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मूल पुरुष – भाटीजैसलमेर के भाटी राजवंश की उत्पत्ति यदु वंश से मानी जाती है, मूल उत्पति ब्रह्या से है। इसी वंश परम्परा में ययाति नाम के राजा हुए। उनका पुत्र यदु हुआ, जिनके नाम से ही यादव अथवा यदुवंश प्रसिद्ध हुआ। यदु वंश की वंश परम्परा में वसुदेव हुए जिनके यहां श्रीकृष्ण ने अवतार लिया। इसी वंश में महाराज गज हुए जिन्होंने गजनी नामक नगर बसाया था। इस विषय में यह कवित्त प्रसिद्व है–
तीन सत्त अठ शक धर्म बिशाखे सित तीन।
रवि रोहण गज वाहने गजनी रची नवीन।।
इसी वंश परम्परा में बालकन्द के भट्टी नामक पुत्र हुआ जिनके नाम से भाटी वंश प्रसिद्ध हुआ। भाटी वंश का शासन ६२३ ई. से माना गया है। सन् ६२३ ई. में इस वंश के राजा रिज की राजधानी पुष्पवर (पेशावर-पाकिस्तान) में होने के प्रमाण इतिहास में है। भट्टी के पुत्र मंगलराव ने स्यालकोट से आकर राजस्थान के उत्तरी-पश्चिमी भू भाग और बहावलपुर क्षेत्र में अपना राज्य स्थापित किया। उनके पुत्र केहर ने सन् ७३० ई. में तन्नोर दुर्ग व तन्नोट माता का मंदिर भी बनवाया जो आज भी विद्यमान है। इसी वंश में देवराज हुए जिन्होंने गढ़ भटनेर बसाया। मान्यता है कि देवराज को रत्ननाथ नामक योगी ने एक रसपूर्ण कलश प्रदान किया था। उक्त रस की बूंद का लोहे सेे स्पर्श करते ही वह स्वर्ण बन जाता था। इसी कलश के प्रभाव से प्राप्त धन से भटनेर दुर्ग बनवाया गया। योगी रत्ननाथ के हस्तकमलों से देवराजजी का राज-तिलक हुआ था। इस सम्बन्ध में एक उक्ति प्रसिद्ध है –
सिद्ध वचन वर पाय के, सिद्ध भये देवराज।
रत्न नाथ हाथ तिलक किये, कहवे भूप सिरताज।।
इससे पहले यादव वंशी महाराज राय उपाधि से विभूषित होते थे। देवराज ने लोद्र राजपूतों को पराजित कर लोद्रवा जीता था तथा उसे राजधानी बनाया। इसके पश्चात् देवराज ने रावल की उपाधि धारण की। इसी वंश में भोजदेव लूदरवा पाटन पर शासन करते थे, जिन पर शहाबुद्दीन ने आक्रमण कर कलात्मक मन्दिरों को नष्ट भ्रष्ट किया जिसके अवशेष आज भी मौजूद है। जब वे सारा धनद्रव्य ले जाने लगे तब भोज देव के भाई जैसलजी ने उन यवनों पर आक्रमण कर सारा धनद्रव्य वापिस छीन लिया। जैसलजी ने नई राजधानी निर्माण हेतु आस-पास के क्षेत्रों में विचरण कर रहे थे।
विचरण करते हुए एक स्थान पर देखते है कि एक सौ बीस वर्ष का योगी तपस्या में लीन है। उन्होंने योगी को साष्टांग प्रणाम किया। यह योगी आचार्य जाति का कुल पुरोहित था। उसने जैसलजी को बताया कि इस आश्रम का नाम ब्रह्यसर है, जहां प्राचीन काल में ऋषि काक तपस्या करते थे, जिनके नाम से काक नदी प्रसिद्ध है। एक समय द्वारिका से हस्तिनापुर जाते हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन यहां त्रिकुट नामक पर्वत पर विश्राम हेतु ठहरे थे। प्रसंगवश भगवान श्रीकृष्ण से कहा कि किसी समय हमारे वंश का व्यक्ति यहां राजधानी स्थापित करेगा। अर्जुन ने कहा कि यदि ऐसा हुआ तो फिर यहां के निवासियों को जल का बड़ा कष्ट होगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र के संघर्षण से वहां पर निर्मल जल का कुंआ बनाया। इस कुएं के पास एक पत्थर के ऊपर यह भविष्य वाणी भी अंकित कराई–
किसी समय यदुवंश सम्भूत जैसल नामक नृपति यहां पर नवीन दुर्ग बनाकर इस पर्वत के निम्न भाग में अपनी राजधानी स्थापित करेगा। उस योगी ने जैसलजी को वहां ले जाकर भविष्य वाणी बताई। उस योगी का नाम ईशाल था। जैसलजी ने तुरन्त ही वहां दुर्ग बनवाना आरम्भ किया। इस नगर की प्रतिष्ठा सन् ११५५ ई. में श्रावण शुक्ला द्वादशी को हुई तथा जैसलजी का राज्याभिषेक हुआ, तभी से इसका नाम जैसलमेर हुआ।
इसी वंश परम्परा में #महारावल_केहर हुए जिनके आठ पुत्र - सोम, लक्ष्मण, केलण, #कुलकरण (करकरण), बीजू, तनू, तेजसी, नेमसी हुए।
इनके चौथे पुत्र कुलकरण के #जैसा नामक पुत्र था, जिनके वंशज #जैसावत_भाटी कहलाये। जैसा भाटी की राणी पद्मा कंवर थी जो राजा भीम पंवार की पुत्री थी। पद्मा कंवर के गर्भ से तीन पुत्र उरजन, दुरजन और पदम हुए।
उरजन भाटी की राणी दीप कंवर (राव जोधा की पुत्री) थी, जिनके दो पुत्र पीपसी व खींवसी हुए। इन्हें रामपुर व भैरजी की ढाणी का पट्टा दिया गया।
पीपसी भाटी की राणी (हमीर सोनगरा चौहाण की राजकन्या) के रूपसी, जालणसी और मेघसी हुए।
रुपसी भाटी के राणी सर्वणा राठौर से खेतसी व मानसी हुए।
खेतसी भाटी की राणी दीप कंवर (हमीरसिंह सौढ़ा की पुत्री) से पूमसीजी भाटी हुए। पूमसी भाटी थलवट (जैसलमेर) का जागीरदार था। यह बड़ा ही वीर, योद्धा एवं पराक्रमी शासक हुआ था जिसकी वीरता की सुगन्ध चारों ओर फैल रही थी। पूमसी भाटी का अपने भानजे जिन्दराव खींची से घमासान युद्ध हुआ था। राव खींची ने पूमसी भाटी की वीरता से प्रसन्न होकर अजमेर के सताईशा की जागीर प्रदान की। इस प्रकार श्रीनगर के सत्ताईसा की जागीर पर भाटियों का शासन स्थापित हो गया।
पूमसी भाटी के दो पुत्र हुए- १. ईन्दरसी २. लाडणसी।
ईन्दरसी भाटी का विवाह भोपालसिंह सोंलकी की पुत्री जयकंवरी से हुआ, जिनके पुत्र सालमसिंह (सालभाण) हुए। पूमसी के पौत्र ने सालभाण भाटी ने श्रीनगर में एक बावड़ी व सुन्दर महल का निर्माण करवाया। इन्होनें अपनी पुत्री जसोदा कंवर के विवाह में दामाद सार्दूल पंवार को श्रीनगर का आधा राज्य प्रदान किया।
रिशालुकंवर भाटी-
राजा सालभाण के पुत्र रिशालु कंवर हुए जिसने बदनोर पर अधिकार कर लिया। इसके बाद रिशालु कंवर जैसलमेर जाकर रावल कल्याणसिंह से मिले, वहां कल्याणसिंह ने रिशालुकंवर को थलवट, तनोट व रामगढ़ का पट्टा प्रदान किया। रिसालुकंवर के पुत्रों में सुल्तानसिंह, रामसिंह, दूलसिंह, नागसिंह, अभयसिंह अादि हुए।
रिशालुकंवर के पुत्र सुल्तानसिंह ने गनखेड़ा थलवट पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। इसके पश्चात् सुल्तानसिंह एवं रामसिंह ने खरवा के दहिया राजपूतों को पराजित कर खरवा तथा शेरगढ़ पर भी अधिकार कर लिया। यहां का शासन रिशालुकंवर के द्वितीय पुत्र रामसिंह भाटी को सौंपा गया।
देवारईस भाटी–
रामसिंह भाटी के पश्चात् इनके पुत्र देवारेईस खरवा पाट के उत्तराधिकारी बने। उस समय दहिया राजपूतों ने फिर से खरवा गढ़ पर धावा बोल दिया। देवारईस भाटी व दहिया राजपूतों के मध्य भीषण युद्ध हुआ। देवारईस बिना शीश के लड़ते हुए रूदलाई नामक स्थान तक दहिया राजपूतों का विनाश करके वीरगति को प्राप्त हुए। यहां इनका स्मारक बना हुआ है।
देवारईस भाटी के युद्ध में दिखाये वीरता का दोहा आज भी प्रचलित है-
देवा थै दल भानणा, जित्यो सारो देश।
धड़ से सिर टूट पड़यो, पण थै नहीं पड़यो खेत।।
भोम पुकारे भाटियों, खांडे खाडे जेत।
रूदलाई तलवाड़ी खरवा नगर गांव, देवा खांगों जूझरियो सूरजचन्द नाम।।
खींयालसिंह भाटी-
देवारईस के पश्चात् खरवा पाट के उत्तराधिकारी उनके पुत्र खींयालसिंह बने। देवारईस के दूसरे पुत्र खैरसिंह मारवाड़ नरेश जोधा राठौड़ के पास चले गये। मारवाड़ नरेश इनकी बहादुरी से प्रसन्न होकर खेजड़ला ठिकाने का पट्टा दिया। खिंयालसिंह के पश्चात् उसका पुत्र मानसिंह भाटी खरवा पाट का शासक बना।
हमीरसिंह भाटी-
मानसिंह भाटी के पश्चात् खरवा पाट के उत्तराधिकारी इनके पुत्र हमीरसिंह भाटी हुए। हमीरसिंह के शासनकाल में राठौड़ो ने खरवा पर आक्रमण कर अपने अधीन कर लिया। खरवा पर राठौडो़ का आधिपत्य हो जाने पर हमीरसिंह के भाटी के पुत्र अलग-अलग स्थानों पर जाकर बस गये, जिनका विवरण इस प्रकार है–
(१). ठेकरोत भाटी- हमीरसिंह भाटी का प्रथम पुत्र ठेकर था जिसके वंशज #ठेकरोत_भाटी के नाम से विख्यात हुए जो मारवाड़ में बस गये। ठेकरजी भाटी वीर एवं पराक्रमी योद्धा था। ठेकर भाटी की बहादुरी से प्रभावित होकर आमेट के ठाकुर ने ठेकर भाटी के नाम से ठेकरवास गांव बसाया। ठेकरजी के पुत्र हामाजी हुए। हामाजी के पुत्र मादाजी भाटी ने मांद गांव बसाया।
(२). सहलोत भाटी- हमीरसिंह भाटी का द्वितीय पुत्र सेहलाजी थे जिनके वंशज #सहलोत_भाटी के नाम से विख्यात हुए जो सेलपुरा, पातलिया, ओझियाना, लामाणा, गंगासर आदि गांवो में बस गये।
(३). चंवरोत भाटी- हमीरसिंह के भाटी के तीसरे पुत्र चंवराजी है जिनके वंशज #चंवरोत_भाटी के नाम से जाने जाते है।
चंवराजी के पुत्र अटकरराय भाटी बडा़ वीर एवं पराक्रमी था, इसने चांग के ठाकुर वीरमजी की सहायता से धवलगढ़ अथूण पर अधिकार कर लिया। कुछ समय बाद अंग्रेजो ने अथूण ठाकुर पर आक्रमण किया। अथूण ठाकुर ने अटकरराय भाटी की सहायता से अंग्रेज अफसरों की सेना को परास्त किया। अटकररायजी भाटी की बहादुरी का परिचय इस दोहा में इस प्रकार दर्शाया गया है-
महल झरोंखा मालिया, अटकर धोलागढ़ का भूप।
मरूधर मेवाड़ में थे, भाटी रसिया भूप॥
भूप सौ मारिया, सौ भाटी भूप।
बाद आपणों राखियो, सजड़ भाटी भूप॥
अटकरराय भाटी के पुत्र- भोपत, भादौ, पीथा, सातल, नेमसी हुए जिनके वंशज सेन्दड़ा, तारागढ़, किशनपुरा, सूरजपुरा, रामगढ़ आदि स्थानों पर बस गए।
(४). पांपलियात भाटी- चौथे पुत्र पांचा भाटी के वंशज #पांपलियात #भाटी कहलाते है जो अनाकर भरतवा, रेणगढ़, रातड़िया, चांग, ओजियाणा, देवनगर आदि गांवो में रहते है। पांचाजी भाटी के पुत्र धरती भाटी के पुत्र रेणजी हुए, जिन्होंने रेणगढ़ बसाया जिनकी प्रतिमा रेणगढ़ में स्थापित है। रेणजी के पुत्र हेजलजी भाटी के तीन पुत्र हेमा, गोदा, अमरा हुए। हेमाजी भाटी के दो पुत्र हबला, उजीरा (चांग में गये) हुए।
(५) जालावत भाटी- जाला भाटी के वंशज #जालावत_भाटी कहलाते है जो रावतमाल, बागलिया में बसते है। जालावत भाटियों में रावतमाल के हरिसिंह हुए, जिनके दूलसिंह व हरिसिंह हुए।
(६). धाटावत भाटी- धाटा भाटी के वंशज #धाटावत_भाटी कहलाये जो बरजाल, बाधाना में रहते है।
(७). वाणावत भाटी- वाणावत भाटी के वंशज #वाणावत_भाटी कहलाये।
(८). पलासिया भाटी- पलासा भाटी के वंशज #पलासिया_भाटी कहलाये। इस वंश की अन्य शाखायें #धरणावत_भाटी, #रावलोत_भाटी है।
स्त्रोत –
(१). भाटी राजवंश का इतिहास।
(२). जैसलमेर इतिहास एवं भाटी वंशज।
(३). मगरांचल का इतिहास, लेखक- इतिहासकार श्री मगनसिंह चौहान।
(४). रावत-राजपूतों का इतिहास, लेखक- श्री प्रेमसिंह चौहान।
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स्वाभिमानी रावत राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर