भीमजी को धोखे से मरवा दिया।
भाट कवि कहते हैं -
चूक कियो चित्तौड़े राणे, हार खड़ग हट लागो।
सियाणे होंपलो माचियो, भीमटो मुओ न भो भागो।।
हम्मीर सिसोदिया ने भीमजी की देह को घोड़े पर बांधकर चेता की ओर भिजवा दिया, जहां उनका दाह संस्कार किया गया। ठाकुर भीमसिंह की पत्नि मुन्नादे कंवर एवं पुत्री कुम्भीबाई भी जीवित अग्नि को समर्पित (सती) हो गई। वर्तमान चेता गांव के पास ही एक स्थान पर माता-पिता और पुत्री की दो अलग-अलग समाधियां बनी हुई थी, जिसका जिर्णौद्धार सन् २००० में राजस्थान रावत-राजपूत महासभा ब्यावर की ओर से किया गया।
स्त्रोत –
(१). रावत भीमसिंह को बादशाही मिलना, इतिहास लेखक - स्व. डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकडा़।
(२). मेरा जीवन संघर्ष (पृष्ठ संख्या- २५९-२६८) लेखक- मेजर फतेहसिंह चौहान।
(३). मगरांचल का इतिहास, लेखक - स्व. डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकड़ा।
(४). रावत-राजपूत संदेश पत्रिका।
(५). सामाजिक मा. और इतिहास।
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर____
#_बरड़वंशीय_चौहान #_चौहान_राजवंश #_मगरांचल
रावत-राजपूतों का इतिहास इतिहास लेखक डॉ. मगनसिंह जी चौहान द्वारा 1985 में प्रकाशित पुस्तक…!!
(उस वक्त संसाधनो, टेक्नॉलॉजी एवम् धन का अभाव था फिर इतिहास के प्रति जूनून के कारण डॉ. मगनसिंह जी यह कर पाए)
उनका हस्तलिखित इतिहास आज भी सहेज कर रखा हुआ है
बरड़वंशीय पितामह श्री धोधाजी चौहान —
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पौराणिक कथा के अनुसार अग्निवंशीय चौहान राजपूतों की उत्पति अर्बुद गिरि (आबू पर्वत) से हुई। चौहानों का प्रारंभिक शासन सांभर के आसपास के क्षेत्र में था, जिसे 'शाकम्भरी' या 'सपादलक्ष' कहते थे। शाकम्भरी के चौहानों का आदिपुरुष (चौहान वंश के शासन का संस्थापक) 'वासुदेव चाहमान' को माना जाता है, जिसने सन् ५५१ ई. के आसपास सपादलक्ष क्षेत्र में अपने राज्य की स्थापना की एवं अहिछत्रपुर को अपनी राजधानी बनाया।
वासुदेव चौहान के वंशज राव लक्ष्मण के छः पुत्रों में से राव अनहल व राव अनूप नाडोल से निकलकर मगरे में कामलीघाट के समीप चेता गांव में आकर बसे। राव अनहल चौहान ने चांग के मिहिर वंश के प्रतिहार राजपूतों पर आक्रमण कर #_वर्धनोरा_राज्य में अपना शासन स्थापित किया, तत्पश्चात् इन दोनों भाईयों ने अपने शासन का बंटवारा कर लिया जिसमें नरवर से टोगी तक का क्षेत्र चीतावंशीय चौहान राजपूतों के पास व टोगी से दिवेर तक का क्षेत्र बरड़वंशीय चौहान राजपूतों के पास रहा।
राव अनूप चौहान के वंश में क्रमशः राव आहड़, राव बाहड़, राव बरड़ हुए। राव बरड़ चौहान एक पराक्रमी शासक थे जो सन् ११०२ ई. में चांग से चेता (कामलीघाट) आये, जिनके वंशज #बरड़वंशीय #मोरेचा_चौहान राजपूत कहलाते है। राव बरड़ के वंश में क्रमशः राव जोधजी, राव जामलिग, राव आहिल, राव बाहिल, राव वीहलजी हुए।
राव वीहल जी चौहान को उनकी अभूतपूर्व वीरता के लिए मेवाड़ के शासक रावल जैत्रसिंह द्वारा रावत की पदवी से नवाजा गया, दरबार में सत्रहवें उमराव की सीट दी गई तथा गढ़बोर चारभुजा का राज्य दिया। इन्हीं राव वीहल जी चौहान का वंश रावत-राजपूत के नाम से जाना जाने लगा।
इसी वंश में आगे चलकर शूरवीर सलाखा पुरुष भीमसिंह चौहान हुए, जिन्हें बहरी जोगिन ने अति शूरवीर समझ कर अलाउद्दीन खिलजी के यहां आतंक मचाने वाले ढूंढा नरभक्षी अतिमानव का अन्त करने के लिए #_बप्पा_रावल का खाण्डा एवं हीरों का हार भेंट किया था। पारितोषिक स्वरूप अलाउद्दीन खिलजी ने भीमसिंह चौहान को दिल्ली की बादशाही दी थी। इनकी धर्म पत्नि श्रीमती मन्नाकंवर की कोख से सन् १३२० ई. में गांव चेता में पुत्र धोधाजी का जन्म हुआ। धोधाजी का विवाह २२ वर्ष की आयु में सन् १३४२ ई. में राव करणसी ठिकाना रोडवा भादसी भूभाल #_वर्धनपुर #_वैराट के राजा की पुत्री श्रीमती जैतू कंवर के साथ हुआ। वे बरड़ वंश विस्तारिणी मां पीपलाज के परम भक्त थे किन्तु ७० वर्ष की आयु होने पर भी सन्तान प्राप्ति नहीं हुई। मां पीपलाज ने इन दोनों की भक्ति से प्रसन्न होकर दर्शन दिये और महादेव मंदिर के समीप स्थित जलीय कुण्ड में अर्द्धरात्रि के समय स्नान करने का निर्देश दिया। मां पीपलाज के निर्देश के अनुसार उस पवित्र जलीय कुण्ड में स्नान करने से दोनों ही युवावस्था को प्राप्त हो गये और मां पीपलाज की बड़ी भक्ति-भाव से आराधना करते हुए शान्तिमय जीवन व्यतीत करने लगे।
माताजी के आशीर्वाद से धोधाजी के सात पुत्र हुए जिनमें सबसे बड़े पुत्र रामणजी हुए जिनके वंशज वर्तमान में वरावत चौहान, डूंगावत चौहान, बाहड़ोत चौहान, मेघावत चौहान और कूंपावत चौहान है। इनके द्वितीय पुत्र कोठाजी हुए जिनके वंशज वर्तमान में हीरावत चौहान, आपावत चौहान, मालावत चौहान, राजावत चौहान, माणकावत चौहान, टाटोग (बैरावत) चौहान, भीलावत चौहान, लाखावत चौहान, करणावत चौहान, खीमावत चौहान, कानावत चौहान, सूजावत चौहान, पदमावत चौहान, चांदावत चौहान आदि है। इनके तीसरे पुत्र सांगणजी हुए जिनके वंशज सांगणोत चौहान है। चौथे पुत्र हुलण जी हुए जिनके वंशज सहड़ोत चौहान है। पांचवे पुत्र जगदेव जी हुए जिनके वंशज धोधावत चौहान के नाम से जाने जाते हैं। छठे पुत्र खींया जी हुए जिनके वंशज खींयावत चौहान है। सातवें पुत्र गुल्ली जी चौहान हुए। सातों पुत्र बड़े वीर और पराक्रमी थे तथा पीपलाज माताजी के मुख्य मन्दिर के निकट पहाड़ी (सातों का पाल) पर रहते थे जिनके महलों के खण्डहर अब भी विद्यमान है। इन्हीं पराक्रमी वीर पुत्रों के प्रभाव से ही तुर्करेल में रह रहे तुर्क मुस्लिमों को अपना स्थान छोड़कर मजबूरन भागना पड़ा था।
वर्तमान में बरड़वंशीय चौहान पितामह धोधाजी वंशीय वटवृक्ष खूब फल फूल रहा है और जो मुख्य रूप से दिवेर टोकरां, छापली, बरजाल, बाघाना, खामलीघाट, पीपली, लाखागुड़ा, काछबली, मण्डावर, बग्गड़, सांगावास, ताल, लसानी, ठीकरवास, मियाला, बरार, कुशलपुरा, कूकरखेड़ा, मड़लागढ़ भीम, कालादेह, अजीतगढ़ थाना, मोटाखेड़ा, टॉड़गढ़, मालातों की बेर, बराखन, बड़ाखेड़ा, बनजारी, आसन, टोगी आदि ग्राम पंचायतों के क्षेत्रों में बहुतायत में निवास कर रहे हैं।
स्त्रोत—
(१). वर्धनोरा राज्य का इतिहास, लेखक- स्व. इतिहासकार डॉ. मगनसिंह चौहान।
(२). बरड़वंशीय मोरेचा शाखा की वंशावली, लेखक- स्व. इतिहासकार डॉ. मगनसिंह चौहान।
(३). रावत-राजपूतों का इतिहास, लेखक- श्री प्रेमसिंह चौहान।
(४). रावत-राजपूत प्रबोधिका, लेखक- श्री किशनसिंंह चौहान बरार।
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#__जय_मां_भवानी____
#__जय_राजपूताना____
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजस्थान…
लेखनकर्ता — सूरजसिंह सिसोदिया ठि.— बोराज-काजिपुरा, अजमेर….
श्री देवराज जी चौहान —
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आपका जन्म #_राजसमन्द जिले के #_बरार गांव में राव धोधा जी की सातवी पीढ़ी में हुआ था। आप भी परम दयालु, लोकहितैषी, ईश्वर-भक्त, सत्यवादी एवं वचनसिद्ध महापुरुष थे। संसार में ऐसे ही महापुरुष की परीक्षा हुआ करती है। आप चार पुत्रों (हीरासिंह, लालसिंह, लूम्बसिंह, पन्नासिंह) के पिता थे। एक समय की घटना है कि बस्ती के अधिकांश पुरुषगण प्रवास पर थे। देवराज जी के साथ उस समय तीसरे क्रम का पुत्र लूम्बसिंह ही उपस्थित था। चारों ओर भयंकर अकाल की त्रासदी थी, अन्न-जल क्षीण हो चले थे। वनस्पति भी काल की विकरालता के आगे मृतप्रायः हो चुकी थी। ऐसे में अन्नाभाव से झूझते जनों के प्रति देवराज जी का द्रवित होना कोई आश्चर्य नहीं था। अतः देवराज जी ने अपने पुत्र लूम्बसिंह के हाथों एवं स्वयं ने भी अपने अन्न भण्डार में से अत्यन्त अभावग्रस्त जनों में तथा आवश्यकता अन्न वितरित करवाया। जब प्रवास पुरुषगण घर लौटे तो आपातस्थिति में साधनसम्पन्न देवराज जी के घर से अन्न वितरण की घटना को दुर्योग से उन्होंने अन्यथा लिया। यहां तक कि देवराज जी के युवा पुत्र लूम्बसिंह के नदी पर घोड़ी को पानी पिलाते समय मार डाला। देवराज जी के कृतघ्न जनों की कृतघ्नता पर अति क्षोभ हुआ। उक्त ह्रदयविदारक घटना पर आप प्रकुपित हो उठे एवं शत्रुओं को जल मरने का श्राप दे डाला। परिणाम स्वरूप शत्रुओं के तन मन प्रज्वलित होने लगे तब वे कान चीरा कर जाति का परित्याग करते हुए रावल (नाथ) जाति में परिवर्तित हो गये। इधर देवराज जी ने अपने हाथों चिता को तैयार कर अपने पुत्र के शव को गोद में रख भविष्यवाणी के रूप में जो भी वचन अभिव्यक्त किये वे कालान्तर में सत्यसिद्ध हुए। इसी के साथ शव को गोद में लिए हुए ही शान्त भाव से चिता पर बैठकर सूर्य भगवान से अभ्यर्थना करने लगे, परिणाम स्वरूप प्रार्थित सूर्य देव ने विशेष कृपा करते चिता को स्वयं अपनी रश्मियों से प्रज्वलित कर दिया। इस तरह देवराज जी आतताइयों के द्वारा हुये अन्याय का प्रतिरोध करते हुए बिना अपने आसन से विचलित हुए सत्य की संस्थापनार्थ अग्नि की पावन शिखाओं पर आसीन हो ऊर्ध्वगमन करते हुए अपने इष्ट सूर्य में समा गये। आपके सत्यार्थ बलिदान का विश्व की बेजोड़ घटना के रूप में उल्लेखन किया जाना चाहिए। विशेष कर आपका आत्मोत्कर्ष कितना उच्च कोटि का था कि जिसकी तुलना पाण्डवों की माता कुन्ती द्वारा प्रयुक्त सूर्य आराधना से की जानी चाहिए।
स्त्रोत– रावत-राजपूत प्रबोधिका (पृष्ठ सं. ५७-५८), लेखक– श्री किशनसिंह जी चौहान गांव- बरार, राजसमन्द।
#जय_मां_भवानी_______
#जय_राजपूताना_______
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द, राजस्थान______
पेज एडमिन— सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर……
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शिवभक्त श्री खंगार जी चौहान —
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चौहान राजवंश में राव लक्ष्मण (लाखनसी) नाडोल के शासक रहे। राव लाखनसी के पुत्रों राव अनहल, राव अनूप व उनके वंशजो ने नरवर से दिवेर तक राज्य स्थापित किया। राव अनूप के वंशज राव वीहल जी चौहान को उनकी अभूतपूर्व वीरता के लिए मेवाड़ के शासक रावल जैत्रसिंह ने रावत की उपाधि व गढ़बोर की जागीर प्रदान की थी। इन्हीं राव वीहलजी चौहान का वंश रावत-राजपूत के नाम से जाना जाने लगा।
राव अनूप की १६वीं पीढ़ी में शूरवीर सलाखा पुरुष भीमसिंह चौहान हुए, जिन्हें बहरी जोगिन ने अति शूरवीर समझ कर अलाउद्दीन खिलजी के यहां आतंक मचाने वाले ढूंढा नरभक्षी अतिमानव का अन्त करने के लिए #_बप्पा_रावल का खाण्डा एवं हीरों का हार भेंट किया था। पारितोषिक स्वरूप अलाउद्दीन खिलजी ने भीमसिंह चौहान को दिल्ली की बादशाही दी थी। इन्हीं भीमसिंह चौहान के पौत्र कोठाजी (कोठावत चौहान) हुए। कोठाजी चौहान की नवीं पीढ़ी में कोलाजी के पौत्र, मालाजी (मालावत चौहान) के ज्येष्ठ पुत्र खंगार जी चौहान का जन्म १५२३ ई. को मालावतों की वेर नामक ग्राम में हुआ था। आप अपने समय के महान शिव भक्त थे, इसके अतिरिक्त आप परम दयालु, गौसेवक, शरणागतवत्सल, धीर, वीर एवं जातीय स्वाभिमान के धनी थे। बरड़वंशीय रावत-राजपूतों के गुरुद्वारे के प्रथम कुलगुरु श्रीश्री १००८ श्री निर्मलावनजी महाराज के प्रथम शिष्य होने का श्रेय भी आपको ही प्राप्त है। परिणाम स्वरूप नवीन कुलगुरु को पदासीन करने का अधिकार भी मालावत रावजी को ही है। आपने गोरमघाट गिरि के पीछे वायड़ नामक स्थान पर लगने वाले मेले की विवादास्पद भूमि को मारवाड़ के राजपूतों से खरीदकर जातीय मेले में भाग लेने वालों को स्थाई सुरक्षा प्रदान की। इस प्रकार आप जीवन भर परमार्थ के मार्ग पर अग्रसर रहे। आपाजी के साथ किये उपकार के बदले में आपाजी द्वारा खंगारजी के ललाट पर किया गया धूल का तिलक भी कुमकुम में रूपांतरित हो जाना यहां लोकप्रसिद्धि बना हुआ है। इतना ही नहीं उक्त काल में मेवाड़ और मारवाड़ के कई संकटग्रस्त राव-रजवाड़े खंगारजी के यहां शरण पाकर अपनी सुरक्षा सुनिश्चित कर निश्चिन्त हो जाते थे।
यद्यपि आप बहुआयामी चरित्र के धनी थे तथापि आप का ध्यान प्रमुखतः गौ सेवा एवं शिव आराधना पर केन्द्रित था। जैसे जैसे आप गृहस्थ आश्रम के उत्तरदायित्व से उऋण होकर वानप्रस्थ की ओर प्रस्थित होते गये वैसे वैसे आपकी शिव भक्ति एवं गौ भक्ति में भी प्रगाढ़ता एवं निखार आता गया। कहते हैं कि भगवान भक्त के वश में होते हैं। ऐसे में अब खंगारजी खंगार जी का वह समय आ चुका था जब उनकी भक्ति पल्लवित, पुष्पित होकर फलित होने को तत्पर थी। इसी क्रम में संवत् १६३५ विक्रम के वैशाख मास की पूर्णिया के दिन भगवान आशुतोष ने खंगार जी को गौ सेवा करते समय दिन के भीषण उष्णतायुक्त मध्यकाल में सघन वनाच्छादित प्रदेश में दर्शनलाभ देकर कृतार्थ कर दिया, जिसमें अनब्याही टोगड़ी (गौ वत्सा) के स्तनों से दूध प्राप्त हो जाना एवं उसी दूध से शिव भगवान द्वारा प्रदत्त डेगची (अक्षयपात्र) में खीर बना कर आसपास के समस्त गोप ग्वालों द्वारा भरपेट खाये पीये जाने पर भी अक्षयपात्र की खीर का अक्षुण्ण बने रहने का सम्पूर्ण घटनाक्रम सम्मिलित है एवं सर्वविदित है। तदुपरान्त भगवान शिव द्वारा खंगार जी को कुछ विशेष मांगने के लिए कहा गया। इतने पर भी लोक परमार्थी निःस्वार्थ भाव वाले खंगार जी अपने लिए कैसे, क्या, कुछ मांग सकते थे। तब भी आपने गायों के लिए जीवनाधार महत्ती आवश्यकता पानी की समस्या के समाधान हेतु निवेदन किया। जिसके लिए भगवान ने तत्काल ही एक कुश पादप का उन्मूलन करने के लिए कहा। कहने एवं करने भर की देर थी कि तत्काल ही वहां अप्रत्याशित रूप से दूध की धारा प्रवाहमान हो चली जो शीघ्र ही जलीय धारा में रूपांतरित हो गई एतदर्थ उक्त स्थल को आज भी #_दुधालेश्वर_महादेव के नाम से लोकप्रसिद्धि प्राप्त है। यहां मैं उक्त घटना को द्वापर युग में पाण्डवों में ज्येष्ठ भ्राता युधिष्ठिर जी द्वारा सूर्य आराधना करने पर सूर्य भगवान द्वारा प्रत्यक्ष होकर अक्षयपात्र दिये जाने से जोड़ कर देखता हूं इसी के साथ मैं पाठकों का ध्यान एक और विलक्षण घटना की ओर आकर्षित करना चाहूंगा कि श्री खंगार जी एवं उनकी धर्मपत्नी ने यथा समय अपने पुरूषार्थ को पूर्ण करके सशरीर स्वर्गारोहण किया था, मैं इस घटना को श्री राम के परलोक गमन के तुल्य पाता हूं तो हर्षातिरेक से धन्य हो जाता हूं कि मैं उस महान जाति में जन्मा हूं जिसमें खंगारजी जैसे भक्त हुए है जिन पर ईश्वर की असीम अनुकम्पा थी।
राव खंगारजी के आठ पुत्र थे- देवराजजी, चरड़ाजी, चांदाजी, गोपालजी, केहाजी, पीथाजी, सहड़ाजी, केनाजी हुए जिनके वंशज मालातो की बेर, डांसरिया, ऊपरली गुआर आदि क्षेत्रों में रहते है। खंगारजी के पुत्र चरड़ा के वंशज #_चरड़ात_चौहान और चांदा के वंशज #_चांदावत_चौहान कहलाये।
इस दिव्य तपोभूमि दूधालेश्वर में प्रतिवर्ष श्रावण मास की हरियाली अमावस्या और शिवरात्रि को विशाल मेले का आयोजन होता है। खंगार जी के समस्त वंशज इस स्थान की व्यवस्था एवं प्रबन्ध एक प्रबन्धकारिणी समिति द्वारा करते है।
स्त्रोत – (१). रावत-राजपूत प्रबोधिका
लेखक– श्री किशनसिंह चौहान।
(२). वर्धनोरा राज्य का इतिहास
लेखक– स्व. इतिहासकार डॉ. मगनसिंह चौहान।
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#___जय_मां_भवानी_____
#___जय_राजपूताना_____
स्वाभिमानी रावत राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
पेज एडमिन ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर____
"वीर पुरुष सूजाजी चौहान " ―
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नाडोल के चौहान राजवंश में राव लाखनसी के द्वितीय पुत्र 'राव अनूप चौहान' की १५वीं पीढ़ी में राव धोधाजी हुए जो कि चेता के ठिकाणेदार थे।
राव धोधाजी चौहान के द्वितीय पुत्र कोठाजी की ८वीं पीढ़ी में देहलाजी चौहान हुए जो बरार के ठिकाणेदार थे।
देहलाजी चौहान के दो पुत्र सूजाजी व पदमाजी हुए, जिनके वंशज क्रमशः 'सूजावत चौहान' व 'पदमावत चौहान' कहलाये।
वीर सूजाजी एक वीर एवं पराक्रमी पुरुष थे। आपकी माता का नाम श्रीमती जस्सी कंवर था। आपका जन्म वि.स. १६३८ चैत्र सुदी तृतीया को बरार ठिकाणे में हुआ। आपने धर्म व क्षेत्र की रक्षा हेतु सिन्दलों से वर्षो तक संघर्ष किया। पहले ललाना व उसके पश्चात् सुजानगढ़ होते हुए बड़ा मण्डलागढ़ बनाया, जिसके अवशेष चिन्ह आज भी मौजूद है।
देहलाजी के दोनों पुत्र जंगल में आखेट हेतु एक दिन लसाणी कालागुमान तक चले गये। आगे सिन्दल राजपूतों की क्षेत्रीय सीमा थी, इसलिए सिन्दल राजपूत इनसे युद्ध करने लगे। इस युद्ध में कुछ सिन्दल मारे गये व कुछ भाग गये। इस प्रकार सूजाजी चौहान व सिन्दलों में वैर भाव बढ़़ गया।
सिन्दलों ने वर्धनोरा (मगरांचल) राज्य के कुछ क्षेत्रों पर प्रतिहार वंश के राजपूतों को पराजित कर अपनी बस्तियां आबाद की थी। कुछ वर्षो बाद भीम, बरार, बरसावाड़ा व काछबली में इनकी सत्ता छिन जाने से इस क्षेत्र में यह छोटी-छोटी बस्तियों में रह गये। यहां पर ताल लसानी कभी सिन्दल राजपूतों का शक्तिशाली ठिकाणे रहे थे।
१५वीं शताब्दी में मारवाड़ व मेवाड़ के मध्य स्थित इस क्षेत्र में मोरेचा चौहान साख के राजपूतों ने सीमा विस्तार करते हुए ठिकाणे स्थापित किये, इसलिए सिन्दल राजपूतों से करीब सौ वर्षो तक सीमा विस्तार के विवाद होते रहे। एक दिन सीमा विवाद के चलते सूजाजी सिन्दलों के चबूतरे पर जा बैठे। इस पर क्रोधावेश में आकर सिन्धल राजपूतों ने उन पर हमला किया। सूजाजी ने तलवार का दमखम दिखाया और सिन्दलों को मार डाला।
कालान्तर में बड़ा मण्डला यहां के निवासियों की बस्ती बड़ी होती गई। दो बड़े समूह को आपस की टकराहट को रोकने के लिए वरावत रावजी तथा वीर सूजाजी के बीच सुलह हुई। रावजी ने भीम बड़ाखेड़ा रोड़ पर स्थित देवनारायण जी के मन्दिर तक आकर बड़ा पत्थर रोप दिया और निर्णय लिया कि इससे ऊपर तक सारी भूमि सूजाजी की और आगे की भूमि वरावत राजपूतों की होगी।
वीर सूजाजी सन् १६४४ ई. में धर्म व मातृभूमि की रक्षा के लिए क्षेत्रिय जागीरदारों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुये।
वीरवर पुरुष सूजाजी की छतरी भीम कस्बे के बीच सूजावत चौक में स्थित है, बाद में अष्टधातु से निर्मित सूजाजी की प्रतिमा की स्थापना सूजावत चौक में एक स्तम्भ पर की गई है। यहां उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष चैत्र सुदी तृतीया को जंयती मनाई जाती है।
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स्त्रोत - (१). वर्धनोरा (मगरांचल) राज्य का इतिहास...
लेखक- इतिहासकार डॉ. मगनसिंह जी चौहान, कूकड़ा।
(२). रावत-राजपूतों का इतिहास...
लेखक- ठाकुर प्रेमसिंह चौहान।
(३). 'क्षत्रिय रावत-राजपूत दर्शन' (पृष्ठ सं.- ८४-८५)...
लेखक- ठाकुर गोविन्दसिंह चौहान।
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजस्थान....
पेज एडमिन– सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.- बोराज काजिपुरा, अजमेर....
प्रजावत्सल ठाकुर श्री पद्मसिंह चौहान —
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राव श्री पद्मसिंह जी चौहान उपनाम श्री पदमाजी का जन्म संवत् चैत्र शुक्ला दशमी १६२६ वि.स. तथा सन् १५६९ ईस्वी की शुभ घड़ी में बरसावाड़ा (टॉडगढ़) में लाखावतों की स्थाई बैठक के निकट के आवास में हुआ था। आप सूर्यवंशी महाराजाधिराज अयोध्याधिपति चक्रवर्ती दशरथात्मज रघुकुलभूषण श्री रामानुजम् शत्रुघ्न के वंश में उद्धव ख्यातनाम शासक राव श्री लाखन जी की २४वीं पीढ़ी में चौहानवंशीय रावत-राजपूतों की बरड़ शाखा के अंतर्गत प्रवर पुरूष राव श्री देहलाजी एवं माता श्रीमती जशकंवर के द्वितीय पुत्ररत्न के रूप में उत्पन्न हुए थे। वर्तमान में आपके नाम से पदमावत चौहान शाखा बरड़वंशीय रावत-राजपूतों में प्रसिद्धि को प्राप्त है। इस शाखा के व्यक्ति बरार में खजूरिया, हामेला की वेर, पदमेला, नानियाकूड़ी, दपटा, करणाबोर, खेदरा, तरकरेल, पूठिया, मायलाखेत, जेमाजी का वास, विलाला, हापाला, शक्करगढ़, करांतिया, आम्बा का कुआं, भोजातों का वास, मुख्य बरार, मोर नगरी, मोरड़ी का दांता, देवराज नगर, रामदेव नगर, धोरेला, ओटा आदि मजरों में बसे हुए हैं। उपर्युक्त मजरों में पदमेला का नामकरण तो आप के नाम से ही स्वयंसिद्ध है। इनके अतिरिक्त इस शाखा के व्यक्ति बरार से निकल कर अन्यत्र भी चले गये हैं, जो टोकरां, हाथीभाटा, कालेटरा, गाफा, टीबाना, अजीतगढ़, तालाब का बाड़िया, लसानी, सेंडखेड़ा, लक्ष्मीपुरा, राशमी, प्रीतमपुरा आदि गांवों में निवास करते हैं।
श्री पदमाजी अपने ज्येष्ठ भ्राता वीर राव श्री सूजानसिंह (श्री सूजाजी) के समान ही वीर योद्धा तो थे ही, साथ ही धैर्यशाली एवं धर्मानुरागी भी थे। जहां श्री सूजाजी तलवार के धनी थे वहीं श्री पदमाजी भाले से अचूक लक्ष्य संधान करने में उस काल में अद्वितीय थे। दोनों ही भाई परहितैषी, शरणागतवत्सल, गौरक्षक, उदारमना, धीर, वीर, प्रणपालक, घुड़सवारी एवं आखेटप्रिय थे। जब दोनों ही भाई युवावस्था में प्रवेश कर चुके थे तो उन्हीं दिनों इन्होंने देखा कि अपने पैतृक गांव बरार में सिन्धलों ने आंतक मचा रखा है। सजातीय एवं जनसाधारण जनों का जीना दुष्कर हो गया है, ऐसे में दोनों ही भाइयों ने संकल्पपूर्वक बरार को आंतक मुक्त करने के लिये अपने जीवन को प्रत्यक्षतः युद्ध की विभीषिकाओं में झोंक दिया। इस बीच संयोग से श्री सूजाजी के मंण्डलागढ़ जा बसने के कारण बरार एवं इसके आस-पास के क्षेत्र तथा यहां के वाशिंदों को सिन्धल राजपूतों के आंतक से मुक्त कराने हेतु आप श्री पदमाजी आजीवन संघर्षरत रहे, चूंकि उस काल में ताल एवं लसानी सिन्धलों (राठौड़ों की एक शाखा) के शक्तिशाली ठिकाने थे जो वर्धनोरा क्षेत्र में अपना राज्य विस्तार करने हेतु प्रयासरत थे। इसी सन्दर्भ में श्री सूजाजी नित्य ही मण्डलागढ़ से बरार आते एवं दोनों भाई मिलकर शत्रुओं को मार खदेड़ने के अभियानों को सफलता प्रदान करते। ऐसी ही एक दुखांतकारी घटना में श्री सूजाजी को एवं श्री पद्माजी के ज्येष्ठ पुत्र श्री खींमाजी को तो अपनी शहादत तक देनी पड़ी। श्री पदमाजी के संघर्ष भरे जीवन में इनके पुत्र भी कूद पड़े जिनमें बड़ी पत्नी से श्री खींमाजी और श्री रेणाजी थे एवं छोटी पत्नी से श्री तेजाजी, जो कि क्रमिकता में दूसरे स्थान पर आते हैं, श्री चोंपाजी, श्री गंगाजी एवं श्री वीरमजी थे। ये सभी भाई भी अपने पूर्वजों की भांति कुशल रणबांकुरे थे। इनमें से वीर श्री तेजाजी को तो पूर्व के कई वीरवरों के समान ही मां पीपलाज (आशापुरा) का पूर्ण इष्ट प्राप्त था, परिणामस्वरूप नरपुंगव श्री पदमाजी इस बरार क्षेत्र को सिन्धलों से मुक्त कराने में पूर्ण सफल रहे, जिससे यहां के समस्त निवासियों एवं आपकी भावी पीढ़ियों को एक सुरक्षित स्थान एवं शान्तिमय जीवन जीने का सुअवसर सुलभ हो सका। लोकहितैषी कार्यों के क्रम में आपने वैशाख शुक्ल नवमी संवत् १६९२ विक्रमी को शिलान्यास कराकर अपने नाम पर #_पदमेला_तालाब का निर्माण करवाया, जो आपकी स्थाई स्मृति है जिसमें राव की पोथी के अनुसार तत्कालीन हथूणगढ़ ठाकुर, नरमदेव चित्तौड़, महाराणा मेवाड़ आदि की उपस्थिति उल्लेखनीय रही थी। आप ही का अनुसरण कर आपके पुत्रों ने भी यथा निर्देश एवं आशीष प्राप्त कर संवत् १६९६ विक्रमी तथा सन् १६३९ ईस्वी में बरार का प्रसिद्ध तालाब, जिसे हमारे पूर्वज #_सुरहसागर के नाम से जानते रहे हैं, बनवाया। इसकी पाल के आधार स्थल के निकट सुरभि का एक चरण शिला में गहराई लिये हुए बहुत ही स्पष्ट रूप से अंकित है जिसके कारण इस सरोवर का सुरभिसागर नामकरण किया गया जो कालांतर में सुरहसागर कहा जाने लगा। उक्त सरोवर की पाल की तात्कालिक ऊंचाई २४ फिट ६ इंच थी, जिसे सन् १८८० ईस्वी में अंग्रेज शासकों ने ४ फीट ६ इंच और बढ़ाकर कुल २९ फिट की ऊंचाई प्रदान की, जो आज भी बरार एवं इसके निकटस्थ निवासियों के लिए जीवन रेखा का कार्य कर रहा है। सारांशतः श्री पदमाजी एवं इनके पुत्रों ने चौहान वंश की गरिमा को यथावत् रखते हुए वीरोचित कार्यों को आत्मसात कर अपने क्षेत्र में बसने वाले समस्त निवासियों के प्रति सद्भाव एवं सौहार्द का वातावरण बनाये रखा, जिसके रहते अन्य जातियों के वीरों ने भी इस ग्राम एवं इस क्षेत्र की रक्षार्थ समय-समय पर अपने प्राणोत्सर्ग किये। इसी क्रम में सामाजिक कार्मिकों को उनके द्वारा की गई सेवा एवं कार्य कुशलता के अनुसार जलीय संसाधनों सहित पर्याप्त मात्रा में कृषि योग्य तथा आवासीय भूमियां, विविध धन्यधान्य पारितोषिक स्वरूप प्रदान किये। जिनकी चिरस्मृतियां भौतिक रूप में आज भी विद्यमान हैं। इसके अतिरिक्त आपने धर्मों रक्षति रक्षितः के अनुसार देवस्थानों को भी यथोचित भूमियां देकर चौहान वंश की दानप्रियता एवं धार्मिक परम्पराओं को आगे बढ़ाया। साथ ही पांचों पुत्रों के बीच भूमि का समान बंटवारा, पर्याप्त चारागाह, सम्मिलित भूमियां आदि दूरदर्शितापूर्ण कार्यों को करते हुए अन्य जातियों को भी पुत्रवत् भूभाग देकर उन्हें स्थायीत्व एवं संरक्षण प्रदान किया।
आपने अपने जीवन में सह्रदयता एवं उदारता को अपनाते हुए बरार क्षेत्र में बसने वाले अपनी जाति के अन्य शाखाओं के साथ सदा ही सहबन्धुत्व एवं सहअस्तित्व का भाव बनाये रखा। इस प्रकार अपने जीवन को परोपकार के निमित समर्पित करते हुए ८४ वर्ष की अवस्था में संवत् १७१० विक्रमी में आपने परलोकगमन कर परम पुरुषार्थ को प्राप्त किया। आपके कीर्तिशेष होने के ३६३ वर्ष उपरांत पद्मावत चौहान शाखा के समस्त व्यक्तियों ने पारस्परिक सहयोग, सद्भाव, प्रेम, श्रद्धा एवं त्याग का परिचय देते हुए अपने पितामह वीर शिरोमणि एवं प्रजावत्सल ठाकुर श्री पद्मसिंह जी चौहान के व्यक्तित्व और कृतित्व को लोकप्रसिद्धि देने के लिए आपकी एक भव्य अश्वारूढ़ प्रतिमा का निर्माण करा कर चैत्र कृष्ण त्रयोदशी संवत् २०७३ विक्रम रविवार तदनुसार दिनांक- २६ मार्च, २०१७ को धर्म गुरु श्रीश्री १००८ श्री आयस जी महाराज नारायण वन जी ठिकाना सारण, श्री श्री १००८ श्री आयस जी महाराज पूना रावल जी ठिकाना जिलेलाव के सानिध्य में एवं पूर्व सांसद अजमेर श्री रासासिंह जी की अध्यक्षता, पूर्व गृह राज्यमंत्री श्री लक्ष्मणसिंहजी के अति विशिष्ट आतिथ्य, विधायक भीम एवं मगरा विकास बोर्ड अध्यक्ष श्री हरिसिंह जी के कार्यकाल, राजस्थान रावत-राजपूत महासभा प्रदेशाध्यक्ष श्री चतरसिंह जी, वरिष्ठ उपाध्यक्ष राजस्थान रावत-राजपूत महासभा श्री हरिसिंह जी सूजावत, रावजी कोठावत श्री ज्येष्ठसिंह जी तहसीलदार, रावजी मालावत, रावजी आपावत, रावजी भीलावत, रावजी लाखावत, रावजी कर्णावत, रावजी कानावत, रावजी चांदावत, रावजी सूजावत, रावजी पदमावत श्री देवीसिंह जी, जिला प्रमुख श्री प्रवेशकुमार जी सालवी, प्रधान भीम श्री नरेन्द्रकुमार जी बागड़ी, बरार संरपच श्रीमती पंकजा एस.पी. सिंह, प्रधान संपादक रावत-राजपूत सन्देश श्री भगवानसिंह जी सूरावत, अध्यक्ष कोठावत श्री गोपालसिंह जी पी.टी.आई. भीम, मंत्री कोठावत श्री डाऊसिंह जी प्राध्यापक टॉडगढ़, रावश्री वीरभद्रसिंह जी देवगढ़, ठाकुर दिग्विजयसिंह जी लसानी, ठाकुर चन्द्रवीरसिंह जी ताल, ठाकुर विक्रमसिंह जी, ठाकुर श्री रिपुदमनसिंह जी, ठाकुर जगजीतसिंह जी चौहान बनेड़िया, श्री प्रतापसिंह जी झाला, राजमाता उदयपुर आदि ठिकानेदारों की उपस्थिति में मुख्य अतिथि महाराणा श्री महेंद्रसिंह जी मेवाड़ के करकमलों द्वारा प्रतिमा का अनावरण कराते हुए बरार के इतिहास में एक अद्वितीय कार्य करके जाति समाज के समक्ष अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया। इस प्रकार हम सब का कर्तव्य बनता है कि हम हमारे पुरखों की पावन परम्पराओं का निर्वहन करते हुए सांस्कृतिक वैभव को पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित करके भारत माता की सेवा में सहभागी बनें।
संदर्भवश श्रीमान रावत-राजपूत प्रबोधिका लेखक– श्री किशनसिंह चौहान, बरार (राजसमंद) की स्वरचित रचना
इस वीर प्रसूता भूमि पर, कई वीर हुए मतवाले थे।
ठाकुर पद्मसिंहजी, उन वीरों में वीर निराले थे।।
चौहान वंश जाति रावत-राजपूत, कोठावत उनकी गोत थी,
पिता राव देहलाजी, माता जशवन्ता गुहिलोत थी।।
नोडोल शासक लाखनजी की, पीढ़ी तब छब्बीस थी,
सोलह सौ छब्बीस विक्रमी, चैत्र शुक्ल दशमी थी।
जन्म लेकर किया लोकहित, जन-जन के रखवाले थे।
ठाकुर पद्मसिंहजी, उन वीरों में वीर निराले थे।।
सब तरफ आंतक से यहां, नहीं कोई सुख चैन था,
शस्त्र धारण कर लिये, फिर क्या दिवस क्या रेण था।।
जीवन सारा बीत गया, संघर्ष का कोई अन्त नहीं।
सिन्धलों से टक्कर लेना, कोई खेल बच्चों का नहीं।।
सूजाजी और खीमाजी, बलिदान हुए सतवाले थे।
ठाकुर पद्मसिंहजी, उन वीरों में वीर निराले थे।।
तलवार चलाते खड़ंग-खड़ंग, तब वीरता विकराल थी।
शत्रुओं के रक्त से तब, धरती हो गई लाल थी।।
इस भूमि की रक्षा के हित, आजीवन संघर्ष किया।
लोकहित के कार्य करके, सबको सुख सहर्ष दिया।।
पदमालय और सुरभि सागर, कहते वे दिलवाले थे।
ठाकुर पद्मसिंहजी, उन वीरों में वीर निराले थे।।
स्त्रोत– रावत-राजपूत प्रबोधिका लेखक– श्री किशनसिंह चौहान, बरार (राजसमंद)
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#___जय_राजपूताना____
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर____
वीर शिरोमणी ठाकुर खोंखाजी चौहान —
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चौहान राजवंश में राव लक्ष्मण नाडोल के शासक रहे। राव लक्ष्मण के पुत्रों राव अनहल, राव अनूप व उनके वंशजो ने नरवर से दिवेर तक राज्य स्थापित किया। राव अनूप के वंशज राव वीहल जी चौहान को उनकी अभूतपूर्व वीरता के लिए मेवाड़ के शासक रावल जैत्रसिंह ने रावत की उपाधि व गढ़बोर की जागीर प्रदान की थी। इन्हीं राव वीहलजी चौहान का वंश रावत-राजपूत के नाम से जाना जाने लगा।
राव वीहल जी चौहान के वंश में क्रमशः राव गाला जी, गजगेन्द्रा, जोधा जी, करेड़माल जी, खोंखा जी (कंकराज) हुए।
ठाकुर खाेंखा जी चौहान बड़े ही पराक्रमी व बलशाली योद्धा थे। चित्तौड़गढ़ पर मालदेव सोनगरा के शासन के समय ठाकुर खोंखा जी का शासन कांकरोली ठिकाणे पर रहा था। कांकरोली में द्वारकाधीश को गढ़बोर चारभुजा जी का प्रतिरुप माना जाता है। ठाकुर खाेंखा जी की द्वारकाधीश (चारभुजाजी) में आस्था थीं। उन्होंने अपने राज्य में चारभुजा जी (द्वारकाधीश) का भव्य मंदिर बनवाया और सेवा-पूजा के निमित्त डोली (भूमिदान) दी जिसके प्रमाण दो सौ वर्ष पूर्व रावत-राजपूतों की पंचायत #_आसोटिया में लिखे गए सनद पत्र तथा ताम्रपत्र पुजारियों के पास मौजूद है। उसी भूमि पर बाद में जो नगर बसा वह स्थान कंकडोली (खांकाडोली) कहलाता है। कालान्तर में खांखाडोली का नाम कांकरोली हो गया। खोंखा जी ने नगर के मालनिया चौक में चामुण्डा माता का मंदिर भी बनवाया। नवरात्र में चामुण्डा माता की विधि विधान के अनुसार सेवा की जाती है। इन्होंने गुप्तेश्वर महादेव व धोरेवाल भैरूजी मन्दिर का निर्माण कराया जो आज भी विद्यमान है।
ठाकुर खाेंखाजी के वंशज #_खोखावत_चौहान कहलाते हैं जो छापली, कालागुमान और आसपास के क्षेत्रों में रहते हैं। आज भी कांकरोली में चारभुजा नाथ जी का मंदिर शोभायमान है जहां प्रतिवर्ष देवझुलनी एकादशी पर भव्य रथ की सवारी निकाली जाती है जिसका नेतृत्व #_छापली और #_कालागुमान के खोखावत चौहान राजपूत करते हैं। इस मंदिर का वेवाण सभी वेवाणों से आगे चलता है, प्रतिनिधित्व करता है।
खोखाजी व पत्नि संगदे भट्टीयाणी के आठ पुत्र हुये। खोखाजी के पुत्र होंजर के काबलजी (पचानपुरा) व कातिया जी (देपा लवाछा) हुए। खोखाजी के द्वितीय पुत्र रजपाल के वंश में क्रमशः तेजपाल, सोणपाल, मालाजी, कुरिया जी हुए। कुरिया जी के पुत्रों में टंटाजी, मोना व सीड़जी थे। कुरिया के द्वितीय पुत्र मोना के वंश में क्रमशः जेहा, जाला, धोलाजी (छापली बसाई) हुए।
सीड़जी खोखावत के वंश में क्रमशः हरराज, सींगा, बालूण, कीता व जीता (जीतावत थोक) हुए। बालूण के भाई समूणे खोखावत के वंश में क्रमशः रेणा, रतना के दो पुत्र भीमा व महिपाल (खेड़ा नयागांव) हुए। भीमाजी खोखावत के पुत्रों में करमा, खीमा, हाला (छापली) हुए।
भारतवर्ष के इतिहास को परिवर्तित करने में रावत-राजपूतों (#_खोखावत_चौहान_साख, वरावत चौहान साख, गुहिलोत साख) का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सन् १५८२ ई. में महाराणा प्रताप को #_वर्धनोरा क्षेत्र के वीरों व इनको गुरूद्वारों के महाजन योद्धाओं ने अकबर द्वारा दिवेर-छापली में स्थापित मुगल छावनी को समूल नष्ट कर विजय दिलाई। यह विजय स्थली मेवाड़ का मैराथन नाम से प्रसिद्ध है। इस युद्ध में सहयोग कर्ता #_खोखावत_शाखा के चौहान ठाकुर को छापली व गौमती तालेड़ी नदी के तट पर जागीरी दी गयी। महाजनों की समाधियां व छतरियां राणा कडा घाटी, छापली, मादा की बस्सी व पिपरेलू गांवो में मौजूद है जो मैराथन युद्ध के भौतिक साक्ष्य है।
स्त्रोत- (१). वर्धनोरा (मगरांचल) राज्य का इतिहास, लेखक– स्व. इतिहासकार डॉ. श्री मगनसिंह चौहान, गांव- कूकड़ा।
(२). रावत-राजपूतों का इतिहास, लेखक– ठाकुर प्रेमसिंह चौहान।
(३). छापली और महाराणा प्रताप, लेखक– इतिहासकार श्री चंदनसिंह खोखावत।
(४). राजस्थान पत्रिका उदयपुर संस्करण (दि.- १८ अक्टूबर, २०१२)।
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#जय_मां_भवानी_____
#जय_राजपूताना_____
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द, राजस्थान______
इतिहास संकलनकर्ता – सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर____
"भारत के प्रथम स्वतंत्रता क्रान्तिकारी वीर राजूसिंह चौहान" ―
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मगरे की धरती पर हमारे राजपूत समाज में अनेकों वीर, साहसी, पराक्रमी, शूरवीर योद्धा हुए है। उनकी वीरता का इतिहास बड़ा ही रोंगटे खड़े कर देने वाला व प्रेरणादायी रहा है। हमको गर्व है कि हमारे उन महापुरूषों ने क्षेत्र व समाज का नाम रोशन किया है। वीर राजूसिंह चौहान उन्हीं वीर अमर सेनानियों में से एक है। डूंगरसिंह हीरावत के पुत्र राजूसिंह का जन्म राजसमंद जिले की भीम तहसील की बरार पंचायत के ग्राम जैमाजी के वास में सन् १७९६ ई. में हुआ। उस समय देश पर अग्रेंजों का शासन था। इस क्षेत्र की तहसील टॉडगढ़ थी। अंग्रेज अधिकारी एवं कर्मचारी गांवो में आतंक व भय फैलाते थे तथा राजस्व के नाम पर मनचाही लूटखसौट करते थे। राजूसिंह के परिवार का मुख्य पेशा खेती एवं पशुपालन ही था। एक दिन राजूसिंह प्रातःकाल गायों का दूध लेकर हामालों की वेर से आये तो देखा कि राजस्व वसूली के लिए पटवारी तेजू मलाला और तीन अंग्रेज कर्मचारी बरार की हथाई पर जूते पहने हुए बैठे है। राजूसिंह ने उन्हें हथाई का सम्मान रखने हेतु जूते नीचे खोलकर बैठने को कहा। सत्ता के कारिन्दे नाराज होकर राजूसिंह को उसके खेत का लगान पांच मण की बजाय पच्चीस मण प्रति खेत के हिसाब से निर्धारित कर परेशान करने लगे। राजूसिंह ने पटवारी से वाजिब राजस्व वसूली करने को कहा, परन्तु पटवारी नहीं माना तथा पद के मद में आकर राजूसिंह के साथ दुर्व्यवहार करने लगा। इस पर राजूसिंह ने भी अपनी रक्षा में पटवारी पर बल प्रयोग किया। पटवारी ने उक्त घटना की जानकारी और शिकायत टॉडगढ़ तहसीलदार को दी। तहसीलदार ने राजूसिंह को राजद्रोह के मुकदमे में गिरफ्तार कर पेश करने के आदेश जारी किये। राजूसिंह की गिरफ्तारी के लिए एक दल बरार रवाना हुआ और पुनः जूतों सहित बरार हथाई पर जा बैठे। वीर राजूसिंह एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे। उन्होंने क्रोधित होकर सभी को पीट डाला। वे सभी भयभीत होकर गिरते पड़ते नौ दो ग्यारह हो गये। कुछ देर बाद अधिक संख्या में अंग्रेज सिपाही आये और राजूसिंह को गिरफ्तार करके ले गए। उन्हें बरार के किले में कैद रखा गया। वीर राजूसिंह के मन में पटवारी से बदला लेने की भावना तीव्र हो उठी। अपनी इष्ट देवी की आराधना व राजूसिंह के प्रयास से भाकसी का दरवाजा खुल गया। बाहर आते ही राजूसिंह ने वहां के पहरेदारों को मारकर उनकी राइफिलें व कारतूस लेकर गढ़ की दीवार कूदकर आजाद हो गए तथा घर जाकर अपने भाईयों को सारी बात विस्तार से बता दी। इसके बाद अपने भाईयों को साथ लेकर रामणिया की मगरी की ओर निकल पड़े और पटवारी तेजू मलाला को ढूंढकर मौत के घाट उतार दिया। यह सूचना जब टॉडगढ़ में अंग्रेज अधिकारियों को हुई तो राजूसिंह को पकड़ने के लिए कर्नल हॉल ने एक बड़ी विशेष सैनिकों की टुकड़ी को बरार भेजी। इस टुकड़ी ने बरार व आस-पास में भय व आतंक का ऐसा वातावरण बनाया कि लोग थर-थर कांप उठे।
इधर राजूसिंह ने अपने भाई सुजानसिंह व अन्य कुछ बहादुर युवकों का एक संघ बना लिया जिसमें मोटसिंह, देवीसिंह, नाथूसिंह, चतरसिंह बालोत (बरार) के अलावा, पूरणसिंह कानावत, गंगासिंह, पूरणसिंह मालावत (बरसावाड़ा) व अजबसिंह आपावत (मेड़ी) प्रमुख वीर सहयोगी थे। इस संघ की बहादुरी से अंग्रेज आशंकित व भयभीत थे, इसलिए सैनिक अभियान द्वारा इस संघ का दमन कर उन्हें अधीन करने के प्रयास तेज कर दिये। इस टुकड़ी ने बरार व उसके आस-पास के क्षेत्र में अनेकानेक जुल्म ढ़ाने लगी पर इन ग्रामवासियों से अंग्रेजो को राजूसिंह का कोई भी सुराग हाथ नहीं लगा।
राजूसिंह व संघ के बहादुर अंग्रेजो की आंखो में धूल झोंक कर अरावली के बीहड़ व तंग क्षेत्रों में रहकर अंग्रेज सैनिकों को मौत के घाट उतारते रहे।
वीर हालूसिंह अंग्रेजो से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए –
राजूसिंह के भाई हालूसिंह जी थे, जो कि खुजली रोग से ग्रसित होने के कारण वह छिपाला के समीप रामसिंह के दांते पर रहा करते थे। इनका भोजन प्रतिदिन ले जाने का काम इन्हीं का सालाजी (चरेड़ साख) किया करते थे। एक दिन जब चरेड़ खाना लेकर जा रहे थे, तब उसके पीछे अंग्रेज सैनिक लग गये और वहां जाकर पहाड़ी क्षेत्र पर घेरा डाल दिया। जब चरेड़ हालूसिंह को भोजन देकर लौटने लगा, तब हालूसिंह को कुछ हलचल महसूस हुई, अपरिचितों की आवाजें सुनी तो उसे खतरे की भनक लग गई और वह सतर्क हो गया। उसने वहां आस-पास घेरा डाले सैनिकों को देखकर वहां से निकलने के बजाय मुकाबला करने की ठान ली। ज्योंहि कुछ अंग्रेज सैनिक उसकी ओर आगे बढ़े तो हालूसिंह ने तलवार से हमला करके कुछ सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया, एक गोली हालूसिंह के पेट में लगी, जिससे आंत बाहर निकल आई। इस पर भी वह वीर विचलित नहीं हुआ और अपनी पगड़ी से अपने पेट को बांधकर भीषण संघर्ष करते हुए अंग्रेज सैनिकों को मौत के घाट उतारने लगे। बाद में कई गोलियां हालूसिंह के सीने में लगी और हालूसिंह वीरगति को प्राप्त हो गया। धन्य है वह राजपूत वीर जिसने अकेले ही अंग्रेज सैन्य टुकड़ी से लोहा लिया और वीरगति को प्राप्त हुआ।
अब अंग्रेज सैनिको ने मृत हालूसिंह को उठाकर टॉडगढ़ ले आये और इनका सिर काटकर खूंटाली बड़ी स्थान पर पेड़ पर लटका कर तैनात हो गये। अंग्रेज इसी तरह से क्षेत्र में भय व आतंक व्याप्त करना चाहते थे। ज्ञातव्य है कि मगरे के राजपूत स्वतंत्रता प्रिय रहे हैं। अंग्रेजों के आगमन से पूर्व इस क्षेत्र के राजपूतों ने कभी भी पड़ौसी रियासतों की अधीनता स्वीकार नहीं की तथा सदैव स्वतंत्र रहे है। इन्हें अधिकार में लेने के लिए अंग्रेजों को भी साम-दाम दंड-भेद सभी तरह के हथकंड़े काम में लेने पड़े थे।
राजूसिंह ने भाई की हत्या का बदला लिया –
राजूसिंह की मां प्रेम कंवर को जब पता चला कि उसका पुत्र हालूसिंह वीरतापूर्वक अंग्रेजो से युद्ध करते हुए बलिदान हो गया है तथा उसका सिर अंग्रेजो ने सार्वजनिक स्थान पर लटका रखा है तो उसने राजूसिंह को संदेश भिजवाया कि " जाओ, अपने भाई की हत्या का बदला लो और भाई के सिर को लाकर दाह संस्कार करो।" राजूसिंह ने मां के आदेश को शिरोधार्य कर अपने साथियों के साथ रात्रि में टॉडगढ़ पहुंचे और भूखे शेर की तरह सैनिकों पर टूट पड़े और सैनिकों को मार गिराया। वहां से भाई के सिर साथ लेकर दूर निकल गये। घास के ढेर पर शव का अंतिम संस्कार हो रहा था कि वहां अंग्रेज अधिकारी आ गये। अंग्रेज अधिकारियो ने अधजले सिर को लाकर पुनः टांग दिया। वहां दुगुनी बड़ी सख्यां में अंग्रेज सैनिकों को तैनात कर दिया। यह जानकारी राजूसिंह को फिर हुई तो पुनः योजना बनाकर उसी रात्रि को तीसरे पहर में अंग्रेज सैनिकों पर आक्रमण कर दिया और सैनिकों को गाजर मूली की तरह काटकर भाई का सिर साथ लेकर कातर की घाटी (बराखन) होते हुए मांगटजी के दांता के समीप पहुंचकर वहां सिर का दाह संस्कार किया। कुछ देर बाद वहां कर्नल हॉल पीछा करते हुए सेना के साथ आ पहुंचे। इन्हें मांगटजी के पहाड़ से उतरते समय राजूसिंह की टोली ने देख लिया था। राजूसिंह के सहयोगी अजबसिंह ने खाखरे के पेड़ की ओट लेकर अचूक निशाना तानकर बंदूक से ऐसी गोली चलाई कि एक सीध में चल रहे १६ अंग्रेज सैनिक एक साथ मारे गए। धन्य है वह वीर और उसकी निशानेबाजी व अद्भूत वीरता जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए उतनी ही कम है। बहादुरी की ऐसी मिसालें रावत-राजपूतों के इतिहास में अनेकों रही है। इस अकस्मात् आक्रमण पर कर्नल हॉल हक्का बक्का रह गया और सैनिकों को स्थिति लेकर धावा बोलने का आदेश दिया। इस मुकाबले में राजूसिंह के परम सहयोगी अजबसिंह मारा गया जिसकी एक गोली से १६ अंग्रेज सैनिक शिकार हुए थे। मौका देखकर इस मृत सहयोगी को उठाकर राजूसिंह व सहयोगी वहां से निकल गए और वर्तमान में सारण बोरीमादा गांव के समीप वायड़ क्षेत्र में लाकर मृत सहयोगी का सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया। इसी वायड़ के जंगल से इन्हें भगवानपुरा के कुंवर मांडिया मुकलावा ले जाते हुए मिले। मांडिया की कंवरानी ने यहीं पर राजूसिंह के राखी का धागा बांध कर अपना धर्मभाई बनाया था। राजूसिंह ने अपनी इस बहन को अपनी सारी स्थिति बताकर कहा कि "इस समय तो मैं आपकी ज्यादा सेवा करने में असमर्थ हूं, फिर भी मेरे लायक सेवा हो तो बता दो। " बहन ने भाई से कहा कि 'हमें इस जंगल से सुरक्षित बाहर निकालने में सहयोग करे।" कंवरानी ने एक पत्र अपने पिता के नाम लिखा कि राजूसिंह चौहान मेरा धर्म भाई है, आवश्यकता पड़े तो इनको सहयोग करें। यह पत्र कंवरानी ने राजूसिंह को दिया और कहा कि "आवश्यकता पड़े तो यह पत्र दिखाकर मेरे पिताजी से सहयोग ले लेना।"
राजूसिंह ने भेंट स्वरूप एक अंगूठी अपनी इस बहन को दी और कहा कि "रास्ते में कोई परेशानी आए तो बता देना कि वह राजूसिंह की बहन है।" राजूसिंह ने अपने एक सहयोगी को दोनों को जंगल से बाहर तक सुरक्षित पहुंचाने का आदेश किया। इस तरह राजूसिंह ने इन्हें सुरक्षित जंगल से निकलवाने में सहायता की।
राजूसिंह मांडिया पहुंचे और ठाकुर की मदद ली –
इस जंगल में राजूसिंह व इनके संघ के लिए रसद सामग्री की कमी आई तो वे मारवाड़ के गांव सारण चले गए। किसी मुखबिर ने यह सूचना अंग्रेजो को पहुंचा दी। कर्नल हॉल ने अपने सिपाहीयों को लेकर संग नदी के तट के समीप राजूसिंह व इनके साथियों पर हमले किये, परन्तु वे इनसे बचते हुए मांडिया जा पहुंचे। राजूसिंह ने मांडिया के ठाकुर रामसिंह को अपनी धर्म बहन का पत्र देकर कहा कि हमारे पीछे अंग्रेज सेना आ रही है, यहां से सुरक्षित निकालने में सहायता करे। इधर रात्रि का समय हो जाने से अंग्रेज सेना ने गांव के चारो ओर मजबूत घेरा डाल दिया। ठाकुर ने चतुराई की तथा राजूसिंह को दूल्हा बनाया और उनके सहयोगियों को बाराती बना कर प्रातःकाल से पूर्व ऊंटो पर सवार कर इन्हें गांव से बाहर निकाल दिया। कर्नल हॉल ने प्रातःकाल गांव की तलाशी ली तो उन्हें कुछ नहीं मिला। बाद में जानकारी हुई कि ऊंटो पर जा रही बारात ही राजूसिंह का दल था।
कर्नल हॉल को जान बचाकर भागना पड़ा –
राजूसिंह व इनके सहयोगी अरावली के पहाड़ी क्षेत्र में पहुंचे और पहाड़ी की एक तंग घाटी में मोर्चा लेकर बैठ गए। मांडिया से अंग्रेज सेना राजूसिंह का पीछा करते हुए ज्योहि तंग पहाड़ी घाटी के मध्य से गुजरने लगी तो अचानक राजूसिंह व उसके साथियों ने हमला कर दिया जिसमें कई अंग्रेज सैनिक मारे गये, सैनिकों की कम संख्या देख हॉल ने महसूस किया कि कहीं यहीं मारे न जाए, यह सोच कर कर्नल हॉल भाग कर टॉडगढ़ लौट आया।
राजूसिंह ने १२ वर्षो तक किये छापामार युद्ध –
कर्नल हॉल, कर्नल टॉड व कर्नल डिक्सन के साथ राजूसिंह १२ वर्षो तक छापामार युद्ध करते रहे। राजूसिंह ने इस दौरान अपने सहयोगियों से मिलकर अंग्रेजों की विभिन्न चौकी-छावनियों पर हमले किये तथा अनेक अग्रेंज सैनिकों को मौत के घाट उतार दिये। इस तरह इस युद्ध में अंग्रेज सेना बुरी तरह परेशान व आतंकित रही। अंग्रेज सेना राजूसिंह और उसके संघ के कारण मगरे पर पूर्ण आधिपत्य पाने में कामयाब नहीं हो पा रही थी।
इस तरह ब्रिटिश शासन से १२ वर्ष के लम्बे संघर्ष के उपरान्त एक दिन अग्रेंजों ने षडयंत्रपूर्वक राजूसिंह को गिरफ्तार कर लिया और उसे असहनीय यातनायें देते हुए ब्यावर लाकर १८ अप्रेल, १८४२ ई. को सैकड़ो लोगों के सामने फांसी दे दी गयी जिससे वीर राजूसिंह शहीद हो गए।
धन्य है ऐसे वीर जिसने आन-बान शान के लिए विदेशी शासकों के अन्याय के प्रति संघर्ष किया तथा वीर क्षत्रिय रावत-राजपूत जाति का नाम रोशन किया।
उसने इस उक्ति को चरितार्थ किया ☞
माई जणे तो एहड़ा जण, के दाता के सूर।
नहीं तो याते बांझ भली, वृथा गंवाये नूर।।
आन, बान और शान के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले मगरे के वीर राजूसिंह चौहान की वीरता और पराक्रम को स्मरण करते हुए संपूर्ण मगरे क्षेत्र में फाग के लोकगीतों के रूप में श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है।
स्त्रोत– (१).मगरे के वीरों की गौरव गाथायें लेखक– 'इति. डॉ. श्री मगनसिंह चौहान।
(२). वर्धनोरा राज्य का इतिहास।
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#___जय_मां_भवानी____
#___जय_राजपूताना____
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर____
स्वादड़ी ग्राम के संस्थापक वीर शिरोमणी #_ठाकुर_संग्रामसिंह #_सिसोदिया —
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बप्पा रावल के पुत्र खेम रावल के वंश में भादूजी हुए जिनके वंश परंपरा में सूडजी के दो पुत्र कच्छजी व खंगारजी हुए। कच्छजी के वंशज #_काछी_गुहिलोत कहलाये। कच्छजी की वंश परम्परा में #_सांभ्राजी (संग्रामसिंह) हुए जिन्होंने #_स्वादड़ी ग्राम बसाया। ग्राम में संग्रामसिंह जी अश्वारोही प्रतिमा विराजित है, जो आज भी तत्कालीन गौरवमयी इतिहास का भान कराती है। साथ ही यहां माता स्वादड़ी विराजित है, जहाँ नवरात्रि में काछी गोत्र के गुहिलोत सरदार धोक लगाने आते हैं।
लेखक- स्व. इतिहासकार डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, ठि.- कूकड़ा।
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स्वाभिमानी रावत राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर____
वीर शिरोमणी रावत वराहसिंह चौहान —
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________जीवन परिचय_________
जन्म – आषाढ़ शुक्ला ५ संवत् सन् १३७५
वीरगति – चैत्र वदी ९ संवत् १५३४ सन् १४७७
पिताश्री – रामण जी (रामणोत)
माताश्री – राधा बाई पंवार
दादा श्री – राव धोधा जी
परदादा श्री – भीमसिंह चौहान (आप चौहान वंश के कुल गौरव एवं चित्तौड़ के सूबेदार मालदेव चौहान के सहयोगी तथा चित्तौड़ के शासक राणा हम्मीर के समकालीन थे।
धर्मपत्नी – रेणु बाई बूजरावत
छोटे भ्राता – बाहड़ जी (बाहड़ोत)
सुपुत्र – (१). जैतमल जी (शाखाएँ- चाचावत चौहान, मोकावत चौहान, हालावत चौहान)
(२). नीम्बरजी (शाखाएँ- डूंगावत चौहान, कानावत चौहान, गोदावत चौहान, मोखावत चौहान, कीतावत चौहान, खीमावत चौहान, सोडावत चौहान, मेरावत चौहान, रत्नावत चौहान, कूम्पावत चौहान)
इतिहास लेखक – स्व. इतिहासकार डॉ. श्री मगनसिंह जी चौहान, कूकड़ा
पेज एडमिन – सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर...
क्षत्रिय राजपूत समाज में यशस्वी पृथ्वीराज चौहान हुए हैं। चौहान राजवंश में राव लक्ष्मण (लाखनसी) नाडोल के शासक रहे। राव लाखनसी के पुत्रों राव अनहल, राव अनूप व उनके वंशजो ने नरवर से दिवेर तक राज्य स्थापित किया। राव अनूप के वंशज राव वीहल जी चौहान को उनकी अभूतपूर्व वीरता के लिए मेवाड़ के शासक रावल जैत्रसिंह ने रावत की उपाधि व गढ़बोर की जागीर प्रदान की थी। इन्हीं राव वीहलजी चौहान का वंश रावत-राजपूत के नाम से जाना जाने लगा। राव अनूप की १६वीं पीढ़ी में शूरवीर सलाखा पुरुष भीमसिंह चौहान हुए, जिन्होंने वीरता व पराक्रम से मुगल बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी से दिल्ली की ७ दिन की बादशाही प्राप्त की। इन्हीं भीमसिंह चौहान के पौत्र रामणजी (रामणोत) व प्रपौत्र वराजी (वरावत) हुए।
वरा जी चौहान अत्यन्त स्वाभिमानी, निडर व शूरवीर थे। वे जब १३ वर्ष के थे, तब बरजाल की पहाड़ियों में एक राजकुमार शिकार खेलने आए। उन पर शेर ने हमला कर दिया। घायल राजकुमार के चिल्लाने पर वरा जी तेजी से पहुंचे और अपनी वीरता से शेर को मार डाला। इस वीरता के लिए वरा जी को वराह का अवतार माना जाने लगा और यह लोकोक्ति प्रसिद्ध हुई –
सिंह घायल किए, बेल आए अवतारी पुरुष।
तेरह वर्ष की उम्र में, वर से वराह बने अवतारी पुरुष।।
इन्हीं वराह जी के दो पुत्र जैतमल जी व निम्बर जी हुए, जिनके वंशज टोगी, सोहनगढ़, बरजाल, बाघाना, दिवेर, कालागुमान, जीरण, स्वादड़ी, विजयपुरा, आंजणा, दौलपुरा, बार, शेखावास, करमाल, बोगला, भगोड़ा, फुलाद, सारण, सिरियारी, बोरीमादा, बड़ास, शिवपुर, ज्ञानगढ़, मोगर, चैनपुरा, ओजियाणा, बनजारी, बाड़ाखेड़ा, कणुजा, किशनपुरा, कोटड़ा, जालिया प्रथम आदि ग्राम पंचायतों में लाखों की संख्या में बसे हुए हैं। वरावत चौहान साख में रावत-राजपूत समाज की कई उल्लेखनीय प्रतिभाएं हुई है।
सर्वप्रथम १७वीं शताब्दी में बरजाल में साहसी, संकल्प के धनी वीर हालूसिंह जी हुऐ। उन्होंने देवगढ़ के सामन्तों द्वारा गांव के ऊपर पहाड़ी पर गढ़ के निर्माण का संघर्षपूर्वक विरोध किया। सामन्त दिन में निर्माण करते और वीर हालू जी के नेतृत्व में बरजालवासी उसे गिरा देते। हारकर सामन्त अधूरे गढ़ को छोड़कर देवगढ़ जा बसे, जिसकी एक कविता प्रसिद्ध है –
रावजी गढ़ चणाविया दियो अम्बर सूं अड़ाय।
हमलो कियो हालू चौहान, दियो गोडा सूं गडाय।।
करीब ११० वर्ष पूर्व मेजर फतेहसिंह जी चौहान ने नन्दावट में जन्म लिया। वे महान समाज सुधारक पुष्कर, ब्यावर, भीम से चार बार विधायक, भारतीय थल सेना में समाज के प्रथम कमिशन्ड अधिकारी, सुप्रसिद्ध एडवोकेट तथा राजस्थान रावत-राजपूत महासभा के संस्थापक रहे हैं। उन्होंने समाज के लिए अनेक कार्य किए। शिरोमणी रावत रत्न से सम्मानित मेजर साहब निडर, सत्यवादी थे, जिन्होंने दशकों पूर्व दूर-दराज गांवों में पैदल चलकर समाज सुधार की चेतना जागृत की। उनके पुत्र डॉ. लक्ष्मणसिंह चौहान कॉलेज व्याख्याता, भारतीय वायु सेना में स्क्वाड्रन लीडर (मेजर), तीन बार भीम-देवगढ़ से विधायक, एडवोकेट व राजस्थान रावत-राजपूत महासभा के अध्यक्ष रहे। अध्यक्ष कार्यकाल में उन्होंने जयपुर, उदयपुर, अजमेर व कामलीघाट में रावत-राजपूत भवन बनवाए तथा वीर राजूसिंह जी चौहान व वीर हालूसिंह जी चौहान की मूर्तियों का निर्माण करवाया। वे राजस्थान सरकार में गृह, वित्त, उद्योग, ऊर्जा आदि विभागों में मंत्री रहे। वर्तमान में राज्य वित्त आयोग के सदस्य है। इनकी धर्मपत्नी बसन्त रावत ने रावत-राजपूत समाज की पहली जिला प्रमुख (राजसमन्द) बनने का गौरव प्राप्त किया। इनके सुपुत्र सुदर्शनसिंह चौहान वर्तमान में भीम-देवगढ़ से विधायक हैं। नन्दावट से ही हरिसिंह चौहान भीम-देवगढ़ से तीन बार विधायक तथा राज्य मगरा विकास बोर्ड के अध्यक्ष रह चुके हैं।
महाराणा प्रताप सन् १५८२ में दिवेर छापली के आस-पास निवास कर रहे थे, जहाँ रावत-राजपूत बाहुल्य क्षेत्र है। सन् १५८२ की विजयादशमी को महाराणा प्रताप की सेना द्वारा (जिसमे रावत-राजपूत भी थे) अकबर के सेनापति बहलोल खाँ व सुल्तान खाँ मारे गए व उन्हें निर्णायक विजय प्राप्त हुई। तत्पश्वात् मेवाड़ के ३६ मुगल थाने व ८४ चौकियाँ छोड़ कर मुगल भाग गए। इस ऐतिहासिक रावत-राजपूतों के अभूतपूर्व सहयोग पर दिवेर ठिकाना जोधा जी वरावत को मिला । भारतवर्ष के इतिहास को परिवर्तित करने में रावत-राजपूतों (वरावत चौहान साख, खाखावत चौहान साख, गुहिलोत साख) का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
रावत वराहसिंह चौहान के भव्य स्मारक का लोकार्पण –
राजसमंद जिले के भीम नंदावट स्थित राष्ट्रीय राजमार्ग- ८ के समीप वराहजी परमार्थ संस्थान द्वारा बनाए वराहसिंह चौहान के भव्य स्मारक का गुरुवार १५ जुलाई, २०२१ को सारण के आयशजी महाराज बख्तावर के मुख्य आतिथ्य में समारोह पूर्वक लोकार्पण सम्पन्न किया गया।
समारोह की अध्यक्षता डॉ. लक्ष्मणसिंह चौहान (सदस्य राजस्थान वित्त आयोग एवं पूर्व मंत्री राजस्थान सरकार) ने की। इस अवसर पर भीम-देवगढ़ के विधायक सुदर्शन सिंह चौहान, पूर्व जिला प्रमुख राजसमंद बंसत रावत, संत सोनू महाराज सिरियारी, राजस्थान राजपूत महासभा के प्रदेशाध्यक्ष पूनम सिंह मोगर, पूर्व अध्यक्ष भगवानसिंह चौहान कामलीघाट व पृथ्वीसिंह कुंपावत सोजत सिटी, लालसिंह रावजी नंदावट थे।
वराहसिंह जी चौहान के जयकारों से आकाश गुंजायमान के मध्य सभा भवन की दूसरी मंजिल पर बने रावत राजपूत वराहसिंह चौहान के भव्य अश्वारूढ़ स्मारक का अनावरण व लोकार्पण हुआ। इसके बाद श्री वराह जी परमार्थ संस्थान ने अतिथियों का माला, तिलक, साफा, शाल द्वारा स्वागत अभिनंदन किया। समारोह में डॉ. लक्ष्मणसिंह चौहान ने अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में पितामह रावत-राजपूत वराहसिंह चौहान के इतिहास की जानकारी दी एवं श्री वराह जी परमार्थ संस्थान नंदावट द्वारा करवाये जा रहे कार्यों की प्रशंसा की। आपने सभी अतिथियों का आभार व्यक्त किया। वर्तमान में वरावत रावत-राजपूत समाज ५०० से अधिक गांवों में आबाद है, जो पाली, राजसमंद, अजमेर, भीलवाड़ा, उदयपुर, चित्तौड़गढ़ जिलों के अलावा गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली, विदेशों में भी निवास करते हैं।
इस अवसर पर प्रदेश प्रवक्ता माधुसिंह चौहान, भंवरसिंह कातेला, गोविंदसिंह नंदावट, केसरसिंह कालादेह, रूपसिंह कुआथल, अमरसिंह भीम, नारायण सिंह टोगी, दूधसिंह नंदावट, चापसिंह कामलीघाट, करणसिंह सिरियारी, बालूसिंह बोरीमादा, मदनसिंह सारण, लक्ष्मणसिंह सारण, सरपंच गजेंद्रसिंह, मदनसिंह सरपंच करमाल चौराया, कैप्टन मंगलसिंह पूर्व प्रधान, सरपंच लक्ष्मणसिंह फुलाद, इंस्पेक्टर हीरासिंह, वेणसिंह दिवेर, सहदेव सिंह ब्यावर, पूर्व सरपंच नैनूसिंह, हरिसिंह, रामसिंह, प्रभुसिंह सहित अनेक जातीय सरदार उपस्थित थे।
स्त्रोत-
(१). बदनोरा ( मगरांचल) राज्य का इतिहास लेखक- स्व. इतिहासकार डॉ. श्री मगनसिंह चौहान, गांव- कूकड़ा।
(२). रावत वराहसिंह चौहान स्मारक पर उत्कीर्ण लेख।
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#जय_मां_भवानी______
#जय_राजपूताना______
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द, राजस्थान______
पेज एडमिन – सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर___
वीर शिरोमणी रावत डूंगरसिंह देवावत —
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वीर प्रसुता भूमि राजस्थान के क्षत्रियकुल में चाहमान से चौहान वंश चला। चाहमान की १३वीं पीढ़ी में राव लक्ष्मण हुए जिन्होंने अपना नया राज्य नाडोल (वि.स. १०२४-३९) में स्थापित किया। इनके पुत्र राव अनहल, राव अनूप, आसल, शोभितसोही व अजेतसिंह हुए। राव अनहल चौहान का वंश चीतावंशीय रावत-राजपूत नाम से जाना जाता है।
राव अनहल की २७वीं पीढ़ी में देवाजी हुए। देवाजी चौहान ने १५१४ ई. में देवाता ग्राम अपने नाम से बसाया। देवाजी के वंशज #"_देवावत_चौहान" कहलाते है।
देवाजी चौहान के ज्येष्ठ पुत्र बालाजी चौहान थे जो पराक्रमी वीर पुरुष थे। इन्होंने बगड़ी ठाकुर जेतावत राजपूत को शरण दी थी। इन्होंने खोड़िया के ऊपर की ओर "#_बालागढ़" बनवाया जो आज भी विद्यमान है।
बालाजी चौहान के लिए निम्न उक्ति प्रसिद्ध है-
वा बगड़ी आ भगड़ी, वा राजपूत टिकायत का नाम।
आ भगड़ी और वा बगड़ी सूरवीरां रो गांव।।
दासी को मांसी कहीजे बांदी को कहीजे बहन।
हटपटिया से मिलकर रहो, सब बात को चैन।।
बालाजी के पांच पुत्रों में #_डूंगाजी (डूंगरसिंह), तेजाजी, हीराजी, डाऊजी, हाजीजी हुए।
#_डूंगरसिंह_चौहान – इनके वंशज #_बेलपना, कोट-किराना, खोड़़माल, सीरमा, धूकलपुरा व समेल में रहते है। #_डूंगरसिंह की वंश परम्परा में वीरमजी के वंशज "वीरमोत चौहान" कहलाते है।
स्त्रोत–
वर्धनोरा राज्य का इतिहास। लेखक– स्व. इतिहासकार डॉ. मगनसिंह चौहान।
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#___जय_मां_भवानी_____
#___जय_राजपूताना_____
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजस्थान....
लेखनकर्ता– सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर.....
“ठाकुर हालूजी वरावत (मोरेचा चौहान)” ―
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प्रस्तुत विरोचित इतिहास १५वीं शताब्दी का है। बरजाल (भीम) के नंगाजी वरावत (मोरेचा चौहान) को जोजावर (पाली) राजघराने ने कारवाड़ा के आस-पास की जागीर प्रदान की, फलतः वे कारवाड़ा में आकर आबाद हो गए। यहां के मीणा जोजावर क्षेत्र में आए दिन उत्पात मचाते थे, उन्हें नंगाजी वरावत ने अपने बल व सूझबूझ से कुचल दिया। नंगाजी वरावत कभी कभार मारवाड़ पर आक्रमण करने जाते थे। जब आक्रमण करने जाते तो कारवाड़ा की पहाड़ी पर रात्रि में रोशनी करके जाते ताकि वापस लौटते समय रास्ता न भटके। जोजावर से जुड़ा मारवाड़ में आऊवा ठिकाणा है। एक दिन आऊवा ठाकुर ने कारवाड़ा की पहाड़ी पर रात्रि में रोशनी देख किसी दरबारी से पूछा कि पहाड़ी पर यह रोशनी किसने कर रखी है? तो दरबारी ने कहा कि यह तो रावत-ठाकुर ने कर रखी है। इस पर आऊवा ठाकुर ने दरबारी को कहा कि कभी दिखाओ तो सही, कैसा है यह रावत-ठाकुर। दरबारी एक दिन कारवाड़ा पहुंचा और नंगाजी से अनुरोध किया कि आऊवा ठाकुर मिलने के इच्छुक है अतः आऊवा पधारो। इस पर कहते हैं कि नंगाजी के बड़े पुत्र हालूजी घोड़े पर सवार होकर आऊवा रावले में पहुंचे थे। झरोखे में से ठाकुर-ठकुराणी ने हालू का आकर्षक व्यक्तित्व देखा। इसी समय ठकुराणी के मुंह से निकला कि भलो जणियो ए रवताणी मर्द। ठाकुर सा. को ये शब्द बड़े बुरे लगे और कह दिया कि यह रावत-ठाकुर अच्छा लगा तो इसी के साथ चली जा। ठकुरानी ने अनुनय विनय किया पर ठाकुर सा. ने मानस नहीं बदला। ये ठकुराणी मान कंवर थी जिसका पीहर भेषाणा था। कहा जाता है कि हालूजी के साथ आऊवा ठकुराणी कारवाड़ा आई परन्तु इन्हें हालूजी वरावत ने बहन मानकर अपने यहां रखा।
७-८ माह पश्चात् आऊवा ठाकुर सा. के मन में हालू से बदला लेने की ठानी और बड़ी संख्या में सैनिक लेकर कारवाड़ा आ धमके। यहां अवसर पाकर हालूजी की धोखे से तलवार से गर्दन काटकर शीश लेकर वापस चल पड़े। जब हालूजी के भाईयों को पूरी घटना की जानकारी मिली तो वे भी तुरंत आऊवा की ओर कूच कर गए। कहते हैं कारवाडा़ गांव की पू्र्वी दिशा में रेणिया बांध के पाल के पीछे जहां दोनों पक्षों में संघर्ष हुआ वहां सड़क किनारे बना स्मारक आज भी उसकी यादें ताजा कर देता है। यहीं पर युद्ध में हालूजी के ५ भाई वीरगति को प्राप्त हुये। वहीं २७ आऊवा सैनिक भी मारे गए, अन्त में हालूजी का शीश आऊवा वालों से छीन हालूजी के शेष बचे भाई कारवाड़ा आए जहां विधिवत हालूजी का अंतिम संस्कार किया गया जिनके साथ उनकी पत्नी व आऊवा ठकुराणी भी सती हुई। आज भी उस स्थान पर हालूजी के साथ ननद, भोजाई का स्मारक विद्यमान है। यहीं हालूजी के पांचो भाईयों के भी स्मारक है।
यहां आऊवा ठिकाणे वाले आज भी ठकुराणी की पूजा-अर्चना के लिए पिछले ८-१० वर्ष से हर वर्ष आने लगे हैं तथा हालूजी के साथ ननद-भोजाई वाले स्मारक का जीर्णोद्धार भी आऊवा ठिकाणे ने ही करवाया बताते हैं। इस तरह की ठकुराई दिखाने वाले नंगाजी वरावत के परिवार वाले आज कारवाड़ा, गुड़ा भोपत व हालेला गांवों में आबाद है।
पोस्ट साभार– ठाकुर पन्नासिंह गुहिलोत, प्रधानाचार्य जोजावर....
स्वाभिमान रावत-राजपूत संस्था राजस्थान....
पेज एडमिन– सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज काजिपुरा, अजमेर...
वीर शिरोमणी ठाकुर शूरा जी चौहान —
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चौहान राजवंश में नाडोल के शासक राव लक्ष्मण के ज्येष्ठ पुत्र राव अनहल का वंश चीतावंशीय रावत-राजपूत के नाम से जाना जाता है। राव अनहल चौहान की १७वीं पीढ़ी में रोड़वा भादसी (बदनोर) के ठिकाणेदार राव करणसी, २५वीं पीढ़ी में गजराज चौहान, २७वीं पीढ़ी में बोरवाड़ के ठिकाणेदार नरा चौहान (नाहरसिंह) व २८वीं पीढ़ी में #_बर_मारवाड़ के शासक शूरा चौहान हुए।
रावत शूरा जी चौहान इतिहास पुरूष रावत नरा जी चौहान के पुत्र एवं #_कूकड़ा के ठिकाणेदार रहे रावजी पंचोंण जी चौहान के पिता थे। शूरा जी के वंशज #_सूरावत_चौहान कहलाते है।
शूरा जी चौहान की वीरता व पराक्रम बारे में एक उक्ति इस प्रकार प्रसिद्ध है–
शूरो ठाकुर सूरमो, धोलेगढ़ धेरा।
कांढलियों धड़का करे, जब निकले चंकरबन्द चीता।।
नरा जी के पुत्र शूरा जी को बर ठिकाणा प्राप्त था। जगन्नाथसिंह उदावत राठौड़ ने शूरा जी की धोखे से हत्या करके बर ठिकाणे पर आधिपत्य कर लिया। बर ठिकाणे पर राठौड़ो का अधिकार हो जाने पर इनके वंशगण काणुजा, रावतमाल होते हुए सुरक्षित स्थल कुकड़ा में आकर बस गये। शूरा जी की छतरी #_माकड़वाली में आज भी विद्यमान है। शूरा जी के पुत्रों में पंचोंण जी और लाल जी थे।
बर मारवाड़ के शासक शूरा जी चौहान के स्मारक का जीर्णोद्धार कार्य –
ऐतिहासिक धरोहर शूरा जी के स्मारक का राजस्थान रावत-राजपूत महासभा ब्यावर के वरिष्ठ महामंत्री एवं जागरूक समाजसेवी प्रधानाचार्य श्री मानसिंह चौहान (निवासी-भीला, कानूजा) के विशेष प्रयासों व देखरेख में तथा भामाशाह श्री आनन्दसिंह चौहान (निवासी-सूरड़िया, जवाजा) के आर्थिक सहयोग से जीर्णोद्धार कार्य हुआ था। यह स्मारक रावत-राजपूत समाज की ऐतिहासिक धरोहर है।
स्त्रोत– वर्धनोरा राज्य का इतिहास, लेखक– स्व. इतिहासकार डॉ मगनसिंह चौहान कूकड़ा।
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
पेज एडमिन ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर
वीर शिरोमणी ठाकुर बरगा जी चौहान —
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हमारे #_वर्धनोरा/बदनोरा (#_मगरांचल) राज्य के रावत-राजपूत समाज में अनेकों ऐसे शूरवीर हुए है जिनके स्वाभिमान, शौर्य, वीरता तथा रणबांकुरेपन का अद्भुत एवं अनुपम गौरवमयी इतिहास रहा है और जिन्होंने हमारे क्षत्रिय कुल की मान मर्यादा को भी जरासी आंच नहीं आने दी थी। जब उनके जीवन और शौर्य भरे कार्यों को याद करते है तो गर्व से हमारा सीना फूल जाता है। हम उनके वंशज भी धन्य हो गये है कि हमारे पूर्वजों ने अपने मान-सम्मान को कभी नहीं लजाया। जब अन्य क्षत्रिय कौमों ने मुगल बादशाहों की ताकत के समक्ष समझौता किया, उस समय भी हमारे पूर्वज आतताई व शक्तिशाली मुगल शासकों के सामने नहीं झुके थे और अपमानकारी समझौता नहीं कर अपने कुल के मान-सम्मान व गौरव को बचाये रखा था। अंग्रेजों से भी हमारे पूर्वजों ने समझौता करने के बजाय संघर्ष एवं मुकाबले का साहस किया था। यह सभी किसी से छुपा हुआ नहीं है। इसी मातृभूमि एवं रणबांकुरों के इस स्वाभिमानी राजपूत समाज का एक शूरवीर सपूत एवं महातेजस्वी कुलपुरुष बरगा जी चौहान भी रहे हैं।
ठाकुर बरगा जी चौहान –
बरगा जी चौहान हमारे चौहान कुल शिरोमणी राव लक्ष्मण नाडोल की १२वीं पीढ़ी में तथा चीतावंशीय राणा बलराय जी चौहान के बड़े पुत्र थे। आपके पिता का भी शौर्य भरा इतिहास रहा है जिन्हें #_वैराटगढ़ की राजगद्दी तथा राणा की पदवी मिली थी। इसी कारण आपके पुत्र भी बरगा राणा व खेता राणा के नाम से भी इतिहास में जाने जाते है। चीतावंशीय चौहान बरगा जी राणा बडे़ ही शूरवीर, प्रतापी, सत्यवादी एवं महातेजस्वी योद्धा थे। आप पर कुलदेवी भवानी आशापुरा माता की असीम कृपा थी। कहा जाता है कि बरगा जी को उनकी ढाल के नीचे हर हर सुबह एक सोने की मुहर मां आशापुरा की कृपा से मिला करती थी, जिसे वे आधा सेवकों व आधा स्वयं के खर्चें में उपयोग में लिया करते थे। बरगा जी के काफिले में ऊंटो व घोड़ों की बड़ी संख्या रहती थी। आपके सेना के दलों में बहुत अच्छा तालमेल था और वे चतुरता व वीरता से लड़ा करते थे। बरगा जी अपनी प्रजा को सदैव सह्रदयता से दान-दक्षिणा देकर ध्यान रखते थे, इसी कारण आप प्रजा में अच्छे मान-सम्मान के पात्र बने हुए थे। पानी के सुविधा के लिए आपने तालाब बनवाये। कूकड़ा गांव की वर्तमान पाल भी आप ही के द्वारा बनवाई गई थी।
✽. भगड़ी पर खेता जी चौहान का अधिकार –
राणा बलराय जी वैराटगढ़ के राजा होते हुए भी वैराटगढ़ में ज्यादा नहीं रहकर प्रायः चांग में ही रहकर राजकार्य देखा करते थे। आपके पुत्र बरगा जी चौहान व खेता जी चौहान का बाल्यकाल भी चांग में ही बीता। बड़े होने पर सर्वप्रथम खेता जी चौहान ने नया राज्य स्थापित करने के उद्देश्य से अपने दल-बल सहित सिंधली राठौड़ौं पर आक्रमण करके भगड़ी पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया, तब से खेता जी चौहान यहीं भगड़ी में रहने लगे। आपके साथ आपके बड़े पिताजी उजीण जी के पुत्र जसला जी (भोपावत चौहान) भी साथ रहते थे। भगड़ी पाली जिले की रायपुर तहसील में स्थित है। खेता जी चौहान ने #_कलालिया_गांव बसाया तथा यहां पर बाणमाता का मंदिर भी बनवाया, जिसकी स्थापना पोष बदी ११ गुरुवार, वि.स.१३३० में की थी।
✽. बरगा जी चौहान का बर एवं कूकड़ा पर आधिपत्य –
बरगा जी चौहान ने कुछ समय चांग में बिताने के बाद पाली जिले के रायपुर गांव के पास सर्वप्रथम #_बर को बसाया। इसके बाद बरगा जी चौहान व खेता जी चौहान ने अपने दल-बल सहित गुजरों पर आक्रमण कर कूकड़ा पर अधिकार कर लिया। कूकड़ा गांव राजसमंद जिले की भीम तहसील का एक प्रमुख गांव है। कूकड़ा पुराना गांव वर्तमान रामदेव मंदिर की पहाड़ी पर पश्चिम में था जो आज खंडहर स्वरूप है तथा वर्तमान कूकड़ा गांव की स्कूल के पीछे पहाड़ी पर उस समय मांकड गांव था। यह भी आक्रमणकारियों के बार बार आक्रमणों से नष्ट हो गया। मांकड गांव वि.स. १३५६ में सौभनपुर अलवर के शासक मीर गाबरू महिमाशाह ने बसाया। यह अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति थे, जो बाद में किसी कारणवश बादशाही नाराजगी के फलस्वरूप भागकर चीतावंशीय चौहान राव करणसी की शरण में रोड़वा भादसी भूंभला में कुछ काल तक रहे थे इसी दौरान मांकड गांव बसाया था। बाद में मीर गाबरू रणथम्भोर के हम्मीर चौहान की शरण में चला गया था तथा हम्मीर चौहान के साथ ही वि.स. १३५९ में युद्ध के दौरान वीरगति पाई। कहा जाता है कि मीर गाबरू के पास पारसमणि थी जिसे उसने नृत्यांगना पर खुश होकर उसे दान कर दी थी। नृत्यांगना ने यह पारसमणि नृत्य करते समय गोकनदोह बूंदी में फैंक दी थी।
✽. बरगा जी चौहान की बैठक –
बरगा जी चौहान कूकड़ा पर अधिकार करने के बाद भी वे अपने रावले में ज्यादा नहीं रह कर एक तपस्वी की तरह ही रहा करते थे। आपने अपनी तपस्यास्थली बनाई वह आज भी बरगा जी की बैठक नाम से जानी जाती है। यह बैठक वर्तमान में कूकड़ा से एक किलोमीटर दक्षिण में दो पहाड़ियों के मध्य विकट नाले के किनारे पर उत्तरी पहाड़ी के तेज ढलान पर बनी हुई है। इस ऐतिहासिक स्थान के नीचे ११० फिट गहरा नाला है, इसके पूर्व में एक सजल बेरी है। बरगा जी ने इसे ही अपना रहने का तपस्या का स्थान बनाया था।
✽. बरगा जी चौहान व गाला चौहान द्वारा सीमाड़ा निश्चित करना –
कुछ समय तक चीतावंशीय बरगा जी चौहान व बरड़वंशीय गाला चौहान के मध्य सीमा का बडा़ विवाद चला तो एक दिन दोनों ठिकाणेदारों ने निर्णय लिया की दोनों सरदार एक निश्चित दिन निश्चित समय पर अपने ठिकाणों से निकलकर जहां आपस में मिलेंगे उसी को सीमा मानेंगें। तदानुसार एक निश्चित दिन बरगा राणा कूकड़ा से व गाला चौहान चेता से रवाना होकर दोनों जहां आपस में मिलियाथड़ी में (ताल चौराहा राष्ट्रीय राजमार्ग के पास) मिले, वहीं एक पत्थरों की थड़ी लगाकर अपनी सीमा मानी। इसी कारण इस स्थान का नाम #_मिलियाथड़ी पड़ गया।
“हाक तलाई सीम ललोनों, गढ़ चेते नीम दिराऊं, जद बरगा राणा कहाऊं।”
✽. बेहड़ा गुजर और शोभागदे कटारनी –
अन्टाली (बदनोर) का बेहड़ा गूजर नाम का व्यक्ति बरगा जी चौहान का धर्मभाई बना हुआ था। दोनों में अच्छा प्रेम था, जब कभी बरगा जी चौहान मेवाड़ की ओर जाते तो कई मौकों पर बरगा जी चौहान बेहड़ा के यहां ठहरा करते थे। बेहड़ा की पत्नी का नाम शोभागदे कटारनी था जो कि टोडे के दौलतजी (हालूजी) की पुत्री थी। बेहड़ा का आराध्यदेव छ्पनियां भैरू था। कहा जाता है कि छपनियां भैरू बेहड़ा गूजर के चौकी दिया करते थे जिससे उसका सिर कटने के बाद भी वापस जुड़ जाता था इस प्रकार उसकी मृत्यु असंभव थी। एक बार बेहड़ा कहीं पर लड़ाई कर वापस लौटा तो विश्राम के समय सेवा करती हुई शोभागदे ने अपने पति से जिज्ञासावश पूछ लिया कि पतिदेव ऐसा क्या राज है कि आप हारते ही नहीं और रण में हर बार विजयी ही रहते हो तथा ऐसा कौनसा शौर्य अथवा आप में चमत्कार है जिससे आप सदैव अजेय ही रहा करते है..!! बेहड़ा जीत की खुशी में भी था साथ ही नशे में भी था। उसने गर्वीलापन दिखाकर पत्नी को गुप्त भेद बताया कि उसके ईष्टदेव छपनियां भैरू उसके चौकी दिया करते है जिससे उसके वरदान से उसका सिर धड़ से अलग होने पर वापस जुड़ जाता है। इसी कारण उसका कुछ भी नहीं बिगड़ता और भैरूदेव की असीम कृपा से सदैव विजयी ही रहता है। शोभागदे ने पुनः पु़ूछा कि तो आपकी कभी भी मौत तो हो ही नहीं सकती यह बहुत अच्छी बात है पर कभी कोई आपकी मृत्यु का कारण हो सकता है तो वह क्या हो सकता है जिसका हमें विशेष तौर पर ध्यान रखना होगा..!! बेहड़ा ने शोभागदे को बताया कि उसे सोते हुए को अचानक उठाकर ललकारे और गर्दन काटकर सिर व धड़ के मध्य पांव की जूती रख दे तो उसका सिर धड़ से वापस नहीं जुड़ सकेगा और कभी यही कमजोरी उसकी मौत का कारण भी बन सकती है।
✽. बरगा जी चौहान का बेहड़ा के यहां पड़ाव –
एक दिन बरगा जी चौहान मांडल पर आक्रमण करने सैनिकों के साथ जा रहे थे तो रास्ते में रात्रि हो जाने के कारण बरगा जी ने अपना पड़ाव बेहड़ा के यहां रखा, उस दिन संयोगवश बेहड़ा बाहर गये हुए थे। अपने पति का धर्मभाई होने के नाते बेहड़ा की धर्मपत्नी शोभागदे ने बरगा जी का यथोचित सत्कार एवं सेवा की। प्रातःकाल बरगा जी आगे के लिए चल पड़े थे। इधर बरगा जी के जाने के बाद बेहड़ा घर लौटे तो देखा कि उसके निवास स्थान के आसपास घोड़ो के पैरौं के निशान थे। बेहड़ा ने अपनी पत्नी से पूछा कि रात्रि को कौन आये थे। शोभागदे ने बताया कि आपके धर्मभाई बरगा जी पधारे थे जो सवेरा होते ही आगे को गये हैं। उन्होंने रात्रि को आपका इन्तजार भी किया था। बेहड़ा ने अपनी पत्नी के आचरण पर संदेह कर बात को दुर्योग से अन्यथा लिया। शोभागदे ने बेहड़ा को समझाया लेकिन बेहड़ा ने अपनी धर्मपरायणा व चरित्रवान पत्नी की एक न सुनी, अपमान किया और उसे त्याग दिया। शोभागदे को अपने पति के इस कठोर निर्णय से बहुत दुःख हुआ, पर वह लाचार थी।
✽. बरगा जी चौहान का अन्टाली में पुनः पड़ाव –
बरगा जी ने माण्डल पर आक्रमण करके जब वापस लौट रहे थे तो उन्होनें अन्टाली के पास ही विश्राम के दृष्टिकोण से रूके। बरगा जी ने कुछ सैनिकों को बेहड़ा के निवास पर भोजन सामग्री लाने के लिए भेजे। इन सैनिकों ने बेहड़ा की धर्मपरायणा स्त्री की दुर्दशा देखी तो पूछ लिया कि क्यों कोई विशेष बात है जिसके कारण आपकी दुर्दशा हुई है तो शोभागदे ने बताया कि आपके मालिक बरगा जी ने हमारे यहां विश्राम किया इसी कारण मेरे पति ने मुझे शक के दृष्टिकोण से त्याग दिया है तथा मेरा अपमान भी किया है। शोभागदे ने उन लोगों को बताया कि वह अब कूकड़ा चलकर वहीं रहना चाहती है और बरगा जी को संदेश देवे कि वह उसके अपमान का बदला लेवें और शकी पति को मृत्यु के घाट उतार दें। इसके साथ ही शोभागदे ने बेहड़ा की मौत का गुप्त भेद के साथ यह भी बताया कि वह अभी गांव के बाहर किसी पेड़ के नीचे सोया हुआ मिलेगा।
✽. धर्मपरायणा के अपमान का बदला लिया –
अपने सैनिकों से सारी बात सुनी तो बरगा जी को भी बड़ा दुःख हुआ कि शोभागदे के साथ अन्याय हुआ है। बरगा जी ने धर्मपरायणा स्त्री के अपमान का बदला लेने की ठान ली। उन्हें बेहड़ा गांव के बाहर सोया हुआ मिला तो उसे ललकारा। इसके साथ ही तलवार से गर्दन काटकर अलग कर दी और उसके सिर व धड़ के मध्य पांव की जूती रख दी। इससे उस बलवान योद्धा का सिर धड़ के साथ वापस नहीं जुड़ सका और वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। इसके साथ ही बरगा जी अपने सैनिकों सहित कूकडा़ आ गये। इनके साथ शोभागदे भी कूकडा़ आकर यहीं रहने लगी। बरगा जी के लिए मदिरा चांग से उनकी धर्म बहन एक कलाली लाया करती थी। बरगा जी जब कूकडा़ के दक्षिण में तलाई का निर्माण करवा रहे थे, तो वे तीन दिन बगैर नशे के रहे क्योंकि इन तीन दिनों तक चांग से उनके लिए कलाली मदिरा लेकर नहीं आई थी। इसी समय मदिरा का इन्तजार करते बरगा जी ने पानी की मटकी लिये शोभागदे को आती देख बरगा जी ने उन्हें कलाली बहन समझ कर पुकारा कि बहन आने में देर कैसे हो गई है..?
✽. बरगा जी चौहान को श्राप दिया –
बरगा जी के मुख से अपने लिये बहन का शब्द सुनकर शोभागदे ने पानी की मटकी वहीं नीचे गिरा दी और क्रोधित होकर बरगा जी को श्राप दिया कि वह सब कुछ छोड़कर उनके साथ रहने की इच्छा से आई थी और आपने मुझे बहन कहकर पुकारा है इससे मुझे बड़ा दुःख हुआ है। वैसे ही आप भी तीनों गांवों के तपटे पर जाकर मृत्यु को प्राप्त होगें और आपके साथ मैं सती होउंगी। आपकी यह तलाई भादवे माह में भी खाली पड़ी रहेगी जबकि मेरी तलाई भरी रहेगी। ज्ञातव्य है कि बरगा जी धर्मनिष्ठ, एक पत्नीव्रत व नेकपुरुष थे, इस कारण पराई नारी के साथ अन्यथा आचरण करना उनके आदर्श के विरुद्ध था। उन्होंने श्राप झेलना स्वीकार कर दिया पर धर्म, मर्यादा व आदर्श के प्रतिकूल आचरण करना नहीं स्वीकारा। धन्य है वह शलाखा पुरुष जिसने अपने कुल व मर्यादा को कलंकित होने नहीं दिया और इतिहास में एक उत्कृष्ट मिसाल स्थापित की।
✽. आना रावल से ठनी –
इधर जब कलाली मदिरा लेकर पहुंची तो उसने बताया कि मार्ग में विहार के चौड़े में अनाकर के आना रावल ने घड़ा छिनकर आधी मदिरा निकालकर घड़े को पानी से भरकर उसे वापस कर दिया जिसमें अभी भी घड़े मे आधी मदिरा व आधा पानी ही है। इसी कारण वह विलम्ब से पहुंची है। इस अशिष्टता को लेकर बरगा जी ने पत्र लिखकर हरकारे के माध्यम से अनाकर भेजा जिसमें आना रावल से अपनी अशिष्टता के लिये माफी मांगने अन्यथा युद्ध के लिए तैयार रहने का संदेश था। हरकारे ने जब आना रावल को यह पत्र ले जाकर दिया तो उन्होंने पढ़कर कहा कि वापस जाकर बता दो वे माफी नहीं मांगते है बल्कि युद्ध करने के लिए तैयार है। बरगा जी को प्रत्युत्तर मिला तो आना रावल को सबक सिखाने अपने सैनिकों के साथ बरगा जी ने बिहार के चौड़े में आकर पड़ाव डाला। इधर आना रावल जंगलों में छिप गये क्योंकि वे जानते थे कि सीधे मुकाबले में बरगा जी को पराजित करना असंभव है। इस कारण योजना बनाई कि किसी तरह बरगा जी को धोखा देकर पकड़ा जावे फिर उन्हें मारकर कालिंजर के तालाब में फेक दिया जावे।
✽. संघर्ष में बरगा जी चौहान वीरगति को प्राप्त हुए –
कई दिनों तक विहार रतनपुरा में बरगा जी जमे रहे पर आना रावल सामने नहीं आए। एक दिन योजनानुसार आना रावल अपने सैनिकों को सतर्क व सजग कर अकेले ही बरगा जी के पड़ाव के समीप पहुंचे ज्योंहि किसी सैनिक ने उन्हें पहचाना कि वे तुरंत वहां से भाग लिये, सैनिकों ने बरगा जी को,भागते आना रावल की जानकारी दी तो बरगा जी ने कुछ चुनिंदा सैनिकों को लेकर पिछा किया इसी समय कालिंजर के पास आना रावल के सैनिकों ने बरगा जी को घेर लिया। इस मुकाबले में आना रावल के असंख्य सैनिक मारे गये पर बरगा जी के साथ भी जो सैनिक थे वे सभी मारे गये साथ ही बरगा जी भी घायल हो गये। घायल बरगा जी को एक जींजे से बांधकर आना रावल वहां से भाग लिये। अत्यधिक घायल बरगा जी ने ताकत लगाकर बंधन से छूटने का प्रयास किया तो पेड़ ही उखड़ गया। पर दुर्भाग्य कि इसी घायलावस्था में बरगा जी के प्राण पखेरू उड़ गये। बरगा जी के बाकि सैनिक जब तक उन तक पहुंचे तब तक बरगा जी का प्राणान्त हो चुका था। सैनिकों ने हालूकाकर पर ही उनका दाह संस्कार कर दिया।
✽. बरगा जी चौहान की वीरगति के रंज में गूगरी की प्रथा –
ज्ञातव्य है कि जींजा का पेड़ इसी पवित्र भाव से चीतावंशीय चौहानों के लिए पूजनीय व पवित्र बन गया। विवाह के समय बोवण के रूप में चीतावंशियों में जींजे की डाली अर्थात् तना का रोपण कर पूजा की जाती है इसके पीछे ऐतिहासिक एवं गौरवमयी यही उपरोक्त तथ्य रहा है। विवाह में जो गूगरी चीतावंशीयों में बनाई जाती है वह भी बरगा जी की मृत्यु पर रंज प्रकट करने के दृष्टिकोण से बनाई जाती है। #_हालूकाकर कालिंजर के तालाब के शाहपुरा के समीपवर्ती है यह स्थान चीतावंशीय चौहानों के लिये ऐतिहासिक एवं पूजनीय है। दाह संस्कार के बाद बरगा जी के सैनिक बरगा जी की पगड़ी लेकर कूकड़ा पहुंचे तो कूकड़ा सहित उनके पूरे राज्य में शोक की लहर दौड़ गई। बरगा जी की मृत्यु को सुनते ही शोभागदे भी सती हो गई। आज भी शोभागदे जहां सती हुई थी वह सती का चबूतरा नाम से जाना जाता है। यह चबूतरा कूकड़ा की स्कूल से रावजी के तालाब गांव जाने के मार्ग पर तलाई के पास स्थित है।
स्त्रोत – वर्धनोरा राज्य का इतिहास,
इतिहास लेखक - स्व. डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकडा़।
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#___जय_मां_भवानी____
#___जय_राजपूताना____
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर____
" गजराज (घोड़ावटी) से वीर शिरोमणि ठाकुर - मादा जी (बली) तक संक्षिप्त इतिहास की जानकारी:-
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नाडोल के चौहान राजवंश के शासक राव लाखनसी के पुत्र अनहल राव (चौहान) की २५वीं पीढ़ी में गजराज (घोड़ा जी) हुए। गजराज जी के दो पुत्र -करमा जी और काना जी हुए। काना जी बोरवाड़ (सेंदड़ा) के ठिकानेदार थे।
काना जी के तीन पत्नियां -अखा (डींगा), भरकु (भीलावत), एवं हालूदे (बणियावत) थी। इनसे काना जी के 8 पुत्र - नरा जी, मेरो,सुजो,पंचों, भेंणजी,गोपी, दूदो,दासों हुए। हालू (बणियावत) से वीर पुरुष नरा जी हुए, जो कि ऐतिहासिक रणस्थली- "गिरी - सुमेल युद्ध (५ जनवरी, १५४४ ई.)" में ३ हजार राजपूत सैनिकों का नेतृत्व कर शौर्य का परिचय दिया :–
"अनहलवंशीय नरा चव्हान् ने युद्ध खेला घमासान,
राव जैता-कुंपा की करी सहायता, करके रण श्मशान।'
जोधपुर महाराज - राव मालदेव राठौड़ ने नराजी चौहान की वीरता, शौर्य एवं पराक्रम से प्रभावित होकर " रावत " का खिताब प्रदान किया।
नरा जी के ५ पुत्र - सुराजी, उदाजी, तेजाजी, नेताजी, खींयाजी हुए।
सूराजी चौहान “बर मारवाड़” के ठिकानेदार थे, जिसके वंशज "सूरावत चौहान" कहलाये। सूराजी ने अपने पिता - वीर पुरुष नराजी की छतरी बर मारवाड़ के तालाब पर बनवाई। प्रतिमा पर संवत १६६८ अंकित (निर्माण तिथि) है। सूराजी की छतरी बर के पास माकड़वाली में विद्यमान है। सूराजी शूरवीर एवं पराक्रमी थे :-
"सूरों ठाकुर सूरमों , धोलेगढ धेटा ,
कांठलिया धड़का करें, जद निकलें चंवरबंदी चीता। "
सुराजी के चार पुत्र - पचोंणजी, लालजी, उरजों एवं पांचों हुए, जिनमें से अंतिम दो पुत्र नि:संतान रहें।
पचोंण जी शूरवीर एवं सिद्ध पुरुष थे। जोधपुर महाराज गजसिंह ने पचोंण जी की शौर्य को देखकर इनके दो पुत्र नारायसी और जगमाल को अंगरक्षक के रुप में नियुक्त किया। पौष सुदी १२ वि. सं. १६७० को पचोंण जी को जोधपुर महाराज ने दरबार में बुलाकर जगन्नाथ सिंह ऊदावत (राठौड़) से बर ठिकाना छिनकर पचोंण जी को पट्टा, रावजी पदवी और नगारे का अधिकार दिया।
"हाथी दीदार हिंदता, पगमों छाजे बनाय,
बर नगारों पट्टों पावियों , सांभर रां पतशाह। "
इससे पहले जगन्नाथ सिंह ऊदावत ने धोखे से सूराजी को मरवा (वि. सं.१६६९ लगभग) कर कुछ समय के लिए आधिपत्य जमा लिया था। पचोंण जी ने माकड़वाली (बर मारवाड़) में सुराजी की छतरी का निर्माण कराया। राव पचोंण जी ने निरंतर बाहरी आक्रमण से प्रजा की रक्षा हेतु कूकड़ा (भीम) के राव जी बनकर शौर्य एवं पराक्रम का परिचय दिया।
पचोंणजी के ४ पत्नियां - माली (मोठिस), पाटा (पोखरिया), गौरी (भीलावत), गंगा (बाहड़ोत), से १० पुत्र - मादा जी (ठाकुर -माधव सिंह बली), राव नारायण जी, जगमाल, खेतसी, डुंगरसी, रामों, गांगों, दूदों, पूरों, भाऊ इत्यादि। लेखक -- एन एस सूरावत (लाखाखेत)।
वीर शिरोमणि ठाकुर- मादा जी (बली-जस्साखेड़ा) का जन्म माता -माली (मोठिस ) से हुआ। किन्तु इनका लालन पालन माता- गंगा (बाहडोत) ने किया।
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वीर शिरोमणि ठाकुर -मादाजी चौहान -बली (भीम) :-
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उठा के तलवार, बांध के साफा, जब घोड़े पर सवार होते,
तो देखती थी दुनियां, छत पर चढ़कर, काश हम भी वीर योद्धा ठाकुर मादा जी होते!! "
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मादाजी चौहान का राज्याभिषेक:-
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वि.सं.१६८५ बली-जस्साखेडा (भीम) गाँव में ७ राजपूत गौत्र -बोच, नाडोत, जेहलावत, धकोवत, पोकरिया, व्हील एवं दातिवाल राजपूत रहते थे। सभी शाखाओं की अलग-अलग हथाईयां थी तथा आपसी वैमनस्य रखते थे। एक दिन समस्त ७ शाखाओं के बुद्धिजीवी लोगों ने एक प्रस्ताव रखा कि राव पचोंणजी कूकड़ा (भीम) के कुंवर मादा जी (माधव सिंह) सुयोग्य हमारे ठाकुर (रावजी) होंगे। फिर क्या था, सभी ने अपनी -अपनी हथाईयां तोड़ कर एक हथाई बना कर , गाजें -बाजें के साथ वि.सं. १६८५ में वर्तमान आशापुरा माताजी मंदिर (बली) के पास राज्याभिषेक कर ठाकुर (रावजी ) घोषित किया गया।
राव माधव सिंह (मादा जी ) की दूर -दूर लोकप्रियता बढ़ती देख कुछेक नाडोत इनसे ईर्ष्या करने लगे। नाडोत की एक दासी ने षड्यंत्र रच कर - विषैला खाना, सिंहासन के नीचे विस्फोटक सामग्री रख दी, यह सब मादा जी के अंगरक्षक ने देख लिया।षड्यंत्र देख मादा जी आगबबूला हो उठें, बलपूर्वक नाडोतों को बली से भगाकर अजीतगढ़ के पास नारलाई-मोगर (बदनोर) तक खदेड़ दिया। उन्हीं के दो भाई -झगाजी एवं हद्दाजी बड़ाखेड़ा के नजदीक मांगटजी की मेड़ी में जा छिपे, सूचना पर मादा जी जा पहुंचे, तलवार उठाई, किन्तु हाथ ऊपर से नीचे नहीं हुआ, तभी मादा जी को आराध्य देव -मांगट जी ने दृष्टान्त दिया कि मेरी सीमा (शरण) में आयें के साथ ऐसा नहीं करने दुंगा। मादा जी ने आराध्य देव -मांगट जी महाराज के दृष्टांत (वि. सं. १६९५) पर वचन दिया कि आपके हर वर्ष लगने वाले मेला (जात) रोही पर्वत पर पहला धूप (पूजा) बली की ओर से चढाया जायेंगा। उस दिन (वि.सं.१६९५)से आजतक पहला धूप(पूजा) - सवा पाव सिंधुर, डेढ पाव तेल एवं प्रसाद बली की ओर से दी जाती है।
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वीर शिरोमणि ठाकुर- मादा जी चौहान द्वारा भंडारा करना :-
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एक बार कूकड़ा (भीम) राव जी पचोंणजी अपने पुत्र - वीर शिरोमणि ठाकुर - माधवसिंह जी (मादाजी चौहान) से मिलने वि.सं १६८९ में बली (भीम) आते हैं, कुछ दिनों के बाद संजोग से यही पर देवलोकगमन (वि. सं. १६८९) हो जाते हैं, उनकी याद में विशाल भंडारा किया जाता है, कहा जाता कि भंडारा में ७० मण गुड़िया शक्कर से मिठाई, पकवान,से भंडारा किया गया, जिसमें दूर-दराज के सैंकड़ों गाँवों के लोग सम्मिलित हुए। उन सभी की अगवानी बली-जस्साखेडा के मगरांचल राज्य के राजपूतों की ७ शाखाओं के लोगों ने बड़े धूम-धाम से की।
वीर शिरोमणि ठाकुर- मादा जी ने बली में अपनी कुलदेवी -आशापुरा माता जी का मंदिर निर्माण करवाकर स्थापना की तथा एक तालाब का निर्माण कराया जिसकी पाल आज भी "मादेला की पाल" के नाम से जानी जाती है।
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वीर शिरोमणि ठाकुर - माधवसिंह जी (मादाजी चौहान) पराक्रम, शौर्य का प्रदर्शन :-
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एक बार जोधपुर महाराज और माधव सिंह जी (मादाजी चौहान) के बीच कुछ अनबन के कारण उनके दो पुत्रों को उठा कर बली (भीम) लें आतें है। महाराज के दरबारी चारण कवि - दान सिंह की पत्नी , मादा जी की वीरता के कशिदें (बखान) कर भेंट में राजकुमारों को छुड़ा लें जाती है:-
"बली रा धणिं थानें वेष कर मानूं,
काठां रां धणिं राखज्यों सवाई कांण,
कंवर म्हानें दिरावों, कांचली कर बली रां धणिं,
थांकों करूं घरों बखाण। "
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मादा जी की क्षमाशीलता:-
नाडोत - जगाजी एवं हद्दाजी को अपनी बहन मेड़िया (टाडगढ़) से एक दिन बली (भीम) लाती है, मादा जी के विरुद्ध कियें षड्यंत्र पर प्रायश्चित (क्षमा) मांगती है , जिन्हें क्षमा कर ऊबरड़ा खेत की जमीन वापिस कर देते हैं, आगे हद्दाजी अरनाली में बस जातें हैं।
मादाजी चौहान के ९ पुत्र -अमरा, हीरा, राजु,लक्ष्मण, लाखा, सिंया,लाला, जसवंत, एवं सांवलादां। मादा जी की धर्मपत्नी -लाडू (पातलावत) निमड़ी -सारण की थी।
मादा जी चौहान के बाद उनके नवयुवक राजकुवंर पुत्र हीराजी सुरावत उत्तराधिकारी बली (भीम) का ठाकुर बना, किन्तु अल्पायु में देवलोकगमन हो जाते है। हीराजी सूरावत ने वि. सं. १७४१ में झाक के ठाकुर हदमल जी काठात की सहायता कर टोडा के शासक अखाजी गौड़ का शीश कलम कर, हदमल जी के चरणों में रखकर सहायता की। हीराजी के अल्पायु में रणखेत होने के बाद, मादा जी के राजकुवंर -सांवलदां वि. सं. १७४१ में बली (भीम) का ठाकुर बना।
ठाकुर सांवलदास जी ने व्यवस्थित तरीके से गणगौर का मेला भरना शुरू किया।
सांवलदां के ३पत्नियां -सोना (बोच), अमरा (आपावत), जस्सा (वरावत) से १३ पुत्र -जगा, हीरा, रुपा, नेता, विरमा, गोदा, काना, राम, सूजा, अखा, गोकुल, जस्सा, हामतों जी हुए।
वीर शिरोमणि ठाकुर -माधव सिंह जी (मादा जी चौहान) हष्ठ-पुष्ठ, काठी शरीर, पराक्रम एवं शौर्य से ओत-प्रोत थे। २४ अक्टूबर २०१८ को बली जस्साखेडा चौराहे (भीम) राष्ट्रीय राजमार्ग नं ८ से ऊपर १किमी ऊंची पहाड़ी पर, आशापुरा माता मंदिर के पास वीर शिरोमणि ठाकुर - माधवसिंह जी (मादाजी चौहान) की भव्य प्रतिमा का अनावरण किया गया।
- लेखनी से - एन.एस. सूरावत (लाखाखेत)
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स्रोत :- बही भाट की पोथी से एवं रावत राजपूतों का इतिहास संदर्भ से संकलित।
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर
वर्धनोरा (मगरांचल) के शासक वीर शिरोमणि- नराजी चौहान
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"अन्हलवंशीय नरा चव्हान् ने युद्ध खेला घमासान,
राव जैता -कूंपा की करी सहायता करके रण श्मशान।
नाहर (नराजी) का युद्ध देखकर भाग गया, सूरी सुल्तान,
बोल्यियों - मुट्ठी भर बाजरें, ही खो देतों हिन्दवान।
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नाम – नरा जी चौहान
पिता – कान्हा जी चौहान
माता – हालू कंवर (बणियावत)
विमाताएं – (कान्हा जी की पत्नियां -अखा कंवर (डिंगावत), भरखु कंवर (भीलावत)
जन्म स्थान – बोरवाड़ (सेंदड़ा)
भाई – मेंरो जी, सूजों जी, पंचों जी, भेंण जी, गोपी जी, दूदों जी, दासों जी।
दादा – गजराज जी चौहान
पुत्र – सूराजी, ऊदाजी, तेजाजी, नेताजी, खींयाजी,एवं जस्साजी (नि: संतान)
राज्य – बर ( मारवाड़)
वंश – चौहान (नाडोल)
राजधानी – बोरवाड़ ( सेंदड़ा)
राजघराना – राजपूताना
धार्मिक मान्यता – हिंदू धर्म
उपनाम – नाहर (शेर)
युद्ध – गिरी-सुमेल युद्ध ( ५ जनवरी १५४४ ई.)
पूर्वाधिकारी – कान्हा जी चौहान
उत्तराधिकारी – सूराजी रावत राजपूत
पदवी – रावत ( जोधपुर महाराज – मालदेव द्वारा।
पुण्यतिथि – ५ जनवरी १५४४ ई.
स्मारक – बर (मारवाड़) तालाब पर छत्री
नेतृत्व – ३००० चौहान राजपूत सैनिकों का।
बलिदान – ५ जनवरी १५४४ ई.
सहायता - राव जैता -कूंपा ( राव मालदेव राठौड़ - जोधपुर महाराज)
अस्त्र-शस्त्र – ढाल एवं तलवार
घोड़ा – चीता
पगड़ी – केसरिया
विशेषताएं :- शरीर हष्ट- पुष्ट, फुर्तिला, काठी एवं ओजस्वी था। कहा जाता है कि नराजी चौहान अपने घोड़ा - चीता को बिना विश्राम करायें १२ घंटे में १००० किमी. की घुड़सवारी कर सकतें थे। इनका घोड़ा - चीता दुर्गम पहाडों को आसानी से चीता ( जंगल का एक जानवर) की तरह छलांग लगा सकता था। नराजी चौहान अपने राजपूत सैनिकों को कहा करते थे कि - “शत्रुओं का खुलम-खुला सामना करना चाहिए ना कि छिप कर। ”
नराजी चौहान ने कभी भी किसी किला या दुर्ग में छिप कर शत्रु का सामना नही किया, उन्होंने जो भी शत्रु का मुकाबला किया, खुली चुनौती देते हुए ललकारा। मगरांचल के शासक नराजी चौहान अपनी प्रजा की रक्षा हेतु शौर्य एवं बलिदान के लिए सदैव तत्पर रहते थे।
ऐतिहासिक रण स्थली - "गिरी सुमेल युद्ध" (५ जनवरी, १५४४ ई.) में नराजी चौहान अपने ३००० राजपूत सैनिकों के साथ अदम्य साहस, शौर्य एवं पराक्रम से राव जैता -कूंपा के साथ शेरशाह सूरी को "लोहे के चनें चबानें" पर मजबूर कर दिया था।
हमें ऐसे वीर शिरोमणि ठाकुर - नराजी चौहान के शौर्य, पराक्रम एवं देशभक्त पर गर्व है। नराजी चौहान (मोरेचा चौहान राजपूत) का बलिदान ५ जनवरी, १५४४ ई. अजर - अमर रहें।
- लेखनी से - एन. एस. सूरावत ( लाखाखेत)।
स्त्रोत – वर्धनोरा (मगरांचल) का इतिहास”
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर__
"वीर शिरोमणी ठाकुर डूंगाजी वरावत चौहान" ―
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नाडोल के शासक राव लक्ष्मण (लाखनसी) चौहान के द्वितीय पुत्र राव अनूप के वंश परम्परा में भीमसिंह चौहान हुये। इन्हीं भीमसिंह चौहान की छटी पीढ़़ी में हरपाल जी हुये। “डूंगाजी (डूंगरसिंह) वरावत” इन्हीं हरपालजी के ज्येष्ठ पुत्र थे, जो कि चेता के शासक थे। डूंगाजी को माता पीपलाज का आराध्य था। आपको शकुन-अपशकुन का विशेष ज्ञान था। एक दिन जंगल में आखेट हेतु गये थे। उधर से राणा विक्रमादित्य (१५१२ ई.) की बारात का आगमन हुआ। तभी डूंगाजी की नजर पास में खड़ी काणी हिरणी पर पड़ी जो जमीन खुरच कर पेशाब कर रही थी। हिरणी व बारात को देखकर राणा विक्रमादित्य के पास गये और कहा कि आप जिस राजकन्या से विवाह करने जा रहे है, वह आंख से काणी तथा गर्भवती है। डूंगा जी को वही रोक कर गुप्तचरों से बात की सत्यता का पता करवाने पर यह बात सत्य निकली। इसके बाद राणा ने मदारिया ठिकाणे के १२ गांवों (को देकर शासन का विस्तार करवाया। इन गांवो में मदारिया, विलोकी, रायपुर बोराणा, मंडोल, कालोर, कोट, सियाणा, भूतिया, झोंकर, दुगस, वागड़ व देवलिया शामिल थे।
जनप्रिय, सेवाभावी डूंगाजी राणा के विश्वास पात्र बन गये। यह बात अन्य ठिकानेदारों को खटकने लगी। मुगलों के इस संक्रमण काल व स्थानीय ठिकानदारों के नये-नये षड्यंत्रों से डूंगा जी लड़ते रहे। अपने गुरू पुरोहित पद्मा जी सिखरवाल ब्राह्यण, बाघाना, सांधोल निवासी चारण व विलोकी कवि विला भाट को दरबार में पेश कर राणा को अपने राजपूती होने व ठिकानेदारों के षड्यंत्रों के बारें में जानकारी दी। डूंगा जी वरावत ने अपने शासन काल में ही मदारिया के मोईंगजी का खेड़ा में मां आशापुरा का मंदिर बनवाया था, जो आज भी मदारिया पर डूंगाजी के शासन का स्मरण करवाता है।
स्वास्थ्य व पारिवारिक कारणों, षड्यंत्रों से परेशान होकर राणा को मदारिया का राज पुनः सौंपकर सन् १५३६ ई. को नया गांव बराखन आ गये। आपके दो पत्नियां थी। पहली पत्नी खेतू कंवर जो कि पंवार वंश से (नयागांव) थी व दूसरी पत्नी ठिकरवास के सहलोत भाटी वंश की करमा कंवर थी। डूंगाजी (डूंगरसिंह) के वंशज डूंगावत चौहान कहलाये। डूंगाजी के पांच पुत्रों के वंशज निम्न स्थानों पर रहते है– हीराजी के वंशज वाणियामाली में रहते हैं। आपाजी के वंशज सारण, तेलपुरा, मियाला में, नाथाजी के वंशज सोनगरी में, खोखरजी के वंशज भाऊका बाडिया व हालाजी के वंशज राशमी में रहते हैं। करमा कंवर के पुत्र हालाजी डूंगावत का परिवार राशमी वाले डूंगावत चौहान हैं। ठिकरवास ठेकरोत भाटी राजपूतों ने बसाया था। यहां के ठेकरोत भाटी अब आमेट के पास मांद गांव में रहते हैं।
कुछ समय पश्चात् डूंगाजी वरावत ने नाबरा सिरयारी के धोगड़ राजपूतों को भगाकर राज्य कायम किया। धोगड़ राजपूतों से जोधपुर महाराजा भी परेशान थे। धोगड़ राजपूतों पर जीत से प्रसन्न होकर जोधपुर महाराजा ने वि.स. १५८९ में सारण ठिकाणे की १६०० बीघा भूमि भोम डूंगाजी को उपहार में देकर ठिकाणेदार बनाया। सारण के निर्मलावनजी को बाद में विं.स. १६४२ में जोधपुर महाराजा राव उदयसिंह ने १६०० बीघा खालसे की भूमि का पट्टा दिया था।
डूंगाजी वरावत ने #_मारवाड़_ महाराजा #_राव_चन्द्रसेन को मुगलों से संघर्ष के दौरान न केवल अपने यहां शरण दी, बल्कि सदैव के लिए उनके सुरक्षित कवच बने रहे। डूंगाजी चौहान की वीरता व पराक्रम से जोधपुर, मारवाड़, बगड़ी, बिलाड़ा व आहुवा के ठिकानेदार सदैव भय खाते थे। डूंगाजी के वीरता के सम्बन्ध में कवि भाट भवाना की वीरता बखान कविता इस प्रकार है–
वरावत कंवर डूंगा रा भों सू, जोधाणे फाटक जड़े।
जड़े फाटक जोधाणें, खेतलरो किण विध रण पंजावे।।
दे डुंगरी दौड़ा, भालों सुं सांवरी भलकावे।
गोरम दीदा गौरव, खेतलरो भख मांगे।।
मांने साख मारवाड़ सारी, चाह्वान तरसीगो पर तोंडे।
भवानी सिवरे मोरात भवानो, भगवती आय ह्रदय में मंडे।।
पड़े पूनागर पासना, बगड़ी कांपे सारी।
आहुवा नित ओझके, बरड़ दौड़े बिलाड़े।।
धड़लो नित धोपटे, चाह्वान केहना के सीमाड़े।
गुंदोज भोंसू ओझके धणी, पाली पर हलको पड़े।।
डरे मती देवली, कड़के मती कोंदू।
धड़के मती धोमियाली, ये दोड़ियो भादू।।
रडावो ने रूगालिया, हंजूवो हिचाणे।
खेतलरा धणी खरा, धींग बरड़ चढ़ने घड़े।।
निड़र बड़ो निबाज, धणी ओझके गुआड़े।
गाजूणों डरे घणों, वोंका भड़ बरसावड़े।।
मचके मती मलियावड़ी, दूध भड़ ड़ेलाणें।
खारियो ने हेकाव, कसला भड़ तेगों लिया ढाणे।
निड़र भली नीबली, मुआलियो भीमलियो भोकरे भेवली कंटालियो।
लियो जाय वरावत झूठ नहीं बोले, ऊंटड़ा और गांवों ने दिये।।
वरावत दोय झोकर माता जैत भड़के कांधे माल करोड़ वर्ष कूंपावतों के हाथ, बार अवसर बाघाणे।
खेतलरा धणी खरा, धींग बरड़ चढ़ने धड़े।।
सारण व नंदावट में मोटावत साख के गुहिलोत राजपूतों से डूंगाजी का लम्बे समय तक संघर्ष होता रहा। मोटावत राजपूत परेशान होकर बाघाना व दिवेर के पास जा बसे। इन्हीं मोटावत साख का एक व्यक्ति डूंगाजी का सेवक बन गया। एक दिन काछबली जाते समय उसी ने अवसर देखकर डूंगाजी पर तलवार से वार कर दिया। उसनें गुहिलोतों पर हुये झगड़े का बदला ले, वीर योद्धा को सदा के लिये नींद के आगोश में सुला दिया।
इसी वंश परम्परा में ३ मार्च, १९१३ ई. को मेजर फतेहसिंह चौहान का जन्म हुआ। मगरांचल में राजपूत समाज के गौरवपूर्ण स्थान एवं राजनीति के क्षेत्र में अग्रणीय स्थान पर लाने का श्रेय स्व. मेजर फतेहसिंह को ही जाता है। वकालात के साथ १९४७ ई. में रावत-राजपूत महासभा के अध्यक्ष बने। आज समाज जिस उन्नत रूप में देखा जा रहा है, इसमें मेजर सा. का उल्लेखनीय योगदान रहा है।
स्त्रोत–
(१). “वर्धनोरा के राजपूतों का इतिहास” लेखक- स्व. इति. डॉ. मगनसिंह चौहान।
(२). “क्षत्रिय रा.-राजपूत दर्शन” लेखक- ठा. गोविन्दसिंह चौहान भागावड़।
(३). रावत-राजपूतों का इतिहास, लेखक- श्री प्रेमसिंह चौहान।
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर__
हीराजी बाहड़ोत (चौहान) का पराक्रम, शौर्य एवं त्याग ―
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केहाजी के पुत्र कलूजी थे जिनके तीन पत्नियां थी तथा अठारह पुत्र थे। एक बार अथूणगढ़ के ठाकुर की सुपुत्री का नारियल हीराजी हेतु आया था। हीराजी वहां उपस्थित नही होने के कारण उसके पिता कलूजी ने हीराजी के लिये थाल में झेला था। हीराजी जब वहां लौटा तो उनके पिता कलूजी ने नारियल का जिक्र किया। हीराजी ने त्याग एवं विवेक का परिचय देते हुए अपने पिता को शादी करने का आग्रह किया। मजबूरन कलूजी को शादी करनी पड़ी। हीराजी का त्याग मेवाड़ के चूण्डाजी से मिलता जुलता है।
हीराजी के शौर्य एवं पराक्रम के सम्बन्ध में अनेक गाथायें प्रचलित है। एक बार मुगल सेना मेवाड़ पर आक्रमण करने के लिये जा रही थी। उस सेना पर बगड़ ग्राम की पहाड़ी के पास उनके साथियों सहित आक्रमण कर पुनः दिल्ली की ओर लौटने को विवश किया था। उस सम्बन्ध में एक उक्ति इस प्रकार है -
" हीर जोध कल्याण का, सबला मता किया।
मोड़िया दल मुगला तणा, राउत हीर पाडर पमंग लिया।।
मोती मूंगा मोल रा घड़िया अनोखे घाट।
पतरां माऊं कोरिया (पण) राउत हीर न आयो हाथ।।
जडाको लेसी जद वार, कलावत बंका है तलवार।
तो हीराजी भारत में, ललै नहीं लगार।। "
हीराजी ने काछबली के सिन्धल राजपूतों को पराजित कर काछबली पर अधिकार किया। इसके कुछ समय पश्चात् सिरियारी के ठाकुर ने काछबली पर आक्रमण किया जिसे हीराजी ने पराजित किया।
सारण पर जोधपुर के राजा ने अधिकार जताते हुए हड़प लिया, लेकिन हीराजी ने सारण को पुनः अधिकार में ले लिया।
हीराजी के कारण देवगढ़ ठिकाना एवं रानियां भयग्रस्त रहती थी। इस सम्बन्ध में एक उक्ति इस प्रकार है-
" दफोरे फलिया जड़ो, काठा जड़ो कमाड़।
महलों बैठी राणी कहे, आयो हीर अनाड़।। "
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स्त्रोत– रावत-राजपूतों का इतिहास, पृष्ठ सं. - ८६-८७ लेखक– श्री प्रेमसिंह चौहान, काछबली
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था, राजस्थान....
इतिहास संकलनकर्ता – सूरजसिंह सिसोदिया ठि.-बोराज-काजिपुरा, अजमेर____
#_पोकरिया_राठौड़वंशीय ठाकुर धीराजी, हालूजी का स्मारक ठि.-#_तितड़ागढ़, बस्सी जिला-नागौर (राज.) —
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क्षत्रियों के ३६ राजकुलों में राठौड़ वंश बहुत प्राचीन है। इस वंश का प्राचीन नाम राष्ट्रकूट था, जो बाद में राष्ट्रकूट शब्द अपभ्रंश होते हुए राठौड़ (राठौर) हुआ। इस कुल के शूरवीरों ने रणक्षेत्र में हर बार अपनी श्रेष्ठता सिद्ध की है इसी कारण से इन्हें रणबंका राठौड़ कहा गया है। इस कुल ने समय-समय पर अपनी वीरता, त्याग, बलिदान तथा अपने वचनों की खातिर अपने प्राण न्यौछावर किये है जिसमें से अनेक शूरवीर भोमिया जी, झुंझार जी तथा लोक देवता के रूप में आज भी जन-जन में पूजे जाते हैं।
जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार कन्नोज राज्य के सेतरामजी के पुत्र सीहा जी ने पाली में आततायियों के लुटपाट और अत्याचारों से सुरक्षा करके पालीवाल ब्राह्मणों की सहायता की। इसी प्रकार भीनमाल में भी प्रजा को वहां के मुस्लिम शासक के अत्याचारों से मुक्त करवाया। पाली व भीनमाल पर अपना शासन स्थापित कर अपने राज्य का विस्तार किया।
पाली के समीप बिठू गांव के अरणियाली नाडी के तट पर वि.सं. १३३० कार्तिक कृष्णा द्वादशी को राव सीहा जी राठौड़ मुस्लिमों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुये। इस प्रकार राव सीहा जी राजस्थान में राठौड़ वंश के स्वतंत्र साम्राज्य के संस्थापक थे।
राव सीहा के वंश में क्रमशः राव आस्थान, राव धुहड़, राव रायपाल, राव कानपाल, राव कान्हा, राव जालणसी, राव छाड़ा, राव तीड़ा, राव सलखा, राव वीरमजी (विरमदेव) हुए।
राव वीरम जी के पुत्र राव चूंडाजी राठौड़ इस वंश के महान शासकों में से एक थे। राव चूंडा राठौड़ ने १३९४ ई. में मंडोर जीतकर मारवाड़ के राठौड़ राज्य को मजबूत नींव लगाई थी। इसी के आधार पर इनके वंशजों ने विशाल राठौड़ साम्राज्य का विस्तार किया।
मारवाड़ के राव चूंडाजी के वंश परम्परा में राव नराजी राठौड़ फलौदी के शासक थे। राव नराजी के तीन पुत्र वीरमजी, जोधाजी व दुर्गाजी थे। फलौदी के शासक राव नराजी के समय तंवरों की गायें खींया सिंदल लेकर भाग गया, तब नराजी ने खींया सिंदल से युद्ध कर गायों को छुड़ाकर वापस तंवरों को सौंपी। तंवरों ने इस एहसान के लिए उनकी लड़की नराजी के पुत्र वीरमजी को विवाह कर पोकरण का कुछ भाग दहेज में देकर चुकाया। वहीं से वीरमजी एवं उनके वंशज #_पोकरिया_राठौड़ कहलाये।
सन् १५६७ ई. में चित्तौड़ में मुगल सेना के विरूद्ध हुए युद्ध में जयमल व पत्ता के साथ कालूजी पोकरिया (राठौड़) अपने सैनिकों के नेतृत्व में युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। पोकरिया राठौड़ों के मुख्य ठिकाने काणेचा, राजियावास, #_नरवरगढ़, सवाईपुरा, कंवलाई, दौलतपुरा, नेडल्या, नोलखा, अमरगढ़ आदि है। वीरमजी पोकरिया के वंश परम्परा में खींवाजी राठौड़ के वंश में भरल/भरड़ राठौड़ (#_भरलात_राठौड़) और मामणियाजी राठौड़ (#_मामणियावत_राठौड़) हुए।
भरल राठौड़ के वंशज राजोसी से निकलकर रामखेड़ा, धनार, राया, बूंटीवास, फतहपुरिया, लूलवागढ़, बोरवागढ़, धोलियागढ़, सूरजपुरा आदि गांवो में बस गये। मामणियावत राठौड़ वंशजों का डूंगा वाला (कूकड़ा) मुख्य गांव है।
वीरमजी पोकरिया के पुत्र हम्मीरजी हुए, जिनकी ८वीं पीढ़ी में रायसिंह पोकरान के पुत्र करणाजी राठौड़ हुए जिनके पुत्र #_धीराजी (धर्मवीर) और हालूजी ने तावेड़ का किला (#_तीतड़ागढ़) बनवाया तथा यहां से कुछ दूरी पर #_बुवाल (बवाल) गांव बसाया। इन्होंने इसके ऊंचे पर्वत पर पर कुलदेवी #_बवाल_माताजी के मंदिर का निर्माण करवाया। इनके शासनकाल के दौरान धर्मवीर हालू जी के द्वारा योगी समाज को खुंडियावास से बवाल बस्सी के मध्य का एक हजार बीघा भू-भाग का दान किया गया।
ठाकुर करणाजी का भाई मादाजी राठौड़ बली गांव में आ बसे। इनके पुत्र विट्ठलदासजी (बिट्ठाजी) हुए है, जिन्होंने लाडपुरा (विजयगुड़ा) बसाया। वीर विट्ठलदासजी के वंशज #_बोच_राठौड़ कहलाये।
विट्ठलदास राठौड़ के पुत्र हटीजी हुए।
हटीजी राठौड़ के पुत्रों में राजसी, हाला, बाला और मोकलजी थे। इनके वंशजो के मुख्य ठिकाने अरनाली, बली, बड़ाखेड़ा एवं जस्साखेड़ा है। बालाजी राठौड़ के वंश में क्रमशः चूण्डा, गंगा, लाला, चापा, काना जी हुए। कानाजी के दो पुत्र चाटा व नगाजी हुए जिनके वंशज सूरजपुरा व बड़ाखेड़ा में बसे हुये हैं।
ठाकुर धीराजी राठौड़ के पुत्र परबतजी हुए, जिनके दो पुत्र देवकरण व राटाजी हुए। राटाजी राठौड़ के वंशज चौरासी में रहते है।
देवकरण राठौड़ के रहकमलजी हुए, जिनके दो पुत्र बूचाजी व केराजी हुए।
बूचाजी राठौड़ के पुत्र हामाजी हुए, जो रास बाबरा में आकर रहने लगे। हामाजी राठौड़ के एक पुत्र हम्मीर चौहानों से युद्ध करते हुए काम आया और दूसरे पुत्र पांचाजी को रातड़िया के लगेत चौहानवंशीय राजपूतों ने शरण देकर गांव काणेचा में बसाया। इसी वंश परम्परा में पांचाजी के पुत्र हीराजी राठौड़ व हीराजी के ज्येष्ठ पुत्र चिम्मनाजी राजियावास में आकर बसे।
हीराजी राठौड़ के दो पुत्र जग्गाजी व खंगाराजी काणेचा में रहे। जग्गा के तीन पुत्र मनोहरा, मेदा, अनाजी हुये। कालान्तर में इनके वंशज अर्जुनपुरा, गड्डी, लाडपुरा, नेडल्या आदि क्षेत्रों में रहते है।
स्त्रोत –
(१). मगरांचल का इतिहास इतिहास लेखक - स्व. डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकडा़।
(२). रावत-राजपूतों का इतिहास लेखक - श्री प्रेमसिंह चौहान, काछबली।
(३). राजपूताने का इतिहास।
(४). इतिहास के आइने में रणबंका राठौड़।
(५). दयालदास री ख्यात।
(६). जोधपुर राज्य की ख्यात।
(७). मुहणोत नैणसी री ख्यात।
(८). मिडिल हिस्ट्री ऑफ राजस्थान।
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#___जय_मां_भवानी____
#___जय_राजपूताना____
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.- बोराज-काजिपुरा, अजमेर_______