रावत राजपुत राजवंश गुरुद्वारा
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रावत राजपुत राजवंश गुरुद्वारा
चिता चौहान वंशीय रावत राजपुत गुरुद्वारा ठि.- आसन जिलेलाव
गुरुद्वारा रावत-राजपूत (घोड़ावटी) ठि.-_आसन_जिलेलाव (पाली) —
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विक्रम संवत् ७७१ (ईस्वी सन् ७३४ से ७५३ के दौरान) मेवाड़ में गुहिलोत वंशीय शासक बप्पा रावल का शासन था, जिन्हें स्वयं गुरू गोरखनाथ ने दर्शन दिए थे। हारित ऋषि के आशीर्वाद से श्री गोरखनाथ ने बप्पा रावल को दुधारी (दोनों तरफ धार) वाली तलवार भेंट की तथा इनको रावल पदवी देकर सम्मान बढ़ाया, तभी से मेवाड़ के महाराणा अपने नाम से पूर्व रावल की पदवी लगाते रहे हैं।
सन् १३०३ ई. में अलाउद्दीन खिलजी इस दुधारी तलवार को चित्तौड़ विजय के बाद दिल्ली ले गया था, जिसे बाद में #_चेता के शासक #_ठाकुर_भीमसिंह_चौहान ने प्राप्त की और तत्पश्चात् ठाकुर भीमसिंह चौहान से राणा हम्मीर ने पुनः प्राप्त की।
उदयपुर में डबोक के पास #_नाहरमगरा में गोरखनाथ की धूणी रही है। मेवाड़ राजपरिवार में राणा रायमलजी (सन् १४७३-१५०७) के भाई #_कुंवर_थानसिंह ने वहां दीक्षा लेकर धूणी तापने लगे। कुंवर थानसिंह ने गोरखनाथ की दी गई उपाधि के अनुसार अपना नाम थानरावल रख लिया और कठोर तपस्या करने लगे। उन्हें सिंद्धियां प्राप्त थी। राजघराना उन्हें बहुत सम्मान देता था। एक दिन थानरावल जी किसी बात पर रूठ गये और तपस्यास्थली से धूणी को अपनी चादर में समेटकर मेवाड़ राज्य की सीमा से बाहर चल पड़े और जोधपुर राज्य की सीमा की ओर यात्रा प्रारम्भ की। उन्होंने जहां पर रात्रि विश्राम किया, वहां-वहां धूणी डालते चले आए। ये सभी धूणियां आज भी पूजनीय व चमत्कारिक है। कोटड़ा आसन (देवगढ़), आंजना आसन (देवगढ़) व ओडा आसन (भायला) आदि स्थानों पर धूणियां जगाते रमते भालियां क्षेत्र के रावली गांव में पहुंचकर सम्वत् १४४४ जोगमण्डी स्थान पर रावली धूणी को जागृत कर तपस्या करने लगे।
इस धूणी की जागृत होने की सूचना आस-पास के क्षेत्रवासियों को हुई तो सभी लोग सिद्धपुरुष के दर्शनार्थ हेतु आने लगे थे। इस धूणी की लपटें दूर-दूर तक दिख पड़ती थी। उन दिनों में जब सिद्धसंत की सूचना #_पंवारवंशीय #_मालदेवजी (मांगटजी) को हुई तो वह रावली धूणी जोगमण्डी पहुंच कर योगीराज थानरावलजी से मिले। वहां उनके दिव्य चमत्कारों को देख मांगटजी ने थानरावल को गुरु बना लिया और उपदेश लेकर उनसे गगनचारी विद्या प्राप्त की। मांगटजी ने गुरु थानरावल को गुरू दक्षिणा में ५१ बीघा भूमि और चार कानों वाली गायें भेंट की। इस वंश की गायें ग्राम आसन में संम्वत् १९९६ तक श्री जेठा व चन्दू महाराज के यहां थी। इसके पश्चात् मांगटजी गुरू आज्ञा से सदेह वैकुण्ठ धाम गए। यह धूणी गुरुपदेश पश्चात् मांगटजी के सदेह वैकुण्ठ जाने व तपस्वी सिद्धपुरूष थानरावलजी के कारण ३६० धूणियों में से यह प्रथम स्थान पर है। इस रावली धूणी (आसन) को नाथ सम्प्रदाय की मान्यता है और गादीपति (पीठाधीश्वर महन्त जी) को आयसजी महाराज की उपाधि है। यह आसन पंवार रावत-राजपूतों का गुरूद्वारा है। इस आसन के प्रमुख आयशजी क्रमशः थानरावल, वाडीरावल, बलभद्ररावल, भद्ररावल, बोहतरावल, अगोररावल, बरूरावल, खाखीन्द्ररावल, खेमरावल, नरपतरावल, थानरावल, वाडीरावल, नेतारावल, लखमरावल, धूलारावल, मीठुरावल आदि है।
वि.सं. १४४४ में भीषण अकाल में दांते में घास व पानी की कमी होने पर थानरावलजी गायों को लेकर जिलेलाव के जंगल में आये।
उस समय #_वैराटगढ़ के ठाकुर #_राव_करणसी_चौहान की नवीं पीढ़ी में हरराज व गजराज हुए। उस समय ये #_चांग गांव में रहते थे। एक बार ये दोनों भाई आखेट हेतु जिलेलाव के जंगलों में आये तब योगीराज की गायों को शेर के साथ घूमते हुए देखकर तथा अन्य चमत्कारों से प्रभावित होकर थानरावलजी को अपना गुरु और इस आसन को अपना गुरूद्वारा बना दिया। सन् १३८७ ई. (संवत् १४४४ आसोज सुदी नम का ताम्र पत्र) में महाराणा रायमल ने आयस थानरावल को आसन जिलेलाव में ९९९९ बीघा जमीन अर्पित की, जिसे डोली कहते हैं।
जिलेलाव आसन गुरूद्वारे के प्रथम आयसजी महाराज श्री थानरावल ने यही पर जीवित समाधि ली। उनकी यह धूणी भी अखण्ड प्रज्वलित है और आज भी पूजा अर्चना करने पर बिना अग्नि को प्रज्वलित किये स्वतः ही ज्योति प्रज्वलित होती रहती है तथा भक्तों की मनोकामनायें पूरी होती है। थानरावलजी के शिष्य श्री नीमरावलजी थे, जिन्होंने थानरावल की स्मृति में थानेश्वर शिव मन्दिर का निर्माण करवाया और इस गुरूद्वारे की इमारत बनवाई। इस सम्बन्ध में एक कवित्त इस प्रकार है –
बाग बगीचा बावड़ी, अद बिच मन्दिर चुनाय।
नीम रावल नामा किया, ये जाता जुगा न जाय।।
इस आसन को #_चौहानवंशीय #_घोड़ावटी (रावत-राजपूत) अपना गुरूद्वारा मानती हैं। कहा जाता है कि इनके एक शिष्य निर्मलाजी थे, जिन्होंने यहां पर जीवित समाधि ली थी, उस स्थान को #_निर्मलापाल कहते हैं। यहां पर समाधि लेकर वे आसन सारण में निकले, जहां पर उन्हें #_निर्मलावन के नाम से जाना जाता है, जिन्होंने #_सारण गुरूद्वारे की स्थापना की। इस गुरूद्वारे में अनेक चमत्कारिक एवं तपस्वी आयसजी हुए। यह गादी नागा साधुओं की रही। वर्तमान में #_पूनारावलजी_आयसजी विराजमान है। कालान्तर में इस गादी पर विराजमान आयसजी एवं उनके नाथ परम्परा के शिष्यों में भूमि संबंधी विवाद होने लगे। विवाद स्वरूप श्री सुखरावल आयसजी की हत्या तक करवा दी गयी।
वर्तमान में पूना रावलजी एवं नाथ सम्प्रदाय के लोगों के मध्य भूमि सम्बन्धी विवाद तीव्र हो गये। आयसजी ने घोड़ावटी के समक्ष नाथ लोगों की हठधर्मी एवं जमीन हड़पने का मसला रखा। घोड़ावटी ने कई बार मीटिंग का आयोजन कर नाथ लोगों एवं आयसजी के बीच भूमि-विवाद को सुलझाने के प्रयास किये।
२१ अगस्त, १९८८ को घोड़ावटी ने इस विवाद को सुलझाने हेतु मीटिंग का आयोजन किया परन्तु नाथ लोगों की हठधर्मिता के कारण विवाद नहीं सुलझा तथा तनातनी ऐसी हो गई कि भीड़ ने उग्र रूप धारण कर लिया। कुछ असामाजिक तत्वों ने नाथ लोगों के कुछ घर जला दिये, परन्तु किसी तरह की जन-हानि नहीं हुई। नाथ लोगों ने झूठे मुकद्दमें बनवाकर घोड़ावटी समाज के निर्दोष एवं प्रतिष्ठित व्यक्तियों व आयसजी महाराज पर मुकद्दमें दायर करवाये जिससे ये सभी गिरफ्तार होकर जेलो में रहे। अकारण ही निर्दोष लोग अपने गुरूद्वारा के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति का परिचय देते हुए जेलों में रहकर उत्पीड़ित हुए।
इस काण्ड ने राजनैतिक रूप धारण कर लिया। श्री हरिदेव जोशी तत्कालीन मुख्यमंत्री, शिवचरण माथुर पू. मुख्यमंत्री, श्री भैरोसिंह शेखावत पूर्व मुख्यमंत्री आदि नेतागण इस स्थान पर पधारे तथा नाथ लोगों को करीब पांच लाख की सरकार ने उत्पड़ित परिवारों को राजकीय सहायता प्रदान की। ग्राम में बिजली पहुंच गयी, ग्राम बस-सेवा से जुड़ गया। पक्की सड़क बन गई एवं अन्य कई विकास कार्य हुए। इस काण्ड में आसन जिलेलाव राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रहा। श्री हीरासिंह चौहान विधायक रायपुर के इस समस्या के निराकरण हेतु किये गये प्रयास सराहनीय है।
इस प्रकरण में धर्म रक्षा समिति का गठन किया गया, जिसके अध्यक्ष श्री भीमसिंह पूर्व सरपंच काबरा थे। जेल जाने वाले व्यक्तियों में सर्व श्री अमरसिंह सरपंच कानूजा, मूलसिंह काली चूतरी, रामसिंह, गंगासिंह पटेल, गाजीसिंह कानुजा, गैनसिंह, भैरूसिंह पूर्व सरपंच, लालसिंह कलालिया, सरदारसिंह बरल आदि थे।
स्त्रोत –
(१). मगरांचल का इतिहास - इतिहास लेखक - स्व. डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकड़ा।
(२). रावत-राजपूतों का इतिहास - लेखक - श्री प्रेमसिंह चौहान, काछबली।
(३). रावली धूणी एवं मालदेवजी (मांगटजी) का परिचय व इतिहास- लेखक - श्री भैरुसिंह पंवार, बड़ाखेड़ा (अजमेर)
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ―
(१). सूरजसिंह सिसोदिया ठि.- बोराज-काजिपुरा, अजमेर
(२). एन. एस. सूरावत (लाखाखेत) ठि.- लाखाखेत, जि.-पाली (राज.)
गुरूद्वारा रावत-राजपूत (बरड़वंशीय) ठि.-_सारण (पाली)
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भारतीय संस्कृति में गुरू को ईश्वर से भी बढ़कर माना गया है। गुरू के मार्गदर्शन से ही व्यक्ति जीवन में संमार्ग में अग्रसर होता है। गुरू व्यक्तिगत रूप से धारण करने के साथ ही समाज व कुलगुरू की व्यवस्था रही है।
राजस्थान राज्य के पाली जिले के गांव सारण में बरड़वंशीय रावत-राजपूतों का गुरूद्वारा स्थित है। पूर्व में वायड़ (गोरमघाट पहाड़) में श्री वनखण्ड वनजी तपस्या करते थे, उन्होंने वहीं पर जीवित समाधि ली थी। इनके शिष्य श्री हट्टीवन जी हुए। श्री हट्टीवन जी अपने शिष्यों के साथ वायड़ से ८ किमी. दूर पश्चिम की ओर देवलिया (सारण) में तालाब बना कर एवं वहां नाथजी की धूणी लगाकर तपस्या करने लगे।
इसी काल में मेवाड़ के महाराणा कुंभा के पुत्र कुंवर थानसिंह (थानरावल) को वैराग्य उत्पन्न होने पर नाहरमगरा में कठोर तपस्या करने के पश्चात् अनेक स्थानों पर तपस्या करते हुए आसन जिलेलाव में जीवित समाधि ली। कालांतर में उनके शिष्य श्री निर्मलाजी ने भी जीवित समाधि ले ली। उस स्थान को आज भी जिलेलाव आसन में निर्मलापाल कहा जाता है। यहां जीवित समाधि लेकर वे देवलिया (सारण) में जीवित बालक के रूप में पुनर्जन्म लेकर गुरु श्री हट्टीवन जी के शिष्य के रूप में अवतरित हुए।
श्री निर्मलावन जी अपने गुरू श्री हट्टीवन जी की शरण में रहकर शुद्ध भावना व तत्परता से सेवा करते थे। वे गुरूजी को आदर सत्कार से भोजन करवाते लेकिन संतो के आदेश बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करते। श्री निर्मलावन जी को अपने गुरूजी द्वारा भोजन करने का आदेश न मिलने से १२ वर्ष तक अन्न का एक कण भी भक्षण नहीं किया। इसी प्रसंग के तहत् भक्त दम्पति सिरियारी द्वारा आयोजित सत्संग कार्यक्रम में श्री निर्मलावन जी ने १२ वर्ष पूर्व गुरूजी द्वारा दिये गये आम गुठली को अपनी जटा से निकालकर अपने गुरूजी श्री हट्टीवन जी को प्रमाण के रूप में दिया।
उसी दिन से गुरू श्री हट्टीवन जी ने श्री निर्मलावन जी को वरदान दिया कि "तुम्हारे नाम से लोगों के दुःख दुर होंगे। कलयुग में तुम्हारी समाधि पर दूर-दूर से धीज करवाने आयेंगे।"
आज भी धीज के लिए दूर-दूर से लोग श्री निर्मलावन जी की जीवित समाधि पर आते है तथा अपनी मनोकामनाएं पुरी करते हैं। अतः ठीक ही कहा गया है –
"धीज नाम से आविया, गांव जो सारण में माय।।"
अभिमान के साथ जो यहां आते है, उनके लिए यह कहा गया है –
अभिमान कर आविया, भले ही धीज चढाय।
नाम निर्मल रो लेवतो, सारो गरब गल जाय।
सारो गरब गल जाय, सांच रे आंच नहीं आवें।
झूठ बोले तो नाथ थाने तुरत दरसावे।।
कंचन रा टूकड़ा भया।
अभिमान कर आविया, भले ही धीज चढाय।।
सारण आसन गुरूद्वारे के प्रवेश द्वार पर देवी कालिका माता का मन्दिर है तथा ड्योढ़ी पर भैंरू जी का मन्दिर बना हुआ है। महान तपस्वियों की यह गद्दी ब्रहम्चारी सन्तों की तपस्या स्थली रही हैं। यहां अखण्ड ज्योति हमेशा प्रज्ज्वलित रहती है।
श्री निर्मलावन जी के समकालीन दिल्ली के शासक अकबर एवं मारवाड़ के शासक राव चन्द्रसेन राठौड़ थे। राव चन्द्रसेन मारवाड़ के राव मालदेव के पुत्र थे। इनका जन्म १६ जुलाई, १५४१ ई. में हुआ तथा राज्याभिषेक १५६२ ई. में हुआ।
राव चन्द्रसेन मध्यकालीन भारत के प्रतापी शासक मेवाड़ के महाराणा प्रताप के अग्रज और उनके प्रेरणा स्त्रोत माने जाते है जिन्होनें कभी मुगल शासक अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की और न ही अपने घोड़ों पर शाही दाग लगने दिया।
मारवाड़ शासक राव चन्द्रसेन को मुगल शासक अकबर ने अपनी अधीनता स्वीकार करवाने हेतु भरसक प्रयास किये, परन्तु उन्होंने अधीनता स्वीकार नहीं की और अपने मुट्ठी भर साथियों के साथ मुगलों के विरुद्ध संघर्ष जारी रखते हुए मातृभूमि को मुगलों की परतंत्रता से मुक्ति दिलाने के लिए प्रतिबद्ध रहते है।
जोधपुर पर मुगलों का आधिपत्य हो जाने पर राव चन्द्रसेन ने सिवाना दुर्ग, सोजत दुर्ग से निकल कर मगरांचल क्षेत्र के #_रामगढ़ (#_सेंदड़ा), कानूजा की पहाड़ियों में रहकर मुगलों की फौजों का मुकाबला किया। उस समय राव चन्द्रसेन को #_कानूजा के #_राव_पंचायण_चौहान ने शरण दी, जिसके कारण उनको अकबर के समर्थकों से युद्ध करना पड़ा। राव चन्द्रसेन यहां से हट कर #_खोड़िया के #_बालागढ़ व उसके पश्चात् सारण की पहाड़ियों में शरण लेते है। उस समय सारण के #_ठाकुर_डूंगाजी_वरावत थे जिन्होंने मारवाड़ महाराजा राव चन्द्रसेन को मुगलों से संघर्ष के दौरान न केवल अपने यहां शरण दी, बल्कि सदैव के लिए उनके सुरक्षित कवच भी बने रहे।
इधर जब राव चन्द्रसेन पर आक्रमण करने अकबर का सेनापति पाइंदर मुहम्मद खां अपनी सेना सहित संचियावास/सिचियाय (सारण) तक आता है, तो वहां कोटड़ा माता व श्री निर्मलावनजी के बारे में उपहास करने पर वहां बैठे भंवरों (मधुमक्खियों) ने मुगल सेना पर आक्रमण कर दिया। मुगल सेना भाग खड़ी हुई और दिल्ली कूच कर गई।
वहां अकबर के दरबार में सभी राजाओं सहित जोधपुर दरबार भी उपस्थित थे। जब अकबर ने श्री निर्मलावन जी के चमत्कार की घटना सुनी तो वह उससे प्रभावित होकर नौ सौ सोने की मोहरें पतड़े पर जड़वा कर मकराना पत्थर का बाजोट अपने दरबारियों को देकर सारण श्री निर्मलावन जी के यहां भेजा।
राव चन्द्रसेन राठौड़ मारवाड का पहला शासक था जिसने छापामार युद्ध (गुरिल्ला युद्ध) पद्धति का प्रयोग मगरांचल के रावत-राजपूत सरदारों के सहयोग से सारण की पहाड़ियों में करते हुए मुगलों को सोमवार, ३० जून, १५७८ एवं रविवार, १९ जुलाई, १५७९ ई. के युद्ध में खदेड़ दिया। इन युद्धों में मगरांचल क्षेत्र के डूंगावत वंशज सरदार भी मुगल सेना से संघंर्ष करते हुये रणखेत रहे। इन डूंगावत वंशज योद्धाओंं की वीरांगनाएं सारण में सती हुई, जहां इनकी छतरियां/स्मारक भी बने हुये हैं। राव चन्द्रसेन जी का स्वर्गवास सचियाय (सारण) गांव में वि.सं. १६३७ की माघ सुदी सप्तमी को हुआ था, जिस स्थान पर इनकी दाह क्रिया की गई थी, उसी स्थान पर इनकी एक देवली स्थापित की गई थी। उस देवली पर भव्य छतरी का निर्माण किया गया है। सारण गांव के मध्य #_डूंगावत_चौहान राजपूतों की वीरांगनाओं के स्मारक भी है।
राव चन्द्रसेन की मृत्यु के २ वर्ष पश्चात् राव उदयसिंह जी (सन् १५८३-१५९५ ई.) जोधपुर का शासक बना। उस समय राव उदयसिंह जी असाध्य रोग से पीड़ित थे, तब उनको आयसजी महाराज श्री निर्मलावनजी के चमत्कारों की जानकारी मिली तो वे पूर्व सूचना देकर उनकी शरण में आये।
महाराजा का स्वागत शेखावास में किया गया तथा भगवान श्री नाथ जी की कृपा व आज्ञानुसार धूणी में से भभूत का लड्डू बनाकर पीठ में फोड़े पर लेप कर दिया और आयसजी महाराज श्री निर्मलावनजी के चमत्कार से कुछ ही समय में महाराजा का फोड़ा ठीक हो गया।
महाराजा के स्वस्थ हो जाने पर पुनः दर्शन हेतु पधारकर एक सोने का कड़ा, पालकी तथा १६०० बीघा जमीन का पट्टा भेंट किया तथा साथ में सारण में भव्य गुरूद्वारा का निर्माण बरड़वंशीय रावत-राजपूतों के सहयोग से कराया। उस समय की जोधपुर के शासक राव उदयसिंह द्वारा श्री निर्मलावन जी को दंडवत् प्रणाम की तस्वीर आज भी सारण आसन गुरुद्वारा मे लगी हुई है।
उदयपुर महाराणा मोकलजी (सन् १४०९- १४३३ ई.) ने भी मगरा क्षेत्र की २२०० बीघा भूमि का पट्टा सारण आयस जी को भेंट किया।
इस प्रकार गुरूद्वारे के नाम ३८०० बीघा जमीन उपलब्ध है। इस जमीन की प्राप्त आय को गुरूद्वारे की पूजा-पाठ, देख-रेख व नव-निर्माण में खर्च की जाती हैं।
सन् १३४२ ई. से पूर्व चौहानवंशीय रावत-राजपूतों का गुरूद्वारा #_मंडी_मियाला था, किन्तु राणा हम्मीर ने मण्डी मियाला के आयसजी महाराज से मिलकर षडयंत्रपूर्वक #_चेता के शासक #_ठाकुर_भीमसिंह_चौहान को मार डाला, तब से चौहानवंशीय रावत-राजपूतों ने इस गुरूद्वारे को त्याग कर कालांतर में चीतावंशीय रावत-राजपूतों ने जिलेलाव आसन एवं बरड़वंशीय रावत-राजपूतों ने सारण आसन को गुरूद्वारा बनाया। सारण के आयस जी श्री निर्मलावन जी के चमत्कारों से प्रभावित होकर टॉडगढ़ के #_ठाकुर_खंगारजी #_मालावत एवं काछबली के #_ठाकुर_हामाजी #_बाहड़ोत ने आयसजी महाराज को चादर भेंट कर बरड़वंशीयों का गुरूद्वारा बनाया। इन्होनें वायड़ में मेला हेतु ५२ बीघा भूमि भेंट की तथा श्री खंगारजी की धर्मपत्नी जींऊ कंवर बालोत ने कटांला (जमात) संचालित करवाया।
बरड़वंशीय रावत-राजपूतों द्वारा गुरूद्वारे को प्रतिवर्ष भेंट दी जाती है। आयसजी महाराज जमात सहित कंटाले पर बरड़वंशीय राजपूत सरदारों के क्षेत्र में पधारते हैं और श्रद्धानुसार प्रत्येक परिवार से भेंट की जाती रही है। साथ ही सभी मुख्य गांवों में पूज्य श्री आयसजी महाराज की डोली (जागीर) भेंट की हुई है जो आज भी सारण ठिकाने के नाम राजस्व रिकार्ड में दर्ज है, इनसे होने वाली उपज को गुरूद्वारे के आयस द्वारा उपयोग में ली जाती है।
यहां प्रत्येक वर्ष फाल्गुन सुदी द्वादशी से होलिका दहन के दुसरे दिन तक सारण गुरूद्वारे से गोरमघाट की तलहटी में स्थित वायड़ भैरुजी तक मेला लगता है। फाल्गुन सुदी द्वादशी तिथि की रात्रि को श्रद्धालु आयसजी को रावले की स्वर्ण जड़ित पालकी में बैठाकर शोभायात्रा निकालकर वायड़ तक ले जाते है। वहां ठहराव होता है। उसके पश्चात् धुलण्डी के दिन शोभायात्रा पुनः आसन में सम्पन्न होती है।
आयसजी अपनी सद्शिक्षा से शिष्यों को सद्मार्ग पर चलने का उपदेश देते है। इनकी जीवित समाधि पर आज भी न्याय होता है। कोई भी विवाद होने पर इस समाधि पर सत्य-असत्य की कसौटी हेतु आज भी निर्णय होता है।
उल्लेखनीय है कि आयसजी महाराज के देवलोक गमन करने पर सारण के डूंगावत गौत्र के दो मुखिया आसन/रावले पर ताला लगा देते है तथा बरड़वंशीय सरदारों के द्वारा आयसजी को विधि-विधान से समाधि दी जाती है। उसके पश्चात् सर्व सम्मति से नये आयसजी महाराज का चयन कर उन्हें गद्दी पर विराजमान करवाते हैं। इस अवसर पर सर्वप्रथम कुंपावत गौत्र के दिवेर ठाकुर सा. के द्वारा सिरोपांव धारण कराने की रस्म अदा की जाती है तथा ग्राम सारण के डूंगावत गौत्र के रावजी साहब एवं टॉड़गढ़ के खंगारवंशीय/मालावत रावजी के द्वारा चादर ओढ़ा कर मान्यता दी जाती है।
नये आयसजी के गद्दी पर विराजमान होने पर रावत-राजपूत सरदारों के द्वारा आयसजी को आसन/रावले की चाबियां सौंप दी जाती है।
इस गुरूद्वारे में कई चमत्कारिक एवं तपस्वी आयसजी हुए। यह गादी नागा साधुओं की रही है।
सारण आसन के अब तक २४ आयसजी महाराज यथा–
श्री वनखण्डजी, श्री हटीवनजी, श्री निर्मलावनजी, श्री सन्तोषवनजी, श्री खेंचरवनजी, श्री डुंगरवनजी, श्री अमृतवनजी, श्री फैंफनवनजी, श्री शीतलवनजी, श्री देववनजी, श्री दयालवनजी, श्री सुन्दरवनजी, श्री गंगावनजी, श्री मोतीवनजी, श्री बख्तावरवनजी, श्री सूरजवनजी, श्री शम्भूवनजी, श्री मानववनजी, श्री मायावनजी, श्री नवाईवनजी, श्री केशरवनजी, श्री प्रतापवनजी, श्री नारायणवनजी, श्री बख्तावरवनजी (वर्तमान आयसजी) रह चुके हैं।
सारण आसन के वर्तमान आयसजी श्री बख्तावरवन जी ने गांव कंटालिया के समीप सांगावतो की ढाणी - सांपों की नाडी (जिंझारड़ी) में श्री निर्मलावन जी की नई धूणी प्रज्ज्वलित की।
यहां श्री बख्तावरवन जी ने १२ वर्षों तक बरख मंत्रो का जाप करते हुए भंयकर ग्रीष्म में तपती पत्थर की शिला पर सूर्य तपस्या की तथा यहां श्री बख्तावरवनजी की देख-रेख में श्री निर्मलावन जी का मन्दिर, श्री सीतारामजी, श्री लक्ष्मणजी के मंदिर के नवनिर्माण का भव्य स्थापना कार्य वि.स. २०७६ पौष, शुक्ल द्वितीया को पूर्ण हुआ।
स्त्रोत –
(१). मगरांचल का इतिहास
इतिहास लेखक - स्व. डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकडा़।
(२). रावत-राजपूतों का इतिहास लेखक - श्री प्रेमसिंह चौहान, काछबली।
(३). रावली धूणी एवं मालदेवजी (मांगटजी) का परिचय व इतिहास लेखक - श्री भैरुसिंह पंवार, बड़ाखेड़ा (अजमेर)
(४). एन.एस. सूरावत (लाखाखेत) द्वारा संकलित लेख।
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.- बोराज-काजिपुरा, अजमेर_
मेवाड़ राजपरिवार से संबंधित _थानरावल_जी —
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लोकदेवता देवनारायण और #_मांगट_जी के स्थानक #_वर्धनोरा (मगरांचल) क्षेत्र के गांवों-गांवों में पाये जाते हैं और इनके जन्म स्थान भी मगरांचल से संबंध रखते हैं। ये दोनों समकालीन ही थे ऐसी मान्यता है। इन्हीं के समकालीन एक सिद्ध पुरुष का नाम भी प्रचारित है थानरावल जी जिनकी तपस्या स्थली अजमेर जिले की टॉडगढ़ तहसील में #_रावली_धूणी है। इससे लगे वन क्षेत्र को #_रावली_टॉडगढ़ #_अभयारण्य कहा जाता है। इनका समाधी स्थल जिलेलाव आसण पाली जिले की रायपुर तहसील में कलालिया ग्राम पंचायत में स्थित है।
इतिहासविज्ञों के अनुसार मेवाड़ राजपरिवार से संबंधित #_थानरावल_जी #_नाहरमगरा के पास धूणी माता स्थान पर तपस्या करते थे। किसी कारणवश मेवाड़ राणा से अनबन हो जाने पर थानरावल ने अपनी तपस्या स्थली धूणी माता से धूणी समेट कर अपनी चादर में ले ली और मेवाड़ राज्य की सीमा से बाहर निकल कर अपनी धूणी स्थापित की जो रावली धूणी के नाम से प्रसिद्ध है। वहां की आबादी को आसण कहा जाता है जो वर्तमान में ग्राम पंचायत मुख्यालय है। धूणी (आसन) को नाथ सम्प्रदाय की मान्यता है और गादीपति को आयस जी महाराज की उपाधि है और आस-पास के क्षेत्र के पंवार रावत-राजपूत भी इस गुरूद्वारा को मानते हैं। रावली में अंग्रेजी शासन काल में डाक बंगला व तालाब बनाया गया। वर्तमान में डाक बंगला फोरेस्ट का रेंजर कार्यालय है और पर्यटक केन्द्र भी है। धूणी (आसन) का भव्य भवन है।
थानरावल जी का दूसरा तपस्या स्थल वर्धनोरा (मगरांचल) क्षेत्र में ही जिलेलाव (जिलोला) आसन है जो पाली जिले की सीमा में स्थित है। यहां थानरावल जी की जीवित समाधि है। यह जिलोला आसण (भारत में नाथां रा आसण) नाथ सम्प्रदाय के मुख्य आसणों की सूची में दर्ज है।
जिलेलाव (जिलोला) आसण के गादीपति को आयस जी महाराज की उपाधि से सम्बोधित किया जाता है। इस आसण से संबंधित काफी जागीर है। वंश परम्परा में घोड़ावटी रावत-राजपूतों का प्रमुख गुरूद्वारा है। आयस जी महाराज को रावत-राजपूत समाज में बड़ा मान-सम्मान दिया जाता है। इस गुरूद्वारे की भव्यता बड़े रावले के समान है। थान रावल जी की जीवित समाधि के चमत्कार आज भी देखने-सुनने को मिलते हैं। जिलोला आसण को #_रावला भी कहा जाता है। नाथ सम्प्रदाय व मगरांचल में थानरावल जी की यह कथा सार्वजनिक रूप से प्रचलित हैं, साथ ही अन्य चमत्कारों की कथायें भी प्रचलित है।
लेखक — इतिहासकार श्री चन्दनसिंह खोखावत छापली।
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर
“ऐतिहासिक धरोहर मंडी-मियाला आसन” –
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एक समय मेवाड़ के महाराणा परिवार व मगरा क्षेत्र के मोरेचा चौहान राजपूतों का गुरूद्वारा मंडी मियाला था, जो आज खंडहर बन चुका है। यह गुरूद्वारा दो मजिंला रहा है, जो कि मंड़ी गांव के पास पहाड़ी पर है। इस गुरूद्वारे का अधिकांश भाग ध्वस्त हो चुका है।
यहां पर गुरूद्वारे के पास छोटा सा शिवमंदिर है, चबूतरा है तथा बहुत सी देव-प्रतिमाएं लगी हुई है। इस बारे में मियाला गांव के आसन के महंत हेमनाथ की संकलित जानकारी के अनुसार – “मंडी गुरूद्वारे से जुड़े शिवमंदिर के पास में पगलिये है, वह स्थान रावत गंगजी का जीवित समाधि स्थल है। गंगजी रायपुर बोराणा क्षेत्र के गांव मंडोल के थे तथा शिवभक्त थे। गंगजी ने १२ वर्ष तक तपस्या की, उसके पश्चात् मंडी आसन पर स्थित शिव मंदिर आए यहां जीवित समाधि ले ली।”
रावत गंगजी की समाधि को चमत्कारिक स्थान माना जाता है। मंडी गांव कुंदबा, पारडी रोड़ पर देवगढ़ से ३० कि.मी. दूर है। मियाला में भी पुराना आसन है, जिसमें वर्तमान महंत हेमनाथ के प्रयासों से भव्य हिंगलाज माता का मंदिर है जिसमें माता सरस्वती व माता महालक्ष्मी की मू्र्तियां भी है। इस आसन में शिव मंदिर भी है।
मंडी और मियाला के मध्य की दूरी मात्र २ किलोमीटर ही है, इस कारण लोग मंडी मियाला नाम साथ बोल देते है। इस गुरूद्वारे को चौहान राजपूतों ने अपने परिजन भीमसिंह चौहान की महाराणा द्वारा की षडयंत्रपूर्वक हत्या के बाद त्याग दिया।
स्त्रोत- (१). रावत-राजपूत संदेश पत्रिका।
(२). बदनोरा राज्य का इतिहास।
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जय मां भवानी
जय राजपूताना
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पेज एडमिन — सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर