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राठौड़ क्षत्रिय राजवंश के राजपूतों की वंशावली एवं इतिहास
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क्षत्रियों के ३६ राजकुलों में राठौड़ वंश बहुत प्राचीन है। इस वंश का प्राचीन नाम राष्ट्रकूट था, जो बाद में राष्ट्रकूट शब्द से अपभ्रंश होते हुए राठौड़ (राठौर) हुआ। जोधपुर राज्य की कोमल बावड़ी के शिलालेख में राठौड़ों को पहले राउठड़ कहा जाता था। "(संदर्भ शिलालेख के अनुसार -- संवत् १२०८ माघ सुदी सोम श्री जसधवल राजे राउठड़ पुनसिंह सुत पणमाल सुत थाहनु सो, मनदे वि. थमन ठा 'थमा' कारीत।)"
राठौड़ वंश के क्षत्रिय राजपूत युद्धों में अपने पराक्रम, वीरता एवं अद्वितीय शौर्य के लिए जाने जाते है।
ब्रज देशां चन्दन बड़ा, मेरू पहांड़ा मोड़।
गरूड़ खगां, लंका गढ़ा राजकुलां राठौड़।।
बलहट बंका देवड़ा, करतब बंका गौड़।
हाड़ा बंका गढ़ में, रण बंका राठौड़।।
जोधपुर राज्य के मतानुसार राठौड़ राजपूत कन्नौज के गहड़वाल शाखा के वंशज है। राजस्थान के उत्तरी-पश्चिमी भागों में राठौड़ वंश के राजपूतों का साम्राज्य स्थापित हुआ, जिसे मारवाड़ कहते है।
राव सिंहाजी–
मारवाड़ के राठौड़ राजवंश के मूल पुरूष राव सिंहा थे। कन्नोज के सेतराम जी के आठ पुत्रों में सबसे बड़े पुत्र राव सिंहा मारवाड़ आये। राव सिंहा ने पाली में मुस्लिम लुटेरों के लुटपाट और अत्याचारों से सुरक्षा करके पालीवाल ब्राह्मणों की सहायता की। इसी प्रकार भीनमाल में भी प्रजा को वहां के मुस्लिम शासक के अत्याचारों से मुक्त करवाया। पाली व भीनमाल पर अपना शासन स्थापित करने के बाद इसने बालेचा, मोहिल तथा गोहिल राजपूतों को अपने अधीन किया। पाली के समीप बिठू नामक ग्राम की अरणियाली नाडी के तट पर वि. सं. १३३० (१२७३ ई.) कार्तिक कृष्णा द्वादशी को राव सीहाजी राठौड़ मुसलमानों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुये। राव सिंहा ने अपना सम्पूर्ण जीवन गौ, ब्राम्ह्यण और मातृभूमि हितार्थ में व्यतीत किया। इन्होंने अपने जीवनकाल में ५२ युद्ध किये तथा सभी युद्धों में विजयश्री का वरण किया। इस प्रकार राव सिंहाजी राजस्थान में राठौड़ वंश के स्वतंत्र साम्राज्य के संस्थापक थे। राव सिंहा जी के पुत्रों में आस्थान, सोनिंग व अज आदि थे।
राव आस्थानजी–
सींहाजी की सोलंकी रानी पार्वती के बड़े पुत्र आस्थानजी हुए जो राव सिंहा के उत्तराधिकारी बने। इन्होंने खेड़ के गोहिल राजपूतो पर आक्रमण कर खेड़ (भिरड़कोट) पर अधिकार किया तथा इसको अपनी राजधानी बनाई। इसके बाद आस्थान ने ईडर पर भी अधिकार कर अपने भाई सोनिंग को सौंप दिया। सन् १२९२ ई. में आस्थान तथा मुस्लिम आक्रांता फिरोजशाह के मध्य पाली में युद्ध हुआ, जिसमें वह अपने १४० राजपूतों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए।
राव धुहड़जी–
आस्थान के बाद उसका पुत्र धूहड़ सन् १२९२ ई. में राठौड़ो के राजा बने। धूहड़ ने खेड़ को राजधानी बना कर अपने राज्य का विस्तार किया। इससे पहले धुहड़ ने कर्नाटक से माता चक्रेश्वरी की प्रतिमा लाकर बाड़मेर के पचपदरा परगने के गांव नागाणा में स्थापित की। इस माताजी को राठौड़ वंश के क्षत्रिय "नागणेची माता" (राटेश्वरी माता) के नाम से कुलदेवी के रूप में पूजने लगे।
राव धुहड़ ने पड़ौसी शासकों से १५० गांवों के क्षेत्रों को विजित कर राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। इसने मंडोर को भी प्रतिहार शासकों से विजित किया, परन्तु कुछ समय बाद प्रतिहारों ने धुहड़ को मारकर मंडोर को वापिस प्राप्त कर लिया।
राव रायपाल–
राव धुहड़ की मृत्यु होने पर उसका ज्येष्ठ पुत्र राव रायपाल राठौड़ सन् १३०९ ई. में खेड़ की गद्दी पर बैठे। राव रायपाल ने प्रतिहारों पर आक्रमण करके मंडोर पर अधिकार किया, परन्तु कुछ दिनों बाद प्रतिहारो ने मंडोर पर पुनः अधिकार कर लिया। इसके बाद रायपाल ने परमारों के मालानी क्षेत्र को विजित किया तथा इसके आस-पास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।
राव कानपालजी–
राव रायपालजी के पश्चात् कानपालजी सन् १३१३ ई. में राठौड़ साम्राज्य के शासक बने। इनके समय में भाटियों के राज्य जैसलमेर की सीमा राठौडो़ के क्षेत्र खेड़ व महेवा से लगने के वजह से इनमें परस्पर युद्ध होते रहते थे। कानपाल के पुत्र भीम ने राठौड़ो व भाटियों के मध्य सीमा क्षेत्र नियत की, लेकिन कुछ समय बाद कानपाल व उसका पुत्र भीम भाटियों की सेनाओं से संघर्ष करते हुए काम आये। कानपालजी राठौड़ के पुत्र भीम, जालणसी और विजपाल थे।
राव जालणजी–
राव कानपाल के पश्चात् इसका पुत्र जालणसी १३२३ ई. से १३२८ ई. के मध्य राठौड़ वंश के राज्य के शासक रहे। इसने खेड़ राज्य पर चढ़ाई करने वाले मुस्लिम आक्रांता हाजी मलिक को युद्ध में मार दिया। इसके बाद इसने भीनमाल के सोलंकी राजपूतों पर विजय प्राप्त की। जालणजी १३२८ ई. में भाटी व मुस्लिमों की संयुक्त सेना से युद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। राव जालणजी के तीन पुत्र- राव छाड़ाजी, राव जलखाजी, बानरजी हुए।
राव छाड़ाजी–
राव जालणजी के बाद उसके ज्येष्ठ पुत्र छाड़ाजी ने १३२८ से १३४४ ई. की अवधि में शासन किया।
जालणजी का पुत्र छाड़ाजी वीर एवं पराक्रमी था। इसने उमरकोट के सोढ़ो व जैसलमेर के भाटियों को पराजित किया तथा जालौर व नागौर के मुस्लिम शासकों को दबाए रखा। लेकिन कुछ समय बाद देवड़ा व सोनगरा चौहानों के अचानक घेरकर हमला करने से इनकी मृत्यु हो गयी। राव छाड़ाजी के पुत्रों में राव तिड़ाजी, राव खोखरजी, राव सिंहमलजी थे।
राव तिड़ाजी–
छाड़ाजी राठौड़ के पुत्र तिड़ाजी सन् १३४४ ई. में महेवा की गद्दी पर बैठने के पश्चात् राठौड़ो की शक्ति को संगठित किया। इनके समय में मारवाड़ के अधिकांश क्षेत्रों पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। सन् १३५७ ई. में राव तिड़ाजी मुस्लिम सेना से सिवाने की रक्षा के लिए युद्ध करते हुए काम आये। राव तीड़ा के पुत्र सलखाजी, कान्हड़जी, त्रिभुवनजी थे। नैणसी की ख्यात व अन्य ख्यातों में तिड़ाजी के पश्चात् कान्हड़ के महेवा की गद्दी पर बैठने का उल्लेख आता है।
राव सलखाजी–
महेवा के राजा कान्हड़जी ने सलखाजी को सिवाना के समीप एक गांव की जागीर दी, बाद में जब महेवा पर मुस्लिमों का अधिकार हो गया, तो सलखाजी ने महेवा के कुछ भाग पर आक्रमण कर भिरड़कोट में अपना राज्य स्थापित किया, लेकिन कुछ समय बाद मुसलमानों ने महेवा पर चढ़ाई करके उसे मार डाला। राव सलखा जी के पुत्रों में रावल मल्लीनाथजी, राव जेतमालजी, सोहड़जी और राव वीरमजी थे।
रावल मल्लीनाथजी-
राव सलखा की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र मल्लीनाथ १३७४ ई. में महेवे और खेड़ का शासक बना। यह एक सिद्ध पुरुष था, इसने कूण्डा पंथ की स्थापना की। मल्लीनाथ व उसके वंशजो द्वारा शासित क्षेत्र मालानी कहलाया। इसने रावल की पदवी धारण की। उसका पुत्र जगमाल भी प्रतापी योद्धा हुआ। १३७८ ई. में मुसलमानों ने १३ दलों की एक विशाल सेना लेकर माला पर आक्रमण किया। माला ने १३ दलों की इस विशाल सेना को परास्त कर दिया। इस घटना की स्मृति में मारवाड़ में एक कहावत है-
" तेरह तुंगा भांगिया माले सलखाणी।"
राव वीरमजी–
रावल मल्लीनाथ का छोटा भाई वीरमजी (विरमदेव) खेड़ मे रहा करते थे। वीरमजी ने १३८३ ई. में जोहियों के राज्य पर अधिकार करने के लिए प्रयास किया, लेकिन इनकी मृत्यु हो गयी। वीरमजी के पुत्रों में देवराज, गोगादेव, जयसिंह, राव चूंडाजी, बीजाजी आदि थे।
राव चूंडाजी–
राव चूंडाजी राठौड़, राठौड़ वंश के महान शासकों में से एक थे। राव वीरमजी के बड़े भाई रावल मल्लीनाथ जी ने चूंडा राठौड़ को सालोड़ी गांव की जागीर प्रदान की और चूंडा ने उस गांव को अपना केन्द्र बनाकर अपनी राठौड़ वंश के राज्य की सीमा को विस्तार करना शुरू किया। मण्डोर, ईन्दा (पडियार) शाखा के राजपूतों की राजधानी थी। ईन्दा शाखा के राजपूतों ने मण्डोर को यवनों से विजित कर लिया, परन्तु उसकी सुरक्षा करने में असमर्थ थे। अतः मण्डोर के किले को राव चूण्डा को सौंपना उचित समझा। मण्डोर के राजा रायधवल ईन्दा ने अपनी पुत्री लीलादे का विवाह चूंडा से किया और मंडोर का गढ़ दहेज में दिया। उक्त घटना के सम्बन्ध में एक सोरठा आज भी लोक प्रचलित है–
ईन्दों रो उपकार, कमधज कदे न वीसरे।
चूंडो चंवरी चाढ़, दी मंडोवर दायजै।।
राव चूंडा ने मण्डोर को अपनी राजधानी बनाया। अतः चूंडा से राठौड़ साम्राज्य का विधिवत् अभ्युदय माना जाता है। मण्डोर प्राप्त हो जाने पर राव चूंडा ने इसमें रहने वाले सिंधल, कोटेचा, मांगलिया, आसायच आदि राजपूतों को अपनी सेवा में रख लिया। राव चूंडाजी ने अपने राज्य का विस्तार करते हुए डीडवाना, खाटू, सांभर, पाली, अजमेर, सोजत, नाडोल और फलौदी को अपने साम्राज्य में मिला लिया। सन् १३९९ ई. में नागौर के खोखर शासक को मारकर नागौर पर अधिकार किया। राव चूंडा ने मंडोर राज्य को अपने पुत्र सता को सौंपकर स्वयं नागौर में रहने लगा। इसने नागौर के समीप ही चूंडासर नामक गांव बसाया। राव चूंडा का ज्येष्ठ पुत्र रणमल था, परन्तु राव चूंडा अपनी मोहिल रानी के प्रभाव में आकर उसके पुत्र कान्हा को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और अपने ज्येष्ठ पुत्र रणमल से कहा कि वह किसी अन्य राज्य में जाकर रहे। रणमल राठौड़ अपने पिता की आज्ञा मानकर मेवाड़ के महाराणा लाखा की सेवा में चला गया।
सन् १४२३ ई. में मुहम्मद फिरोज ने नागौर पर अधिकार करने के लिए चढ़ाई की। नागौर में राव चूंडा और मुहम्मद फिरोज के मध्य युद्ध हुआ, जिसमें राव चूंडा युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
राव चूंडा के पश्चात राव कान्हा मंडोर की गद्दी पर बैठे। राव कान्हा ने सांखलों के राज्य जांगलू पर अधिकार करने के लिए चढ़ाई की और सांखलो को युद्ध में परास्त कर जांगलू पर अधिकार किया। इस युद्ध के कुछ दिनों बाद इनको उदररोग हो जाने पर इनकी मृत्यु हो गयी।
राव रणमल–
रणमल राठौड़ अपने पिता के समय मंडोर राज्य का त्याग कर नाडोल के निकट धणला गांव के सोनगरा चौहानों को परास्त किया तथा कुछ दिनों तक यहां रहने के बाद वह मेवाड़ नरेश महाराणा लाखा के पास रहने आया तो लाखा ने उसे चालीस गांव के साथ धणला गांव की भी जागीर प्रदान की। कुछ समय में ही वह राणा लाखा का विश्वासपात्र बन गया तथा मेवाड़ की सेनाओं का नेतृत्व करने लगा। उसने अजमेर पर विजय प्राप्त करके मेवाड़ राज्य में सम्मिलित कर दिया, इससे लाखा रणमल से अत्यधिक प्रसन्न हो गया।
सन् १४२१ ई. में राणा लाखा की मृत्यु होने पर उसका १२ वर्षीय पुत्र मोकल मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। मोकल की अल्पायु के कारण लाखा का बडा़ पुत्र चूण्डा उसका सरंक्षक बना और मोकल के नाम पर मेवाड़ का शासन चलाया। कुछ समय बाद हंसाबाई के संदेह करने के कारण चूण्डा अपने छोटे भाई राघवदेव को मोकल एवं पैतृक राज्य मेवाड़ की सुरक्षा की जिम्मेदारी देकर माण्डू निकल गए। चूण्डा के जाने के बाद मेवाड़ राज्य में रणमल की स्थिति सर्वोपरि हो गई। उसने महाराणा मोकल की निष्ठापूर्वक सेवा की और महाराणा के विरुद्ध उठने वाले विद्रोहों का दमन किया। रणमल के बढ़ते हुए प्रभाव से सिसोदिया सामन्त घबरा उठे और उन्हें लगने लगा कि एक दिन मेवाड़ पर राठौडो़ की सत्ता स्थापित हो जायेगी। अतः उन्होंने रणमल का विरोध करना आरम्भ कर दिया।
सन् १४२३ ई. में रणमल के पिता चूंडा की नागौर के युद्ध में मृत्यु हो गई। यह सूचना मिलने पर रणमल मेवाड़ से मंडोर आया तथा पिता को दिये हुए वचन के अनुसार उसने अपने छोटे भाई कान्हा का राजतिलक किया। इसके बाद रणमल मेवाड़ न जाकर मारवाड़ राज्य के सोजत गांव में रहने लगे। रणधीर ने रणमल को मंडोर पर अधिकार करने के लिए अनुरोध किया। इस पर रणमल ने मेवाड़ की सेना लेकर मंडोर पर आक्रमण किया। सता के पुत्र नरबद ने उसका सामना किया, परन्तु नरबद परास्त हो गया। रणमल ने सन् १४२६ ई. में मंडोर को अपने अधिकार में ले लिया। रणमल ने मंडोर को अपने राज्य की राजधानी बनाई। इसके बाद रणमल ने पाली, सोजत, जैतारण, नाडोल और जालोर आदि को जीतकर अपने राज्य का विस्तार किया।
सन् १४३३ ई. में गुजरात के अहमद खां के साथ हो रहे झीलवाड़ा युद्ध, चारभुजा के मैदान में 'चाचा व मेरा' नामक दो व्यक्तियों ने मोकल की हत्या कर दी। अपने भांजे मोकल की हत्या का समाचार सुनते ही रणमल ५०० सैनिकों को अपने साथ लेकर चित्तौड़ के लिए रवाना हुए। चाचा, मेरा और इनके सहयोगी कोटड़ा अथवा पई के दुर्गम पहाड़ो में जाकर छिप गये। रणमल ने कोटड़ा के राजपूतों के सहयोग से इन विद्रोहियों पर आक्रमण कर इनका दमन किया तथा कुंभकर्ण (महाराणा कुंभा) को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाया। कुम्भा के शासन निष्कंटक बनाने के लिए रणमल ने मेवाड़ के विद्रोही सरदारों को मेवाड़ से निकाल कर अपने विश्वास के बहुत से राठौड़ो को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कर दिया।
कुम्भा के २२-१३ वर्ष की आयु होने तक रणमल ही मेवाड़ राज्य का वास्तविक शासन चलाता रहा। उसने अनेक युद्ध अभियानों में मेवाड़ की सेना का नेतृत्व किया तथा सांरगपुर, नागौर, गागरौन, नराणा, खाटू, चाटसू आदि युद्ध अभियानों में विजय प्राप्त की।
१४३५ -३६ ई. में रणमल ने मेवाड़ की ओर से बूंदी पर आक्रमण किया, जिसमें बूंदी के शासक बेरीसाल ने आत्मसमर्पण कर कुम्भा की अधीनता और उसे वार्षिक कर चुकाना स्वीकार कर लिया।
रणमल द्वारा राठौड़ सरदारों को मेवाड़ राज्य में महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त कर देने की वजह से सिसोदिया सरदारों में रणमल के विरुद्ध असंतोष पनपने लगा। कुम्भा ने अपने पिता के हत्यारों के साथियों महपा पंवार व इक्का को क्षमा कर दिया। वे दोनों चित्तौड़ लौट कर महाराणा की सेवा करने लगे। इसके कुछ दिनों बाद राव रणमल के विरोधियों द्वारा सोते हुए रणमल पर हमला कर हत्या कर देते है। रणमल की हत्या हो जाने के पश्चात् महाराणा कुंभा ने चूण्डा सिसोदिया के नेतृत्व में मंडोर राज्य पर अधिकार कर लिया।
राव जोधा–
मारवाड़ के इतिहास में राव रणमल के पुत्र राव जोधा का महत्वपूर्ण स्थान है। राव जोधा एक वीर, साहसी एवं महत्वाकांक्षी पुरूष था। सन् १४३८ ई. में राव रणमल की हत्या हो जाने के पश्चात् मेवाड़ नरेश महाराणा कुंभा ने चूण्डा लाखावत के नेतृत्व में मंडोर व मारवाड़ राज्य के अन्य क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। राव जोधाजी ने अपने पैतृक राज्य को प्राप्त करने के लिए अनेक प्रयास किये, किन्तु असफल रहे। राव जोधा ने काहूनी ग्राम को निवास स्थल बनाकर अपनी सैनिक शक्ति को संगठित किया। उसने मण्डोर पर अधिकार करने के लिए घोड़ो का प्रबन्ध किया तथा उसके पश्चात् सेना को तीन भागों में विभक्त करके आक्रमण करने की योजना बनाई। सेना के प्रथम भाग वरजांग को देकर मण्डोर की तरफ भेजा, द्वितीय भाग चांपाजी की अगुवाई में कोसाना एवं तृतीय भाग का सेनापतित्व स्वयं जोधाजी ने कर चौकड़ी पर आक्रमण किया। अकस्मात् रात्रि में हमला होने से मेवाड़ी सेना में खलबली मच गई। मेवाड़ी थानेदारों के युद्ध में मारे जाने से सेना भाग खड़ी हुई। दोनों की संयुक्त सेना ने विजित प्रदेशों का प्रबन्ध कर वरजांग से आ मिले और प्रातः काल होने से पूर्व ही मण्डोर पर आधिपत्य कर लिया।
सन् १४५३ ई. में अग्रज राव अखैराज ने राव जोधाजी का मण्डोर में राज्यभिषेक किया। इसके बाद राव जोधा व उनके भाईयों ने कापरड़ा, रोहिट, नाडोल, नारलाई, सोजत, बगड़ी आदि प्रदेशों को अधीनस्थ किया। इनके वीर पुत्रों में दूदाजी ने मेड़ता, राव बीकाजी ने बीकानेर, बिदाजी ने छापर को विजित कर राठौड़ वंश के स्वतंत्र राज्य स्थापित किये। राव जोधा ने अपने भाईयों व पुत्रों के सहयोग से अपने राज्य को मंडोर, मेड़ता, फलौदी, पोकरण, भाद्राजून, सोजत, पाली, सिवाना, सांभर, अजमेर, नागौर, डीडवाना तक विस्तार कर राठौड़ वंश का विशाल साम्राज्य स्थापित किया। राव जोधाजी ने अपने राज्य का शासन सुव्यवस्थित करने हेतु साम्राज्य के अलग-अलग भाग अपने पुत्रों व भाईयों को सौप दिये।
राव जोधा ने वि.स. १५१६ ज्येष्ठ सुदी एकादशी, १२ मई, १४५९ को चिड़िया टूंक पर नये गढ़ की नींव रखी और अपने नाम पर जोधपुर नामक नया नगर बसाकर मंडोर के स्थान पर उसे अपनी राजधानी बनाया।
राव जोधाजी के सत्रह पुत्र थे, जिनमें नींबा, सातल, सूजा, कर्मसी, रायपाल, वणवीर, जसवन्त, कूंपा, चांदराव, बीका, बीदा, जोगा, भारमल, दूदा, वरसिंह, सामन्तसिंह, शिवराज आदि है।
राव सातलजी–
राव जोधाजी के पश्चात् इसका पुत्र राव सातल जी सन् १४८९ ई. मारवाड़ की गद्दी पर बैठे। इन्होंने पोकरण और फलौदी के पास के प्रदेश पर अधिकार कर सातलमेर नामक नगर बसाया।
सन् १४९२ ई. में राव सातल तथा सिरिया खां के मध्य कोसाणा में युद्ध हुआ। इस युद्ध में राव सातलजी मुस्लिम सेना से संघर्ष करते समय घायल हो गये, जिससे इनकी मृत्यु हो गई।
राव सूजाजी–
राव सातलजी की मृत्यु के पश्चात् इनके भाई राव सूजाजी मारवाड़ की गद्दी पर बैठे। मारवाड़ नरेश राव सूजाजी ने १४९२ ई. से १५१५ ई. की अवधि में शासन किया। इनके नौ पुत्रों में बाघा, नरा, शेखा, देवीदास, राव ऊदा, प्राग, सांगा, पृथुराव और नापा थे।
राव सूजा के ज्येष्ठ पुत्र बाघाजी हुए, जिनके पुत्र गांगा जी सन् १५१५ ई. में मारवाड़ के शासक बने।
राव सूजाजी राठौड़ के द्वितीय पुत्र नराजी राठौड़ फलौदी के शासक थे। तंवरों की गायें खींया सिंदल लेकर भाग गया, तब नराजी ने खींया सिंदल से युद्ध कर गायों को छुड़ाकर वापस तंवरों को सौंपी। तंवरों ने इस एहसान के लिए उनकी लड़की नराजी के पुत्र वीरमजी को विवाह कर पोखरण का कुछ भाग दहेज में देकर चुकाया। वहीं से वीरमजी एवं उनके वंशज "पोखरिया राठौड़" कहलाये।
सन् १५६७ ई. में चित्तौड़ में मुगल सेना के विरूद्ध हुए युद्ध में जयमल व पत्ता के साथ #कालूजी_पोखरिया (राठौड़) अपने सैनिकों के नेतृत्व में युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। पोखरिया राठौड़ों के मुख्य ठिकाने काणेचा, राजियावास, नरवर, सवाईपुरा आदि है। वीरमजी पोखरिया के वंश परम्परा में खींवाजी राठौड़ के वंश में "भरल राठौड़" और "मामणियात राठौड़" हुए।
भरल राठौड़ो के मुख्य ठिकाने राजोसी, रामखेड़ा, धनार, राया, बूंटीवास, फतहपुरिया, लूलवा, बोरवा, धोलिया, सूरजपुरा आदि है।
वीरमजी पोखरिया के पुत्र हम्मीरजी हुए, जिनकी ८वीं पीढ़ी में रायसिंह पोखरान के पुत्र करणाजी राठौड़ हुए जिनके पुत्र धीराजी (धर्मवीर) और हालूजी ने तावेड़ का किला #तीतड़ागढ़ बनवाया तथा यहां से कुछ दूरी पर बुवाल (बवाल) गांव बसाया। इन्होंने इसके ऊंचे पर्वत पर पर #बवाल_माताजी के मंदिर का निर्माण करवाया।
करणाजी का भाई मादाजी राठौड़ बली गांव में आ बसे। इनके पुत्र विट्ठलदास जी हुए है, जिन्होंने लाडपुरा (विजयगुड़ा) बसाया। वीर विट्ठलदासजी (बूचिया) के वंशज "बोच राठौड़" कहलाये।
विट्ठलदास राठौड़ के पुत्र हटीजी हुए।
हटीजी राठौड़ के पुत्रों में राजसी, हाला, बाला और मोकलजी थे। इनके वंशजो के मुख्य ठिकाने बली, बड़ाखेड़ा एवं जस्साखेड़ा है।
धीराजी राठौड़ के पुत्र परबतजी हुए, जिनके देवकरण व राटाजी हुए। राटाजी राठौड़ के वंशज चौरासी में रहते है।
देवकरण राठौड़ के रहकमलजी हुए, जिनके दो पुत्र बूचाजी व केराजी हुए।
बूचाजी राठौड़ के पुत्र हामाजी हुए, जो रास बाबरा में आकर रहने लगे। हामाजी राठौड़ के एक पुत्र हम्मीर चौहानों से युद्ध करते हुए काम आया और दूसरे पुत्र पांचाजी को रातड़िया के लगेत (चौहान) राजपूतों ने शरण देकर गांव काणेचा में बसाया। इसी वंश परम्परा में पांचाजी के पुत्र हीराजी राठौड़ व हीराजी के ज्येष्ठ पुत्र चिम्मनाजी राजियावास में आकर बसे।
हीराजी राठौड़ के दो पुत्र जग्गाजी व खंगाराजी काणेचा में रहे। कालान्तर में इनके वंशज अर्जुनपुरा, गड्डी, लाडपुरा, नेडल्या आदि क्षेत्रों में रहते है।
राव गांगाजी–
मारवाड़ शासक राव सूजाजी के पश्चात् राव गांगाजी सन् १५१५ ई. में मारवाड़ राज्य के शासक बने। राव गांगा ने मेवाड़ के शासक राणा सांगा को सन् १५२७ ई. में खानवा के युद्ध में ४ हजार सैनिक भेजकर सहयोग किया। राव गांगा के पुत्रों में राव मालदेव, मानसिंह, बैरीशाल, कृष्णसिंह, सार्दुलसिंह, कानसिंह हुए।
राव गांगा के पश्चात् मारवाड़ के शासको में क्रमश: राव मालदेव, राव चन्द्रसेन, राजा उदयसिंह, सूरसिंह, गजसिंह, जसवंतसिंह, अजीतसिंह, अभयसिंह, विजयसिंह, रामसिंह, बख्तसिंह, विजयसिंह, भीमसिंह, मानसिंह, तख्तसिंह, जसवंतसिंह द्वितीय, सरदारसिंह, सुमेरसिंह, उम्मेदसिंह, हनुवंतसिंह, गजसिंह आदि हुए।
स्त्रोत –
(१). मारवाड़ का इतिहास।
(२). वर्धनोरा राज्य का इतिहास।
(३) मगरांचल का इतिहास, लेखक- इतिहासकार श्री मगनसिंह चौहान।
(४) रावत-राजपूतों का इतिहास, लेखक- श्री प्रेमसिंह चौहान।
(५). क्षत्रिय रा.- राजपूत दर्शन, लेखक- श्री गोविन्दसिंह चौहान।
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर__