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“हाड़ा चौहान क्षत्रिय राजवंश के राजपूतों की वंशावली एवं इतिहास”
राजपूतों के ३६ राजवंश में चौहान क्षत्रिय राजवंश का भारतीय इतिहास में विशेष महत्व रहा है। चौहान क्षत्रिय राजवंश का संस्थापक चाहमान था। आबू पर्वत पर कन्नौज के ब्राह्यणों ने यज्ञ किया। उस समय उस यज्ञ की रक्षा करने वाले परमार, चालुक्य और प्रतिहार के साथ चाहमान का भी उल्लेख मिलता है। इसी चाहमान के वंशज कालान्तर में अग्निवंशी चाहमान (चौहान) राजपूत कहलाए। इन चाहमानों का मूल स्थान सपादलक्ष क्षेत्र था तथा इनकी राजधानी अहिछत्रपुर थी।
सपादलक्ष के चाहमानों का आदि पुरूष वासुदेव था। इसका समय ५५१ ई. के लगभग माना जाता है।
हाड़ा शाखा चौहान क्षत्रिय राजवंश की प्रसिद्ध साख रही है। हाड़ौती क्षेत्र में हाड़ा शाखा के राजपूतों का दीर्घ काल तक शासन रहा है। हाड़ा राजपूतों के दो बड़े राज्य और १२ कोटरियात रहे हैं।
चौहान क्षत्रिय राजवंश की हाड़ा शाखा की उत्पति के विषय में इतिहासकारों के विभिन्न मतों का विवरण इस प्रकार है–
(१). कर्नल जेम्स टॉड़ ने अपनी पुस्तक में वर्णन बड़वा गोविंदराम के राजग्रन्थ के आधार पर किया है। इसके सांराश के अनुसार वीसलदेव के पुत्र अनुराज से हाड़ा शाखा की उत्पत्ति हुई। अनुराज चौहान का असीरगढ़ राज्य पर आधिपत्य था।
(२). वीरविनोद के अनुसार सांभर के शासक सोमेश्वर चौहान के पुत्र उरथ के ९वीं पीढ़ी में भोमचन्द्र हुए। भोमचन्द्र चौहान के भानुराज हुए, जिसको अस्थिपाल के नाम से जाना जाता था। उसकी वंश में देवीसिंह हुए, जिन्होंने बूंदी में अपना राज्य स्थापित किया।
(३). मुहणौत नैणसी की ख्यात एवं मेनाल से मिले शिलालेखों के अनुसार बूंदी के हाड़ा राजपूत अपने मूल पुरूष हरराज से हाड़ा चौहान कहलाए।
(४). ठा. ईश्वरसिंह मडाढ़ की पुस्तक राजपूत वंशावली के अनुसार चौहान क्षत्रिय राजवंश में भानुराज, अस्थिपाल के नाम से प्रसिद्ध था। अस्थि का पर्याय हड्डी या हाड़ है, इसलिये अस्थिपाल के वंशज हाड़ा चौहान कहलाये।
(५). इति. जगदीशसिंह गुहिलोत के अनुसार हाड़ा वंश के राजपूत, नाडोल के आसराज के पुत्र माणिक्यराज के वंशज है।
(६). ठा. रघुनाथसिंह शेखावत ने नाडोल के आसराज द्वितीय के पुत्र भानकराज से भिन्न लक्ष्मण के पौत्र माणिक्यराज से हाड़ा शाखा का प्रार्दुभाव होना अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है तथा इसकी विवेचना करते हुए वंशावली का भी उल्लेख किया है जिसके अनुसार भाणवर्धन (भानुराज या संभराण) नाडोल नरेश राव लाखनसी चौहान के पुत्र आसराज (अधिराज, अश्वपाल) के पुत्र माणिक्यराज चौहान का पुत्र था। इसके पश्चात् इस वंश में क्रमशः अस्थिपाल, चन्द्रकर्ण, लोकपाल, हम्मीर, जोधराव, कलिकर्ण, महामुग्ध, राव वाचा, रामचन्द्र, रेणसी, जेतराव, आशुपाल, विजयपाल, हरराज (हाड़ा), वांगा, राव देवा हुए।
उपरोक्त विश्लेषण का निष्कर्ष यह है कि नाडोल शाखा का अस्थिपाल (भाणवर्धन) ही हाड़ा शाखा का प्रथम पुरुष हुआ और नाडोल के निकट असीर दुर्ग (असीरगढ़, आसलपुर) ही हाड़ा शासकों को पाट स्थान रहा।
बूंदी राज्य में हाड़ा चौहान वंश का शासन स्थापित करने वाले देवीसिंह चौहान के पूर्वजों के पास हेडालगढ़ राज्य के होने के प्रमाण मिलते है। वंशभास्कर की पुस्तक में बंगदेव (वाघा चौहान) के ८४ किले जीत लेने का उल्लेख मिलता है। इसके पुत्रों में देवीसिंह, कर्मन, सिंहन, नयनसिंह, अर्डक, बर्डक, नत्यु, पत्यु, हिंगल, खड्गहस्त, माहन, सामोदास, कृष्णदास थे।
इसमें सिंहन से #_सिंहणोेत_हाड़ा व माहन से #_माहणोत_हाड़ा की नाम की खांपे हाड़ा चौहानों में प्रसिद्ध हुई। बूंदी के #_हाड़ा_चौहान राजवंश में #_कड़ेलवाल_चौहान खांप भी विशेष प्रसिद्ध रही है।
बूंदी राज्य के राव देवीसिंह हाड़ा के वंश परम्परा में ठाकुर केनाजी हाड़ा हुए। ठाकुर केनाजी चौहान अपने मूल स्थान बूंदी राज्य से निकलकर पुष्कर के पास #_कड़ेल_गांव बसाया। अतः उनके वंशज #_कड़ेलवाल_चौहान कहलाये।
एक बार पास के गांव में #_पोखरिया_राठौड़़ो के भाट को किसी कारणवंश मार दिया, जिससे राठौड़ क्षत्रियों ने अवसर पाकर कड़ेलवाल राजपूतों पर हमला कर दिया। यह हमला भी उस दिन किया, जिस दिन कड़ेलवाल क्षत्रिय अस्त्र-शस्त्र नहीं चलाते थे। उस दिन कड़ेल गांव के समस्त कड़़ेलवाल क्षत्रिय मारे गये। केवल एक पोखरिया राठौड़ो की पुत्री जो कड़ेलवाल क्षत्रिय के यहां विवाहित थी, उसे छोड़ दिया। वह महिला गर्भवती थी। उसने कड़ेल गांव से चांग में आकर भूणाजी महाराज के आश्रम में शरण ली, उसके दो जुड़वा पुत्र हुए जिनके वंशज वर्तमान में चांग, फतेहगढ़, गणेशगढ़, बिचड़ली, नून्दरी महेन्द्रातान आदि क्षेत्रों में रहते हैं।
यहां से ठाकुर फतेहसिंह हाड़ा चांग से निकलकर #_फतेहपुरिया_गांव बसाया। यहां इन्होनें मसानिया भैरूजी के मन्दिर का निर्माण करवाया जिसे आज सभी लोग पूर्ण श्रद्धा एवं भक्तिभाव से पूजते हैं।
हाड़ा शाखा के चौहान राजवंश में हाड़ा रानी के त्याग व बलिदान की गाथा अपने आप में अनूठी है। जब हाड़ा रानी के पति चूण्डावत युद्ध भूमि में जा रहे थे तो दुल्हन का मोह उन्हें रोक रहा था। क्षत्रिय शान और पति के मोह को देखकर हाड़ी रानी ने निशानी के रूप में अपना शीश काटकर दे दिया था। इस गौरवशाली हाड़ा चौहान राजवंश में #बूंदी_राज्य के शासकों का विवरण इस प्रकार है ―
(१). राव देवीसिंह हाड़ा (१३४२-१३४३ ई.) ―
देवीसिंह हाड़ा एक छोटी सी रियासत बंबावदे के शासक थे। इन्होनें ही मीणों को बूंदी से खदेड़कर सन् १३४१ ई. में राज्य को अपने अधीन कर लिया। कर्नल टॉड ने ‘एनॉल्स एण्ड एंटिक्विटीज ऑफ राजस्थान’ में भी देवीसिंह का वि.सं. १३९८ (१३४१ ई.) में बूँदी पर अधिकार होना लिखा है। देवीसिंह तक बम्बावदा के हाड़ा राजपूतों की स्थिति साधारण ही थी, तदन्तर देवीसिंह ने गौड़ सरदार गजमल से खटपुर, मनोहरदास से पाटन, गोड़ों से गेडोली व लाखेरी और उसके पश्चात् जसकरण से कखर के परगने दबा कर बूँदी राज्य को विस्तृत किया, यह क्षेत्र हाड़ौती कहलाया।
अपने पिता के प्रति शक्ति प्रकट करने के लिये देवीसिंह ने अमरथूण से पूर्व की ओर गंगेश्वरी देवी का मन्दिर बनवाया जहाँ पर बावड़ी का निर्माण करवाया। देवीसिंह के पिता बंगदेव का निधन होने पर उसने वंशक्रमानुगत राज्य भी बूँदी में मिला लिया। इस प्रकार अपने बाहुबल से विस्तृत राज्य स्थापित किया।
(२). राव समरसिंह हाड़ा (१३४३-१३४६ ई.) ―
राव देवी सिंह का पुत्र समर सिंह १३४३ ई. में गद्दी पर बैठा। इसने केथून, सीसवली, बड़ौद, रेलावन, रामगढ़, मऊ और सागौर आदि स्थानों के गौड़, पंवार व मेड़ राजपूतों को अधिन कर उनको अपना सामन्त बनाया तथा अपने पैतृक राज्य को सुदृढ़ किया।
इस समय हाड़ा राजपूतों का राज्य चम्बल नदी के बाँये किनारे तक फैल चुका था, परन्तु चम्बल के दाहिने किनारे पर कोटा से लगभग पाँच मील दक्षिण-पश्चिम में अकेलगढ़ भीलों की राजधानी थी।
अकेलगढ़ दक्षिण-पूर्व में मुकुन्दरा पर्वत की श्रेणियों के साथ-साथ भील लोग मनोहर थाने तक फैले हुए थे। भीलों का प्रसिद्ध सरदार कोटया था जिसके नाम पर कोटा नगर बसा था। अकेलगढ़ के पास कोटया भील का समरसिंह हाड़ा से भारी युद्ध हुआ जिसमें भीलों के ९०० व हाड़ो के ३०० सिपाही मारे गये। कोटया रण से भागकर अपने प्राणों की रक्षा करने के लिये कहीं छिप गया। इस प्रकार विजय होकर बूँदी पहुँचने के पश्चात् समरसिंह ने अपने तृतीय पुत्र जैतसी का विवाह कैथून के तँवर सरदार की पुत्री से कर दिया। जब जैतसी अपने ससुराल में ठहरा हुआ था तो अकेलगढ़ के भीलों का उच्छेद करके उसने अपने लिये एक छोटा सा राज्य स्थापित करने की योजना की। अपने ससुर की अनुमति से और पिता की सहायता से उसने भीलों के साथ युद्ध करके उनका नाश किया। कोटया भील लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। इस युद्ध में जैत सिंह के पक्ष में सैलार नाम का वीर योद्धा भीलों के विरुद्ध लड़ता हुआ मारा गया। इस प्रकार अकेलगढ़ के भीलों को मारकर जैतसिंह ने कोटा नगर पर अधिकार कर लिया। सैलार की स्मृति में सैलार का दरवाजा बनवाया गया।
राव समर सिंह हाड़ा के चार पुत्र नरपाल, हरपाल, जैतसिंह और डुंगर सिंह थे। समरसिंह के ज्येष्ठ पुत्र नरपाल बूँदी राज्य का स्वामी हुआ। द्वितीय पुत्र हरपाल को जंजावर की जागीर मिली। तृतीय पुत्र जैतसिंह के पास कोटा परगना रहा व बूँदी के राजकुमार की जागीर में रहने लगा। जैतसिंह अपने को कोटा राज्य का अधिपति मानते हुए भी बूँदी राज्य के अधीन रहे।
(३). राव नरपालजी हाड़ा (१३४९-१३७० ई.) ―
राव समरसिंह हाड़ा की मृत्यु के पश्चात् उनके ज्येष्ठ पुत्र नरपालजी बूँदी के सिंहासन पर बैठे। राव समरसिंह के द्वितीय पुत्र जैतसिंह कोटा में शासन करता रहा और अपने बड़े भाई की सेवा करता रहा। जब नरपालजी ने टोडा के सोलंकी सरदार रोपाल के साथ युद्ध किया तो जैतसिंह उसमें लड़ता हुआ काम आया।
अपने पिता की भांति नरपालजी ने चम्बल के दाहिने तट पर अपना राज्य बढ़ाया। उसने पहले पलायथे के महेशदान खींची पर चढ़ाई की। प्रथम बार में पराजय हुये परन्तु दूसरी बार की चढ़ाई में महेशदान ने रणक्षेत्र से भागकर अपने प्राणों की रक्षा की और नरपालजी ने उसके भाई पहाड़ सिंह को मारकर पलायथे के किले पर अपना अधिकार जमाया। इस युद्ध में नरपालजी के पुत्र हल्लू ने बड़ी वीरता दिखाई। सन् १४२८ ई. के श्रृंगी स्थान से मिले शिलालेख से ज्ञात होता है कि मेवाड़ के महाराणा क्षेत्रसिंह ने इनको हराया था तब से बूँदी राज्य मेवाड़ का मातहत हो गया।
(४). राव हामाजी हाड़ा (१३८८-१४०३ ई.) ―
सन् १३८८ ई. में राव हामाजी अथवा हम्मीर सिंह बूँदी के सिहांसन पर आरूढ़ हुए। मेवाड़ की गद्दी पर इस समय महाराणा लाखा का अधिकार था जो साम्राज्यवादी लालसा से युक्त थे। बूँदी का प्रदेश अल्लाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ पर अधिकार से पूर्व मेवाड़ के अधीन था। खिलजी आक्रमण से राणा की शक्ति निर्बल हो जाने के कारण उनके अधिकृत प्रदेश स्वतन्त्र हो गये। बूँदी भी उनमें से एक था। अब महाराणा लाखा ने बूँदी नरेश को पुनः अपनी अधीनता स्वीकार करने का आदेश दिया। हम्मीर ने अपने को मेवाड़ का सामन्त मानने से इन्कार कर दिया और कहा कि बूँदी को हाड़ाओं ने मीणाआें से अपनी शक्ति के बल पर प्राप्त किया है।
दीर्घकालीन पत्र व्यवहार के उपरान्त राव हम्मीर ने महाराणा से सन्धि करना स्वीकार कर लिया परन्तु इस पर महाराणा सन्तुष्ट नहीं हुए बूँदी को अधीन बनाने तथा राव देवा के उत्तराधिकारियों को हाड़ौती के पठार से निष्कासित कर देने के उद्देश्य से उसने एक अभियान किया। बूँदी के निकट निमोरिया नामक ग्राम में राव हमीर ने ५०० हाड़ा सैनिकों के साथ महाराणा का सफल प्रतिरोध किया। सिसोदिया सैनिकों व कुछ वरिष्ठ सामन्तों को खोकर राणा लाखा युद्ध क्षेत्र से छोड़कर निकल गया और उसने चित्तौड़ पहुँच कर यह प्रतिज्ञा की कि ‘‘जब तक मैं बूँदी पर अधिकार नहीं कर लूँगा तब तक अन्न जल ग्रहण न करूँगा।’’ राणा की इस प्रतिज्ञा को सामन्तों की राय में इतने अल्पकाल में पूरा करना असम्भव था क्योंकि चित्तौड़ से ६० मील दूर सशक्त हाड़ा राव को परास्त करने में जितना समय लग जाता उतने समय तक अन्न जल त्यागे हुऐ महाराणा का जीवन संदिग्ध ही था। समस्या का यह उपाय खोजा गया कि बूँदी के दुर्ग का एक कृत्रिम नमूना मेवाड़ में ही निर्मित किया जाए तथा उस पर अधिकार करके महाराणा की प्राण रक्षा की जाये, किन्तु इस योजना की क्रियान्विति का मेवाड़ की सेना में सेवारत एक हाड़ा सरदार कुम्भा ने इसे हाड़ाओं के सम्मान का प्रश्न मानकर इस कृत्रिम आक्रमण का सशस्त्र विरोध किया। हाड़ा राव हम्मीर ने महाराणा की पुरमाण्डल की ओर बढ़ती सेना को रोककर मध्यस्थता की तथा अपने पिता नापाजी के समय मेवाड़ से छिना गया प्रदेश मेवाड़ को पुनः सौंपकर अपनी एक पौत्री का विवाह महाराणा के पुत्र खेतल से कर दिया।
(५). राव वीरसिंह हाड़ा (१४०३-१४१३ ई.) ―
यह राव हम्मीर का ज्येष्ठ पुत्र था। बूँदी के तारागढ़ दुर्ग के निर्माता बरसिंह के भाई तथा खटकड़ के लालसिंह ने पिता हम्मीर की इच्छानुसार अपनी पुत्री का विवाह मेवाड़ के महाराजा कुमार खेतल से गेण्डोली में किया। इस आयोजन में महाराणा के एक चारण बारू ने लालसिंह द्वारा अपमानित किए जाने पर आत्महत्या कर ली। इसका बदला लेने के लिये महाराणा ने खेतल को अपने ससुर पर आक्रमण करने का आदेश दिया। इस युद्ध में बरसिंह ने लालसिंह का साथ दिया। मेवाड़ की पराजय हुई और खेतल खेत रहे।
(६). राव बेरीशाल हाड़ा (१४१३-१४५९ ई.) ―
३२ वर्ष की आयु में बेरीशाल बूँदी की राजगद्दी पर बैठे। मेवाड़ के वृतान्तकार कवि श्यामलदास ने वीर विनोद में इस शत्रुता का उल्लेख इस प्रकार से किया है कि महाराणा लाखा के पिता क्षेत्रसिंह का प्राणान्त बूँदी के आक्रमण के प्रयास में हो गया था। प्रतिहिंसा स्वरूप महाराणा लाखा ने हाड़ा राव को आक्रमण की चेतावनी दी। इस पर हाड़ा राव ने उनसे क्षमायाचना की तथा अपने परिवार की १२ कन्याओं की विवाह मेवाड़ के राजकुमार एवं सरदारों के साथ सम्पन्न कर दिया।
इसके राज्यकाल की उल्लेखनीय घटना मॉडू (मालवा) के बादशाह महमूद खिलजी ने तीन बार १४४९ ई., १४५३ ई. और १४५९ ई. में कोटा बूंदी पर चढ़ाई की। आखिरी चढ़ाई में सुल्तान ने अपने छोटे पुत्र फिदाई खाँ को वहाँ का मालिक बनाया। इसी संघर्ष में राव बेरीशाल काम आये।
राव बेरीशाल हाड़ा के आठ पुत्र अखैराज, चुंड़ा, उदयसिंह, भांडा, (बन्दो) भापादेव, लोहट, कर्मचन्द और श्यामजी (केशवदेव) थे। राव बैरीशाल हाड़ा ने भांडा (भाणदेव) को अपना उत्तराधिकारी बनाया।
(७). राव भांडाजी हाड़ा (१४५९-१५०३ ई.) ―
इनका नाम भरमल, भांडा और बन्दो भी मिलता है। यह बूँदी के इतिहास के एक प्रसिद्ध शासक हुए। इसने अपने भाइयों की सहायता से बूँदी के खोए प्रदेश को पुनः प्राप्त कर लिया तथा बाद में इसने माण्डू (मालवा) तक लूट-खसोट करना आरम्भ कर दिया। इस पर माण्डु के सुल्तान ने हाड़ा चौहान राजपूतों को दबाने के लिये समरकन्दी व उमरकन्दी के नेतृत्व फौज को बूँदी भेजा। इन्होंने राव भाण्डाजी को वहाँ से निकाल दिया। इनका बूँदी पर लगभग ११ वर्ष तक अधिकार रहा। समरकन्दी ने बूँदी लेकर भाण्डाजी को कुछ गाँव जागीर में दे दिए।
राव भाण्डाजी हाड़ा बड़ा उदार व धार्मिक नरेश था। इसने तीन वर्ष तक का संचय किया हुआ कुल अनाज सन् १४९२ ई. के घोर दुर्भिक्ष में सबको बाँट दिया। राव भाण्डाजी की मृत्यु मातुण्डा ग्राम में हुई। मातुण्डा में उनकी छत्री अभी भी स्थित है।
(८). राव नारायणदास हाड़ा (१५०३-१५२७ ई.) ―
राव भांडाजी की मृत्यु के समय राव नारायणदास इतना शक्तिशाली नहीं था कि समरकन्दी का विरोध कर सके, परन्तु उसने धीरे-धीरे पठार देश के हाड़ा राजपूतों को इकट्ठा कर नारायणदास ने बूँदी को समरकन्दी से वापिस लेने का निश्चय किया। आरम्भ में इन्होंने इनसे मेलजोल बढाकर कुछ जागीरें प्राप्त की। एक दिन उसने मौका पाकर उनको मार डाला। समरकन्दी का पुत्र दाउद भी मारा गया। हाड़ा राजपूतों ने नारायणदास का साथ दिया और इस तरह बूँदी पर पुनः हाड़ा राजपूतों का राज्य स्थापित हो गया। इस विजय के उपलक्ष्य में एक स्तम्भ का निर्माण राव नारायण हाड़ा ने बूँदी में करवाया था।
राव नारायणदास बड़ा वीर और साहसी शासक था। यह चित्तौड़ के महाराणा रायमल के समकालीन थे। जब मालवा के सुल्तान गयासुद्दीन ने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर उसे घेर लिया तब राव नारायणदास हाड़ा अपनी सेना लेकर महाराणा रायमल की सहायता के लिये चित्तौड़ पहुँचे और यवनों को मार भगाया। इस युद्ध में नारायणदास के कई घाव लगे और उसके कई हाड़ा सैनिक युद्ध में काम आये। इस सेवा के उपलक्ष्य में महाराणा रायमल ने प्रसन्न होकर अपनी पुत्री का विवाह नारायणदास से कर दिया। राणा सांगा से भी इनके सम्बन्ध बहुत मधुर थे। ये दो बार राणा सांगा से मिलने गये एवं खानवा के युद्ध १५२७ ई. में महाराणा सांगा की अधीनता में बाबर के विरुद्ध युद्ध में शामिल हुए। महाराणा संग्रामसिंह के साथ हाड़ा राव नारायणदास के अनुज नरबद की पुत्री का विवाह किया गया था। इस कारण से भी हाड़ा राव ने प्रत्येक अवसर पर महाराणा का साथ दिया। १५२७ ई. के लगभग यह अपने भाई नरबद हाड़ा के साथ जागीरदार खटकड़ों के हाथ से शिकार में धोखे से मारे गये। इनके तीन पुत्र सूरजमल, रायमल और कल्याणदास थे। इनके छोटे भाई नर्बद की पुत्री कर्मवती महाराणा सांगा की राणी थी। इसी कर्मवती ने चित्तौड़ के घेरे में वीरता पूर्वक भाग लिया था।
(९). राव सूरजमल हाड़ा (१५२७-१५३१ ई.) ―
यह अपने पिता नारायणदास हाड़ा के समान ही वीर तथा उदार नरेश थे। इनके समय में मेवाड़ तथा बूँदी में वैवाहिक सम्बन्ध और प्रगाढ़ हो गये थे। सूरजमल हाड़ा की बहिन सूजाबाई की शादी महाराणा रतनसिंह के साथ हुई थी और महाराणा रतनसिंह ने भी अपनी बहिन का विवाह राव सूरजमल से किया था। महाराणा सांगा की मृत्यु के उपरान्त ज्येष्ठ पुत्र रतनसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे और छोटा पुत्र विक्रमादित्य तथा उदयसिंह अपनी माता महाराणी हाड़ी कर्मवती के साथ अपनी जागीर के रणथम्भौर के किले में रहते थे। उस समय बूँदी के राव उनके अभिभावक थे। महाराणा रतनसिंह व राव सूरजमल हाड़ा में अधिक समय तक मेल नहीं रहा। हाड़ा व सिसोदिया एक दूसरे के रक्तपिपासु बन गये।
१५३१ ई. में विक्रमादित्य के मेवाड़ पर अधिकार करने की महत्त्वाकांक्षा को हाड़ा राव का समर्थन मिलने से महाराणा क्रोधित हो गये। महाराणा रतनसिंह ने सूरजमल हाड़ा को नाणता के पास गोर्ख तीर्थ पहाड़ी शिकारगाह में शिकार खेलने को बुलवाया। कोठारिया का राव पूर्णमल पूरबिया (चौहान) महाराणा के साथ था। १५३१ ई. में राव सूरजमल व महाराणा रतनसिंह दोनों एक दूसरे के हाथों मारे गये। पूर्णमल पूरबिया भी मारा गया। पाटण गाँव में महाराणा रतन सिंह का दाह संस्कार हुआ और महाराणी पंवारजी उनके साथ सती हुई। नाणता में इन दोनों वीरों की छतरियाँ अब तक मौजूद है और इसी घाटी के उपर सूजाबाई की छत्री भी बनी हुई है। राव सूरजमल हाड़ा ने केवल चार वर्ष राज्य किया।
(१०). राव सूरताणजी हाड़ा (१५३१-१५५४ ई.) ―
यह १५३१ ई. में आठ वर्ष की आयु में बूंदी राज्य के शासक हुए। इनका विवाह महाराणा उदयसिंह के पुत्र शक्तिसिंह की पुत्री से सम्पन्न हुआ था। इसके शासनकाल में महाराणा उदयसिंह ने पठानों से अजमेर छिनकर राव सूरताण हाड़ा को दे दिया। इनके समय में कोटा राज्य १५४६ ई. में केसर व डोकर नामक दो पठान सैनिकों के हाथ में चला गया एवं बड़ोद और सीसवली के परगने भी रायमल खींची ने अपने कब्जे में कर लिये। बूँदी और कोटा की ऐसी दुर्व्यवस्था देखकर मालवा के सुल्तान ने भी बूँदी पर आक्रमण कर दिया। यह नगर पहले भी दो बार मालवा के सुल्तानों द्वारा लूटा जा चुका था। हाड़ा लोग अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये उदयपुर के महाराणा की सलाह पर हाड़ा सरदारों ने इसे १५५४ ई. में राजगद्दी से उतार दिया। इसके कोई पुत्र नहीं होने पर सरदारों ने मिलकर भाणदेव हाड़ा के प्रपोत्र अर्जुन हाड़ा को गद्दी पर बैठाया और मुस्लिम सेना से युद्ध कर बूँदी को बचाया।
राव अर्जुन हाड़ा महाराणा विक्रमादित्य की सेवा में ही रहने लगे। जब गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर चढ़ाई की तब बूँदी की पाँच हजार सेना का अधिपति होकर हाड़ा अर्जुन चित्तौड़ आये। महाराणा ने उसको चित्तौड़ी बुर्ज का संरक्षक बनाया। मुसलमानों ने सुरंग बनाकर तथा बारूद से भरकर चित्तौड़ी बुर्ज को उड़ा दिया जिसमें अर्जुन हाड़ा व उसके साथी मारे गये। इनके बाद अर्जुन का पुत्र सुर्जन बूँदी की राजगद्दी पर बैठा।
(११). राव सुर्जन हाड़ा (१५५४-८५ ई.) ―
यह अर्जुन हाड़ा का बड़ा पुत्र था और राव सुरताण के राज्यच्युत होने पर १५५४ ई. में बूँदी की गद्दी पर बैठा। इसके समय से पूर्व बूँदी के राव किसी न किसी प्रकार से मेवाड़ के मातहत रहते थे। इसने बूँदी के छीने गये परगनों को जीतने के लिये एक बड़ी सेना इकट्ठी की। इस सेना में उसके दस जागीरदार भाई तथा कई अन्य राजपूत थे। सेना इकट्ठी कर इसने केसर और डोकर पठानों को पराजित कर कोटा पर पुनः अधिकार किया और अपने पुत्र भोज हाड़ा को सुपुर्द कर दिया जहाँ वह स्वतंत्र शासक की भाँति राज्य करने लगा। मऊ के खींची रायमल को राव सुर्जन हाड़ा ने पराजित कर उससे कोटा के उत्तर के बड़ोद व सीसवाली परगने वापस लिये। रणथम्भौर से कोटा तक और रामगढ़ से बूँदी तक उसका निष्कंटक राज्य था। बूँदी के एक सरदार सामन्त ने बोदला के चौहानों की सहायता से रणथम्भौर का दुर्ग पठानों से जीतकर बूँदी के अधिकार में ले लिया, तभी से रणथम्भौर का दुर्ग भी उसके अधिकार में था। बोदला के चौहान शासक ने रणथम्भौर का किला १५५९ ई. में इस शर्त पर दिया था कि वह मेवाड़ के सामन्त के रूप में कार्य करेगा।
अकबर की आँखों में चित्तौड़ व रणथम्भौर के किले खटक रहे थे। अतः १५६८ ई. में चित्तौड़ विजय करने के बाद अकबर ने रणथम्भौर की विजय हेतु सेनाएँ भेजी। हाड़ा सहज ही अकबर की अधीनता स्वीकार करने वाले नहीं थे। अतः स्वयं बादशाह अकबर ने रणथम्भौर का घेरा १५६९ ई. में डाल दिया। लगभग डेढ़ माह तक घेरा पड़ा रहा लेकिन राव सुर्जन ने आत्म समर्पण नहीं किया तब भारमल कच्छवाह ने अकबर से कहा कि रणथम्भौर को जीतना चित्तौड़ जैसा सरल कार्य नहीं है। अब यहाँ राव सुर्जन की चाही हुई शर्ते मंजूर करके नीतिपूर्वक दुर्ग पर अधिकार करना चाहिए। अकबर ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और मानसिंह ने राव सुर्जन से २१ मार्च, १५६९ ई. को मुगल सम्राट की संधि स्वीकार की। रणथम्भौर सौंपने के बाद बादशाह ने उसे एक हजारी जात और मनरूट तथा गढ़कंटगा की जागीर ईनाम में दी। वहाँ पर उसने वहाँ के आदिम निवासी गोड़ों का दमन किया और उनकी राजधानी बारीगढ़ पर मुगल अधिकार स्थापित किया। इस पर बादशाह सुर्जन पर बहुत प्रसन्न हुआ और उसे रावराजा की उपाधि दी तथा पाँच हजार का मनसब दिया। बादशाह ने उसे बूँदी के निकट के २६ परगने तथा बनारस के निकट २६ परगने दिये। वह अपने जागीर के परगनों में ही रहने लगा तथा वहाँ बनारस को अपना निवास स्थान बना लिया, जहाँ पर उसके अनुरोध से ही चन्द्रशेखर कवि ने ‘‘सुर्जन चरित” नामक संस्कृत काव्य की रचना प्रारम्भ की, परन्तु उसकी समाप्ति से पूर्व ही सुर्जन का स्वर्गवास १५८५ ई. में हो गया और यह ग्रन्थ उनके पुत्र भोज के समय में समाप्त हुआ। इसमें चौहान वंश की वंशावली श्री चहुवान के वंशधर वासुदेव चौहान से लेकर राव सुर्जन हाड़ा तक दी है।
राव सुर्जन हाड़ा के तीन पुत्र दूदा, भोज, और रायमल थे। रायमल को जागीर में पलायथा मिला था जो इस समय कोटा राज्य में था। राव सुर्जन के काशी में रहने के कारण बूँदी का राज्य उसका पुत्र दूदा संभालता था। १५७६ ई. में दूदा और भोज में बूँदी के शासन प्रबन्ध को लेकर अनबन हो गई। दूदा अकबर से सम्बन्ध रखने के विरुद्ध था इस कारण सुर्जन ने भोज देव को बूँदी का राज्य देना चाहा। इस पर बादशाह ने विद्रोह को दबाने के लिये दो बार सेना भेजी और राजकुमार भोज को १५७७ ई. में बूँदी राज्य दे दिया।
(१२). राव भोज हाडा़ (१५८५-१६०७ ई.) ―
यह राव सुर्जन हाड़ा के द्वितीय पुत्र व बांसवाड़ा के रावल जगमाल उदयसिंह के दोहिते थे।
यह बहुत समय तक मानसिंह के साथ शाही युद्धों में रहे। सन् १६०० ई. में इन्होंने सूरत और अहमदनगर का किला विजय किया था। अहमदनगर के युद्ध में राव भोज की वीरता पर प्रसन्न होकर बादशाह ने भोज के नाम पर वहाँ के किलों की बुर्ज का नाम भोज बुर्ज रखा था। बादशाह अकबर के दरबार में राव भोज का मनसब एक हजारी था। जब बादशाह अकबर का देहान्त १५ अक्टूबर, १६०५ ई. को हो गया तब राव भोज भी आगरा से बूँदी लौट आये। कुछ समय बाद भोज का देहान्त बूँदी में हो गया।
राव भोज ने २२ वर्ष तक राज किया। उसके चार पुत्र राजकुमार रतनसिंह, हृदयनारायण, केशवदास और मनोहरदास थे।
(१३). राव रतनसिंह हाड़ा (१६०७-१६३१ ई.) ―
राव रतन सिंह १६०७ ई. में बूँदी के सिंहासन पर बैठे। सन् १६१३ ई. में इन्होंने दक्षिण युद्ध अभियानों में भाग लिया।
जहाँगीर के विरुद्ध खुर्रम ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया तब राव रतनसिंह को १६२३ ई. में शहजादे परवेज और महावत खाँ के साथ शाहजादे खुर्रम का सामना करने के लिये दक्षिण में भेजा। वहाँ से परवेज व महावत खाँ पूर्व को गये तब रतनसिंह को बुरहानपुर जिले का सूबेदार बनाया। उस समय खुर्रम ने बुरहानपुर का किला लेना चाहा, परन्तु राव रतनसिंह हाड़ा ने खुर्रम की सेना का तीन बार मुकाबला कर हटा दिया और खुर्रम को गिरफ्तार कर लिया, परन्तु बाद में रतनसिंह को खुर्रम पर दया आ गई और उसे अपनी कैद से निकाल दिया। इस पर जहाँगीर बिगड़ गया और उसने बूँदी पर चढ़ाई करने के लिये सेना भेजी। रतनसिंह की सेनाओं ने जहाँगीर की सेनाओं को परास्त करके भगा दिया। इस बीच १६२८ ई. में खुर्रम मुगल साम्राज्य का बादशाह बन गया, उसने रतनसिंह को पुनः मान-सम्मान प्रदान किया।
सन् १६२४ ई. में जिस समय रतनसिंह खुर्रम का विद्रोह दबाने गया था तब कोटा का राजा हृदयनारायण जो रतनसिंह का भाई था युद्ध का मैदान छोड़कर निकल गया। इस पर जहाँगीर ने उसकी जागीर जप्त कर रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को दे दी तथा कोटा को १६३१ ई. में बूँदी राज्य से अलग करके स्वतन्त्र राज्य बना दिया।
राव रतनसिंह हाड़ा की दक्षिण की सेवाओं से प्रसन्न होकर जहाँगीर ने १६२५ ई. में उनका मनसब पाँच हजारी जात व पाँच हजार सवार का कर दिया और रावराय (रावराजा) की उपाधि दी। राव रतनसिंह हाड़ा ने मऊ के खींची चौहानों को हराया और उनके गढ़ गागरुया, मऊ, चाचरण आदि स्थानों पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में उनका भाई केशवदास अपने सौ साथियों सहित मारा गया। दरियाव नामक प्रसिद्ध लुटेरे को जो मेवाड़ व उसके आस-पास लूट खसोट करता था इसने पकड़कर सम्राट के पास पहुँचाया। बादशाह ने उस पर प्रसन्न होकर, नौबत नक्कारे का शाही निशान, राजकीय उत्सवों के लिये पीला झण्डा और डेरे के लिये लाल झण्डा लगाने की इजाजत दी।
राव रतनसिंह हाड़ा का देहान्त १६३१ ई. को बालाघाट (म.प्र.) के पड़ाव में हुआ जहाँ उसने बुरहानपुर में अपने नाम पर रतनपुर नामक कस्बा बसाया था। इसके तीन राजकुमार थे, प्रथम गोपीनाथ जिनकी २५ वर्ष की आयु में ही मृत्यु हो गयी। द्वितीय माधोसिंह जिसको हृदयनारायण को कोटा की गद्दी से हटाये जाने के बाद राव रतनसिंह ने कोटा का राज्य दे दिया था। हरिसिंह को राज्य में पीपलदा की जागीर मिली।
(१४). राव शत्रुसाल हाड़ा (१६३१-१६५८ ई.) ―
राव शत्रुसाल हाड़ा राव रतनसिंह के पोते और गोपीनाथ हाड़ा के पुत्र थे। राव शत्रुसाल २५ वर्ष की आयु में बूँदी के राजसिंहासन पर बैठे। इसके पश्चात् बादशाह ने इन्हें राव का खिताब, तीन हजारी जात, दो हजार सवार का मनसब और बूँदी व खटकड़ आदि परगने जागीर में देकर खानेजमा के साथ दक्षिण में भेजा, जहाँ इन्होंने १६३२ ई. में दौलताबाद का किला जीतने में बड़ी बहादुरी दिखाई। इसके अलावा इसने शाहजहाँ, दाराशिकोह, मुरादबख्श, औरंगजेब के साथ मिलकर कई युद्धों में भाग लिया।
फरवरी, १६५८ ई. से ही मुगल सम्राट शाहजहाँ के चारों पुत्रों क्रमशः दारा शुजा, औरंगजेब एवं मुराद में उत्तराधिकार को पाने की लालसा में होड़ प्रारम्भ हो गई।
२९ मई, १६५८ ई. को सामूगढ़ के रणक्षेत्र में दाराशिकोह की सेना के हरावल में हाड़ा, सिसोदिया व गोड़ सैनिकों का नेतृत्व राव शत्रुसाल को प्रदान किया गया। जब सेना के बीच में शहजादा दाराशिकोह जो हाथी पर सवार था एकाएक गायब हो गया। सेना तितर-बितर होने लगी। यह देखकर राव शत्रुसाल ने वीरता के साथ युद्ध किया। राव शत्रुसाल ने स्वयं औरंगजेब व मुराद पर भी आक्रमण किया अचानक उनके ललाट में एक गोली लगी जिससे वह रणक्षेत्र में ही २९ मई, १६५८ ई. को वीरगति का प्राप्त हुए। इस युद्ध में हाड़ा राव के साथ उनके अनुज मुहकमसिंह, पुत्र भरतसिंह तथा भतीजे उदयसिंह भी मारे गये। इनकी स्मृति में धौलपुर के समीप ही चबुतरे बनवाये गये जो रण के चबुतरे के नाम से आज भी विख्यात है।
राव शत्रुसाल हाड़ा के चार पुत्र भावसिंह, भीमसिंह, भगवतसिंह और भरतसिंह थे। इसने बूँदी में छत्र महल व पाटण में केशवराय का मन्दिर बनवाया था।
(९५). राव भावसिंह हाड़ा (१६५८-१६८१ ई.) ―
राव शत्रुसाल के ज्येष्ठ पुत्र राव भावसिंह हाड़ा का जन्म २८ फरवरी, १६२४ ई. में हुआ था। भगवन्तसिंह हाड़ा जो पहले से ही दिल्ली में शाही सेवा में थे व दक्षिण युद्ध अभियानों में औरंगजेब के साथ थे, इस कारण बादशाह ने भगवन्तसिंह को राव का खिताब व बूँदी का कुछ भाग मउ, बारां आदि परगना देकर बूँदी को अलग राज्य बना दिया, लेकिन उसके कुछ समय बाद ही उसका देहान्त हो गया, तब औरंगजेब ने भावसिंह हाड़ा को नेक नियति की प्रतिज्ञा करवाकर भावसिंह को उसे आगरा बुलाया और उसे तीन हजारी जात व दो हजार सवार के मनसब डंडा, झण्डा राज की पदवी देकर सम्मानित किया।
औरंगजेब के समय यह शाही तोपखाने का अफसर भी रहा और दक्षिण में छत्रपति शिवाजी के विरुद्ध युद्ध भी लड़ा। यह औरंगाबाद (दक्षिण) का फौजदार नियुक्त होकर बहुत समय तक वहाँ रहा। वहाँ उसने कई इमारतें बनवाई और अपनी वीरता, दान और उदार भावों के लिये बहुत प्रसिद्धी प्राप्त की व औरंगाबाद के पास अपने नाम पर भावपुरा नामक गाँव बसाया था। इसी गाँव में सन १६८१ ई. में इनका स्वर्गवास हो गया। इनके एक मात्र पुत्र पृथ्वीसिंह की बचपन में ही मृत्यु हो गयी थी।
इसलिये अपने छोटे भाई किशनसिंह को गोद लिया, बाद में औरंगजेब के इशारे पर कट्टर धार्मिक विचारों के कारण १६७७ ई. में उज्जैन में किशनसिंह को मृत्यु के घाट उतार दिया। इसके बाद किशनसिंह के पुत्र अनिरुद्ध सिंह के हाथ में शासन आया।
(१६). राव अनिरुद्ध हाड़ा (१६८१-१६९५ ई.) ―
राव अनिरुद्ध हाड़ा १५ वर्ष की आयु में बूँदी की राजगद्दी पर बैठे, उस समय बादशाह औरंगजेब ने इनके लिये खिलअत व हाथी टीके में भेजे। इसके पश्चात् राव ने बीजापुर का किला विजय किया।
हाड़ा दुर्जनसिंह बूँदी राज्य की एक कोटरियात बलबन का जागीरदार तथा राव अनिरुद्धसिंह का राजवंशज था और यह मराठों से मिल कर इसने बूँदी के राज्य पर कब्जा कर लिया। जब इसकी सूचना बादशाह तक पहुँची तो दुर्जनसिंह हाड़ा को बूँदी से निष्कासित करने के लिये बड़ी फौज के साथ हाथी, घोड़े देकर राव अनिरुद्ध की सहायता के लिये बूँदी के लिये रवाना किया और अनिरुद्धसिंह के शाही सेना के साथ बूँदी पहुँचते ही दुर्जनसिंह किला छोड़कर निकल गया। इस प्रकार बूँदी पर पुनः राव का अधिकार हो गया।
इसके पश्चात् बादशाह ने अनिरुद्ध को काबुल की तरफ मुगल साम्राज्य की उत्तरी सीमा का झगड़ा तय करने को शहजादा मुअज्जम और आमेर के राजा बिशनसिंह के साथ काबुल भेज दिया, जहाँ १६९५ ई. में इनका देहान्त हो गया। इनके बड़े पुत्र बुद्धसिंह बूँदी की गद्दी पर बैठे। इसके पुत्र बुद्धसिंह, जोधसिंह, अमरसिंह और विजयसिंह थे।
(१७). राव राजा बुद्धसिंह हाड़ा (१६९५-१७३९ ई.) ―
सन् १७०७ ई. में मुगल बादशाह औरंगजेब के उत्तराधिकार की प्राप्ति हेतु उसके पुत्रों- मुअज्जम, आज्जम एवं कामबख्श में जाजव नामक स्थान पर संघर्ष छिड़ गया। इस युद्ध में बूँदी नरेश बुद्धसिंह ने मुअज्जम का तथा कोटा के महाराव रामसिंह ने औरंगजेब के द्वितीय पुत्र आज्जम का पक्ष लिया।
१८ जून, १७०७ ई. को जाजव के रणक्षेत्र में आज्जम और कोटा महाराव दोनों मारे गये और मुअज्जम व बूँदी नरेश विजयी रहे। इससे प्रसन्न होकर मुअज्जम जो बहादुरशाह के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा ने बुद्धसिंह को ‘‘महाराव राणा” का खिताब तथा कुछ परगने जागीर में दिये। उस समय बुद्धसिंह ने कोटा को भी हथियाना चाहा परन्तु कोटा के सरदारों के विरोध के कारण कोटा पर अधिकार नहीं कर सका।
इस पर बहादुरशाह ने रामसिंह के पुत्र भीमसिंह को कोटा का राज्य सौंप दिया। बहादुरशाह ने बूँदी नरेश को जयसिंह और अजीतसिंह के खिलाफ अभियान पर जाने का आदेश दिया किन्तु बुद्धसिंह के वहाँ नहीं जाने पर बादशाह ने बूँदी राज्य जब्त करके कोटा नरेश को दे दिया। उस समय तक दिल्ली की राजगद्दी पर फरुखशियर आसीन हो गया, तब मौका पाकर कोटा के महाराव भीमसिंह ने फरुखशियर से फरमान प्राप्त कर बूँदी पर अधिकार कर लिया। फरुखशियर ने बूँदी का नाम फर्रूखाबाद रख दिया। बाद में जयपुर नरेश सवाई जयसिंह के कहने पर फरुखशियर ने बूँदी बुद्धसिंह को लौटा दिया।
सन् १७१८ ई. में सैयद बन्धुओं ने फरुखशियर को बर्खास्त कर दिया। सैयद बन्धुओं से बुद्धसिंह जी के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे, बादशाह फरुखशियर १७१९ ई. में मारा गया।
फरुखशियर के बाद सवाई जयसिंह और बुद्धसिंह का शाही दरबार में प्रभाव घट गया तब भीमसिंह ने शाही सेना की सहायता से १७ नवम्बर १७१९ को बूँदी पर चढ़ाई कर दी, घमासान युद्ध हुआ और बूँदी पर कोटा का अधिकार हो गया। कोटा की ओर से वहाँ फौजदार भगवानदास धाभाई नियुक्त किया गया। सन् १७२० ई. में कोटा नरेश भीमसिंह की मृत्यु हो गयी तब भगवानदास ने बूँदी पुनः बुद्धसिंह को सौंप दिया। बूँदी राव बुद्धसिंह के मानसिक विकार से ग्रस्त होने की चर्चाएँ सुनकर जयपुर के कच्छवाहा नरेश सवाई जयसिंह ने १७३० ई. में बूँदी पर अपना आधिपत्य स्थापित करने की योजना बना ली। तदनुरूप ही उन्होंने राव बुद्धसिंह के पुत्र भवानीसिंह, जो सवाई जयसिंह की बहन का पुत्र था, का वध कर दिया तद्नतर उन्होंने आक्रमण करके महाराव बुद्धसिंह को बूँदी से निर्वासित कर दिया तथा कखर के जागीरदार सालिमसिंह के पुत्र दलेलसिंह को बूँदी का शासक नियुक्त किया। बुद्धसिंह को बूँदी से निकल जाना पड़ा। बाद में राव बुद्धसिंह की कच्छवाही रानी ने मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर को पूना से छः हजार रुपये देकर सहायतार्थ बुलवाया, उसने बूँदी पर आक्रमण कर दलेलसिंह के पिता सालिमसिंह को गिरफ्तार कर लिया व कच्छवाही रानी को राज्य सौंप कर राव बुद्धसिंह का शासन घोषित कर दिया, रानी ने होल्कर को राखी बाँध भाई बना लिया था किन्तु होल्कर के लौटते ही पुनः बूँदी को जयपुर की सेना ने जीतकर दलेलसिंह को दिया और मराठों को रुपये देकर सालिमसिंह को मराठों से छुड़वा लिया। मराठों के राजस्थान में आने की यह प्रथम घटना थी।
राव बुद्धसिंह के जीवन के अन्तिम दस वर्ष बेंगु में ही बीते और २६ अप्रैल, १७३९ ई. में उसकी मृत्यु हो गयी।
(१८). महाराव उम्मेदसिंह हाड़ा (१७४३-१७७१ ई.) ―
राव बुद्धसिंह की मृत्यु के उपरान्त सवाई जयसिंह के निर्देश पर बुद्धसिंह के पुत्रों उम्मेदसिंह व दीपसिंह को बेंगू से उनके नाना ने निष्कासित कर दिया। अतः वे १७३९ ई. से कोटा महाराव दुर्जनशालसिंह की शरण में मधुकरगढ़ में रहने लगे।
२१ सितम्बर, १७४३ ई. को सवाई जयसिंह का स्वर्गवास होने के बाद सुअवसर देखकर उम्मेदसिंह ने बूँदी का राज्य वापिस प्राप्त करने का निश्चय किया। कोटा के महाराव दुर्जनशाल, गुजरात के सूबेदार फखरूदीन को एक लाख रुपये देकर तथा शाहपुरा के राजा उम्मेदसिंह से सैनिक सहायता से १७४४ ई. में उम्मेदसिंह का बूँदी पर अधिकार हो गया। दलेलसिंह नेनवा भाग गया। उम्मेदसिंह को बूँदी का काफी हिस्सा कोटा नरेश को युद्ध खर्च की एवज में देना पड़ा। कोटा नरेश ने पलायथा के अपजी रूपसिंह को बूँदी राज्य में अपना प्रतिनिधि व अन्ता के महाराज अजीतसिंह को किलेदार बनाकर तारागढ़ उसके सुपुर्द किया। सवाई जयसिंह के उत्तराधिकारी ईश्वरसिंह ने दलेलसिंह को बूँदी वापिस दिलाने के लिये पचास लाख रुपये के बदले मराठों से सहायता माँगी जिसमें पेशवा बाजीराव, जियाजी सिन्धिया व रामचन्द्र पण्डित की सेनाओं ने मिलकर बूँदी पर अधिकार कर लिया। उसके पश्चात् कोटा को घेर लिया और मराठा सेनाओं ने बूँदी जीतकर महाराव कोटा से एक सन्धि १७४५ ई. में की जिसके अनुसार बूँदी पर दलेलसिंह का अधिकार हुआ तथा केशवरायपाटन व कापरेन के परगने मराठों को प्राप्त हुए। पेशवा बाजीराव जयपुर नरेश ईश्वरसिंह की बेरुखी से रुष्ठ था। उम्मेदसिंह ने मल्हारराव होल्कर व गंगाधर तात्या की मराठा सेना व कोटा की सेना से १७४८ ई. को बगरू के युद्ध में ईश्वरसिंह को पराजित कर बूँदी को उम्मेदसिंह ने अधिकार में ले लिया। मराठों ने अपनी सहायता के बदले बूँदी में केशवरायपाटन के परगने का राजस्व एवं राजनैतिक अधिकार दोनों की पुष्टि प्राप्त कर ली। महाराजा ईश्वरसिंह के बाद माधोसिंह जयपुर की राजगद्दी पर बैठे। माधोसिंह का बर्ताव बूँदी के साथ अच्छा रहा।
उम्मेदसिंह ने १७७१ ई. में राज्य का भार युवराज की पदवी सहित अजीतसिंह को सौंप कर संन्यास ले लिया। इसी दौरान संन्यासी के जीवन में उन्हें सूचना मिली कि उसके पुत्र अजीतसिंह का १७७३ ई. में देहान्त हो गया है, तब उम्मेदसिंह ने विष्णुसिंह के युवा होने तक अभिभावक का काम किया। उसके बाद पुनः संन्यास लेकर काशी चला गया। सन् १८०४ ई. में ७५ वर्ष की आयु में उम्मेदसिंह का स्वर्गवास हो गया।
(१९). महाराजा राव विष्णुसिंह हाड़ा (१७७३-१८२१ ई.) ―
महाराजा राव विष्णुसिंह १७७३ ई. को जब राजगद्दी पर बैठे उस समय वह केवल चार मास के थे। उनके दादा उम्मेदसिंह ने धाय भाई सुख राम को राज्य का प्रधानमंत्री नियुक्त कर राज्य की देखभाल का काम सम्भाला। सन् १८१० ई. में महाराव विष्णुसिंह के चचेरे भाई बलवन्त सिंह ने उपद्रव कर नैनवा किले पर अपना अधिकार कर लिया। इस पर महाराव ने उसका दमन किया। सन् १८०४ ई. में अंग्रेजों की सेना को जसवन्त राव होल्कर से युद्ध करने कोटा राज्य में भेजा गया लेकिन मुकन्दरे के घाटे में उसे पराजय होकर लौटना पड़ा। इस पराजित हुई अंग्रेज सेना को बूँदी राज्य ने सहायता दी थी, इससे होल्कर बूँदी का कट्टर शत्रु हो गया और १८०४ ई. से १८१० ई. तक होल्कर व सिन्धिया की मराठी सेनाओं ने तथा पिण्डारियों की लगातार लूट-खसोटों ने बूँदी को तबाह कर दिया। मराठों तथा पिण्डारियों ने बूँदी से खिराज वसूल किया। विष्णुसिंह नाम मात्र का राजा रह गया। तब बूँदी नरेश महाराव विष्णुसिंह ने मराठों से पीछा छुड़ाने के लिये १० फरवरी १८१८ ई. को ईस्ट इण्डिया कम्पनी से बूँदी महाराव ने सन्धि कर ली और बूँदी की सुरक्षा का भार अंग्रेजों पर चला गया।
(२०). महाराव राजा रामसिंह हाड़ा (१८२१ -१८८९ ई.) ―
महाराव विष्णुसिंह की मृत्यु के उपरान्त उनके ज्येष्ठ पुत्र रामसिंह १८२१ ई. को बूँदी के सिंहासन पर बैठे। इसके सात दिन पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पॉलीटिकल एजेन्ट कर्नल टॉड ने बूँदी आकर राजा रामसिंह को सिरोपाव भेंट किया तथा उन्हें बूँदी नरेश के सम्पूर्ण अधिकार प्रदान किये।
महाराव रामसिंह का अल्पव्यस्क होने के कारण ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने प्रशासन के लिये एक कॉउन्सिल का गठन किया। रामसिंह ने केशवरायपाटन का परगना प्राप्ति हेतु हस्तान्तरण सन्धि अंग्रेज सरकार के साथ २६ नवम्बर १८४७ ई. में की जिसके फलस्वरूप केशवरायपाटन का प्रशासन बूँदी नरेश के अधीन हो गया, इसके बदले कम्पनी की छः शर्तों की पालना महाराव को करनी पड़ी। बूंदी के महाराव को अंग्रेंजो की निष्ठापूर्वक सेवाओं पर बूँदी महाराव को प्रशस्ति पत्र दिये गये। ‘वंश भास्कर’ नामक उत्तम पद्यात्मक कृति के रचियता कवि सूर्यमल्ल चारण राव रामसिंह के आश्रित थे।
१ जनवरी, १८७७ ई. को लॉर्ड लिंटन ने दिल्ली में दरबार किया। इस अवसर पर महाराव भी वहाँ गये। महारानी विक्टोरिया की ओर से इन्हें सितारे हिन्द, पहली श्रेणी का तमगा व महारानी के सलाहकार की उपाधि मिली।
सन् १८८६ ई. में महाराव राजा ने पुराने सिक्के की जगह अपने नाम का नया सिक्का चलाया। इस सिक्के में एक तरफ अंग्रेजी भाषा में महारानी विक्टोरिया १८८६ ई. व दूसरी तरफ बूँदी का भक्त रामसिंह १९४२ अंकित था। यह रामशाही रुपये के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इनके समय में दरबार में संस्कृत के धुरन्धर विद्वान गंगादास की देखरेख में एक भौगोलिक यन्त्र व दूसरा खगोल यन्त्र राज बनवाया गया। २८ मार्च, १८८९ में ६८ वर्ष राज करने के उपरान्त इनका देहान्त हुआ।
(२१). महाराजा राव रघुवीरसिंह हाड़ा (१८८९-१९२७ ई.) ―
महाराव रामसिंह की मृत्यु उपरान्त १२ अप्रैल, १८८९ ई. को २० वर्ष की आयु में रघुवीरसिंह बूँदी की राजगद्दी पर बैठे। १८९० ई. में अंग्रेज सरकार ने इन्हें राजा के पूर्ण अधिकार सौंप दिये। ब्रिटिश शासन के साथ इनके अच्छे सम्बन्ध रहे और अंग्रेज सरकार ने इन्हें कई उपाधियाँ देकर सम्मानित भी किया। ये १९११ ई. के दिल्ली दरबार में शामिल हुए व राजराजे महारानी मेरी को बूँदी राजधानी में निमन्त्रण देकर उसका बड़ा आदर सत्कार किया।
सन् १९१४ ई. से १९१९ ई. के मध्य प्रथम विश्व युद्ध में बूँदी राज्य ने अंग्रेजों को अपनी सामर्थ्य से अधिक सहायता प्रदान की। बूँदी के सौ सैनिकों को मोर्चा पर भेजा गया, जिनमें ३५ मारे गये। युद्ध में मृत सैनिकों की विधवाओं को अंग्रेज सरकार ने पेंशन देने की घोषणा की। बूँदी महाराव ने अंग्रेजों के युद्ध कोष में १९ लाख रुपये पांच समान किश्तों में देने की घोषणा की व अंग्रेज सेना द्वारा कोटा से देवली जाते हुए बूँदी में पड़ाव करने पर महाराव ने उसे खाद्य सामग्री प्रदान की। महाराव रघुवीर सिंह ने १९२४ ई. में ब्रिटिश सरकार से एक सन्धि कर केशवरायपाटन परगने के २/३ भाग की सम्प्रभुता प्राप्त कर ली।
(२२). महाराव राजा ईश्वरसिंह हाड़ा (१९२७-१९४५ ई.) ―
महाराव रघुवीरसिंह के दत्तक पुत्र ईश्वरसिंह का राज्याभिषेक २६ जुलाई, १९२७ ई. के दिन हुआ। महाराव ईश्वरसिंह को अंग्रेज सरकार की ओर से जी.सी.आई.ई. की उपाधि मई १९३७ ई. में मिली। सन् १९३९ ई. में द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ जाने पर महाराव ने ब्रिटिश सरकार का सामर्थ्य के अनुसार सहयोग दिया। राजकीय कर्मचारियों को वार सर्विस में सम्मिलित होने की स्वीकृति दी गई। युद्ध में भाग लेने वाले सैनिकों को शौर्य प्रदर्शन के कारण पदक भी प्रदान किये गये। बूँदी में नेशनल वार फ्रन्ट नामक संस्था गठित की गई। बूँदी महाराव की विशेष उल्लेखनीय सेवा अपने दतक पुत्र बहादुरसिंह को युद्ध में भेजने की थी जो १९४२ ई. में सेना में भर्ती हुए थे। उन्हें इसी वर्ष मई में ऑफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल बंगलुरु में भेजा गया। वहाँ इन्हें १९ नवम्बर, १९४२ ई. को प्रोबिनहार्स इन्डियन आर्म्ड कोटस में कमीशन प्रदान किया गया। द्वितीय विश्व युद्ध में ये बर्मा मोर्चे पर नियुक्त किये गये। इनको मेकटीला में वीरता का प्रर्दशन करने पर सन् १९४५ ई में ‘‘मिल्ट्री क्रोस‘‘ नामक पदक जो ब्रिटिश सरकार ने इनके शौर्य प्रर्दशन पर प्रसन्न होकर दिया। महाराव ईश्वर सिंह की मृत्यु २३ अप्रैल, १९४५ ई. में हुई।
(२३.) महाराव राजा बहादुरसिंह हाड़ा (१९४५ -१९४८ ई.) ―
महाराव ईश्वरसिंह के दत्तक पुत्र बहादुरसिंह को ब्रिटिश सरकार ने ऑनरेरी पर्सनल ए.डी.सी तथा भारतीय सेना में ऑनर मेजर नियुक्त किया। इस उपलक्ष्य में बूँदी राज्य में २८ व २९ जनवरी, १९४६ ई. को उत्सव मनाये गये। इनको चेम्बर ऑफ प्रिन्सेज की स्टेन्डिग कमेटी का सदस्य चुना गया। इनके समय में उच्च पदों पर आसीन अंग्रेज अधिकारियों ने महाराव बहादुरसिंह का आतिथ्य स्वीकार किया और बूँदी की यात्राएँ की।
सन् १९४४ ई. में हरिमोहन माथुर की अध्यक्षता में बूँदी लोक परिषद की स्थापना हुई। महाराव बहादुरसिंह ने १९४६ ई. में राज्य में विधान परिषद तथा लोकप्रिय मन्त्रिमण्डल की स्थापना की घोषणा की तथा बूँदी लोक परिषद को इसमें भाग लेने के लिये आमन्त्रित किया किन्तु लोकपरिषद ने महाराव का आमन्त्रण अस्वीकार कर दिया।
१५ अगस्त, १९४७ ई. को देश स्वतंत्र हो गया तथा भारत में रियासतों के एकीकरण का कार्य आरम्भ हुआ।
३ मार्च, १९४८ ई. को कोटा, डूंगरपुर और झालावाड़ के शासकों ने रियासती विभाग के समक्ष प्रस्ताव रखा कि बाँसवाड़ा, बूँदी, डूंगरपुर, किशनगढ़, कोटा, प्रतापगढ़, शाहपुरा, टोंक, लावा और कुशलगढ़ को मिलाकर संयुक्त राजस्थान का निर्माण किया जाए। प्रस्तावित संघ के क्षेत्र के बीच में मेवाड़ राज्य भी था जो भारत सरकार की नीति के अनुसार स्वतंत्र भारत में अपना अलग अस्तित्व बनाये रख सकता था इसलिये मेवाड़ के महाराणा भोपालसिंह ने नये संघ में शामिल होने से इन्कार कर दिया। महाराणा के इन्कार कर देने के बाद दक्षिणी-पूर्वी रियासतों को मिलाकर २५ मार्च, १९४८ के वी.एस. गाडगिल द्वारा सयुंक्त राजस्थान का विधिवत उदघाटन किया गया।
कोटा नरेश को राजप्रमुख, बूँदी नरेश को वरिष्ठ उप राजप्रमुख और डूंगरपुर नरेश को कनिष्ठ उपराज प्रमुख बनाया गया। गोकुल लाल असावा को मुख्यमंत्री बनाया गया। इस संघ का क्षेत्रफल १७ हजार वर्ग मील, जनसंख्या २४ लाख तथा कुल राजस्व लगभग २ करोड़ का था। मेवाड़ महाराणा ने मेवाड़ रियासत की आंतरिक परिस्थितियों के कारण इस संघ में सम्मिलित होने के लिये भारत सरकार से अनुरोध किया। इस पर भारत सरकार ने युनाईटेड स्टेट्स ऑफ राजस्थान नामक नये संघ के निर्माण का निर्णय लिया। मेवाड़ महाराणा भोपालसिंह को इस संघ का आजीवन राजप्रमुख बनाना स्वीकार कर लिया। कोटा के महाराव भीम सिंह को वरिष्ठ उप राजप्रमुख, बूँदी व डूंगरपुर के राजाओं को कनिष्ठ उप राजप्रमुख बनाया गया। मेवाड़ प्रजामण्डल के प्रमुख नेता श्री माणिक्य लाल वर्मा को राज्य का प्रधानमंत्री नियुक्त किया।
राजस्थान निर्माण के अगले चरण में जयपुर, जोधपुर, बीकानेर तथा जैसलमेर राज्यों को भी यूनाइटेड स्टेटस ऑफ राजस्थान में सम्मलित करने का निर्णय किया गया। इसके साथ ही राजस्थान का एकीकरण का कार्य अजमेर, मगरांचल व सिरोही के कुछ हिस्सों को छोड़कर पूरा हो गया।
१ नवम्बर, १९५६ ई. को इन रियासतों को भी राजस्थान में मिला लिया गया और इस तरह राजपूताना की सभी रियासतों को मिलाकर वर्तमान राजस्थान का स्वरूप दे दिया गया।
स्त्रोत - (१). हाड़ा चौहान साख के राजपूतों का इतिहास।
(२). वर्धनोरा का इतिहास, लेखक- इतिहासकार डॉ. मगनसिंह चौहान।
(३). रावत-राजपूतों का इतिहास, लेखक- श्री प्रेमसिंह चौहान।
(४). क्षत्रिय रा.- राजपूत दर्शन, लेखक- श्री गोविन्दसिंह चौहान।
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर