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"संसार में #_बदनोरा_राज्य (मगरांचल) ही एक ऐसा राज्य रहा है जहां के राजपूत शासक हमेशा स्वतन्त्र रहे तथा वीरता के अनूठे उदाहरण प्रस्तुत किये।"
बदनोरा राज्य पर अधिकार करने के उद्देश्य से एवं अन्य कारणों से निम्न पड़ोसी राज्यों के शासकों ने इस राज्य पर आक्रमण किया, परन्तु उन्हें कभी भी सफलता नहीं मिली, बदनोरा के योद्धाओं ने इनकी सेनाओं को अपने क्षेत्र से खदेड़ दिया और बदनोरा राज्य को सदैव स्वतंत्र रखा।
(१). सन् १७३५ ई. में #_जयपुर_रियासत के ठाकुर देवीसिंह ने #_जयपुर_महाराजा #सवाई_जयसिंह द्वितीय से अनबन होने पर बदनोरा राज्य में शरण ली, जिसे जयपुर महाराजा ने उन्हें सौंपने को कहा, परन्तु बदनोरा के शासक ने शरणागत की रक्षा करनी अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा के कारण ठाकुर देवीसिंह को महाराजा को महाराजा को सौंपने से इन्कार कर दिया। महाराजा जयपुर ने अपने प्रस्ताव को इस प्रकार ठुकराने जाने पर एक करोड़ रुपया खर्च कर बदनोरा के खिलाफ सैनिक अभियान चलाया। मगरे के ठाकुरों ने महाराजा की सैन्य शक्ति को देखते हुए बुद्धिमानी से काम लिया और अपने ठिकानों को छोड़कर पीछे हट गये। जब महाराजा की सेना पहाड़ी क्षेत्रों के बीच आ गई तो पहाड़ी क्षेत्रों से जाने वाले सभी रास्तों को बन्द कर सेना को चारों ओर से घेरकर उन पर आक्रमण कर दिया, जिससे सैनिकों में खलबली मच गई और वे अपनी जान बचाकर इधर-उधर भागने लगे, परन्तु उन्हें बच निकलने का रास्ता नहीं मिला, इस पर उन्होंने आत्म-समर्पण करते हुए अपने समस्त हथियार और सामान मगरे के ठाकुरों को सुर्पुद कर अपनी जान बचाकर भाग गए।
(२). #_मेवाड़ के महाराणा कुम्भा को शासनकाल में उन्माद रोग हो गया, इससे राज्य प्रशासन में शिथिलता आने लगी। उनके बड़े पुत्र उदयकर्ण ने कुम्भलगढ़ में महाराणा को मारकर बदनोर के ठाकुर जेतसिंहजी के साथ मगरांचल में ठाकुर श्री खंगारसिंहजी चौहान के यहां आकर शरण ली। यहां के ठाकुर ने उन्हें तीन माह तक बरार (राणारेल) में रखा और १० दिन तक बरसावाड़ा में रखा। जब महाराणा का सोलह राव और बत्तीस उमरावों के साथ सन्धि हो गई तो श्री खंगारसिंह चौहान अपने साथ उदयकर्ण को लेकर उदयपुर दरबार में हाजिर हुए, तो उदयपुर के राजकवि ने श्री खंगारजी की प्रशंसा में निम्न उक्तियाँ कहकर सम्मानित किया –
"सोलह सामन्त, सौ शूरमा, हुणि बरसावाड़े वाग।
राण पहुँचाया चहुवान रजपुतां उदको वदियो आग।।
रण छेला रण बावला, कुले सुधारण काज।
राणी जाया रजपुतां लाख-लाख समराज।।"
(३). जोधपुर के #महाराजा_मालदेव पर सन् १५४३ ई. में दिल्ली बादशाह शेरशाह सूरी ने आक्रमण करने के लिए कूच किया। दोनों सेनायें गिरी एवं सुमेल के मैदान में आमने-सामने आ डटी। शेरशाही सूरी ने अपने गुप्तचरों के माध्यम से छल-कपट कर मालदेव के मन में अपने सेनापतियों के खिलाफ जहर भर दिया, जिससे मालदेव को शंका हो गई और वह अपनी सेना लेकर वापस जोधपुर लौट गये। अब सेनापति जेता राठौड़ और कूंपा राठौड़ के साथ बहुत कम सैनिक रह गए। ऐसे परिस्थिति में मगरांचल के शासक नरा चौहान अपने ३ हजार राजपूत सैनिकों को लेकर सहयोग के लिये आगे आए। जोशभरे पराक्रम के साथ #_जैता_राठौड़, #कूंपा_राठौड़, #_नरा_चौहान, #_चांग के #_लखा_चौहान व अनेक शूरवीर योद्धा अपने ८ हजार राजपूत सैनिकों के नेतृत्व में शेरशाह सूरी की ८० हजार सैनिकों की भारी भरकम अफगान सेना का जबरदस्त प्रतिरोध किया। यद्यपि इस युद्ध में जीत शेरशाह सूरी की हुई, पर उसके अनेक सैनिक कई योद्धा मारे गए। इस युद्ध पर टिप्पणी करते हुए शेरशाह सूरी ने मगरे के वीरों की बहादुरी को स्वीकारते हुए कहा कि "मुट्टी भर बाजरे के लिए मैं #_हिन्दुस्तान की बादशाहत खो देता।" इस वाक्य से यह स्पष्ट होता है कि इस युद्ध में किस प्रकार बाल-बाल बच गया था। किसी कवि ने कहा है–
"गिरी तेरे गार में, लम्बी बधी खजूर।
जेता कूम्पा आखिया, स्वर्ग नेडो घर दूर।।"
बाद में जब इस युद्ध के परिणाम की जानकारी मालदेव को मिली तो उन्होंने मगरे के अन्हलवंशीय (मोरेचा चीता साख) #_नाहरसिंह (नरा चौहान) को #_रावत का खिताब प्रदान कर उसके पुत्र #_सूरा_चौहान को कई गांवो की जागीर प्रदान की।
(४). जोधपुर के राजकुंवर जालिमसिंहजी को काछबली में शरण दी गई। ३० जनवरी, १७५३ ई. को महाराजा विजयसिंह ने जोधपुर राज्य का शासन संभाला, जिनके सात रानियां और सात पुत्र थे। उदयपुर की रानी से २८ जून, १७५० को कुंवर जालिमसिंह का जन्म हुआ। महाराजा जोधपुर और उदयपुर की राजकुमारी के विवाह पर यह संधि हुई थी कि उदयपुर की राजकुमारी से उत्पन्न राजकुमार को जोधपुर की गद्दी दी जायेगी, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। जोधपुर महाराजा विजयसिंहजी की मृत्यु के बाद अन्य राजकुमारों ने शासन अपने हाथ में ले लिया और राजकुमार जालिमसिंहजी अपने ननिहाल उदरपुर आ गए। बाद में जालिमसिंहजी उदयपुर के कुछ सैनिकों को लेकर जोधपुर पर हमला करने के उद्देश्य से रवाना हुए, उधर जानकारी होने पर जोधपुर की सेना ने भी सिरयानी गांव में मोर्चा संभाल लिया। दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ, जिसमें कुंवर जालिमसिंहजी घायल हो गए, जिन्हें काछबली में मगरांचल के ठाकुर ने अपनी शरण में रखा, परन्तु गंभीर रूप से घायल होने के कारण ३ जून, १७९८ को कुंवर की काछबली में मृत्यु हो गई।
(५). सन् १७५४ ई. में #_उदयपुर_महाराणा श्री राजसिंह द्वितीय की सेना ने बदनोरा पर अधिकार करने हेतु आक्रमण किया पर उनका यह सैनिक अभियान मगरे के वीरों ने विफल कर दिया और सेना को अपना सैन्य साजो-सामान छोड़कर भागना पड़ा।
(६). सन् १७७९ ई. में जोधपुर की सेना ने #_बदनोरा_राज्य के कोट-किराणा ठिकाने पर हमला किया, परन्तु वहाँ पर भी #_जोधपुर_महाराजा की सेना को मुँह की खानी पड़ी और परास्त होकर लौटना पड़ा।
(७). सन् १७८८ ई. में #जोधपुर_महाराजा विजयसिंहजी ने बदनोरा राज्य पर हमला किया, पर उनकी सेना को भी मगरे के वीरों ने खदेड़ दिया और उनके हथियार और सामान जब्त कर लिये।
(८). सन् १७९० ई. में कंटालिया के ठाकुर ने बदनोरा के भायली क्षेत्र पर हमला किया, जिसे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा और उनके सेना के भी सैनिक को वापस जिन्दा नहीं जाने दिया गया। उनका सभी साजो सामान पर भी मगरे के वीरों ने अधिकार कर लिया।
(९). मीर खाँ पिण्डारी ने सिरयारी ठाकुर के ठिकाने को लूट लिया और मार दिया। उस समय काछबली के वीर सुरताजी बाली परगना के सेनापति थे, जब उन्हें इस बात की जानकारी हुई तो वे स्वयं सिरयारी गए और सिरयारी जनता की सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता करके ठाकुर के परिवार को अपने साथ काछबली में लाकर अपनी शरण में रखा। बाद में जब ठाकुर के पुत्र के वयस्क होने पर सुरताजी ने उसे सिरयारी ले जाकर गद्दी पर बिठाया। सिरयारी ठाकुर ने कृतज्ञतावश सुरताजी को कई गांवो की जागीरी सौंपने का प्रस्ताव रखा, परन्तु उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया और बड़े भाई वराजी वंशज को यह भेंट सौंप दी। #_चेता के वरावत फुलाद के ठाकुर बने तथा पहरेदारी सिरयारी ठाकुर की रही।
(१०). सन् १८०० ई. में #_अजमेर के मराठा सुबेदारों ने बदनोरा पर अधिकार करने के उद्देश्य से एक साथ मिलकर हमला किया, जिसे मातृभूमि के रखवाले ठाकुरों ने विफल कर दिया। बाद में १८०७ ई. में मराठों ने अपनी शक्ति बढ़ाकर छः हजार सैनिकों को लेकर बदनोरा राज्य पर चढ़ाई की, पर उस अभियान को भी मगरे के योद्धाओं ने विफल कर दिया।
(११). सन् १८१० ई. में टोंक के राजा बहादुर, दीवान अमीर मोहम्मद और सेनापति शाहखान ने बदनोरा राज्य पर अधिकार करने के उद्देश्य से आक्रमण किया, पर उन्हें उनकी सेना सहित मगरे से भगा दिया गया।
(१२). सन् १८१६ ई. में #_उदयपुर_महाराणा #_भीमसिंह ने फिर एक बड़ी सेना भेजकर बदनोरा राज्य पर हमला किया, परन्तु उन्हें भी मगरे के वीर योद्धाओं ने परास्त कर भगा दिया तथा उनका सैन्य साजो-सामान जब्त कर लिया।
(१३). जून १८१८ ई. में अंग्रेजो ने अजमेर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया, फिर भी बदनोरा राज्य (मगरांचल) के योद्धाओं का भय सदैव बना रहता था और छापामार युद्ध में प्रतिदिन कोई न कोई अंग्रेज अधिकारी अथवा उनका प्रतिनिधि मारा जाता था, इसलिए अंग्रेज अधिकारी बैचेन रहते थे।
(१४). मार्च १८१९ ई. में नसीराबाद की सैनिक छावनी से तीन इन्फेन्ट्री रेजिमेंट, एक घुड़सवार दस्ता और हाथियों पर तोपों के साथ मेजर लेवरी के नेतृत्व में बदनोरा राज्य पर अधिकार करने हेतु सैन्य अभियान प्रारम्भ किया। इस सैन्य अभियान को विफल करने हेतु मगरे के वीरों ने बुद्धिमानी से काम लेते हुए अपने ठिकाने छोड़कर पीछे हट गए, जिसके फलस्वरूप अंग्रेजो ने #_झाक_का_गढ़, #_लुलवागढ़, #_अथूणगढ़, #_श्यामगढ़ आदि ठिकानों पर अधिकार कर लिया। अंग्रेज सैनिकों का जब कहीं भी प्रतिरोध नहीं हुआ तो वे आगे बढ़ते हुए अन्य ठिकानों पर भी अधिकार करते गए, लेकिन ज्यों ही वे पहाड़ी इलाके में आगे आये, वहां उपस्थित मगरे के वीर उन पर टूट पड़े और उन्हीं के हथियार एवं साजो-सामान लेकर उन्हीं हथियारों से उन्हें मारकर भगाते हुए पुनः अपने ठिकानों पर अधिकार कर लिया। इस अभियान में अंग्रेजो द्वारा इस क्षेत्र में भेजी गई सभी अन्य टुकड़ियों और साजो-सामान से हाथ धोना पड़ा। अंग्रेजों ने बाद में #_ब्यावर (नया शहर) में अपनी सैनिक छावनी स्थापित की और आस-पास के क्षेत्रों को अपने अधिकार में कर लिया। अंग्रेज इस नये शहर की सीमा से आगे नहीं जाते थे और भयभीत रहते थे। अंग्रेजो द्वारा इस नये शहर को बि अवेअर पुकारे जाने के कारण उनका यही नाम बाद में अपभ्रंश होते हुए ब्यावर हो गया।
(१४). सन् १८५७ ई. में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भी आउवा के साहसी जागीरदार #_ठाकुर_कुशालसिंह चांपावत के नेतृत्व में गूलर, आलनियावास, रडावास, वाजावास, आसोप, आंसीद, लस्सानी आदि के जागीरदारों के साथ बदनोरा के राजपूतों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। २८ मई, १८५७ को #_नसीराबाद_छावनी में विद्रोह के समय अजमेर में शास्त्रगार और गोला-बारूद की मेगजीन पर अधिकार कर लिया था, जिसमें कई सैनिक बदनोरा राज्य (मगरांचल) के राजपूत थे। २१ अगस्त, १८५७ को ऐरिनपुरा छावनी के कुछ बागी सिपाहियों ने कई अंग्रेज अधिकारियों को मारकर डीसा, फतहपुर तथा ऐरिनपुरा छावनियों के आस-पास "फिरंगी मारो, दिल्ली चलो" का नारा गुंजायमान कर दिया। इस अभियान में भी मगरे के कई वीर शामिल थे, जिनकी गाथाऐं आज भी फाल्गुन महीनें में लोग चंग पर बड़े जोश और उत्साह में गाते है। २५ अगस्त, १८५७ को समस्त क्रांतिकारी आउवा के ठाकुर श्री कुशालसिंह के ठिकाने पर एकत्रित हुए, जिसमें आसोप के #_ठाकुर_शिवनाथसिंह कूंपावत, गूलर ठाकुर श्री #_विशनसिंह मेड़तिया, #_आलनियावास ठाकुर श्री अजीतसिंह अपने सैनिकों के साथ उपस्थित हुए थे। अंग्रेजों को सूचना मिली तो उन्होंने तत्काल आउवा पर हमला कर दिया और छः दिन तक युद्ध चलता रहा, बाद में किलेदार एवं मुख्य प्रहरी द्वारा अंग्रेजो से मिलकर किले का द्वार खोलने से अंग्रेजी सेना अन्दर प्रवेश कर गई, जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजो ने किले पर अपना अधिकार जमा लिया और कई देशभक्त वीरगति को प्राप्त हुए।
(१६). सन् १८५७ ई. के गदर में जब नसीराबाद सैनिक छावनी के सैनिकों ने विद्रोह करके अजमेर के अकबर दुर्ग पर अधिकार कर लिया तो ब्यावर मुख्यालय से मगरांचल बटालियन के वीर सैनिकों ने ३३ मील की दूरी ६ घण्टे में पैदल पूरी कर दुर्ग को विद्रोहियों के कब्जे से मुक्त करवा लिया, जिसमें सुबेदार अमरा, फत्ता, मेदा और जमादार गैना व वन्ना का नाम उल्लेखनीय है। सन् १८७८-७९ के अफगान युद्ध में भी इस बटालियन के जवान बहादुरी के साथ लड़े और विजय प्राप्त की, जिसमें सूबेदार गोपा आसन ठीकरवास को वीरता के लिए "इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट" के पदक से सम्मानित किया गया।
(१७). उक्त मगरांचल बटालियन के प्रथम विश्व युद्ध (१९१४-१९१९ ई.) में बदनोरा राज्य (मगरांचल) के राजपूत जाति के लगभग १४ हजार जवान सेना में भर्ती हुए, जिन्हें विभिन्न रेजीमेन्टस में जाकर अन्य जातियों (राजपूत, जाट, अहीर, गढ़वाली आदि) के साथ देश से बाहर अफ्रीका, टर्की, सिंगापुर, ब्रह्मा, मलेशिया, इराक, यूरोपीय देशों के विभिन्न युद्ध क्षेत्रों में जाकर अपने अदम्य साहस, पराक्रम, वीरता और शौर्य का परिचय दिया है। इस युद्ध में अनेक वीर जवानों एवं अधिकारियों को वीरता के "इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट", "डिस्टींगविश सर्विसेज मेडल", ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश एम्पाय" आदि पदकों से सम्मानित किया गया है, जिनमें – लेफ्टिनेट उमरावसिंह किराणा, सुबेदार मोतीसिंह कूकड़ा, सुबेदार डूंगरसिंह धोटी भीम, सुबेदार खुमानसिंह खोडमाल, सुबेदार दल्लासिंह टॉडगढ़, सुबेदार हीरासिंह कूकड़ा, सुबेदार डाऊसिंह थानेटा, सुबेदार विजयसिंह काबरा, सुबेदार भगवानसिंह नन्दावत, जमादार इन्द्रसिंह लोटियाना, जमादार हेमसिंह कूकड़ा, सूबेदार भीमसिंह व जमादार तेजसिंह छापली, सुबेदार नरसिंह डांसरिया आदि के नाम उल्लेखनीय है। प्रथम विश्व युद्ध में केवल टॉडगढ़ तहसील के ही १२४ रावत-राजपूत वीर सैनिक एवं अधिकारी शहीद हुए थे।
गिरी-सुमेल का ऐतिहासिक युद्ध —
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इतिहास में ऐतिहासिक युद्धों में से गिरी-सुमेल युद्ध का अलग ही इतिहास है। ५ जनवरी, १५४४ को लड़े गए इस युद्ध से जोधपुर के महाराजा राव मालदेव की ओर से मिले निमंत्रण पर पाली के शासक अखेराज सोनगरा, आसोप के ठाकुर राव जैताजी, राव कूंपाजी, जैतारण के शासक राव खींमकरण उदावत, खींवसर के शासक राव पंचायणकर्मसेति, बगड़ी के ठाकुर चेता पंचायणरत, धंधेड़ी के ठाकुर कुंपा, कुशलपुरा के ठाकुर जैतसिंह उदावत, सिरोही ठाकुर अखेराज देवड़ा, भारमल, बाला, राजपुरोहित प्रतापसिंह मूलाराजोत आदि सरदार सहर्ष तैयार हो गए।
पाली के शासक अखेराज सोनगरा जो महाराणा प्रताप के नानाजी है, जिनकी आयु उस समय ८५ वर्ष थी और वे अपने पुत्र मान, भोजराज व अपने सैन्यबल के साथ गिरी की ओर रवाना हो गए। शीघ्र ही राव खीमकरण जैतारण, जैतसिंह कुशालपुरा, राव कुंपा ठाकुर, अखेराज देवड़ा सिरोही भी सेना के साथ गिरी में पहुंच गए।
राजा राव मालदेव के पलायन के बाद सभी सेनापतियों के पास कम ही सैन्यबल बचा था। ऐसी परिस्थिति में जब बोरवाड़ के ठिकाणेदार नाहरसिंह चौहान को सूचना मिली तब वह अपने तीन हजार सैनिकों को लेकर गिरी गांव आ पहुंचे। गिरी गांव में गांव की औरतें कर रही थी की राव खीमकरण, राव अखेराज, राव जैता, राव कूंपा, अखेराज देवड़ा सरदार यहीं पर है, इसलिए हम सुरक्षित है। इसके बाद जैतारण के राव खीमकरण व उनके भाई जैतसिंह कुशालपुरा को अफगानी सेना के मध्यम भाग पर प्रहार करने का लक्ष्य दिया गया। राव पंचायण कर्मसौत खींवसर को शेरशाह की हस्ती सेना पर प्रहार करने का दायित्व दिया। राव जैता व कुंपाजी के साथ नरा चौहान, बाला चौहान, अखेराज सोनगरा, ठाकुर अखेराज देवड़ा सिरोही, चांग के लखा चौहान व उनके दो पुत्रों को अफगान सेना के दाएं व बाएं भाग पर हमला करने का दायित्व सौंपा।
अलसवेरे ४ बजे गिरी से आगे बढ़कर सभी वीरों ने अफगान सेना पर प्रहार किया। शेरशाह के भागते ही अफगान सेना में हाहाकार मच गया। इस युद्ध में मुख्य रूप से राव खीमकरण उदावत, राव कूंपा मेहराजोत, राव जैता पंचायणोत, जैतसिंह उदावत, पंचायण कर्मसौत, राव अखेराज सोनगरा पाली, जोगोजी रावलौत, पाताजी कानावत, कंला उजणौत, बिदा भारमलौत, निम्बा भाटी, निम्बा पातावत, सांकला डूंगरसिंह, राव अखेराज देवड़ा सिरोही, नाहरसिंह चौहान बर, बाला चौहान, चांग के लखा चौहान व उनके दो पुत्र, राजपुरोहित प्रतापसिंह मूलाराजोत आदि वीरों ने वीरगति प्राप्त की।
गिरी के गौरवशाली इतिहास की स्मृति को चिरंजीवी रखने के लिए १९९४ में ठाकुर पदमसिंह कर्मावास ने गिरी रणस्थली समिति का गठन किया, जिसमें समिति द्वारा एक स्मृति भवन का निर्माण करवाकर सभी वीरों की फोटो लगवाई।
स्त्रोत- दैनिक भास्कर पाली संस्करण दि.- गुरुवार ६ जनवरी, २०२२)
स्वाभिमानी रावत राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
पेज एडमिन ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर