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पंवार (परमार) क्षत्रिय राजवंश के राजपूतों की वंशावली एवं इतिहास
क्षत्रियों के ३६ राजकुलों में #परमार_वंश का विशिष्ट स्थान रहा है। परमार क्षत्रिय राजपूतों के मूल पुरूष परमार का आबू पर्वत पर महर्षि वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न होने के कारण पंवार अग्निवंशी क्षत्रिय राजपूत कहलाये परन्तु मालवा के परमार राजा मुंज के राजपंडित ने पिंगल सूत्रवृत्ति में मुंज को ब्राह्यक्षत्र कुल का कहा है। इस शब्द की व्याख्या करने में इतिहासवेत्ताओं का मतभेद है। एक मत के अनुसार ब्राह्याण वशिष्ठ के यज्ञ की रक्षा करने वाले और राक्षसों के प्रहारों का निवारण करने वाले परमार है। दूसरे मत के अनुसार परमार क्षत्रियों के लिए ब्राह्यक्षत्र-कुलीन शब्द का प्रयोग किया गया है अर्थात् जिनके वंशज ब्राह्यण वर्ण से क्षत्रिय हुए हो अथवा जिनमें ब्राह्यण व क्षत्रिय दोनों के गुण पाए जाते हैं उनको ब्राह्यक्षत्र कहते हैं। राजा मुंज के बाद शिलालेखों तथा ऐतिहासिक पुस्तकों में परमारों के मूल पुरूष का आबू पर वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न होना बताया है। परमारों के शिलालेखों में परमार और प्रमार दोनों शब्द लिखे मिलते हैं। इनमें परमार शब्द का अंकन अधिक है। राजस्थान और मालवा में पंवार तथा दक्षिण देश में प्रमार शब्द प्रसिद्ध है। परमार शब्द का अर्थ शत्रुओं को मारने वाला है।
परमार राष्ट्रकूटों के सामन्त थे। सन् ८०८ ई. के लगभग राष्ट्रकूट गोविन्द तृतीय ने नागभट्ट प्रतिहार द्वितीय को हराकर मालवा पर विजय प्राप्त की और उसे अपने सामन्त उपेन्द्र (कृष्णराज) परमार को दे दिया। उपेन्द्र परमारों का सबसे प्रारंभिक राजा माना जाता है। उपेन्द्र के दो पुत्र हुए– वेरीसिंह और हम्बरसिंह। वेरीसिंह मालवा में ही रहा लेकिन उसके छोटे भाई हम्बरसिंह ने वांगड़ को जीतकर मालवा राज्य के अधीनस्थ अलग राज्य स्थापित किया। मालवा के परमार मूंज ने अपना राज्य का विस्तार झालावाड़ राज्य, मेवाड़ राज्य, नाडोल व किराडू तक किया। मूंज ने आबू जीतकर अपने पुत्रों- अरण्यराज व चन्दन को क्रमशः आबू व जाबालिपुर का शासन सौंप दिया। उसने अपने भतीजे दुसाल को भी भीनमाल का शासन सौंप दिया था। इस प्रकार आबू और उसके आस-पास के सिरोही, पालनपुर, मारवाड़ और दांता राज्यों के कई भागों पर इनका अधिकार था। इनकी राजधानी चन्द्रावती थी जो आबू रोड़ रेल्वे स्टेशन से लगभग ४ मील दक्षिण में है। कहते हैं कि आबू पर्वत का अचलगढ़ का किला और चन्द्रावती नगरी इन्हीं लोगों की बसाई हुई है। इनके मूल पुरूष धूमराज के वंश में आबू का प्रथम राजा सिन्धुराज सं. १००० लगभग हुआ। सिन्धुराज से ५वां वंशधर धरणीवराह हुआ। आबू पर इन परमारों का राज्य सं. १३६८ के आस-पास तक रहा। इनकी एक शाखा ने मौर्यो से मालवा प्रांत छीन कर उज्जैन नगरी को अपनी राजधानी बनायी। इस वंश के आठवें राजा सिन्धुराज तक परमारों की राजधानी उज्जैन में रही। सुप्रसिद्ध विद्याप्रेमी राजा भोज ने अपनी राजधानी मालवा में स्थापित की, जो बहुत समय तक परमारों की राजधानी रही यथा–
जहां पंवार तहां धार, धार जहां पंवार।
धार बिना पंवार नहीं, नहीं पंवार बीना धार।।
राजा भोज वि.सं. १११० के लगभग विद्यमान था। उसके वंशजो सेे वि.सं. १३६७ के लगभग इनका राज्य मुसलमानों ने छीन लिया। अतः पंवार राजा जयसिंह के वंशज जगनेर, रणथम्भोर आदि स्थानों में होते हुए मेवाड़ में चले गये। वहां महाराणा ने उन्हें बिजोलिया जागीर का इलाका दिया और ये महाराणा के मुख्य १६ सरदारों में से थे। परमार वंश के २४ राजाओं ने लगभग ५ सौ वर्ष तक मालवे में राज्य किया। इस वंश में मुंज और भोज प्रथम दो राजा बड़े प्रतापी और विद्याप्रेमी हुए।
राजस्थान का प्रथम परमार वंश –
राजस्थान में ४ सौ ई. करीब राजस्थान के नागवंशीय क्षत्रिय के राज्यों पर परमारों ने अधिकार कर लिया था। इस प्रकार नाग क्षत्रियों को परास्त कर परमारो ने पश्चिमी राजस्थान में अपना शासन स्थापित कर लिया। इस प्रदेश को डॉ. महेन्द्रसिंह तंवर खेतासर ने नौ खूटीं मारवाड़ कहा है। राजस्थान के परमार शासको में धरणीवराह बड़ा ही प्रतापी व वीर राजा था। ४ सौ से ५ सौ ई. तक फैला विशाल परमार राज्य शनैः शनैः दूसरे शासको के अधिकार में चला गया।
मालवा के परमार–
मालवा के भू-भाग पर परमार वंश का शासन काफी समय तक रहा। भोज के पूर्वजों में पहला राजा उपेन्द्र का नाम मिलता है। वह वीर पुरूष था जिसने अपने बाहुबल से एक बड़े स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। सींयक के पुत्र वाक्पति के समय परमारों की राजधानी अवन्ती था। वाक्पति का पुत्र वैरीसिंह द्वितीय बड़ा बहादुर था। गौड़ प्रदेश में इनका मुकाबला हूणों से हुआ, जिसमें इनकी विजय हुई। श्रीहर्ष ने राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट को विजयी किया। श्री हर्ष का मुंज बड़ा पराक्रमी, विद्वान और उच्चकोटि का कवि था। मुंज ने सहस्त्रबाहु के वंशज राजा युवराज द्वितीय को परास्त कर उसकी राजधानी त्रिपुरी को लूटा। श्री हर्ष का द्वितीय पुत्र सिन्धुराज था। वह भी बड़ा वीर पुरूष था। उसके शासनकाल में परमार राज्य की निरन्तर प्रगति हुई। उसने हूण, कौशल, लाट पर विजय प्राप्त की। विक्रमादित्य के बाद यदि किसी राजा को इतिहास में प्रसिद्धि मिली तो वह परमार राजा भोज था। वह विद्यानुरागी एवं विद्वान था। भोज ने शासन संभालते ही राज्य की स्थिति को सुदृढ़ बनाया। प्राप्त अभिलेखों के अनुसार उसे परम भट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर आदि उपाधियों से सम्बोधित किया जाता था। राजा भोज के बाद जयंसिंह पुनः मालवा का शासक बना। इसके बाद उदयादित्य राजा बना जिसने मालवा के परमार राज्य को वापस स्थायित्व प्रदान किया। इसके बाद क्रमशः लक्ष्मणदेव व नरवर्मा गद्दी पर बैठे। इसके बाद यशोवर्मा, अजयवर्मा, विध्यवर्मा, अर्जुनवर्मा, देवपाल, जयदेव, जयवर्मा, जयसिंह तृतीय, अर्जुनवर्मा-द्वितीय, भोज-द्वितीय, जयसिंह- मालवा के शासक बने। सन् १२९१ ई. में जलालुद्दीन खिलजी व उसके बाद मुहम्मद तुगलक के आक्रमण ने परमार राज्य को पूर्णरूपेण समाप्त कर दिया। परमार वंश ने करीब ५१० वर्षो तक मालवा पर शासन किया।
आबू के परमार–
आबू के परमारों की राजधानी चन्द्रावती थी जो एक समृद्ध नगरी थी। इस वंश के अधीन सिरोही के आसपास के इलाके पालनपुर, मारवाड़, दांता राज्यों के इलाकें थे। आबू परमारों के शिलालेखों व ताम्रपत्रों से ज्ञात होता है कि इनके मूल पुरूष का नाम धोमराज है। सं. २१८ के किराडू से प्राप्त शिलालेख में शासन प्रारम्भ सिन्धुराज से है। यह प्रतापी राजा था। सिन्धुराज का पुत्र उत्पलराज था जो ओसिया नामक गांव में जाकर बसा जहां उसने सच्चिवाय माता का मंदिर बनवाया। इसके बाद अरण्यराज, कृष्णराज-प्रथम, धरणीवराह, महिपाल व धंधुक राजा बने। पूर्णपाल के बाद कृष्ण द्वितीय शासक बना। कृष्णराज का उत्तराधिकारी धूव्रभट्ट, धुव्रभट्ट के बाद रामदेव, विक्रमसिंह, यशोधवल, धारावर्ष उत्तराधिकारी बने। धारावर्ष के बाद उसका पुत्र सोमसिंह उत्तराधिकारी बना। सोमसिंह के पुत्र कृष्णराज तृतीय का पुत्र प्रतापसिंह हुआ जिसने चन्द्रावती को पुनः जीता, उसके बाद जालोर के चौहान राव लुम्बा ने अपने राज्य में मिला लिया।
जालोर के परमार–
जालोर में ११वीं-१२वीं सदी में परमारों का राज्य था। परमारों ने ही जालोर के प्रसिद्ध किलों का निर्माण कराया था। जालोर के परमार संभवतः आबू के परमारों की ही शाखा से थे। एक शिलालेख के अनुसार जालोर में इनका वंश वाक्पतिराज से प्रारम्भ हुआ है जिसका समय ९५० ई. के करीब हैं। उसके बाद क्रमशः चन्दन, देवराज, अपराजित, विजल, धारावर्ष व बीसल हुए।
किराडू के परमार–
परमार वंशीय क्षेत्र किराडू आज भी राजस्थान के बाड़मेर संभाग में स्थित है। परमारों का यहां ११वीं तथा १२वीं सदी में राज्य था। सन् १०८० ई. के लगभग सोभराज जो कृष्णराज द्वितीय का पुत्र था, ने यहां अपना राज्य स्थापित किया। उसका पुत्र सोमेनश्वर एक कुशल योद्धा था जिसने विं. १२१८ ई. में राजा अजक को परास्त कर जैसलमेर के तणोट और जोधपुर के नोसर किलों पर अधिकार किया था।
दांता के परमार–
ये अपने को मालवा के परमार राजा उदयादित्य के पुत्र जगदेव के वंशज मानते हैं। उस वंश में करीब ३७ शासक हुए जिनमें पिछले राजा भवानीसिंह योग्य शासक था।
देवास और धार के परमार–
ये परमार मालवा के परमार वंशजों में से है। इनकी एक शाखा मालवा पर मुस्लिमों का अधिकार होने पर जगनेर चली गई, जहां से अशोक मेवाड़ चला गया जिसे बिजोलिया की जागीर मिली। देवास शासकों में तुकोजी परमार ने कई मराठा अभियान में भाग लिया तथा उल्लेखनीय सफलता व ख्याति प्राप्त की। धार के संभाजी मराठों के मालवा विजय अभियान में साथ गये थे। जींजी के घेरे में दिखाए गए पराक्रम से उनका दर्जा बढ़ा दिया गया। संभाजी के पुत्र उदाजी दिल्ली अभियान में सेना के प्रमुख सरदारों में से, इनके बाद आनन्दराय और उनके पुत्र यशंवतराय ने काफी ख्याति अर्जित की।
सांखला परमार–
सांखला परमारो की एक शाखा है। धरणीवराह का पुत्र बाहड़ था जिसके दो पुत्र सोढ़ा, सांखला एवं बाघ थे। सोढ़ के वंशज #सोढ़ा_परमार कहलाए। बाघ का पुत्र वैरसी था, जिसे ओंसिया की सच्चिवाय माता ने दर्शन दिये और शंख प्रदान किया, तभी से बैरसी के वंशज #सांखला_परमार कहलाने लगे। इस वंश के नापा सांखला ने महाराणा कुम्भा के यहां बड़ी प्रतिष्ठा पाई थी। बाहड़ परमार के पुत्र सोढ़ा परमार के पुत्र से परमारों की सोढ़ा शाखा चली। सोढ़ा की वंश परम्परा में आसराव व दुर्जनशाल हुये। आसराव ने जोधपुर में पारकर पर अधिकार किया। दुर्जनशाल उमरकोट की तरफ गया। उसकी चौथी पीढ़ी में हमीर ने उमरकोट में शासन किया।
धारानगरी का परमार वंशवृक्ष का इतिहास–
परमार वंश की प्रमुख पाठियों में से #धारानाथ की एक पाठी है। #धारानाथ के वंश में क्रमशः प्रेमसेण, गंधर्वसेण, तामासैण ( ताम्बावती नगरी), चन्द्रसैण, भोजराज, ददेपाल, उग्रसेण, भरत, उदयादीप, जगदेव, सारणराय, डाबरक्ष, सतनरख, चन्द्रकेशर, हरिशचन्द्र हुए।
हरिशचन्द्र के दो पुत्र रोहितास व मोटाजी हुए। रोहितास के दो पुत्र हरिया व सरिया हुए। इस सम्बन्ध में यह लोककथा प्रचलित है कि रोहितास परमार एक वैरागी पुरूष थे जो अरावली पर्वत श्रेणियों में रोई पहाड़ में तपस्या करते थे। जाड़ नामक लखी बनजारा को देवियों के नाके में एक नवजात देवकन्या सुलादे, फूलों की टोकरी में मिली जिसका लालन-पालन बनजारा ने अपनी पुत्री के समान किया। यह कन्या कुछ बड़ी होने पर नवे नीर दातुन करती थी। एक बार बनजारे की बालद मेवाड़ से मारवाड़ को जा रही थी तब वर्तमान बणजारी नामक गांव में बालद का पड़ाव था। उस कन्या के लिए नई कुई खोदी गयी, पर कठोर चट्टान होने से काफी परिश्रम के बावजूद भी जल नहीं आया। बनजारा ने उस कन्या को खूब समझाया, परन्तु वह अपने हठ पर कायम रही, जिससे क्रोधित होकर बनजारा ने उसे सोती हुई को छोड़कर प्रस्थान कर गया। वह देवकन्या रोती भटकती ऋषि रोहितास की धूणी पर पहुंची तथा करूण विलाप करने लगी।
वह कन्या रोई थी, अतः आज भी मांगटजी के दांते को स्थानीय लोग रोई नाम से पुकारते हैं। वह कन्या ऋषि की सेवा करने लगी। सेवा से प्रसन्न होकर रोहितास ने नजरफल वरदान दिया, फलस्वरूप हरिया व सरिया दो जुड़वा पुत्र हुए। सरिया के वंशज जहाजपुर, खेराड़ आदि क्षेत्र में रहते हैं। हरिया के वंशज #मोठिस_परमार कहलाते हैं जो भालियाँ क्षेत्र में रहते है।
हरियाजी के वंश में क्रमशः रेणजी, भंडारसी, कोदसी, कातेराव, बालाराव (बालरजी) हुए। बालाराव के पुत्रों में खत्रियाम, देवधानक, गोपाल, रीछा, पीपहंस, दोमा, बूड़ी थे। खत्रियामजी के देवाजी व सातूजी हुए। इन दोनों के वंशज बारह भालियों में रहते हैं।
बालाराव परमार के द्वितीय पुत्र देवधानकजी के वंशज देवाता रहते है। तीसरे पुत्र गोपालजी के वंशज गाफा में रहते है। चौथे पुत्र रीछाजी के वंशज रीछमाल में रहते है। पांचवे पुत्र पीपहंस के वंशज पीपलबावड़ी में रहते है। छठे पुत्र दोमाजी के वंशज रडाना में रहते है। सातवें पुत्र बूड़ी के वंशज बेड़ा भायलों में रहते है।
सातूजी के पांच पुत्र नामटजी, अणदरायजी, ददेपाल, महपाल, मालाजी (#मालदेव, मोठिस वंश के कुलदेवता) और एक पुत्री इन्दो बाई (#कुण्डा_माता,मोठिस परमारो की कुल देवी) हुई। अणदरायजी के लखनदेव , कोदसी व सारणसी हुए।
मालाजी (मालदेव परमार) देवपुरूष के रूप में प्रकट हुए, जिनको परमार वंश के राजपूत पूर्ण श्रद्धा के साथ पूजते हैं।
देहलावत परमार- हरिशचन्द्र पंवार के द्वितीय पुत्र मोटाजी परमार के फत्ताजी हुए। फत्ताजी के दो पुत्र गगनराय और गरेलाय हुए। गगनराय परमार के वंश में क्रमशः जीलन, अखेराज, रेंणसी, डांगजी हुए। डांग पंवार के पुत्रों में खेता, भापो, भेरा, शेखा, काबरा, धोखन, दूदा हुए। खेता के वंश में क्रमशः अम्बरीक, देवरीक, पीथा हुए। पीथा के दो पुत्र लाखा व भेरा हुए। लाखा के भोपतसाह हुए जिनके तीन पुत्र बहरोवर, हापा व राजा हुए। बहरोवरजी का पुत्र देहलजी परमार हुआ जिसके वंशज #देहलावत_परमार कहलाते है। देहलजी परमारों के पुत्रों में हाला, माला व पीथल है। देहलावत परमार अधिकतर जवाजा, विहार, रावतमाल, लस्सानी आदि क्षेत्रों में रहते है। देहलावत परमारों की कुलदेवी #बिहार_माता का मंदिर #जवाजा में स्थित है।
कल्लावत परमार- पीथा परमार के वंश में क्रमशः लाखा, भोपत, राजा, कूकरा, कटारा, कला हुए। कलाजी के वंशज #कल्लावत_परमार कहलाते है।
धोधिंग परमार- पीथाजी के वंश में क्रमशः भैराजी, बोहराजी और धोधिंग जी हुए। धोधिंगजी परमार के वंशज #धोधिंग_परमार कहलाते है जो बड़ल्या, सेदरिया, पालरा आदि क्षेत्रों में रहते हैं।
बोया परमार- गरेलाय परमार के वंश में क्रमशः लेवाजी, डाऊजी, बामन हुए। बामनजी परमार के दो पुत्र गोगा व बोया हुए। बोयाजी परमार के वंशज #बोया_परमार कहलाते है जिनके मुख्य ठिकाणे बीर, गुदलाई, लाडपुरा, भूडोल, राजगढ़ आदि है।
वेरावत परमार- वेराजी के वंशज #वेरावत_परमार कहलाते है।
खींयावत परमार- धंग परमार के खींयाजी के वंशज #खींयावत_परमार कहलाते हैं।
कटारा परमार– रोहितास परमार के द्वितीय पुत्र सरियाजी भांयला छोड़कर कटारगढ़ में बस गये, जिनके वंशज #कटारा_परमार कहलाये। सरियाजी के वंश में नेमलरायजी ने कटार छोड़कर राजसमन्द के पास गांव नामला बसाया, जहां से इनके वंशज मेवाड़ के विभिन्न गांवों में बस गये।
स्त्रोत—
(१). धारानगरी का इतिहास।
(२). वर्धनोरा राज्य का इतिहास, लेखक- स्व. इतिहासकार श्री मगनसिंह चौहान
(३). रावत-राजपूतों का इतिहास, लेखक- श्री प्रेमसिंह चौहान।
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर__