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“सोपरा आस पहाड़ दरबार” ―
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राजस्थान के तीन जिलों की सीमा पर पहाड़ी के बीच आस पहाड़ दरबार प्राचीन शिवधाम है। हिमालय की हरी-भरी पहाड़ियों में किसी दुर्लभ आस्था स्थल जैसे नजारे वाले इस स्थान से भीलवाड़ा, राजसमंद समेत अजमेर जिले के श्रद्धालुओं की आस्था जुड़ी है। पर्व विशेष पर कई राज्यों से श्रद्धालु पहुंचते हैं।
मुख्य मंदिर अरावली की तलहटी में दो सौ फीट ऊंचाई पर स्थित है। सावन में हरियाली के कारण नजारा मनमोहक हो जाता है। मंदिर के निकट चट्टानों के बीच छोटा जल कुंड है, जहां का जल कभी भी कम नहीं पड़ता है, इस जल को चर्म रोगों के निवारण हेतु उपयोग में लिया जाता है।
प्रत्येक वर्ष हरियाली अमावस्या पर आस पहाड़ दरबार में मेला लगता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु यहां आते है।
स्त्रोत- वर्धनोरा राज्य का इतिहास लेखक- स्व. डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकड़ा।
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#___जय_मां_भवानी____
#___जय_राजपूताना____
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर_
दुधालेश्वर महादेव मंदिर, टाॅडगढ़ -शिवभकत श्री खंगार जी मालावत
दुधालेश्वर महादेव मंदिर, टाॅडगढ़ —
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भक्ति एवं आस्था का प्रमुख केन्द्र दुधालेश्वर धाम राजस्थान के अजमेर जिले की तहसील ब्यावर के ग्राम बरसावाडा (टॉडगढ़) से पश्चिम की ओर अरावली पर्वत श्रेणियों में स्थित है।
रावत-राजपूत समाज के पूर्वज कोठाजी चौहान की नवीं पीढ़ी में कोलाजी के पौत्र, मालाजी के ज्येष्ठ पुत्र खंगारजी चौहान का जन्म १५२३ ई. को ग्राम बरसावाडा़ में हुआ। खंगारजी चौहान धार्मिक वृत्ति के व्यक्ति थे तथा सारण गुरुद्वारे के आयसजी निर्मलावन जी के शिष्य थे। अजमेर जिले के कश्मीर के नाम से प्रसिद्ध धाम पर १५७८ ई. में साधुवेश में भगवान महादेव ने एक शिवभक्त ग्वाले खंगार जी चौहान को दर्शन दिये थे। जनश्रुति व वंशपरम्परा की बातों के अनुसार एक दिन दोहपर बाद में जंगल में गायें चरा रहे खंगारजी की भक्ति और श्रद्धा से प्रसन्न होकर भगवान महादेव साधुवेश में पधारे। उन्होनें खंगारजी से जल, दूध और भोजन मांगा, लेकिन खंगारजी व अन्य ग्वालों ने दोहपर में ही अपना भोजन-पानी खत्म कर लिया था। रही बात दूध की तो बिना बछड़ों के गायें भी दूध नहीं निकलावती। ऐसे में निराश खंगारजी ने पानी, दूध व भोजन में असमर्थता जताई। खंगार जी ने एक किलोमीटर दूर जल स्त्रोत निलवाखोला जाकर जल, दूध व भोजन लाने की आज्ञा मांगी। इस पर महात्माजी ने चमत्कार दिखाया। महात्माजी ने खंगारजी को ग्रास का गुच्छा उखाड़ने को कहा। जैसे ही ग्रास का गुच्छा उखाड़ा तो जमीन से जलधारा फूट पड़ी। खंगारजी को यह देखकर आश्चर्य हुआ और सोचने लगे कि यह साधु कोई साधारण संन्यासी नहीं बल्कि बहुत ही चमत्कारिक महात्मा देवाधिदेव महादेव ही हो सकते है। महात्मा ने पानी पीकर कहा कि इस पानी को इकट्ठा करने के लिए गढ्ढा खोदकर कुई बना दो। वर्तमान में वहां छोटी पवित्र बावड़ी है जिसे गंगा मैया नाम दिया गया है। बावड़ी में जलधारा निरन्तर एक ही प्रवाह में बह रही है। इस पर अतिवृष्टि और अनावृष्टि की कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, यहां श्रद्धालु पानी में सिक्के डालकर बुलबुलों के उठने, ना उठने में अपनी मनोकामनाओं का फल देखते हैं।
बाद में महात्माजी ने जल पीकर गायों की ओर देखकर दूध मांगा। खंगारजी ने कहा बिना बछड़ों के दूध नहीं निकलवाती। ऐसे में महात्माजी ने जलधारा पर पानी पीने आई पहली बछड़ी का दूध निकालने को कहा। खंगारजी बोले कि बिना प्रसव के कोई गाय दूध नहीं देती। लेकिन महात्माजी की आज्ञानुसार खंगारजी ने बछड़ी के स्तनों से दूध निकालने हेतु हाथ आगे बढ़ाया ही था कि बछड़़ी के स्तनों से दूध की धारा फूट पड़ी। इसलिए इस स्थान का नाम दूधालेश्वर पड़ा।
महात्मा ने जल व दूध पीकर भोजन की मांग रखी। शाम को जंगल में भोजन की व्यवस्था करना संभव नहीं था। ऐसे में महात्माजी ने अपनी जटाओं में से एक डेगची और कुछ चावल के दाने निकालकर खीर बनाने के लिये दिये। अब तो खंगारजी को पूर्ण विश्वास हो गया कि वह साक्षात् महादेव के सामने ही खड़े है और उनकी आज्ञा से ही कार्य कर रहे है। खंगारजी ने बड़े मनोयोग से डेगची में दूध और चावल से खीर बनाई। उसी खीर को सभी ने भरपेट खाया फिर भी डेगची में खीर समाप्त नहीं हुई। खीर खाने के बाद महात्माजी वहां से जाने लगे तो खंगारजी ने उनसे आशीर्वाद लिया और महात्माजी ने खंगार से इच्छानुसार वरदान मांगने को कहा तो खंगारजी ने महादेव की भक्ति और उनकी श्रद्धा में रखे रहने का वर मांगा। महात्माजी ने कहा कि "यह तो तुम्हारे में विद्यमान है, अन्य वर मांगो।" खंगारजी ने खीर की भरी हुई डेगची देने का वर मांगा, तब महात्माजी ने वह डेगची खंगारजी को यह कहते हुए दी कि "तुम्हारे परिवार में जब भी कोई बडे़ भण्डारे या भोजन प्रसादी का कार्यक्रम हो तो रसोई में डेगची रख देना। इससे किसी भी तरह भोजन की कमी नहीं आयेगी।"
इस प्रकार खंगारजी को वर देकर महात्माजी अंतर्ध्यान हो गये। उसी स्थान पर खंगारजी ने भगवान शिव की प्रतिमा स्थापित कर भक्ति आराधना शुरू कर दी।
खंगारजी चौहान के पुत्र देवराज, चरड़ा, चांदा, गोपा, केहा, पीथा, सहाड़ा, केना आदि हुए जिनके वंशज मालातो की बेर एवं भागावड़ में निवास करते है।
इस दिव्य तपोभूमि दूधालेश्वर में प्रतिवर्ष श्रावण मास की हरियाली अमावस्या और शिवरात्रि को विशाल मेले का आयोजन होता है। खंगार जी के समस्त वंशज इस स्थान की व्यवस्था एवं प्रबन्ध एक प्रबन्धकारिणी समिति द्वारा करते है।
स्त्रोत – वर्धनोरा राज्य का इतिहास
लेखक –स्व. इतिहासकार डॉ. मगनसिंह चौहान।
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#__जय_मां_भवानी_
#__जय_राजपूताना_
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर__
बाबा रामदेव मंदिर कैरूण्डा —
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राजसमन्द, अजमेर व पाली जिले की सीमा पर राजसमन्द जिले के भीम उपखंड क्षेत्र के ग्राम पंचायत मण्डावर में सघन वन क्षेत्र ३ किमी. पश्चिम में पैदल रास्ते से तीव्र ढाल पर स्थित वर्षा की भविष्यवाणी के लिए प्रसिद्ध केरूण्डा बाबा रामदेव मंदिर युगों-युगों से #_मगरा, मारवाड़ व मालवा समेत राजस्थान के जनमानस का आस्था का केंद्र रहा है।
केरूण्डा बाबा रामदेवजी का यह मंदिर बहुत प्राचीन है। मंदिर के ठीक सामने बाबा रामदेवजी के चाचा धनराजजी की प्रतिमा भी लगी हुई है। इतिहास के संदर्भ के अनुसार बाबा रामदेवजी के चाचा #_धनराजजी महाराणा सांगा के यहां संत-समागम कार्यक्रम में रामदेवजी के प्रतिनिधि के तौर पर अश्वरोह होकर रूणेचा से #_मदारिया (देवगढ़) जा रहे थे तब केरूण्डा की नाल में प्यास लगी। धनराजजी ने बाबा से अरदास कर घास का कूंचा उखाड़ा तो वहां जलधारा फूट पड़ी और उसी से उन्होंने प्यास बुझाई थी। तब से उस स्थान पर अखण्ड जलधारा बहती चली आ रही है। यह भयंकर अकाल में भी नही सूखती।
इसके बाद धनराजजी आगे बढ़े तो एक चट्टान के कारण आगे बढ़ना असंभव हो गया तो बाबा को याद कर एक भाला चट्टान पर मारा तो एक बड़ा चट्टान का हिस्सा टूटकर दूर जा गिरा और आगे जाने का रास्ता हो गया इसे आज #_कमाड़_भाटा के नाम से जाना जाता है। इसके बाद धनराजजी मालातों की गुआर, खजूरिया होते हुए आगे बढ़े। लाखागुड़ा के पास एक लकड़ी का बंडल खड़ा था। यहां धनराजजी ने बाबा का स्मरण किया तो उनकी साक्षी में वह बंडल हरा हो गया जो आज भी हरा-भरा देखा जा सकता है। उसके बाद मदारिया संत-समागम में भाग लिया। इसी संत समागम में महाराणा कुम्भा के घड़ा (कुम्भ) से अवतरण की घटना हुई। मदारिया से लौटते वक्त मियाला आने पर बाबा रामदेव जी की रूणेचा में समाधि की सूचना पर तुरन्त धनराज जी ने समाधि ले ली जहां आज #_मियाला में भव्य मंदिर विद्यमान है जिसे छोटा रूणेचा भी कहते है। यहां बाबा रामदेव के वंशज तंवर राजपूत मंदिर की सेवा करते हैं। केरूण्डा में भी प्राचीन समय का मंदिर बना है और कमाडभाटा में हाल ही में घोड़े की खुर व धनराज जी के पगलिये पर भी मंदिर बना है।
वर्षा की भविष्यवाणी के लिए प्रसिद्ध केरूण्डा बाबा रामदेव मंदिर में दो तरीके #_रोट_शगुन व #_कुण्ड_शगुन से वर्षा की परम्परागत रूप से वैज्ञानिक युग में चमत्कारिक भविष्यवाणी की जाती है, जो हर वर्ष शत प्रतिशत सटीक बैठती है। इस हेतु विशेष पंडितो की टोली बाबा रामदेवजी के चाचा धनराजजी की समाधि स्थल मियाला से करीब १५ किमी. पैदल चल कर केरूण्डा पहुंचती है। मियाला से रवाना होते ही चलायमान मेले का आगाज होता है जिसमें सैकड़ो श्रद्धालु बाबा रामदेव के दर्शनों के साथ वर्षा के शगुन जानने की जिज्ञासा से आते हैं। यहां मान्यता है कि वर्षा की भविष्यवाणी के मुकाबले में मौसम विज्ञान भी असफल हो जाता है पर केरूण्डा बाबा का परचा कभी भी खाली नहीं गया।
कुण्ड शगुन के अनुसार वर्षा के अनुमान के लिए यहां पहाड़ी ढ़लान पर दो कुण्ड है जिन्हें मालवा-मेवाड़ व मारवाड़ कुण्ड के रूप में जाना जाता है तथा मंदिर की सीढ़ीयों के समीप दो छोटे कुण्ड जिन्हें #_मगरे_के_कुण्ड कहे जाते हैं। इन्हें साफ किया जाता है। रात्रि में जाकर इनके कंकू का तिलक कर निशान लगाया जाता है। रात्रि में भक्ति जागरण के मध्य पांच बार इनकी पूजा होती है तथा इन कुंडो को वर्षा काल के चार महीनों आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद व आसोज के अनुसार चार बार जलस्तर का अवलोकन करते है। इस अवलोकन के तहत उक्त महीने व सूखे कुण्ड में पानी आने, पानी के जलस्तर के कम या अधिक होने की घटना के आधार पर पंडितों की टोली आकलन करती है। सूखे कुण्ड में जल प्रकट होने पर शुरूआती अच्छी वर्षा का संकेत होता है व जलस्तर के कम या अधिक होने के अनुरूप ही वर्षा के कम-अधिक का सटीक आकलन किया जाता है।
रोट शगुन के अनुसार वर्षा के अनुमान के लिए केरूण्डा बाबा रामदेव मंदिर परिसर में साल्वी परिवार लाखागुड़ा के सानिध्य में निर्धारित वजन का एक बड़ा रोट बनाया जाता है। रोट बनाने के बाद पूजा-अर्चना के साथ उस पर कच्चा सूत लपेटा जाता है। कच्चा सूत लपेटे रोट को गर्म धधकते अंगारो पर भट्टी में मध्य रात्रि को पकाने के लिए छोड़ देते है। इस रोट को अक्षय तृतीया के दिन अलसुबह भट्टी से रोट निकालकर टोकरी में सजाकर पंडितो के पैदल जत्थे के साथ मण्डावर ग्राम में लाया जाता है। जहां पर मण्डावर ग्रामवासियों द्वारा भव्य स्वागत किया जाता है। मण्डावर के मालातों की गुआर स्थित कुमटिया कुएं पर हजारों के तादात् में उमड़े क्षेत्रवासियों को रोट दर्शन कराये जाते है। रोट दर्शन करने वाले अपने आप को धन्य समझते है। बाद में उस रोट को खजुरिया व रोहिड़ा के मध्य बड़वा कुए स्थान पर लाते हैं फिर यहां उस पर लपेटा कच्चा सूत पुनः खोला जाता है तथा इस रोट को प्रसाद के रूप में सभी समुदायों में वितरित किया जाता है। इसके बाद जत्था पुनः मियाला लौट जाता है।
धधकते अंगारो की भट्टी में रोट के पकने की स्थिति के आधार पर आगामी वर्ष की फसलों, देश काल परिस्थिति का आंकलन किया जाता है। रोट पर लपेटा कच्चा सूत नहीं जलता है जिससे क्षेत्र में सुख-सम्पन्नता की आस की जाती है। कभी कभार थोडा़ भी धागा जल जाये तो अनिष्ट होने की सम्भावना व्यक्त की जाती है।
इस प्रकार यह चमत्कारिक स्थल वर्तमान २१वीं सदी के वैज्ञानिक युग में भी धधकते अंगारो पर कच्चे धागे के नहीं जलने, सुखे कुण्ड में जल प्रकट होने, वर्षा की सटीक व शत प्रतिशत सही भविष्यवाणी के हर वर्ष सत्य साबित होने से परम्परागत रूप से कई वर्षो से लोगों का श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है।
स्त्रोत- वर्धनोरा राज्य का इतिहास।
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#_जय_कैरूण्डा_दरबार__
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर____
"उडेश्वर महादेव मंदिर छापली, जिला - राजसमन्द" —
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यह मन्दिर #_राजसमन्द जिले में राष्ट्रीय राजमार्ग सं.- ८ (वर्तमान में ५८) से ५०० मीटर की दूरी पर छापली ग्राम के तालाब व राणा कड़ा के पश्चिम दिशा की तरफ पुरानी सड़क के किनारे पर स्थित है। पश्चिम द्वार का यह मंदिर अद्भुत प्राकृतिक स्थान पर है जो यहां आने वाले पर्यटकों को रोमाचिंत करता है। पुरे वर्ष यहां का प्राकृतिक सौन्दर्य, जलप्रपात, ताल-तलैया की स्थिति मन को मोहती है। यहां पर आम, बरगद, पीपल, ढाक आदि पेड़ों के झुरमुट ग्रीष्म ऋतु में ठंडक का एहसास दिलाते हैं। यहां की हरियाली भरा वातावरण माउन्ट आबू की तरह पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है।
यह मंदिर खाई (घांभ) के किनारे पर स्थित है, इस कारण यहां परिक्रमा मार्ग नहीं है। इस मंदिर के पास बनी खाई तो वास्तव में प्राकृतिक अजूबा है। ऐसी खाई को कैनियन कहा जाता है जो हमारे राजस्थान मे तो अन्यत्र देखने को नहीं मिलती है।
यह स्थान जितना अद्भुत है उससे कहींं ज्यादा दिलचस्प इसका इतिहास है। #_मदारिया क्षेत्र के गांवों में एक दंत कथा प्रचलित है कि प्राचीनकाल में मदारिया प्रदेश मेवाड़ राज्य का एक परगना था। मदारिया की पश्चिमी सीमा मारवाड़ प्रदेश से लगती थी। दोनों परगनों में जत्ती (यति) लोग अपनी-अपनी तंत्र-मंत्र विद्या की प्रतिस्पर्धा किया करते थे। मदारिया में गेहूं की फसल होती थी और मारवाड़ में यह फसल नहीं होती थी। मारवाड़ में जत्ती मदारिया प्रदेश से किसानों के खलीहानों में तैयार गेहूं की राह (निकले हुए गेहूं का ढेर) को उड़ाकर ले जाते थे। किसानों ने अपनी परेशानी जत्तीयों को बताई तो जत्तीयों ने किसानों की परेशानी दूर करने के लिए संकल्प किया और वचन दिया कि वह मारवाड़ की तरफ बहने वाले नदी-नालों का मुंह मदारिया की तरफ मोड़ देगें।
दिये गए वचन के अनुसार एक रात एक जत्ती द्वारा मारवाड़ प्रदेश से शिव मंदिर को भूमिगत मार्ग से मदारिया की तरफ लाया जा रहा था। भोर का तारा उगते समय मुर्गे बोलने लगे व महिलाओं ने घट्टियां पिसावा शुरू कर दिया, इस कारण कोल-बोल (वादा) के अनुसार जत्ती ने इस शिव मंदिर को यही स्थापित कर दिया। मंदिर को जत्ती द्वारा मारवाड़ से लाकर यहां पर स्थापित करने के कारण मंदिर के पास एक गहरा कुण्ड बन गया और मंदिर से मारवाड़ तक कई किलोमीटर लम्बी गहरी खाई (गांभ) बन गई। यदि यह मंदिर एक किलोमीटर उत्तर दिशा में ओर बढता तो वास्तव में यह खाई खारी नदी में मिल जाती जिससे मारवाड़ में बहने वाले कई नालों के पानी का बहाव मदारिया प्रदेश की तरफ हो जाता, परन्तु इस कार्य में पूर्ण सफलता नहीं मिल सकी। गाँव के इतिहास में भी इस शिव मंदिर को रातों-रात जत्ती द्वारा मारवाड़ से लाकर छोड़ जाना लिखा है।
यह शिवधाम प्राकृतिक सुषमा लिये हुये हैं। यहाँ पर रणस्थली की तरफ से आने वाले दो नाले मिल कर त्रिवेणी संगम स्थल बनाते हैं। दोनों नालों का पानी ऊंचाई से एक गहरे कुण्ड में झरने के रूप में गिरता हुआ यह दृश्य मनमोहक लगता है। मंदिर के पास गहरी खाई है जो करीब दो सौ फीट गहरी व इतनी ही चौड़ी है, जो मन में कोतुहल पैदा करती है। मंदिर के पास विशाल वटवृक्ष अपनी छाया से तन-मन को शीतलता मिलती हैं। ऐनिकटों से भरा पानी जल क्रीड़ा करने को आमंत्रित करता है।
यह मंदिर महाराणा प्रताप के ऐतिहासिक विजय युद्ध की रणस्थली #_छापली से जुड़े प्रसंगों एवं युद्ध की घटनाओं की स्मृति से जुड़ा हुआ है। इस मंदिर में महाराणा प्रताप ने दिवेर-छापली के युद्ध से पूर्व पूजा अर्चना की तथा युद्ध में विजयी होने के पश्चात् पुनः यहीं आकर पूजा की।
विजयादशमी के दिन २६ अक्टूबर, १५८२ को #_राणाकड़ा (दिवेर घाटा), #_राताखेत (उड़ेश्वर महादेव मंदिर छापली के दक्षिण-पूर्व में स्थित मैदान) आदि स्थानों पर राणा प्रताप की सेना तथा मुगल सेना के बीच कड़ा मुकाबला हुआ। इस युद्ध में कु.अमरसिंह व स्थानीय #_रावत_राजपूतों की संगठित सेना ने मुगल सैनिकों पर जबरदस्त भीषण प्रहार किया जिससे भारी तादात में मुगल सैनिक हताहत हुए। इस भीषण महासंग्राम में महाराणा प्रताप व कुंवर अमरसिंह अकबर की सेना को अलग-अलग दिशा से घेर कर आक्रमण कर रहे थे। दिवेर थाने के मुगल अधिकारी सुल्तान खां जो अकबर का काका था, उसे कुं. अमरसिंह ने जा घेरा और उस पर भाले का ऐसा वार किया कि वह सुल्तान खां को चीरता हुआ घोड़े के शरीर को पार कर गया। घोड़े और सवार के प्राण पखेरू उड़ गए। वहीं महाराणा प्रताप ने अपनी तलवार के एक ही वार से सेनापति बहलोल खां और उसके घोड़े को जिरह बरन्तर सहित दो भागों में काट डाला। स्थानीय इतिहासकार बताते हैं कि इस युद्ध के बाद यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि “मेवाड़ के योद्धा सवार को एक ही वार में घोड़े समेत काट दिया करते हैं…!!”
अपने सिपाहसालारों की यह गत देखकर मुगल सेना में बुरी तरह भगदड़ मची और राजपूत सेना ने अजमेर तक मुगलों को खदेड़ा। भीषण युद्ध के बाद बचे ३६ हजार मुगल सैनिकों ने महाराणा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया।
इस युद्ध ने मुगलों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया। यह महाराणा की विजय इतनी कारगर सिद्ध हुई कि इससे मुगल थाने जो सक्रिय या निष्क्रिय अवस्था में मेवाड़ में थे जिनकी संख्या ३६ बतलाई जाती है, यहां से उठ गए। शाही सेना जो यत्र-तत्र कैदियों की तरह पडी हुई थी, लड़ती, भिड़ती, भूखे मरते उलटे पांव मुगल इलाकों की तरफ भाग खड़ी हुई। यहां तक कि १५८५ ई. के बाद अकबर भी उत्तर - पश्चिम की समस्या के कारण मेवाड़ के प्रति उदासीन हो गया, जिससे महाराणा को अब चावंड में नवीन राजधानी बनाकर लोकहित में जुटने का अच्छा अवसर मिला।
यह युद्ध #_मेवाड़ तथा मुगलों के बीच निर्णायक युद्ध था। दिवेर-छापली से महाराणा प्रताप को यश एवं विजय दोनों प्राप्त हुए। आज #_महाराणा_प्रताप की जो ख्याति पूरे विश्व में है, उस ख्याति में दिवेर-छापली के योगदान को भूलाया नहीं जा सकता।
यह दिवेर-छापली युद्ध ही था जिसने महाराणा प्रताप की शौर्य गाथा को हमेशा के लिए अमर कर दिया। ये दिवेर-छापली तथा मगरांचल के वीर #_रावत_राजपूत ही थे जिन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु महाराणा प्रताप के नेतृत्व में युद्ध में अदम्य शौर्य एवं साहस का परिचय देते हुए मुगलों को हमेशा के लिए खदेड़ दिया। इसी का परिणाम था कि मुगल सेना मेवाड़ में स्थापित ३६ थानों को छोड़कर चली गयी। इस युद्ध में #_बदनोरा (मगरांचल) #_राज्य के राजपूतों ने प्रताप का भरपूर सहयोग दिया था फलतः #_वरावत_चौहान साख के राजपूतों को दिवेर की ठकुराई देकर नंगारा दिया गया और #खांखावत_चौहान साख के राजपूतों को गोमती व तालेडी नदी के तट पर #_खांखाडोली की जागीर दी जो वर्तमान में #_कांकरोली है।
इस मंदिर की पौराणिकता, आसपास की प्राकृतिक छटा एवं ऐतिहासिक महत्व के कारण सन् २००६ में राज्य सरकार ने इसे पर्यटन स्थल के रूप में चयन कर मंदिर के पास ही राताखेत में महाराणा प्रताप का युद्ध स्मारक बनाया और मंदिर के पास भी सौंदर्यकरण का कार्य मेवाड़ कॉम्पेलक्स योजना के तहत करवाया है।
महादेव जी की नाल को भी इस योजना में भंवर कुण्ड के आस-पास के क्षेत्र से जोड़ा गया है, जिससे छापली-दिवेर को पर्यटन के मानचित्र में युद्ध स्थल के साथ ही रमणीक पिकनिक स्थल के रूप में पहचान मिली है। यही नाल आगे जाकर तेजा गुडा की नाल, भुखी नाल व सातपालीयां की नाल से झाला का पड़ाव स्थान में मिलकर मारवाड़ को जाती है। इसी नाल में भंवर कुण्ड व जाम्बिया माता के स्थान स्थित है।
मंदिर प्रांगण में हर वर्ष शिवरात्रि व महाराणा प्रताप जयन्ती पर समारोह का आयोजन होता है।
स्त्रोत- (१). मेवाड़ का मैराथन महाराणा प्रताप…
लेखक- इतिहासकार श्री चंदनसिंह जी खाँखावत, ठि.- छापली।
(२). छापली और महाराणा प्रताप…
लेखक- इतिहासकार श्री चंदनसिंह जी खांखावत, ठि.- छापली।
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#___जय_मां_भवानी____
#___जय_राजपूताना____
स्वाभिमानी रावत राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर____
श्री मंकालेश्वर बीडा महादेव मंदिर ग्राम- सारण, पाली —
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पाली जिले की अरावली की पहाड़ियों की तलहटी में सारण से एक किलोमीटर उत्तर में संचियावास सड़क पर बीडा महादेव ऐतिहासिक स्थान है। यह स्थान मारवाड़ महाराज राव मालदेव के पुत्र राव चन्द्रसेन की शरण स्थली रहा है। यहां के डूंगावत शाखा के चौहान राजपूतों ने न केवल यहां राव चन्द्रसेन को शरणस्थली दी बल्कि उन्हें पूरी सुरक्षा भी दी जो कि एक ऐतिहासिक सत्य है। यहीं राव चन्द्रसेन का निधन भी हुआ और उनके साथ ५ राणियां सती हुई उसका शिलालेख मूर्ति पर आज भी देखा जा सकता है।
उल्लेखनीय है कि कोई यति महादेव की प्रतिमा को आकाश मार्ग से ले जा रहे थे तो वहां से गुजरते समय एक रावत-राजपूत महिला जो कि गंगा, गंगा पुकार रही थी। महिला तो किसी गंगा नाम की गौ-माता को पुकार रही थी परंतु यती ने गंगा माता नदी समझ यहीं उतर गये। इस तरह महादेव जी मंदिर का यहां प्राकट्य हुआ। यहां राव चन्द्रसेन व राणियों के स्मारक पर लगी मूर्ति पर संवत् १६३२ अंकित है, मंदिर पर लगे एक शिलालेख पर संवत् १६६० अंकित है।
यह स्थान बड़ा ही रमणीक है। बड़े-बड़े बरगद व नीम के पेड़ हैं, इन पेड़ों पर हर समय हजारों पक्षियों की चहचहाहट रहती है। इस स्थान की चारदीवारी रामागिरी के सानिध्य में हुई। यहां धर्मशाला व सामुदायिक भवन बने हैं। मुगलकाल में यह स्थान भी शिकार हुआ, जिसकी साक्षी यहां कई खंडित मूर्तियां देखी जा सकती है।
महादेव के सामने बारहमासी सजल गंगाजल की छोटी आकर्षक बावड़ी है। मंदिर के पीछे भी बावड़ी है जिसमें मिट्टी भर रखी है। सारण के डूंगावत चौहान सरदारों के मंदिर के बाहर मुक्तिधाम है। इस स्थान बीडा महादेव के नाम के साथ यह मान्यता है कि जो भी इस स्थान पर महादेव के सामने संकल्प लेता है अर्थात् बीडा उठाता है वह पूर्ण होकर रहता है, इस कारण यह स्थान बीड़ा महादेव के नाम से जाना जाता है।
स्त्रोत- रावत-राजपूत संदेश पत्रिका (दि.- ४ जुलाई, २०१२)
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स्वाभिमानी रावत राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर____
ग्राम - कटाई महादेव, मेवाड़ ―
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बड़ीसादड़ी से ११ किलोमीटर दूर #_गांव #_कटाई_महादेव अपनी प्राकृतिक छटा के लिए प्रसिद्ध है। यहां नदी के किनारे #_कोटेश्वर_महादेव का मंदिर स्थित है। मंदिर की मूर्ति ५०० वर्ष पुरानी बताई जाती है। इस मंदिर के बारे में यह आश्चर्य है कि जो दूध और खीर इस शिवलिंग पर चढ़ाया जाता है वह निकासी के अभाव के बावजूद स्वतः निकल जाता है।
यहां एक विशाल बरगद का पेड़ है जो लगभग ३०० वर्ष पुराना है। यहां खजूर के पेड़ों की भरमार है। यहां सराय भी बनी हुई है। मंदिर के पास नदी में तो मई-जून में भी पानी निरन्तर बहता रहता है।
कटाई महादेव गांव में लाखावत चौहान, जोधावत चौहान, चान्दावत चौहान, पातलावत चौहान, बरगट गुहिलोत साख के राजपूत बसे हुए हैं। मंदिर में हर वर्ष धूमधाम के साथ शिवरात्रि का पर्व मनाया जाता है जिसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु व धर्मप्रेमी शामिल होते हैं।
स्त्रोत - (१). रावत-राजपूत संदेश पत्रिका।
(२). वर्धनोरा राज्य का इतिहास। लेखक- स्व. डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकड़ा।
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#___जय_मां_भवानी____
#___जय_राजपूताना____
स्वाभिमानी रावत राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर____
पौराणिक धार्मिक स्थल - :"काजलवास"
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विश्व की प्राचीनतम अरावली पर्वतमाला के मध्य गोरम पर्वत की तलहटी में प्राचीन धार्मिक स्थल -काजलवास स्थित है। यह पाली जिलें के मारवाड़ जंक्शन से पूर्व दिशा की ओर लगभग २५ किमी. पर है। यहाँ ऋषि मुनियों की जीवित समाधियाँ है।
कहा जाता है कि यहाँ कभी पाटन नामक शहर आबाद था। एक कथा के अनुसार प्राचीन उज्जैन के राजा भृतहरि के गुरु गोरखनाथ ने गोरम घाट क्षेत्र में तप एवं साधना की थी। पाटण नामक शहर १४ से १५ किमी. क्षेत्र में फैला हुआ था। गोरम नाथ के शिष्य ऋषि तपस्वी धुंमला धोरम नाथ जी ने १२ वर्षों की कठोर तपस्या करने से पूर्व अपने शिष्यों को कहा कि, तुम इस शहर से भिक्षा लाकर जीवन - यापन करना । इतना कह कर धोरम नाथ १२ वर्षों की कठोर तपस्या में लीन हो जातें है। यह बात नृसिंह अवतार और भक्त प्रहलाद के समय की है। जब धोरम नाथ जी १२ वर्षों की कठोर तपस्या पूरी कर अपने शिष्यों के हाल -चाल जान कर पाटन शहर के बारे में पूछा। शिष्यों ने गुरु को बताया कि श्रीयादे कुम्हारी (श्रीया देवी)को छोड़कर किसी ने १२ वर्षों तक सत् भिक्षा नहीं दी।
धोरमनाथ जी ने शिष्य से कहा कि श्रीयादे कुम्हारी (श्रीया देवी) को कहें कि जल्दी ही पाटण शहर को छोड़ दें, तथा पीछे मुड़ कर न देंखे।
इधर ऋषि धोरमनाथ तपस्वी ने क्रोधित होकर खप्पर को उल्टा कर श्राप दे दिया - "माया सो मटी, पाटण -पाटण सब डटण" कहते ही पूरा शहर विध्वंस हो गया। श्रीयादे ने पीछे मुड़ कर देखा तो पूरा शहर विध्वंस हो गया। श्रीयादें श्राप से पत्थर की मूर्ति बन गई । बाद में श्री यादें को धुंधल नाथ जी ने श्राप मुक्त कर दिया। जहाँ पत्थर की मूर्ति बनीं वहाँ आज भी सिरियारी में प्राचीन मंदिर बना हुआ है। श्रीया देवी के नाम पर वर्तमान सिरियारी नाम से जाना जाता है।
श्रीया देवी ने पाटण शहर में रहतें हुए, अपने पति के साथ जंगल में से लकड़ियों बेचकर आधा अपने लिए और आधा ऋषि मुनियों /संतों को भोजन उपलब्ध कराया। एक दिन मिट्टी के मटकें नियाव में पकानें हेतु रखें हुए थे कि बिल्ली ने नियाव में बच्चों को जन्म दे दिया। अपने पति को भनक लगते ही आग लगा दी। श्रीया देवी यह देखकर अपने प्रभु से बिल्ली के बच्चों को बचाने की आराधना / विनती की। प्रभु की कृपा से सकुशल निकलें। उसी समय भक्त प्रहलाद इसी जंगल में ऋषि मुनियों द्वारा विद्या अर्जित कर रहें थे। उन्होंने ने भी यह दृश्य देखा और भक्ति का प्रमाण मिलनें पर स्वयं भक्ति में लीन हो गयें।
पाटण शहर के विध्वंस से धुंमल धोरमनाथ जी की तपस्या निष्फल रह जाने से पुनः २४ वर्षों तक कपाल भाती योग तपस्या की थी। यहाँ धोरमनाथ जी ने जीवित समाधि ली।इनके गौमुखकुंड से पानी के छिड़कनें से जानवरों की बिमारियाँ ठीक हो जाती है। यहाँ धोरम नाथ जी, धुंधलनाथ जी, गंगानाथ जी,भाऊनाथ जी, रुप नाथ जी, कांकड नाथ जी,भभूत नाथ जी, लाडू नाथ जी, इत्यादि सहित १२ जीवित समाधियाँ है। आज भी इन क्षेत्र में शहर के विध्वंस के अवशेष देखने को मिल जायेंगे। यहाँ गुरू -शिष्य की (धोरमनाथ जी एवं धुंधलनाथ जी) की समाधियाँ मिलने से प्रलय की भविष्यवाणी है।
कहा जाता है कि यहाँ पाटण शहर इतना बड़ा था कि इस शहर कि स्त्रियों (पणिहारियां) सुबह पानी भरनें आती, तब मुंह धोती तो उनके आंखों का काजल सवा मण उतरनें से - काजलवास पुकारा जानें लगा। (लेखक - एन एस सूरावत -लाखाखेत)
आज भी अरावली पर्वतमालाओं की पहाडि़यों में जो कि रावत राजपूत बहुल क्षेत्र है, ३६० धुणें जागृत है। जिसमें अधिकतर महादेव मंदिर दर्शनीय स्थल है। रावत राजपूत के संतों ने भी इन क्षेत्रों में कठोर तपस्या करते हुए जीवित समाधियाँ ली हुई है।
इस क्षेत्र के पास ही पांच मथा, वायड़ भैरु, गोरम ऋषि मंदिर एवं गौखुर कुंड प्राचीन चमत्कारी दर्शनीय स्थल है। सूर्य नारायण मंदिर , नव नाथ एवं सिद्ध पुरुषों की जीवित समाधियाँ तपोभूमि काजलवास में है। सिरियारी से ५ किमी. एवं डिंगोर प्याऊ से ३ किमी पूर्व की ओर स्थित है। निकटतम रेलवे स्टेशन -गोरम घाट एवं फुलाद है।
यहाँ हजारों श्रृद्धालु दर्शन /आशीर्वाद हेतु आतें है। पर्यटन के लिए अच्छा स्थान है।
- लेखनी से
-एन.एस. सूरावत (लाखाखेत).।
स्त्रोत - "मगरा-मेरवाड़ा का इतिहास"
लेखक- 'स्व. डॉ. मगनसिंह जी चौहान, कूकड़ा' .....
फोटो संग्रहकर्ता -एन एस सूरावत (लाखाखेत).....
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर
“गंगा भभूका कुंड, भाणपा” ―
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उदयपुर जिले के भीण्डर व कानोड़ के मध्य भाणपा गांव है। यह माल साख के क्षत्रिय राजपूतों का गांव है। कभी दिवेर के पास खैड़ा पीपरड़ा से आकर माल साख के क्षत्रिय राजपूत भाणपा में बसे थे।
भाणपा में आम व केलों के बाग के बीच जमीनी सतह पर गंगा माई भभूकों के रूप में बारह मास प्रकट रहती है जो एक आश्चर्य है। यहां रावत-राजपूतों द्वारा बनवाया गया श्री भजनेश्वर महादेव मंदिर व गगांमां भभूका का पवित्र कुंड है। मंदिर पर शिलालेख भी है।
यहां यात्रियों का आना जाना बना रहता है। शिवरात्रि के अवसर पर बड़ा मेला लगता है। ऐसी मान्यता है कि चर्मरोग से पीड़ित भभूका कुंड घाट में स्नान करता है तो चर्मरोग ठीक हो जाता है।
गढ़बोर (चारभुजा) के कभी के शासक रहे विहलजी चौहान के पुत्र कल्हण चौहान का बचपन इसी भाणपा में माल साख के मामा के यहां व्यतित हुआ था। इन्हीं कल्हण चौहान ने भाणपा गांव से देवी प्रतिमा लाकर मंदिर में स्थापित की, जिसका आज पाटस्थान मंदिर टॉड़गढ़ के पास तरकरेल में शोभायमान है।
माल साख के राजपूत अब उदयपुर, चित्तोड़गढ़ व प्रतापगढ़ जिलों के कई गांवों में आबाद है। भाणपा का यह देवस्थान रावत-राजपूतों का प्रमुख आस्था स्थल है।
स्त्रोत- वर्धनोरा राज्य का इतिहास
लेखक- स्व. डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकड़ा।
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इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर___
देवपुरूष मालदेव जी (मांगटजी) पंवार
अरावली पर्वतमाला के गोरमघाट और नागपहाड़ के मध्य स्थित नरवर से दिवेर तक का क्षेत्र वर्धनोरा/बदनोरा (मगरांचल) कहलाता है। इस क्षेत्र में रावत-राजपूत क्षत्रिय जाति का बाहुल्य रहा है। रावत-राजपूतों के विभिन्न समुदायों के कतिपय लोक देवताओं में आशापुरा माता, पीपलाज माता, मझेवला माता, बेलपणा माता, बिहार माता, कूडोराणी, भाऊनाथ, गंगानाथ, निर्मलानाथ आदि में मालदेवजी मोठिस का नाम भी उल्लेखनीय है।
पंवार वंश वृक्ष के शिखर पुरूष धारानाथ जी के वंश परम्परा में हरिशचन्द्र हुए। इनके दो पुत्र रोहितास व मोटाजी हुए। रोहितास के पुत्र वंश परम्परा में मोठिस एवं मोटा जी के वंश की शाखाएं देहलात, कल्लावत, धोधिंग, खींयात, बोरवाड़, बोया आदि है।
रोहितासजी के दो पुत्र हरियाजी और सरियाजी हुए। हरियाजी के वंशज मोठिस पंवार कहलाते है जो भालियां में रहते है। सरियाजी के वंशज जहाजपुर, खेराड़ आदि क्षेत्र में रहते है।
हरियाजी की वंश परम्परा में सातूजी नाम के वीर पुरूष हुए। ये भालियां के ठाकुर थे। सातूजी के पांच पुत्र श्री नामट, अणदराय, ददेपाल, महपाल और मालदेव (मांगटजी) तथा एक पुत्री इन्दों देवी हुई। सातूजी की पुत्री इन्दों देवी जो शक्ति स्वरूपा थी, उन्हें रिछवाण माता या कुण्डोरानी माता के नाम से पूजा जाता है। मालदेव लोकदेवता के रूप में पूजे जाते है। मालदेव जी का जन्म बराखन के पास सातू खेड़ा नामक गांव में धनतेरस, कार्तिक माह वि.स. १३१३ में हुआ था। मालदेव जी का विवाह आषाढं सुदी नवमी के दिन जैसलमेर की सिंघदे भट्याणी से हुआ था।
लोकदेवता देवनारायण बगड़ावत इनके समकालीन हुए है। मांगट जी संबंध में कहा जाता है कि उनकी माता जगमलदे और देवनारायण की मां साडू माता धर्म बहिन थी। कालान्तर में जगमलदे के बुलावे पर देवनारायण साडू माता सातूखेड़ा आए। बेड़ी भाली या हाणी के देव नामक स्थान पर पहुंचने पर देवनारायण जी व माता साडू का स्वागत सत्कार किया गया। वर्तमान में बेड़ी भाली सातूखेड़ा से दक्षिण में भग्नावस्था में विद्यमान है। तत्पश्चात् देवनारायण जी ने मांगट जी से कहा कि "वे उनके घोड़े को पानी पिलाकर लावें तथा घोड़े की सवारी ना करें।" कुछ दूर जाने पर उत्सुकतावश ज्योंही घोड़े पर बैठे, वह घोड़ा मांगट जी को लेकर आसमान में उड़ गया और कई स्थानों की अलौकिक यात्रा करवाई। जब मांगट जी घोड़े को लेकर लौटे तो घोड़े को पसीने से तर-बतर देख देवनारायण भांप गये और आशीर्वाद सोलह विद्याओं में से पन्द्रह विद्याओं का ज्ञान देकर कहा कि १६वीं विद्या तुम्हें भविष्य में एक योगी द्वारा दी जायेगी, जिससे तुम अदृश्य हो सकोगे। साथ ही उपहार में कमर पर बांधा जाने वाला कड़साणा भी दिया। इसके बाद मांगटजी वर्तमान मन्दिर में तपस्या करते हुए सशरीर स्वर्ग पहुंच गये, लेकिन उनके गुरु नहीं होने से पुनः धरती पर आना पड़ा। मांगट जी गुरु की तलाश में भटक रहे थे कि एक दिन आसन की रावली धूणी जोगमण्डी पर मेवाड़ महाराणा रायमल जी के भाई थानरावल (थानेश्वर) जी से मिले। उनके दिव्य चमत्कारों को देख मांगट जी ने थानेश्वर जी को गुरु बना लिया और गगनचारी विद्या प्राप्त की। मांगटजी ने गुरु थानेश्वर को गुरु दक्षिणा में ५१ बीघा जमीन, कई हिरण और चार कानो वाली नीलगाय भेंट की। गुरू के आशीर्वाद से मांगट जी पुनः तपस्या कर स्वर्ग को चले गये। इस प्रकार मांगटजी को देवनारायणजी की कृपा व अपने पूर्व जन्मों के पुण्यफल तथा रावत-राजपूतों के आदिगुरू थानेश्वर रावल जी के आशीर्वाद से सोलह विद्याएं प्राप्त हुई।
कहा जाता है कि देवनारायण जी को छोड़ने मांगटजी खारी नदी के तट पर एक पनिया खाखरा तक गये जहां उन्हें देवत्व प्रदान किया गया था। मांगटजी ने अनेक चमत्कार दिखाये। लोगों की मनोकामनाऐं पूरी की, जिससे लोग उन्हें देव के रूप में पूजने लगे। लोक संगीत की एक शैली पुंआड़ो में उन्हें आज भी जेठ सुदी नवमी से आषाढ़ सुदी नवमी में गाया जाता है। मांगटजी का देवरा रोई पर्वत पर मांगटजी का मथारा नाम से जाना जाता है। यहां प्रतिवर्ष आषाढ़ सुदी नवमी की मध्य रात्रि को विशाल मेला लगता है। यह स्थान राष्ट्रीय राजमार्ग आठ पर, जस्साखैडा चौराहा से पंद्रह किलोमीटर दूर रावली वन क्षेत्र भालियां में है।
स्त्रोत- (१). क्षत्रिय रावत-राजपूत दर्शन
लेखक- गोविन्दसिंह चौहान।
(२). वर्धनोरा राज्य का इतिहास
लेखक- स्व. डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकड़ा।
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर__
नाका वाला श्री भैरूजी का मंदिर, जिला-पाली —
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पाली जिले की रायपुर तहसील में झाला की चौकी से कानुजा सड़क मार्ग पर भीला गांव के समीप पश्चिम में २ किलोमीटर दूर भैरूजी का सुप्रसिद्ध मंदिर है। यह स्थान भैरू का नाका नाम से जाना जाता है। यहां रविवार को श्रद्धालुओं का मेला लगा रहता है। पहले भैरू जी की प्रतिमा पहाड़ी की चोटी पर थी। कहा जाता है कि एक समय चित्तौड़ के एक सेठ- सेठानी पुत्र रत्न प्राप्ति की इच्छा से भैरू जी के यहां आए थे। सेठ सेठानी ने पहाड़ी की तलहटी से ही भैरू जी से प्रार्थना की। कहते हैं कि सेठ सेठानी की प्रार्थना पर भैरू जी पहाड़ी चीर कर नीचे आ गए। यहां आज मंदिर विद्यमान है। यहां सेठ सेठानी ने भैरूजी के दर्शन किए तथा मुराद भी मांगी। बाद में सेठ को पुत्र रत्न भी हुआ। सेठ सेठानी ने यहां छत्तरी भी बनवाई। वह तीन स्तम्भों वाली छतरी आज भी विद्यमान है। यहां भैरूजी मीठी पूजा ही स्वीकार करते हैं। यहां के आसपास की हर विवाहित बहिन बेटी की जात देने आना पड़ता है तथा यह भी कहा जाता है कि दूरदूराज की कुंवारी लड़की भी इस स्थान पर आ जाती है तो भैरू जी उससे भी जात लेकर ही रहते हैं। यह स्थान क्षेत्र का प्रमुख आस्था केन्द्र है।
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#__जय_मां_भवानी_
#__जय_राजपूताना_
स्वाभिमानी रावत राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर__
पीपलेश्वर महादेव :-
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यह मंदिर कालब कलां -जस्साखेडा रोड़ पर अरावली पर्वतमाला की पहाडियों में रावली टॉडगढ़ वन्य जीव अभ्यारण की आच्छांदित घनें वनों के बीच स्थित है।
यहाँ के पुजारी रामा रावल जी महाराज ने -एन एस सूरावत को बताया कि यहाँ सबसे पहले गुर्जरों ने चट्टान के नीचे छोटी सी महादेव की मूर्ति रखी। कुछ समय बाद देवावत मोरेचा चौहान वंश के एक पुजारी ने विधिवत् रुप से मूर्ति को स्थापित किया। इस स्थान पर बहुत बड़ा पीपल का पेड़ हुआ करता था, अत: पीपलेश्वर महादेव पुकारे जाने लगा। पुराना पीपल के खत्म होने से पहले अब नया पीपल का पेड बड़ा हो गया है। ज्ञात रहे कालब का नाम काला गुजर के नाम पर पडा़। कालब की पहाडी पर फतेहगढ़ का किला बना हुआ है। आपातकाल के समय यहाँ रायपुर के ठाकुर शरण लेते थे जो कि पीपलेश्वर महादेव से कुछ दूरी पर है।
मंदिर के महाराज श्री ऊदा रावल (पूर्व फौजी) के समय काफी विकास हुआ। ऊदा रावल जी महाराज ने एक पैर पर खड़े रह कर कठोर तपस्या की थी। इनकी मूर्ति मुख्य द्वार विराजमान है। इसके बाद भभूति रावल (भादामगरा) महाराज पुजारी हुए। पीपलेश्वर महादेव (कालब कलां ) मगरांचल के राजपूतों की संतों की तपोभूमि है। वर्तमान में १३ वर्षों से रामा रावल जी महाराज पीठासीन है। पर्यटन के लिए अच्छा स्थान है।
जय पीपलेश्वर महादेव ।
- एन.एस. सूरावत (लाखाखेत)।
स्त्रोत- वर्धनोरा राज्य का इतिहास।
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इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर