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मगरा मेरवाडा क्षेत्र के प्रमुख गढ एवम ठिकाणे
"वर्धनोरा राज्य"
वर्धनोरा राज्य राजस्थान में उत्तरी अक्षांश २६.११' और २५.२३' तथा पूर्वी देशान्तर ७३.५७, ३०' और ७४.३०' के मध्य में स्थित है। उत्तर से दक्षिण की ओर लगभग १६० कि.मी. तथा चौड़ाई लगभग १०० कि.मी., संकरी पट्टी में स्थित इसका क्षेत्रफल ३७११ वर्ग कि.मी. है जो नरवर से दिवेर तक माना जाता है। यह ८ परगनों और ५३४ बड़े ग्रामों में विभक्त है। कुम्भलगढ़ से अजमेर तक अरावली पर्वत श्रेणियों से घिरा होने के कारण यह क्षेत्र 'मगरांचल' के नाम से भी जाना जाता है।
मगरांचल, पश्चिम व उत्तर में मारवाड़ से घिरा हुआ तथा पूर्व व दक्षिण में मेवाड़ से जुड़ा हुआ है। वर्तमान में यह क्षेत्र चार जिलों अजमेर, पाली, राजसमन्द, भीलवाड़ा में विभक्त है।
प्राचीनकाल में उक्त मगरांचल क्षेत्र में मिहिर वंश के प्रतिहार राजपूतों का शासन था, जिसके कारण इस क्षेत्र को मिहिरवाड़ा भी कहा जाता था। नाडोल मे चौहान राजवंश के संस्थापक #_राव_लक्ष्मण के दो पुत्र राव अन्हल और राव अनूप ने मगरांचल में प्रतिहार राजपूतों को पराजित कर अपना शासन स्थापित किया। किशनगढ़ के पास नरवर से राजसमन्द जिले के महाराणा प्रताप की एक मात्र विजय स्थली दिवेर तक चीतावंशीय एवं बरड़वंशीय चौहानों का राज्य था। बाद में इन दोनों ने इस राज्य का बंटवारा कर लिया, जिसमें नरवर से टोगी तक का क्षेत्र ,अन्हलवशींय (चीता मोरेचा साख) चौहानों के पास और टोगी से दिवेर तक का क्षेत्र अनूपवंशीय (बरड़ मोरेचा साख) चौहानों के पास रहा। यह क्षेत्र कभी भी मुगलों के अधीन नहीं रहा और न ही किसी राजा अथवा अंग्रेजो के अधीन रहा। जब अंग्रेजो द्वारा कई प्रयासों और समस्त नीतियों के अपनाने के बाद भी इस क्षेत्र को अपने अधीन में नहीं कर सके, तो उन्होंने एक सुलहपूर्ण रास्ता निकाला, जिसके तहत इस क्षेत्र के लोगों को भर्ती कर "मगरांचल राजपूत रेजीमेन्ट" नाम से एक अलग सेना की टुकड़ी को इस क्षेत्र का शासन सौंपकर अप्रत्यक्ष रूप से शासन किया।
फ्रांस के इतिहासकार 'मिस्टर जेक्मेन्ट' जो कि १८३२ ई. में भारत भ्रमण के लिए आये थे, इन्होंने "Letters from india" नामक पुस्तक में १८३४ ई. में अपने शब्दो में यहां के रावत-राजपूत समाज की बहादुरी और शौर्य का मूल्यांकन करते हुए लिखा है कि ―
"No Rajput Chief, No Mughal Emperor had ever been able to Sub-due them, Magranchal always remained independant."
"न तो कोई भी राजपूत राजा, न ही मुगल सम्राट इन्हें हराकर अपने नियन्त्रण में कर सके, इन राजपूतों का #_बदनोरा_राज्य (मगरांचल) हमेशा स्वतंत्र रहा है।"
इस राज्य के राजपूत स्वभावतः वीर, स्वाभिमानी, स्वतन्त्रता प्रिय, आन-बान पर प्राण न्यौछावर करने वाले जीवट के धनी है। समय-समय पर इन्होंने उदयपुर, जयपुर, जोधपुर आदि के राजाओं को शरण व सहायता दी। मातृभूमि की स्वतन्त्रता हेतु मुगल सल्तनत व विदेशी शासको से लोहा लिया। महाराणा उदयपुर ने 'वीहल चौहान' को व महाराजा जोधपुर ने 'नरा चौहान' व कई अनेक योद्वाओं को उनके शौर्य व पराक्रम से अभिभूत होकर रावत के खिताब दिये।
"संसार में #_बदनोरा_राज्य (मगरांचल) ही एक ऐसा राज्य रहा है जहां के राजपूत शासक हमेशा स्वतन्त्र रहे तथा वीरता के अनूठे उदाहरण प्रस्तुत किये।"
बदनोरा राज्य पर अधिकार करने के उद्देश्य से एवं अन्य कारणों से निम्न पड़ोसी राज्यों के शासकों ने इस राज्य पर आक्रमण किया, परन्तु उन्हें कभी भी सफलता नहीं मिली, बदनोरा के योद्धाओं ने इनकी सेनाओं को अपने क्षेत्र से खदेड़ दिया और बदनोरा राज्य को सदैव स्वतंत्र रखा।
(१). सन् १७३५ ई. में #_जयपुर_रियासत के ठाकुर देवीसिंह ने #_जयपुर_महाराजा #सवाई_जयसिंह द्वितीय से अनबन होने पर बदनोरा राज्य में शरण ली, जिसे जयपुर महाराजा ने उन्हें सौंपने को कहा, परन्तु बदनोरा के शासक ने शरणागत की रक्षा करनी अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा के कारण ठाकुर देवीसिंह को महाराजा को महाराजा को सौंपने से इन्कार कर दिया। महाराजा जयपुर ने अपने प्रस्ताव को इस प्रकार ठुकराने जाने पर एक करोड़ रुपया खर्च कर बदनोरा के खिलाफ सैनिक अभियान चलाया। मगरे के ठाकुरों ने महाराजा की सैन्य शक्ति को देखते हुए बुद्धिमानी से काम लिया और अपने ठिकानों को छोड़कर पीछे हट गये। जब महाराजा की सेना पहाड़ी क्षेत्रों के बीच आ गई तो पहाड़ी क्षेत्रों से जाने वाले सभी रास्तों को बन्द कर सेना को चारों ओर से घेरकर उन पर आक्रमण कर दिया, जिससे सैनिकों में खलबली मच गई और वे अपनी जान बचाकर इधर-उधर भागने लगे, परन्तु उन्हें बच निकलने का रास्ता नहीं मिला, इस पर उन्होंने आत्म-समर्पण करते हुए अपने समस्त हथियार और सामान मगरे के ठाकुरों को सुर्पुद कर अपनी जान बचाकर भाग गए।
(२). #_मेवाड़ के महाराणा कुम्भा को शासनकाल में उन्माद रोग हो गया, इससे राज्य प्रशासन में शिथिलता आने लगी। उनके बड़े पुत्र उदयकर्ण ने कुम्भलगढ़ में महाराणा को मारकर बदनोर के ठाकुर जेतसिंहजी के साथ मगरांचल में ठाकुर श्री खंगारसिंहजी चौहान के यहां आकर शरण ली। यहां के ठाकुर ने उन्हें तीन माह तक बरार (राणारेल) में रखा और १० दिन तक बरसावाड़ा में रखा। जब महाराणा का सोलह राव और बत्तीस उमरावों के साथ सन्धि हो गई तो श्री खंगारसिंह चौहान अपने साथ उदयकर्ण को लेकर उदयपुर दरबार में हाजिर हुए, तो उदयपुर के राजकवि ने श्री खंगारजी की प्रशंसा में निम्न उक्तियाँ कहकर सम्मानित किया –
"सोलह सामन्त, सौ शूरमा, हुणि बरसावाड़े वाग।
राण पहुँचाया चहुवान रजपुतां उदको वदियो आग।।
रण छेला रण बावला, कुले सुधारण काज।
राणी जाया रजपुतां लाख-लाख समराज।।"
(३). जोधपुर के #महाराजा_मालदेव पर सन् १५४३ ई. में दिल्ली बादशाह शेरशाह सूरी ने आक्रमण करने के लिए कूच किया। दोनों सेनायें गिरी एवं सुमेल के मैदान में आमने-सामने आ डटी। शेरशाही सूरी ने अपने गुप्तचरों के माध्यम से छल-कपट कर मालदेव के मन में अपने सेनापतियों के खिलाफ जहर भर दिया, जिससे मालदेव को शंका हो गई और वह अपनी सेना लेकर वापस जोधपुर लौट गये। अब सेनापति जेता राठौड़ और कूंपा राठौड़ के साथ बहुत कम सैनिक रह गए। ऐसे परिस्थिति में मगरांचल के शासक नरा चौहान अपने ३ हजार राजपूत सैनिकों को लेकर सहयोग के लिये आगे आए। जोशभरे पराक्रम के साथ #_जैता_राठौड़, #कूंपा_राठौड़, #_नरा_चौहान, #_चांग के #_लखा_चौहान व अनेक शूरवीर योद्धा अपने ८ हजार राजपूत सैनिकों के नेतृत्व में शेरशाह सूरी की ८० हजार सैनिकों की भारी भरकम अफगान सेना का जबरदस्त प्रतिरोध किया। यद्यपि इस युद्ध में जीत शेरशाह सूरी की हुई, पर उसके अनेक सैनिक कई योद्धा मारे गए। इस युद्ध पर टिप्पणी करते हुए शेरशाह सूरी ने मगरे के वीरों की बहादुरी को स्वीकारते हुए कहा कि "मुट्टी भर बाजरे के लिए मैं #_हिन्दुस्तान की बादशाहत खो देता।" इस वाक्य से यह स्पष्ट होता है कि इस युद्ध में किस प्रकार बाल-बाल बच गया था। किसी कवि ने कहा है–
"गिरी तेरे गार में, लम्बी बधी खजूर।
जेता कूम्पा आखिया, स्वर्ग नेडो घर दूर।।"
बाद में जब इस युद्ध के परिणाम की जानकारी मालदेव को मिली तो उन्होंने मगरे के अन्हलवंशीय (मोरेचा चीता साख) #_नाहरसिंह (नरा चौहान) को #_रावत का खिताब प्रदान कर उसके पुत्र #_सूरा_चौहान को कई गांवो की जागीर प्रदान की।
(४). जोधपुर के राजकुंवर जालिमसिंहजी को काछबली में शरण दी गई। ३० जनवरी, १७५३ ई. को महाराजा विजयसिंह ने जोधपुर राज्य का शासन संभाला, जिनके सात रानियां और सात पुत्र थे। उदयपुर की रानी से २८ जून, १७५० को कुंवर जालिमसिंह का जन्म हुआ। महाराजा जोधपुर और उदयपुर की राजकुमारी के विवाह पर यह संधि हुई थी कि उदयपुर की राजकुमारी से उत्पन्न राजकुमार को जोधपुर की गद्दी दी जायेगी, परन्तु ऐसा नहीं हुआ। जोधपुर महाराजा विजयसिंहजी की मृत्यु के बाद अन्य राजकुमारों ने शासन अपने हाथ में ले लिया और राजकुमार जालिमसिंहजी अपने ननिहाल उदरपुर आ गए। बाद में जालिमसिंहजी उदयपुर के कुछ सैनिकों को लेकर जोधपुर पर हमला करने के उद्देश्य से रवाना हुए, उधर जानकारी होने पर जोधपुर की सेना ने भी सिरयानी गांव में मोर्चा संभाल लिया। दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ, जिसमें कुंवर जालिमसिंहजी घायल हो गए, जिन्हें काछबली में मगरांचल के ठाकुर ने अपनी शरण में रखा, परन्तु गंभीर रूप से घायल होने के कारण ३ जून, १७९८ को कुंवर की काछबली में मृत्यु हो गई।
(५). सन् १७५४ ई. में #_उदयपुर_महाराणा श्री राजसिंह द्वितीय की सेना ने बदनोरा पर अधिकार करने हेतु आक्रमण किया पर उनका यह सैनिक अभियान मगरे के वीरों ने विफल कर दिया और सेना को अपना सैन्य साजो-सामान छोड़कर भागना पड़ा।
(६). सन् १७७९ ई. में जोधपुर की सेना ने #_बदनोरा_राज्य के कोट-किराणा ठिकाने पर हमला किया, परन्तु वहाँ पर भी #_जोधपुर_महाराजा की सेना को मुँह की खानी पड़ी और परास्त होकर लौटना पड़ा।
(७). सन् १७८८ ई. में #जोधपुर_महाराजा विजयसिंहजी ने बदनोरा राज्य पर हमला किया, पर उनकी सेना को भी मगरे के वीरों ने खदेड़ दिया और उनके हथियार और सामान जब्त कर लिये।
(८). सन् १७९० ई. में कंटालिया के ठाकुर ने बदनोरा के भायली क्षेत्र पर हमला किया, जिसे अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा और उनके सेना के भी सैनिक को वापस जिन्दा नहीं जाने दिया गया। उनका सभी साजो सामान पर भी मगरे के वीरों ने अधिकार कर लिया।
(९). मीर खाँ पिण्डारी ने सिरयारी ठाकुर के ठिकाने को लूट लिया और मार दिया। उस समय काछबली के वीर सुरताजी बाली परगना के सेनापति थे, जब उन्हें इस बात की जानकारी हुई तो वे स्वयं सिरयारी गए और सिरयारी जनता की सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता करके ठाकुर के परिवार को अपने साथ काछबली में लाकर अपनी शरण में रखा। बाद में जब ठाकुर के पुत्र के वयस्क होने पर सुरताजी ने उसे सिरयारी ले जाकर गद्दी पर बिठाया। सिरयारी ठाकुर ने कृतज्ञतावश सुरताजी को कई गांवो की जागीरी सौंपने का प्रस्ताव रखा, परन्तु उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया और बड़े भाई वराजी वंशज को यह भेंट सौंप दी। #_चेता के वरावत फुलाद के ठाकुर बने तथा पहरेदारी सिरयारी ठाकुर की रही।
(१०). सन् १८०० ई. में #_अजमेर के मराठा सुबेदारों ने बदनोरा पर अधिकार करने के उद्देश्य से एक साथ मिलकर हमला किया, जिसे मातृभूमि के रखवाले ठाकुरों ने विफल कर दिया। बाद में १८०७ ई. में मराठों ने अपनी शक्ति बढ़ाकर छः हजार सैनिकों को लेकर बदनोरा राज्य पर चढ़ाई की, पर उस अभियान को भी मगरे के योद्धाओं ने विफल कर दिया।
(११). सन् १८१० ई. में टोंक के राजा बहादुर, दीवान अमीर मोहम्मद और सेनापति शाहखान ने बदनोरा राज्य पर अधिकार करने के उद्देश्य से आक्रमण किया, पर उन्हें उनकी सेना सहित मगरे से भगा दिया गया।
(१२). सन् १८१६ ई. में #_उदयपुर_महाराणा #_भीमसिंह ने फिर एक बड़ी सेना भेजकर बदनोरा राज्य पर हमला किया, परन्तु उन्हें भी मगरे के वीर योद्धाओं ने परास्त कर भगा दिया तथा उनका सैन्य साजो-सामान जब्त कर लिया।
(१३). जून १८१८ ई. में अंग्रेजो ने अजमेर पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया, फिर भी बदनोरा राज्य (मगरांचल) के योद्धाओं का भय सदैव बना रहता था और छापामार युद्ध में प्रतिदिन कोई न कोई अंग्रेज अधिकारी अथवा उनका प्रतिनिधि मारा जाता था, इसलिए अंग्रेज अधिकारी बैचेन रहते थे।
(१४). मार्च १८१९ ई. में नसीराबाद की सैनिक छावनी से तीन इन्फेन्ट्री रेजिमेंट, एक घुड़सवार दस्ता और हाथियों पर तोपों के साथ मेजर लेवरी के नेतृत्व में बदनोरा राज्य पर अधिकार करने हेतु सैन्य अभियान प्रारम्भ किया। इस सैन्य अभियान को विफल करने हेतु मगरे के वीरों ने बुद्धिमानी से काम लेते हुए अपने ठिकाने छोड़कर पीछे हट गए, जिसके फलस्वरूप अंग्रेजो ने #_झाक_का_गढ़, #_लुलवागढ़, #_अथूणगढ़, #_श्यामगढ़ आदि ठिकानों पर अधिकार कर लिया। अंग्रेज सैनिकों का जब कहीं भी प्रतिरोध नहीं हुआ तो वे आगे बढ़ते हुए अन्य ठिकानों पर भी अधिकार करते गए, लेकिन ज्यों ही वे पहाड़ी इलाके में आगे आये, वहां उपस्थित मगरे के वीर उन पर टूट पड़े और उन्हीं के हथियार एवं साजो-सामान लेकर उन्हीं हथियारों से उन्हें मारकर भगाते हुए पुनः अपने ठिकानों पर अधिकार कर लिया। इस अभियान में अंग्रेजो द्वारा इस क्षेत्र में भेजी गई सभी अन्य टुकड़ियों और साजो-सामान से हाथ धोना पड़ा। अंग्रेजों ने बाद में #_ब्यावर (नया शहर) में अपनी सैनिक छावनी स्थापित की और आस-पास के क्षेत्रों को अपने अधिकार में कर लिया। अंग्रेज इस नये शहर की सीमा से आगे नहीं जाते थे और भयभीत रहते थे। अंग्रेजो द्वारा इस नये शहर को बि अवेअर पुकारे जाने के कारण उनका यही नाम बाद में अपभ्रंश होते हुए ब्यावर हो गया।
(१४). सन् १८५७ ई. में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भी आउवा के साहसी जागीरदार #_ठाकुर_कुशालसिंह चांपावत के नेतृत्व में गूलर, आलनियावास, रडावास, वाजावास, आसोप, आंसीद, लस्सानी आदि के जागीरदारों के साथ बदनोरा के राजपूतों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। २८ मई, १८५७ को #_नसीराबाद_छावनी में विद्रोह के समय अजमेर में शास्त्रगार और गोला-बारूद की मेगजीन पर अधिकार कर लिया था, जिसमें कई सैनिक बदनोरा राज्य (मगरांचल) के राजपूत थे। २१ अगस्त, १८५७ को ऐरिनपुरा छावनी के कुछ बागी सिपाहियों ने कई अंग्रेज अधिकारियों को मारकर डीसा, फतहपुर तथा ऐरिनपुरा छावनियों के आस-पास "फिरंगी मारो, दिल्ली चलो" का नारा गुंजायमान कर दिया। इस अभियान में भी मगरे के कई वीर शामिल थे, जिनकी गाथाऐं आज भी फाल्गुन महीनें में लोग चंग पर बड़े जोश और उत्साह में गाते है। २५ अगस्त, १८५७ को समस्त क्रांतिकारी आउवा के ठाकुर श्री कुशालसिंह के ठिकाने पर एकत्रित हुए, जिसमें आसोप के #_ठाकुर_शिवनाथसिंह कूंपावत, गूलर ठाकुर श्री #_विशनसिंह मेड़तिया, #_आलनियावास ठाकुर श्री अजीतसिंह अपने सैनिकों के साथ उपस्थित हुए थे। अंग्रेजों को सूचना मिली तो उन्होंने तत्काल आउवा पर हमला कर दिया और छः दिन तक युद्ध चलता रहा, बाद में किलेदार एवं मुख्य प्रहरी द्वारा अंग्रेजो से मिलकर किले का द्वार खोलने से अंग्रेजी सेना अन्दर प्रवेश कर गई, जिसके परिणामस्वरूप अंग्रेजो ने किले पर अपना अधिकार जमा लिया और कई देशभक्त वीरगति को प्राप्त हुए।
(१६). सन् १८५७ ई. के गदर में जब नसीराबाद सैनिक छावनी के सैनिकों ने विद्रोह करके अजमेर के अकबर दुर्ग पर अधिकार कर लिया तो ब्यावर मुख्यालय से मगरांचल बटालियन के वीर सैनिकों ने ३३ मील की दूरी ६ घण्टे में पैदल पूरी कर दुर्ग को विद्रोहियों के कब्जे से मुक्त करवा लिया, जिसमें सुबेदार अमरा, फत्ता, मेदा और जमादार गैना व वन्ना का नाम उल्लेखनीय है। सन् १८७८-७९ के अफगान युद्ध में भी इस बटालियन के जवान बहादुरी के साथ लड़े और विजय प्राप्त की, जिसमें सूबेदार गोपा आसन ठीकरवास को वीरता के लिए "इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट" के पदक से सम्मानित किया गया।
(१७). उक्त मगरांचल बटालियन के प्रथम विश्व युद्ध (१९१४-१९१९ ई.) में बदनोरा राज्य (मगरांचल) के राजपूत जाति के लगभग १४ हजार जवान सेना में भर्ती हुए, जिन्हें विभिन्न रेजीमेन्टस में जाकर अन्य जातियों (राजपूत, जाट, अहीर, गढ़वाली आदि) के साथ देश से बाहर अफ्रीका, टर्की, सिंगापुर, ब्रह्मा, मलेशिया, इराक, यूरोपीय देशों के विभिन्न युद्ध क्षेत्रों में जाकर अपने अदम्य साहस, पराक्रम, वीरता और शौर्य का परिचय दिया है। इस युद्ध में अनेक वीर जवानों एवं अधिकारियों को वीरता के "इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट", "डिस्टींगविश सर्विसेज मेडल", ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश एम्पाय" आदि पदकों से सम्मानित किया गया है, जिनमें – लेफ्टिनेट उमरावसिंह किराणा, सुबेदार मोतीसिंह कूकड़ा, सुबेदार डूंगरसिंह धोटी भीम, सुबेदार खुमानसिंह खोडमाल, सुबेदार दल्लासिंह टॉडगढ़, सुबेदार हीरासिंह कूकड़ा, सुबेदार डाऊसिंह थानेटा, सुबेदार विजयसिंह काबरा, सुबेदार भगवानसिंह नन्दावत, जमादार इन्द्रसिंह लोटियाना, जमादार हेमसिंह कूकड़ा, सूबेदार भीमसिंह व जमादार तेजसिंह छापली, सुबेदार नरसिंह डांसरिया आदि के नाम उल्लेखनीय है। प्रथम विश्व युद्ध में केवल टॉडगढ़ तहसील के ही १२४ रावत-राजपूत वीर सैनिक एवं अधिकारी शहीद हुए थे।
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स्त्रोत- (१). वर्धनोरा राज्य के राजपूतों का इतिहास"
(२). रावत-राजपूतों का इतिहास, लेखक- श्री प्रेमसिंह चौहान काछबली।
(३). मगरांचल का इतिहास, लेखक- इतिहासकार श्री मगनसिंह चौहान ठि.- कूकड़ा।
(४). चौहान राजपूतों का गौरवशाली इतिहास।
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर____
विडीयो-बैराठगढ़ के शासक सेला राणा
| चीतावंशीय चौहानों का इतिहास |
बैराठ माता मंदिर बदनौर
| कुशला माता मंदिर
"गोकुलगढ़़ छापली, जिला - राजसमन्द" ―
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©इतिहासकार श्री चंदनसिंह खांखावत…
#_गोकुलगढ़ वन दुर्ग की श्रेणी में आता है। यह दुर्ग राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-८ से पश्चिम दिशा में ३ कि.मी. पक्की सड़क तथा ३ कि.मी. पगंडडी से चलने पर अरावली हिल्स नामक वन क्षेत्र में स्थित है। यह दुर्ग अति प्राचीन है। इस दुर्ग का कुछ भाग क्षतिग्रस्त होने के बाद भी वर्तमान में २५ फीट ऊंची प्राचीरों के साथ यह अपने गौरवशाली अतीत को लिये खड़ा है।
दुर्ग की बनावट आयताकार है। दुर्ग में चार बुर्ज है तथा अन्दर स्थित चारों कोणों में सिढ़ीयां बनी हुई है। दुर्ग के बीचों-बीच जीर्ण-शीर्ण अवस्था में आवास स्थल विद्यमान है। दुर्ग की पश्चिमी दीवार के पास घोड़ो की पायगे है। एक बुर्ज के कोने में नीचे गुप्त स्थान के लिए सुरंग विद्यमान है जो संकटकाल में दुर्ग से अकास्मिक व सुरक्षित निकास का मार्ग है। पेयजल के स्त्रोत के रूप में दुर्ग के एक कोने में बावड़ी बनी हुई है। इसकी प्राचीरें ऊपर की तरफ से भी पर्याप्त चौड़ाई में है, जिन पर आसानी से घुमा-फिरा जा सकता है।
इसकी प्राचीरों पर चढ़कर शैलमाता और सस्यश्यामला वसुन्धरा का जो अनुपम प्राकृतिक दृश्य देखने को मिलता है जो अकल्पनीय है। साथ ही सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय का नजारा तो द्विगुणित हो जाता है। इसकी प्राचीरों से कुम्भलगढ़, खापरिया, पुनागर (पाली), गोरमनाथ, सांडमाता, मोडीयावडा, जाखण माता आदि स्थानों का मनोरम दृश्य दिखाई देता है। इसकी प्रमुख विशेषता यह है कि यह दुर्ग अन्य स्थानों से आसानी से दिखाई नहीं देता, परन्तु दुर्ग से सभी स्थानों को देखा जा सकता है। इसकी आस-पास की पहाड़ियां भूल-भूलैया में डाल देती है।
यह वही स्थान है जहां #_महाराणा_प्रताप ने १५७६ ई. में हल्दी घाटी युद्ध के बाद अरावली की कन्दराओं में घुमते हुये अपना अज्ञातवास बिताया था। महाराणा प्रताप ने #_सिद्ध #_योगी_रूपनाथ का आशीर्वाद प्राप्त कर इसे अपनी गुप्त राजधानी (सेफ हाऊस) एवं युद्ध की तैयारियों का केन्द्र बनाया। उन्होंने मातृभूमि को मुगलों से मुक्त कराने के लिये रावत-राजपूतों के सहयोग से नई रणनीति बनाकर अकबर द्वारा स्थापित सशक्त मुगल छावनी दिवेर पर छापामार युद्ध पद्धति से आक्रमण कर सन् १५८२ ई. में ऐतिहासिक विजय प्राप्त की और #_मेवाड़ को पुनः स्थापित करने में सफल हुए। ऐसे स्थान पर पहुंचने के बाद मन स्वतः गौरवान्वित हो उठता है।
इस गढ़ से करीब १ कि.मी. दक्षिणी पूर्वी कोण में काफी खण्डहर विद्यमान है जो सेनापतियों के आवास रहे। दुर्ग के पूर्वी दिशा की तरफ स्थित नाल को भूण की नाल कहते हैं। यहां वर्षभर प्राकृतिक जल बहता है और इसी तरफ से दुर्ग में जाने के लिए सुगम मार्ग है। उत्तर दिशा की तरफ नाल में #_सूरजकुण्ड स्थित है जहां बारह मास प्रवाहित होने वाले झरनों का आनन्द लिया जा सकता है। रावली-टाड़गढ़ अभ्यारण्य व कुम्भलगढ़ अभ्यारण्य का संगम स्थान होने से विविध प्रकार के वन्य जीव विचरण करते दिखाई देते है।
इस दुर्ग को स्थानीय लोग भी #_गोकुलगढ़ ही कहते हैं। इसके पूर्व व पश्चिम दिशा में अरावली की पहाड़ियों पर सहायक गढ़ भी बने हुए हैं। दक्षिण दिशा में #_सातपालिया, उत्तर दिशा में #_ऊंडाबारी नामक नाले (दर्रे) हैं जो #_मारवाड़ से #_मेवाड़ को जोड़ने के पारम्परिक रास्ते हैं। यह दोनो दर्रो की निगरानी हेतु उपयुक्त स्थान है।
२६ अक्टूबर, १८१९ को #_उदयपुर से #_मारवाड़ की यात्रा करते समय कर्नल जेम्स टॉड़ ने राजस्थान का इतिहास पृष्ठ सं. ७३८ में इस दुर्ग की उपयोगिता का वर्णन किया है। उन्होंने इसे अतिप्राचीन दुर्ग बताते हुए इसमें उस समय मारवाड़ प्रान्त के बागी लोगों का आश्रय स्थल होना तथा #_देवगढ़ ठिकाणेदार का इन बागीयों को संरक्षण होना लिखा है।
#_सूरज_कुण्ड –
सूरज कुण्ड अरावली के मध्य में #_मेवाड़ से #_मारवाड़ जाने वाले सुगम, छोटे व पारम्परिक रास्ते पर छापली व जोजावर के मध्य ऊंडाबारी की नाल नामक दर्रे में स्थित है। वर्तमान में इस रास्ते का महत्व कालीघाटी व सातपालीयां की नाल में पक्की सड़क बनने से कम हो गया। इस रास्ते से पहले ऊंट, भेड़, बकरीयों के झुण्ड व बालद आती-जाती थी। इसी रास्ते पर बारह मास बहने वाले जल स्त्रोत को #_सूरजकुण्ड कहा जाता है।
यहां पर मुख्य रूप से सात कुण्ड स्थित है जिनमें निर्मल जल एक के बाद एक-दुसरे कुण्ड में निरन्तर बहता रहता है। पांचो कुण्ड में पानी झरने के रूप में गिरता है। निरन्तर पानी बहने से दो कुण्डों के बीच क्रिस्टल के जमने से गुफा बनी हुई है जिसके अन्दर बूंद-बूंद पानी टपकता रहता है, जिससे प्राकृतिक एयरकडिशनर जैसा महसूस होता है। पास ही एक चट्टान से चैत्र-वैशाख माह में बूंद-बूंद पानी बहना शुरू होता है जो बारिश के बाद बंद हो जाता है। इसके सम्बन्ध में मान्यता है कि अगर इस पानी का रेला कुण्ड के पानी में मिल जाये तो उस साल अच्छी वर्षा होती है।
पानी व हरियाली के कारण वन्य जीव-जन्तु कुण्ड के आस-पास विचरण करते दिखाई देते हैं। यह एक प्राकृतिक पर्यटन स्थल भी है जो #_गोकुलगढ़ से १ कि.मी. उत्तर दिशा में स्थित है तथा यहां पर पगडण्डी मार्ग से पहुंचा जा सकता है।
स्त्रोत– (१). मेवाड़ का मैराथन महाराणा प्रताप…
लेखक- इतिहासकार श्री चंदनसिंह जी खाँखावत, ठि.- छापली।
(२). छापली और महाराणा प्रताप…
लेखक- इतिहासकार श्री चंदनसिंह जी खांखावत, ठि.- छापली।
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#___जय_मां_भवानी____
#___जय_राजपूताना____
स्वाभिमानी रावत राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर
"चुंगी-नाका छापली, जिला-राजसंमद" —
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लेखक– इतिहासकार श्री चंदनसिंह खोखावत...
पेज एडमिन– सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर... "
वर्तमान में #छापली_गांव #_राजसमन्द_जिले के भीम उपखण्ड में स्थित है। इस गांव को राष्ट्रीय राजमार्ग सं.-८ (वर्तमान में ५८) उत्तर से दक्षिण दिशा में ६ कि.मी. गुजरते हुये दो भागों में विभक्त करता है जो देश की राजधानी #_दिल्ली को आर्थिक राजधानी #मुंबई से जोड़ता है। यह गांव प्राकृतिक, ऐतिहासिक, धार्मिक महत्व के साथ ही यह व्यापारिक महत्व भी रखता है। मेवाड़-मारवाड़ को पारम्परिक मार्ग से जोडने के लिये यहां एक नाल (दर्रा) है जिसे #_उण्डाबारी/#_सूरजकुण्ड की नाल कहते है जिसमें बारह मासी जल स्त्रोत है। #मेवाड़ की सीमा के मुहाने पर छापली गांव तो #_मारवाड़ की सीमा के मुहाने पर जोजावर गांव है। इन दोनों गांवों की बीच की दूरी करीब १५ कि.मी. है। इस नाल मे व पहाड़ियों के ढलान पर पत्थरों की चुनाई कर खरूजा मार्ग बनाया हुआ है। इस मार्ग से पुराने समय में बालद, ऊटों, खच्चरों पर लादकर सामान को लाया ले जाया जाता था।
सन् १८१८ ई. मे #_मेवाड़_महाराणा_भीमसिंह ने अंग्रेजों से संधि कर छापली गांव को अंग्रेजों को सौंप दिया। अंग्रेजों ने मेरवाड़़ाचंल को अपने अधीन लेकर अंग्रेजी टेरीटरी का प्रशासनिक मुख्यालय #_ब्यावर मे बनाकर #ब्यावर व #उदयपुर के बीच सडक मार्ग बनाया जो छापली गांव में से होकर आगे मेवाड़ राज्य की सीमा में मिलता था। इस प्रकार पहले नाल का मार्ग फिर सडक मार्ग के नुकड पर छापली गांव आ जाने से अंग्रेजी शासनकाल में दो स्थाई चुंगी नाके यहाँ बनाए गए। एक सडक मार्ग पर #_राणा_कडा घाटे मे दूसरा #_सूरजकुंड की नाल के घाटे पर जहाँ पर अंग्रेजी कर्मचारी रहते थे और सहयोग के लिए गांव की सरहद के लोग ओसरा (बारी-बारी) के अनुसार रहते थे। कर्मचारी चुंगी वसुलते थे और गांव के लोग राहगीरों को सुरक्षा सेवा कर्मचारियों के निर्देश मे उपलब्ध कराते थे। नाल के घाटे पर स्थित चुंगी नाका अब ध्वस्त हो चुका है लेकिन #_राणा_कड़ा घाटे के चुंगी नाके के अवशेष वर्तमान में मौजूद है यह भी राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे है जो फोरलेन होने पर इसके ध्वस्त होने की सम्भावना है। इस नाके का भवन पक्का बना हुआ है पर अब छत नहीं है। यहां पास ही नाके के लोगों व राहगीरों के पानी की उपलब्धता के लिए एक बावडी है जिसकी सीढियों (नाल) से उतर कर भी पानी प्राप्त किया जा सकता है। इसकी मुडेर से मई-जून माह में भी अधिकतम दस फीट की गहराई पर जल स्तर मौजूद रहता है।
ब्रिटिश काल में चुंगी नाके चौबीस घंटे आबाद रहते थे नावक्त होने पर राहगीर इनके पास ही पड़ाव डालते थे जिनको सुरक्षा मिलती थी।
स्त्रोत– छापली और महाराणा प्रताप (पृ.सं. २०-२१)
लेखक– श्री चन्दनसिंह खोखावत (पुलिस उप निरीक्षक)
गांव-छापली, जिला– राजसमंद....
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#_जय_राजपूताना_____
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजस्थान….
पेज एडमिन– सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर.
चीतावंशीय चौहान राजपूतों का ऐतिहासिक ठिकाना #_झाक —
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नाडोल राज्य के शासक राव लक्ष्मण के ज्येष्ठ पुत्र राव अनहल का वंश चीतावंशीय रावत-राजपूत नाम से जाना जाता है। राव अनहल की १८वीं पीढ़ी में #_वैराटगढ़ (वर्धनपुर) के शासक राव रतनसी चौहान हुए। राव रतनसी के राजत्वकाल में राणा लाखा ने सन् १३८३ ई. में #_वर्धनपुर के किले पर हमला किया। तब राव रतनसी और सूमसी (रतनसी का पुत्र) ने यह किला खाली कर दिया था। फिर दो वर्ष के भीतर ही इस पर पुनः अधिकार कर लिया गया था।
राव रतनसी के पुत्र सूमसी ने #_झाक का गढ़ बनवाया। इस संबंध में एक उक्ति इस प्रकार प्रसिद्ध है –
झाक सूमसी को बैठणो, प्रथम चीतो चव्हान को पाट।
पीपली को हथान बन्धायो, जंगी बसायी झाक।।
चीतावंशीय चौहान राजपूतों का यह ठिकाना वर्धनोरा रियासत के युद्धों में अपना वर्चस्व दिखाने वाले शूरवीरों के लिए प्रसिद्ध है। यह ठिकाना नयानगर की पहाड़ियों के बीच में ६ मील की दूरी पर पूर्व की ओर स्थित था। यहां ब्रिटिश राज्य की स्थापना के समय २५०० सवार और ४००० हथियारबन्द पैदल सैनिक रहते थे। इस ठिकाने पर राजपूत काल से लेकर ब्रिटिश काल तक अनेक आक्रमण हुए, जिनका विवरण इस प्रकार है —
सन् १७२५ ई. में पारसोली के ठाकुर देवीसिंह, जयपुर महाराजा सवाई जयसिंह के प्रति विद्रोही (बागी) हो गये। उन्हें कहीं सुरक्षित शरण नहीं मिली तो #_झाक के राजपूतों से शरण ली जिसे पकड़ने के लिए जयसिंह ने सैनिक अभियान में एक करोड़ रूपये खर्च कर लिये परन्तु वर्धनोरा राज्य के राजपूतों ने शरणागत को नहीं लौटाया, जयपुर की सेना को हार कर भागना पड़ा।
सन् १७५४ ई. में महाराणा उदयपुर ने ठिकाना बदनोर व मसूदा राव सुल्तानसिंह की आधीनता में गांव #_झाक व अथूणगढ़ को अपने कब्जे में रखने के लिए विशाल सेना के साथ इन गांवो पर हमला कर दिया। इस युद्ध में मसूदा राव सुल्तानसिंह मारे गये और बदनोर ठाकुर सेना सहित मैदान छोड़ भाग गये।
सन् १८०० ई. में शिवाजी नाना मराठा सूबेदार अजमेर ने सिंधिया की ओर से #_झाक व श्यामगढ़ पर आक्रमण किया परन्तु उसे सफलता हाथ नहीं लगी।
सन् १८०७ ई. में अजमेर के सूबेदार शिवाजी नाना ने मराठा शासक बालाजी राव के साथ ६० हजार सैनिकों के साथ #_झाक व श्यामगढ़ पर आक्रमण किया, जिससे यहां के ठाकुरों ने संगठित होकर युद्ध किया। मराठों की सेना के हजारों सैनिक इस युद्ध में मारे गये, अन्त में बालाजी राव युद्ध के मैदान से भाग निकले। इस युद्ध में विजय रावत-राजपूतों की हुई।
सन् १८१० ई. में मारवाड़ के महाराजा मानसिंह ने पिंडारी सेना की सहायता से #_झाक पर चढ़ाई की, घमासान लड़ाई में मानसिंह युद्ध छोड़ कर भाग गया। टोंक के राजा बहादुर और अमीर मोहम्मद शाह भी युद्ध क्षेत्र से भाग गये।
सन् १८१७ ई. तक ईस्ट इंडिया कंपनी अजमेर में अपनी शासन व्यवस्था स्थापित कर चुकी थी। कर्नल ऑक्सन १९ जून १८१८ ई. में प्रथम सुपरिन्टेन्डेन्ट बनाया गया तथा १८ जुलाई १८१८ ई. में मिस्टर वाईल्डर उनके स्थान पर आये, उक्त दोनों अधिकारियों ने वर्धनोरा राज्य से समझौतें कर शासकीय अधिकार स्थापित करना चाहा लेकिन इस राज्य के शासकों ने कोई ध्यान नहीं दिया। ऐसी स्थिति के बाद अंगेज अधिकारियों ने अपनी बात उस समय के गवर्नर जनरल हैस्टिगंज के सामने रखी और बताया कि बिना दमन व शक्ति के इस राज्य पर आधिपत्य करना कठिन है। गवर्नर जनरल ने कर्नल मास्टर जनरल नसीराबाद को वर्धनोरा क्षेत्र को अपने अधिकार में लेने हेतु निर्देश दिये। कर्नल हेनरी हॉल ने तीन अंगेजी इन्जिनियर अधिकारियों व रजवाड़ों की संयुक्त सेना के नेतृत्व में वर्धनोरा राज्य के ठिकानों #_झाक, लुलवागढ़, श्यामगढ़ पर चढ़ाई की तो यहां के ठाकुरों ने संगठित होकर #_झाक के घाटे में नाका बंदी कर ली जिससे उक्त सेना को अन्य मार्ग बदल कर खरवा पहुंचने के लिए बाध्य होना पड़ा। खरवा पहुंचने पर रात्रि के समय उक्त सेना पर धावा बोला गया जिससे मजबूर होकर उन्हें पुनः नसीराबाद लौटना पड़ा। इस क्षेत्र के बहादुर वीरों ने छापामार प्रणाली से अंग्रेजी सेना के अरमानों पर पूरी तरह पानी फेर दिया।
सन् १८१९ ई. के मार्च माह में नसीराबाद की सैनिक छावनी से तीन इन्फेन्ट्री रेजिमेंट, एक घुड़सवार दस्ता और हाथियों पर तोपों के साथ मेजर लेवरी के नेतृत्व में वर्धनोरा राज्य पर अधिकार करने हेतु सैन्य अभियान प्रारंभ किया। इस सैन्य अभियान को विफल करने हेतु वर्धनोरा क्षेत्र के वीरों ने बुद्धिमानी से काम लेते हुए अपने ठिकाने छोड़कर पीछे हट गये, जिसके फलस्वरूप अंग्रेजों ने #_झाक का गढ़, अथूणगढ़, श्यामगढ़ आदि ठिकानों पर अधिकार कर लिया। अंगेज सैनिकों का जब कहीं पर भी प्रतिरोध नहीं हुआ तो वे आगे बढ़ते हुए अन्य ठिकाने पर अधिकार करते गए लेकिन ज्योंही वे पहाड़ी इलाके में आगे आये, वहां उपस्थित वर्धनोरा क्षेत्र के वीर उन पर टूट पड़े और उन्हीं के हथियार एवं साजो सामान लेकर उन्ही हथियारों से उन्हें मारकर भगाते हुए पुनः अपने ठिकानों पर अधिकार कर लिया। इस अभियान में अंग्रेजों को इस क्षेत्र में भेजी गई अन्य टुकड़ियों और साजो सामान से हाथ धोना पड़ा।
अन्त में सन् १८२१ ई. में वाईल्डर, सर डेविड ऑक्टर लोनी, कर्नल टॉड, डब्ल्यू जी मैक्सवेल के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना की तीन बटालियनों और मेवाड़ एवं मारवाड़ की संयुक्त सेनाओं ने मिलकर वर्धनोरा राज्य पर पुनः आक्रमण किया। संयुक्त सेना ने #_झाक, लुलवागढ़, श्यामगढ़ पर तोपों से हमला करके तीनों ठिकाणों को खण्डहरों में तब्दील कर दिये। इसके पश्चात् इन पर अधिकार करके अथूणगढ़ व बोरवागढ़ पर हमला करने के लिए कूच किया। ठाकुर भोपतसिंह ने अथूणगढ़ के किले पर कब्जा करने पर बराबर मुकाबला किया, अन्त में रामगढ़ के किले पर युद्ध करते हुए भोपतसिंह अपने वीरों सहित वीरगति को प्राप्त हुए लेकिन इस युद्ध में कई अंग्रेज सैनिक भी मारे गये और गम्भीर रूप से हताहत हुए।
इस प्रकार #_झाक को भी अन्य ठिकाणों के साथ रजवाड़ी सेना व अंग्रेजी सेना के संयुक्त आक्रमण से जमींदोज कर दिया गया।
यह क्षेत्र लम्बे समय तक अंग्रेजों से संघर्ष करता रहा लेकिन चतुर अंग्रेज प्रशासकों ने उदयपुर के महाराणा और जोधपुर के महाराज से इस समस्या का समाधान निकाल कर वर्धनोरा राज्य का सन १९३८ में अंग-भंग किया, जिससे १२२ गांव महाराणा उदयपुर को दिये गये तथा मारवाड़ क्षेत्र से मिलने वाले सीमावर्ती गांव कोट किराना से लेकर चांग तक २४ गांव जोधपुर महाराजा के राज्य में विलीन किये गये। इस प्रकार इस वर्धनोरा राज्य का सन १९३८ ई. में अंग्रेजों की चाणक्य नीति से विभाजन हुआ जो आज दिन तक विभाजित है।
स्त्रोत-
(१). वर्धनोरा राज्य का इतिहास, स्व. इतिहासकार डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकड़ा।
(२). रावत-राजपूतों का इतिहास, लेखक - ठाकुर प्रेमसिंह चौहान, काछबली।
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर
चीतावंशीय मोरेचा चौहान राजपूतों का ठि.–कूकड़ा —
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प्राचीन समय में कूकड़ा वर्धनोरा राज्य के चीतावंशीय चौहान राजपूतों का प्रमुख ठिकाना था। इसे कूकड़ गुर्जर ने बसाया था, बाद में चीतावंशीय वैराट के शासक बरगा जी चौहान व खेता जी चौहान ने कूकड़ पर आक्रमण कर कूकड़ा पर अधिकार कर लिया।
प्राचीन कूकड़ा गांव वर्तमान में रामदेव मंदिर की पहाड़ी पर पश्चिम में था जो आज खंडहर स्वरूप है तथा वर्तमान कूकड़ा गांव की स्कूल के पीछे पहाड़ी पर उस समय मांकड गांव था। यह भी आक्रमणकारियों के बार-बार आक्रमणों से नष्ट हो गया।
मांकड़ गांव वि.स. १३५६ में सौभनपुर अलवर के शासक मीर गाबरू महिमाशाह ने बसाया। यह अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति थे, जो बाद में किसी कारणवश बादशाही नाराजगी के फलस्वरूप भागकर चीतावंशीय चौहान राव करणसी की शरण में रोड़वा भादसी भूंभला में कुछ काल तक रहे थे इसी दौरान मांकड गांव बसाया था। बाद में मीर गाबरू रणथम्भोर के हम्मीर चौहान की शरण में चला गया था तथा हम्मीर चौहान के साथ ही वि.स. १३५९ में युद्ध के दौरान वीरगति पाई।
कूकड़ा गांव में सूरावत चौहान, उदावत चौहान, मामणियात राठौड़ आदि शाखाओं के राजपूत निवासरत है।
कूकड़ा गांव के दर्शनीय एवं ऐतिहासिक स्थल —
(१). यहां बरगा जी चौहान की तपस्या स्थली बरगाजी की बैठक कूकड़ा स्कूल के दक्षिण में एक किलोमीटर दूर एक विकट नाले में एक गुफा है। बरगाजी बाल ब्रह्मचारी थे। इसी स्थान पर वे तपस्या व साधना करते थे।
(२). कूकड़ा स्कूल के पिछे की ओर रावजी का तालाब गांव के मार्ग पर तलाई के किनारे सतीमाता का चबूतरा है। बरगाजी के वीरगति पाने पर इनके साथ सती हुई उनका यह ऐतिहासिक स्मारक है।
(३). कूकड़ा गांव के पश्चिम में ऊंची पहाड़ी पर एक विशालकाय चट्टान पर बाबा रामदेव का मंदिर बना हुआ है, जिसका पुजारी एक महाजन है। संभवतया बाबा रामदेव का इतनी ऊंचाई पर बना यह पहला मंदिर है जिस पर जाने के लिए सीढ़ियां बनी हुई है। मंदिर पर जाना बड़ा आकर्षक लगता है।
(४). कूकड़ा के उत्तर में एक किलोमीटर दूर ऊंची चट्टान पर कूकड़ी माता का भव्य मंदिर शोभायमान है। यहां भामाशाह फतेहसिंह शेरों का बाला, वीरमसिंह फूटी कूकड़ी व अन्य के सहयोग से मंदिर तक पक्की सीढ़ियां बनी हुई है।
(५). कूकड़ा गांव की हथाई पर बना आशापुरा माता का स्थान व समीप में चारभुजाजी का ऐतिहासिक मंदिर है।
स्त्रोत– वर्धनोरा राज्य का इतिहास।
लेखक– स्व. इतिहासकार डॉ. मगनसिंह चौहान।
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजस्थान....
लेखनकर्ता– सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर...
वर्धनोरा/बदनोरा (मगरांचल) राज्य का प्राचीन एवं ऐतिहासिक ठि.- चांग " ―
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प्रसिद्ध इतिहासकार हस्लक ने उचित ही लिखा है कि स्थानीय एवं प्रान्तीय इतिहास, राष्ट्रीय इतिहास लेखन में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। प्रत्येक गांव, नगर, कस्बे, जिले, प्रांत, राष्ट्र, जाति, वंश का अपना एक इतिहास होता है, जो इसके मूल स्वरूप, उद्भव व विकास की व्याख्या करता है।
ब्यावर के पश्चिम में लगभग १२ किलोमीटर की दूरी पर स्थित चांग गांव बड़े ऐतिहासिक महत्व का रहा है। चांग पर प्रारंभ में प्रतिहार क्षत्रिय राजपूतों का शासन था। पूर्व मध्यकालीन व प्रतिहार क्षत्रिय राजपूतों के पंजाब व राजपूताना में होने के पुरातात्विक व साहित्यिक दोनों प्रमाण मिलते हैं। सातवीं शताब्दी में भारत आए चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा विवरण में लिखा है कि गुर्जरात्रा की राजधानी भीनमाल है, जो राजस्थान का आधुनिक भीनमाल है जिसका प्राचीन नाम श्रीमल्ल या श्रीमाल था। ह्वेनसांग ने भीनमाल के लिए पोलोमोलो शब्द का प्रयोग किया है। ह्वेनसांग ने गुर्जरात्रा प्रदेश की परिधि ८३३ मील बताई हैं। इससे स्पष्ट होता है कि यह गुर्जरात्रा प्रदेश एक विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था, जिसमें तत्कालीन राजपूताना का काफी क्षेत्र भी सम्मिलित था। ह्वेनसांग ने गुर्जरात्रा प्रदेश की लम्बाई ३०० मील तक बताई हैं। यदि भीनमाल से ३०० मील तक की लम्बाई मापी जाए तो ब्यावर के पास स्थित यह ऐतिहासिक चांग गांव इस परिधि में निश्चित रूप से आ जाता है। ह्वेनसांग के इस वर्णन से चांग गांव पर प्रतिहार क्षत्रिय राजपूतों का अधिकार प्रामाणिक सिद्ध होता है। इसके अतिरिक्त एक अन्य पुरातात्विक साक्ष्य भी इसकी पुष्टि करता है। प्रतिहार शासक भोजदेव प्रथम के वि.स. ९०० के दानपत्र में उल्लेख मिलता है कि उसमें गुर्जरात्रा भूमि के डेंडवानक विषय (जिला) का सिवा गांव एक मन्दिर की सेवापूजा के लिए दान दिये जाने का उल्लेख किया गया है। यह दानपत्र डीडवाना जिले में स्थित सिवा नामक गांव के एक टूटे हुए प्राचीन मन्दिर से मिलता है। इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने उक्त ताम्र दानपात्र में उल्लेखित डेडवानक को आधुनिक डीडवाना तथा सिवा गांव को डीडवाना जिले में स्थित डीडवाना से ७ मील दूर स्थित सेवा गांव माना है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भीनमाल से लेकर डीडवाना तक का तत्कालीन जोधपुर राज्य के उत्तर से दक्षिण तक का सम्पूर्ण गुर्जरात्रा के अन्तर्गत आता था। इस परिधि में ब्यावर के पास स्थित चांग गांव निश्चित रूप से आता था। उपरोक्त ऐतिहासिक साक्ष्यों से यह सिद्ध होता है कि चांग गांव पर ८वीं-९वीं शताब्दी ई. में प्रतिहार राजपूतों की किसी एक शाखा का शासन अवश्य रहा होगा। यह भी संभव है कि इस क्षेत्र में विस्तृत प्रतिहार राजपूतों के राज्य के शासन का संचालन चांग से होता हो क्योंकि भीनमाल से काफी दूर स्थित होने के कारण इस क्षेत्र को सुरक्षित रखने के लिए इस गांव का उपयोग एक प्रशासनिक इकाई के रूप में किया जाता रहा होगा। बाद में इस क्षेत्र में मोरेचा शाखा के चौहान क्षत्रिय राजपूतों ने अधिकार जमा लिया व प्रतिहार शाखा के राजपूत यहां से अन्यत्र चले गए। उल्लेखनीय है कि नाडोल राज्य के संस्थापक राव लक्ष्मण की रानी सहदे पंवार के दो पुत्र राव अणहल व राव अनूप नाडोल से निकलकर चांग गांव में आये। कविराज श्यामदास ने वीर-विनोद में उल्लेख किया है कि अणहल ने बाद में समय पाकर चांग से प्रतिहार क्षत्रियों पर आक्रमण कर इस क्षेत्र को अपने अधीन कर लिया था। यहां अणहल व अनूप की पांच पीढ़ीयों के रहने की भी जानकारी मिलती है। बाद में इनकी वंश परम्परा में कान्हा व काला जिनसे चौहान वंश की चीता व बरड़ शाखा निकली मानी जाती है पर बाह्य आक्रमण हुआ। उन्हें चांग गांव छोड़ना पड़ा व यहां से टॉडगढ़ की तरफ चले गए व चेटण (चेता) गांव में आकर बस गए थे।
पूर्व मध्यकाल व मध्यकाल में चांग के ठाकुरों व जोधपुर शासकों के मध्य अनेक युद्धों के वृतांत मिलते हैं क्योंकि चांग की सीमा मारवाड़ रियासत से लगती थी। आज भी चांग में एक सैनिक चौकी के अवशेष जो मारवाड़ की ओर से होने वाले सैनिक गतिविधियों पर नजर रखती थी। सन् १२८५ से १२९० ई. के मध्य रणथम्भौर के शासक हम्मीद द्वारा चांग पर वर्द्धनपुरा पर आक्रमण किए जाने का उल्लेख मिलता है। बाद में मेवाड़ के महाराणा लाखा ने वर्द्धनपुरा के शासक राणा रतनसी के राजत्वकाल में सन् १३८३ ई. में आक्रमण किया तथा इसके स्थान पर बदनोर कस्बा बसाया था।
५ जनवरी १५४४ ई. को गिरी-सुमेल के विश्व प्रसिद्ध युद्ध जो कि जैता-कूंपा के नेतृत्व में मातृभूमि व स्वाभिमान रक्षा के खातिर दिल्ली के शासक शेरशाह सूरी के मध्य हुआ था, जिसमें तीन हजार रावत-राजपूतों के साथ बोरवाड़ के ठिकाणेदार नाहरसिंह चौहान, बाला चौहान, #_चांग के ठाकुर लखा चौहान व उनके दो पुत्र ने भी मातृभूमि के रक्षा में बलिदान दिया।
#_चांग के लखा चौहान की वीरता व पराक्रम के सम्बन्ध में उक्ति प्रसिद्ध है—
दिल्ली पड़ी दहन, सुणी आगरे बियाने।
अहमदगढ़ आसीन्द, कूकवो कालब खाने।।
बदनोरो लाहोर थट्टा मुल्तान थरके।
उदियापुर आमेर, जोधपुर पोल झड़क्के।।
वापटे देश देदाहरो अरू पढू खा मोटो पखो।
पकार पड़ी पत साहब ने मारकाट करे लखो।।
यह भी उल्लेख मिलता है कि सन् १७०५ ई. में अथूणगढ़ के ठाकुर हाजी ने जब हुरड़ा पर आक्रमण करके यहां से एक हाकिम को बंदी बनाकर ले आया था तो बदनोर के ठाकुर जसवन्तसिंह ने चांग पर आक्रमण करके उस हाकिम को छुड़वाया था। इस युद्ध में ठाकुर हाजी मारा गया था।
इसके साथ यह भी उल्लेख मिलता है कि सन् १७७८ ई. में जोधपुर नरेश विजयसिंह ने मंत्री भण्डारी के नेतृत्व में चांग पर आक्रमण करने एक सैनिक टुकड़ी भेजी थी। लेकिन जोधपुर नरेश इस अभियान में सफल नहीं हो सके थे।
चांग गांव में विद्यमान खण्डहर इसकी प्राचीनता व ऐतिहासिकता को बयां करते हैं। गांव की बसावट पूर्णतया सुरक्षात्मक थी। वर्तमान गांव के तीनों ओर पहाड़ियां है एवं वह घोड़े की नाल की आकृति से बसाया गया था। गांव के पूर्वी व पश्चिमी छोर तथा दक्षिणी व उत्तरी छोर पर चौकियां बनी हुई थी। ये सुरक्षा चौकियां पहाड़ियों पर बनी हुई थी, जहां से आक्रमणकर्ता को आसानी से देखा जा सकता था। आक्रमण की स्थिति में गांव के निवासियों को सतर्क करने के लिए संकेत घण्टे बांधे जाते थे, जिन्हें बजाकर संकट की सूचना दी जाती थी। ऐसा ही संकेत घण्टा यंत्र के पूर्वी छोर की पहाड़ी पर अवस्थित मोर आकृति की चट्टान का उपयोग संकट संकेत घण्टा लटकाने में किया जाता था। इस घण्टा ध्वनि सुनने के बाद बच्चों, स्त्रियों व मवेशियों को इस घण्टा ध्वनि को पहाड़ो की ओर भेज दिया जाता था व पुरुष पहाड़ियो पर चढ़कर मोर्चा ले लेते थे।
गांव में प्रवेश करने पर बाई ओर पुरातन महल के खण्डहर नजर आते हैं, जिसे आज भी स्थानीय लोग दरबार के नाम से पुकारते हैं। इन खण्डहरों को देखने से लगता है कि ये महल अपने मूल रूप में दो या तीन मंजिल के रहे थे। इन खण्डहरों में मंजिलों के अवशेष स्पष्ट दिखाई देते हैं। महलों में स्थानीय पत्थर व पट्टियों का प्रयोग किया गया है, जिसके भग्नावशेष आज भी विद्यमान है। महल में छोटे-छोटे कक्षों के खण्डहर आज भी देखे जा सकते हैं। यहां खाद्य सामग्री के भण्डारण की व्यवस्था के साथ-साथ अस्त्र शस्त्रों के रख-रखाव की भी समुचित व्यवस्था थी। महल में झरोखे भी बने हुए है।
महल तक पहुंचने के लिए दो चट्टानों के बीच एक तंग रास्ता बना हुआ था। यहां यह उल्लेखनीय है कि इस तंग रास्ते का उपयोग दुश्मन को महल तक पहुंचने से रोकने के लिए किया जाता था। ऐसी स्थिति में स्थानीय लोग छापामार पद्धति से इन पर एक साथ छापा बोलकर आक्रमण कर सकते थे। इसके अतिरिक्त गुप्त स्थान पर छापामार पद्धति द्वारा तलवार से एक एक वार करके दुश्मन को मौत के घाट उतार सकते थे। साथ ही आगे पीछे से दुश्मन को घेरकर एक साथ धावा बोलकर भी मार सकते थे या उन्हें एक-एक को बन्दूक का निशाना भी बनाया जा सकता था।
गांव की घोड़े की नाल आकृति की बसावट, महल तक पहुंचने का तंग रास्ता तथा सुरक्षा चौकियों पर संकट घण्टों का प्रयोग व आक्रमण या संकट के समय पहाड़ियों पर चढ़कर मोर्चा लेना ये सभी प्रमाण इस बात की पुष्टि करते हैं कि यहां के लोग आक्रमण के समय छापामार युद्ध प्रणाली का प्रयोग करते थे। इसी सैन्य प्रणाली का बाद में शिवाजी व मराठों ने भी मुगलों के विरुद्ध प्रयोग किया था। उनके भी कस्बे व सैन्य ठिकाने तथा दुर्ग पहाड़ियों पर होते थे, जहां तक पहुंचने के लिए तंग रास्ता होता था। यही कारण था कि दक्षिण के पूरे सूबे कभी भी एक साथ मुगलों के अधीन सुरक्षित नहीं रह सके थे। ध्वस्त महल के सामने पानी की बावड़ी बनी हुई थी, जिसका यहां के निवासियों के लिए पेयजल के रूप में उपयोग किया जाता था। यह बावड़ी आज भी विद्यमान है। इस बावड़ी का तीन बार जीर्णोद्धार किये जाने के स्पष्ट पुरातात्त्विक अवशेष मिलते हैं। इस बावड़ी का प्रथम जीर्णोद्धार इसके निर्माण के कुछ वर्षों के बाद किया गया था। द्वितीय जीर्णोद्धार के समय इसमें एक तरफ से नीचे उतरने के लिए बनी सीढ़ियों के ऊपरी छोर पर एक दरवाजा भी बनाया गया था। इसकी सूचना यहां पर लगे शिलालेख से होती है। बावड़ी के नीचे उत्तर की ओर बगीचा बनाया गया था जो कस्बे को सुरम्य बनाता था। इसके आगे खेती के लिए खेत बनाये गए थे। सिंचाई के लिए कुएं भी निर्मित किए गए थे।
स्त्रोत—
(१). द्रष्टव्य, हस्लक - द् टीचिंग ऑव हिस्ट्री
(२). डॉ. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, राजपूताने का प्राचीन इतिहास, २००९, पृ.सं.-१२९
(३). एपिग्राफिया इण्डिका, जिल्द ५,पृ.सं.-२११
(४). द्रष्टव्य, कविराज श्यामलदास, वीर विनोद, पृ.सं.-१९८
(५). द्रष्टव्य, हरबिलास शारदा, अजमेर हिस्टोरिकल एण्ड डेस्क्रिप्टिव, बुक्स टे्जर, जोधपुर, २००७,पृ.सं.-४००
(६). हरबिलास शारदा, वही, पृ.सं.-४०१-४०२
(७). वही, पृ.सं.-४०३
(८). वर्धनोरा राज्य का इतिहास। लेखक– स्व. इति. डॉ. मगनसिंह चौहान।
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वर्धनोरा/बदनोरा (मगरांचल) राज्य का प्राचीन एवं ऐतिहासिक ठि.- चांग " ―
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ब्यावर के पश्चिम में ६ किलोमीटर दूर स्थित ग्राम चांग ऐतिहासिक गांव रहा है। पूर्व मध्यकाल में इस क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहारों का शासन रहा। वर्तमान पश्चिमी राजस्थान एवं गुजरात के एक बड़े भाग पर गुर्जर प्रतिहार राज्य का अस्तित्व होने के साहित्यिक एवं पुरातात्विक प्रमाण पर्याप्त संख्या में उपलब्ध है।
७वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध (६२९-६४४ ई.) में भारत भ्रमण पर आए चीनी यात्री ह्रेनसांग ने भीनमाल की यात्रा की थी। उसने गुजरात की राजधानी के रूप में भीनमाल का उल्लेख किया है। भीनमाल के लिए 'पीलोमोलो' तथा गुर्जर प्रतिहारो के लिए कुचेलो शब्दों का प्रयोग करते हुए ह्रेनसांग ने गुर्जरात्रा को पश्चिमी भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य कहा है। उसने राजधानी पीलोमोली (भीनमाल) से लगभग ३०० मील तक उत्तर दिशा में कुबेलो राज्य के विस्तृत होने का उल्लेख भी किया है। भीनमाल से ३०० मील उत्तर दिशा में बढ़ा जाए तो यह दूरी चांग को पार कर जाती है। ह्रेनसांग के उपर्युक्त वर्णन से यह सिद्ध होता है कि चांग गांव भी निश्चित रूप से गुर्जरात्रा के अंतर्गत ही स्थित था।
गुर्जर प्रतिहार शासक मिहिरभोज प्रथम (८३६-८८५ ई.) के एक दानपत्र में उल्लेख मिलता है कि उसने गुर्जरात्रा भूमि के डेडवानक विषय का सिवा गांव के एक मंदिर में होने वाले खर्च के प्रयोजन हेतु दान किया था। उक्त दानपत्र नागौर जिले में डीडवाना कस्बे से ७ किलोमीटर दूर स्थित सेवा नामक गांव में एक भग्न मंदिर से प्राप्त हुआ है। इतिहासकार गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने दानपत्र में उल्लिखित 'डेडवानक' का समीकरण डीडवाना के साथ करते हुए उसके समीप स्थित वर्तमान सेवा गांव को ही दानपत्र का सिवा ग्राम बताया है।
दानपत्र के साक्ष्य से स्पष्ट होता है कि भीनमाल से लेकर वर्तमान डीडवाना तक का क्षेत्र गुर्जरात्रा का ही भाग था। इसी प्रकार नागौर जिले में जायल तहसील के गोठमांगलोद कस्बे में स्थित दधिमाता मंदिर शिलालेख में भी गुर्जर प्रतिहार राज्य का उल्लेख हुआ है। इससे यह सिद्ध होता है कि चांग एवं समीपवर्ती भूभाग भी इसी गुर्जरात्रा के अधीन रहे थे।
कालान्तर में गुर्जर प्रतिहारों की रूचि उत्तर भारत के कन्नोज में बढ़ गई और वे कन्नोज को प्राप्त करने हेतु पाल एवं राष्ट्रकूट वंशों के साथ त्रिपक्षीय संघर्ष में उलझ गए। इधर गुर्जरात्रा में उनकी शक्ति का पराभाव होने लगा। चौहानों की नाडोल शाखा के संस्थापक राव लाखनसी के दो पुत्र अनहलराव व अनूपराव ने ९९८ ई. में देवगढ़ के समीप चेता गांव में अपना ठिकाना स्थापित किया। बाद में इन दोनों भाईयों में बड़े भाई अनहलराव (चीता साख) ने चांग के समीपवर्ती क्षेत्रों पर अधिकार करके चांग से शासन का संचालन आरंभ किया। अनहलराव के अधीन किशनगढ़ के समीप नरवर से लेकर टोगी (भीम) तक का क्षेत्र था।
घोड़े के नाल की आकृति में बसे चांग गांव में स्थित खण्डहर इसकी ऐतिहासिकता के साक्षी है। तीन ओर पहाड़ियों से घिरे गांव के बाहर सुरक्षा चौकियां बनी हुई थी जहां से चौकस निगाहें आसानी से खतरे को भांप सकती थी। गांव के बीच पहाड़ी की तलहटी में पुरातन महल के खण्डहर आज भी विद्यमान है। इन खण्डहरों को आज भी गांव तथा समीपवर्ती क्षेत्र के लोग दरबार के नाम से पुकारते है। महल में बने कक्षों का आकार छोटा ही है परंतु फिर भी आकर्षक है। इनके निर्माण में स्थानीय पत्थरों का ही प्रयोग किया गया है परंतु दीवारों पर कुछ ऐसे पत्थर भी दिखाई देते है जो बारीकी से गढ़े हुए है तथा स्थानीय प्रतीत नहीं होते है। संभवतः राज्य के अन्य भागों से इन्हें मंगवाया गया हो। महल में प्रवेश हेतु एक तंग रास्ता बना हुआ था। रास्ता संकरा बनाने के पीछे संभवतः यह सोच थी कि आक्रमणकारी दुश्मन आसानी से महल के मुख्य भाग तक न पहुंच पाए। पहाड़ी की तलहटी में स्थित महल को नीचे से देखने पर ऐसा लगता है मानो वह एकाधिक मंजिलों से युक्त हो। कक्षों की छत में प्रयुक्त पत्थर की पट्टियां काफी चौड़ी एवं भारी है जो चूने से बना प्लास्टर उखड़ जाने के कारण वर्तमान में स्पष्ट दिखाई दे रही है। भग्नमहल में शयनकक्षों के अतिरिक्त खाद्य सामग्री भण्डारण एवं अन्य प्रयोजनों की व्यवस्था भी थी। महल के नीचे की तरफ एक बावड़ी के साक्ष्य भी विद्यमान है जिसका पेयजल हेतु उपयोग किया जाता था।
गांव के बाहर पूर्वी छोर पर पहाड़ी की चोटी पर स्थित एक मयूराकृति की चट्टान बहुत ही आकर्षक है जिसका तत्कालीन समय में बड़ा महत्व था। चट्टान के नुकीले अग्रभाग पर खतरे की सूचना देने हेतु एक बड़े घंटे को लटकाया जाता था। संकट संकेतक घण्टा लटकाने से बना निशान आज भी चट्टान के अग्रभाग पर स्पष्ट अंकित है। घण्टा बजाकर किसी भी अनहोनी अथवा आक्रमण की सूचना लोगों तक पहुंचाई जाती थी ताकि वे तुरंत अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित होकर मोर्चा संभाल सके।
१५६८ ई. में अकबर के मेवाड़ आक्रमण के समय जयमल राठौड़ उसके साथियों सहित जब मेवाड़ की सहायता हेतु जा रहे थे तो इसी चांग घाटे में 'अठै क उठै' वाली घटना घटित हुई थी। राठौड़ों की एक सैन्य टुकड़ी एवं उसके अगुवा पत्ता को चांग घाटे से गुजरते समय अनहलराव के वंशज शूरा चौहान की सैन्य टुकड़ी ने रोक लिया तो पत्ता ने टुकड़ी के पीछे चल रहे जयमल को पुकारते हुए कहा,
"अठै क उठै।" जब प्रत्युत्तर में जयमल ने 'उठै' कहकर मगरे के सैनिकों का कोई प्रतिरोध नहीं किया तो मगरे के सैनिक इसका रहस्य समझ नहीं पाए। जब उन्होंने जिज्ञासावश इसका रहस्य जानना चाहा तो जयमल ने अपना उद्देश्य प्रकट किया। इस पर मगरे के राजपूत सैनिक भी उनके साथ हो गए तथा जयमल और पत्ता के साथ मुगलों से वीरतापूर्वक लड़कर मगरे का गौरव बढा़या।
इस प्रकार सदियों से तमाम उतार-चढ़ावों एवं उत्थान-पतन का साक्षी रहा यह गांव आज भी इतिहास में रूचि रखने वाले लोगों का बरबस ही ध्यान आकृष्ट कर लेता है। सैंकड़ों वर्षों की घटनाओं के गवाह यहां के खंडहर वर्तमान में उपेक्षा का दंश झेल रहे है। जनसहयोग की दिशा में बढ़े कुछ कदम हमारे पूर्वजों के इन चिन्हों को नवजीवन प्रदान कर सकते है। यदि समय रहते इन पर ध्यान दिया जाए तो वे सदियों तक हमारी गौरवगाथाओं को अपने में समेटकर खड़े रहेंगे और पीढ़ियों को प्रेरित करते रहेंगे।
स्त्रोत– (१). रावत-राजपूत संदेश पत्रिका"
(२). वर्धनोरा राज्य का इतिहास लेखक- स्व. इतिहासकार डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकड़ा।
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर
धवलगढ़ (चीतावंशीय मोरेचा चौहान राजपूतों की ऐतिहासिक विरासत) —
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राजपूतों के ३६ राजवंश में चौहान क्षत्रिय राजवंश का भारतीय इतिहास में विशेष महत्व रहा है। नाडोल राज्य के शासक राव लक्ष्मण चौहान के पुत्र राव अनहल ने चांग के मिहिर वंश के प्रतिहार राजपूतों पर आक्रमण कर वर्धनोरा राज्य (मगरांचल) में अपना शासन स्थापित किया। वर्धनोरा राज्य के शासक राव अनहल के वंश में क्रमशः राव मनेल, राव देवायच,राव करूणायच ,राव पेडू, राव भीचण हुए।
राव पेडू जी चौहान के पुत्र राव भीचण जी वर्धनोरा राज्य के महान पराक्रमी शासक हुए। इन्होंने नाडोल राज्य पर आक्रमण कर इसके कुछ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इनके पराक्रम एवं वीरता के सम्बन्ध में एक प्रसिद्ध उक्ति इस प्रकार है–
पहले भीचण गाइये, धर चीतों को मूल।
काड कटारो वांकड़ो, उद्धरियो नाडोल।।
इनके पुत्रों में धरदवायच, अमराज, हरमर, बोगड़ी, खरमर थे।
राव भीचण चौहान के ज्येष्ठ पुत्र #_धरदवायच (धवजी) ने #_धवलगढ़ बनवाया जिसे आजकल धौलागढ़ या अथूणगढ़ के नाम से पुकारते है। #_धवलगढ़ की पूर्व दिशा में इन्होंने एक सरोवर का निर्माण भी करवाया। इस गढ़ में माताजी का प्राचीन मंदिर भी निर्मित है।
भाटी क्षत्रिय राजवंश में महारावल केहर के चौथे पुत्र कुलकरण भाटी जी के पुत्र जैसा भाटी जी की १५वीं पीढ़ी में चंवरसिंह जी भाटी हुए उनके पुत्र अटकरराय जी भाटी हुए ,इन्होंने #_चांग के ठाकुर वीरमजी की सहायता से #_धवलगढ़ पर अधिकार कर लिया, इनका इस किले पर दीर्घकाल तक अधिकार रहा। इन्होंने इस किले का जीर्णोद्धार करवाया। ठाकुर वीरमसिंह ने अटकरराय भाटी की सहायता से अंग्रेज अफसरों की सेना को परास्त किया। अटकररायजी भाटी की बहादुरी का परिचय इस दोहा में इस प्रकार दर्शाया गया है-
महल झरोंखा मालिया, अटकर धवलगढ़ का भूप।
मरूधर मेवाड़ में थे, भाटी रसिया भूप॥
भूप सौ मारिया, सौ भाटी भूप।
बाद आपणों राखियो, सजड़ भाटी भूप॥
सन् १८१७ ई. तक ईस्ट इंडिया कंपनी अजमेर में अपनी शासन व्यवस्था स्थापित कर चुकी थी। कर्नल आक्सन १९ जून १८१८ ई. में प्रथम सुपरिन्टेन्डेन्ट बनाया गया तथा १८ जुलाई १८१८ में मिस्टर वाईल्डर उनके स्थान पर आये, उक्त दोनों अधिकारियों (कमिश्नरों) ने वर्धनोरा राज्य पर शासकीय अधिकार स्थापित करना चाहा, लेकिन इस राज्य के ठिकानेदारों ने कोई ध्यान नहीं दिया। ऐसी स्थिति के बाद अंग्रेज अधिकारियों ने अपनी बात उस समय के गवर्नर जनरल हैस्टिगंज के सामने रखी और बताया कि बिना दमन व शक्ति के इस राज्य पर आधिपत्य करना कठिन है।
सन् १८२१ ई. में वाईलर, सरडेविड आक्टर लोनी रेजीडेन्ट मालवा, कर्नल टॉड, डव्लू. जी मैक्सवैल इत्यादि ने मिलकर १३वीं रेजीमेन्ट इनफेन्ट्री से वर्धनोरा राज्य के तीन तरफ से हमला बोला। फौज की एक टुकड़ी मसूदा की तरफ से, दूसरी टॉडगढ़ की तरफ से, और तीसरी बोरवागढ़ व #_धवलगढ़ की ओर से हमला किया। तीनों तरफ के हमलों से इस क्षेत्र के निशंस्त्र लोग उनका मुकाबला नहीं कर सके। लेकिन ठाकुर भोपतसिंह ने #_धवलगढ़ के किले पर कब्जा करने पर बराबर मुकाबला किया, अन्त में रामगढ़ सेडोतान के किले पर युद्ध करते हुये ठाकुर भोपतसिंह अपने वीरोंं सहित वीरगति को प्राप्त हुए लेकिन इस युद्ध में कई अंग्रेज सैनिक भी मारे गये और गम्भीर रूप से हताहत हुए।
लम्बे समय तक यह क्षेत्र अंग्रेजों से संघर्ष करता रहा लेकिन चतुर अंग्रेज प्रशासकों ने उदयपुर के महाराणा और जोधपुर के महाराज से इस समस्या का समाधान निकाल कर वर्धनोरा राज्य का सन् १९३८ में अंग-भंग किया, जिससे १२२ गांव महाराणा उदयपुर को दिये गये तथा मारवाड़ क्षेत्र से मिलने वाले सीमावर्ती गांव कोट किराना से लेकर चांग तक २४ गांव जोधपुर महाराजा के राज्य में विलीन किये गये। इस प्रकार इस वर्धनोरा राज्य का सन् १९३८ में अंग्रेजों की चाणक्य नीति से विभाजन हुआ जो आज दिन तक विभाजित है।
स्त्रोत– वर्धनोरा राज्य का इतिहास। लेखक– स्व. इतिहासकार डॉ. मगनसिंह चौहान।
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स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजस्थान....
लेखनकर्ता– सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर....
ठि.मंडला गढ "वीर पुरुष सूजाजी चौहान " ―
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नाडोल के चौहान राजवंश में राव लाखनसी के द्वितीय पुत्र 'राव अनूप चौहान' की १५वीं पीढ़ी में राव धोधाजी हुए जो कि चेता के ठिकाणेदार थे। राव धोधाजी चौहान के द्वितीय पुत्र कोठाजी की ८वीं पीढ़ी में देहलाजी चौहान हुए जो बरार के ठिकाणेदार थे।
देहलाजी चौहान के दो पुत्र सूजाजी व पदमाजी हुए, जिनके वंशज क्रमशः 'सूजावत चौहान' व 'पदमावत चौहान' कहलाये।
वीर सूजाजी एक वीर एवं पराक्रमी पुरुष थे। आपकी माता का नाम श्रीमती जस्सी कंवर था। आपका जन्म वि.स. १६३८ चैत्र सुदी तृतीया को बरार ठिकाणे में हुआ। आपने धर्म व क्षेत्र की रक्षा हेतु सिन्दलों से वर्षो तक संघर्ष किया। पहले ललाना व उसके पश्चात् सुजानगढ़ होते हुए बड़ा मण्डलागढ़ बनाया, जिसके अवशेष चिन्ह आज भी मौजूद है।
देहलाजी के दोनों पुत्र जंगल में आखेट हेतु एक दिन लसाणी कालागुमान तक चले गये। आगे सिन्दल राजपूतों की क्षेत्रीय सीमा थी, इसलिए सिन्दल राजपूत इनसे युद्ध करने लगे। इस युद्ध में कुछ सिन्दल मारे गये व कुछ भाग गये। इस प्रकार सूजाजी चौहान व सिन्दलों में वैर भाव बढ़़ गया। सिन्दलों ने वर्धनोरा (मगरांचल) राज्य के कुछ क्षेत्रों पर प्रतिहार वंश के राजपूतों को पराजित कर अपनी बस्तियां आबाद की थी। कुछ वर्षो बाद भीम, बरार, बरसावाड़ा व काछबली में इनकी सत्ता छिन जाने से इस क्षेत्र में यह छोटी-छोटी बस्तियों में रह गये। यहां पर ताल लसानी कभी सिन्दल राजपूतों का शक्तिशाली ठिकाणे रहे थे।
१५वीं शताब्दी में मारवाड़ व मेवाड़ के मध्य स्थित इस क्षेत्र में मोरेचा चौहान साख के राजपूतों ने सीमा विस्तार करते हुए ठिकाणे स्थापित किये, इसलिए सिन्दल राजपूतों से करीब सौ वर्षो तक सीमा विस्तार के विवाद होते रहे। एक दिन सीमा विवाद के चलते सूजाजी सिन्दलों के चबूतरे पर जा बैठे। इस पर क्रोधावेश में आकर सिन्धल राजपूतों ने उन पर हमला किया। सूजाजी ने तलवार का दमखम दिखाया और सिन्दलों को मार डाला।
कालान्तर में बड़ा मण्डला यहां के निवासियों की बस्ती बड़ी होती गई। दो बड़े समूह को आपस की टकराहट को रोकने के लिए वरावत रावजी तथा वीर सूजाजी के बीच सुलह हुई। रावजी ने भीम बड़ाखेड़ा रोड़ पर स्थित देवनारायण जी के मन्दिर तक आकर बड़ा पत्थर रोप दिया और निर्णय लिया कि इससे ऊपर तक सारी भूमि सूजाजी की और आगे की भूमि वरावत राजपूतों की होगी।
वीर सूजाजी सन् १६४४ ई. में धर्म व मातृभूमि की रक्षा के लिए क्षेत्रिय जागीरदारों से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुये।
वीरवर पुरुष सूजाजी की छतरी भीम कस्बे के बीच सूजावत चौक में स्थित है, बाद में अष्टधातु से निर्मित सूजाजी की प्रतिमा की स्थापना सूजावत चौक में एक स्तम्भ पर की गई है। यहां उनकी स्मृति में प्रतिवर्ष चैत्र सुदी तृतीया को जंयती मनाई जाती है।
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स्त्रोत -
(१). वर्धनोरा (मगरांचल) राज्य का इतिहास..लेखक- इतिहासकार डॉ. मगनसिंह जी चौहान, कूकड़ा।
(२). रावत-राजपूतों का इतिहास... लेखक- ठाकुर प्रेमसिंह चौहान।
(३). 'क्षत्रिय रावत-राजपूत दर्शन' (पृष्ठ सं.- ८४-८५)...लेखक- ठाकुर गोविन्दसिंह चौहान।
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजस्थान....
पेज एडमिन– सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.- बोराज काजिपुरा, अजमेर...
ठि. - बोराज-काजिपुरा, अजमेर —
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बोराज-काजिपुरा अजमेर जिले का एक गाँव है, जो अजमेर से पुष्कर को जाने वाली सड़क से फॉयसागर को जाने वाले मार्ग पर स्थित है।
अरावली की पहाड़ियों के समीप यह गांव हृदय को असीम शांति प्रदान करता है। प्राकृतिक सुंदरता के रमणीक दृश्यों के बीच विशाल एवं अत्यंत प्राचीन हरे-भरे वृक्षों की सघन छाया इस गांव को सुरम्य और अलौकिक बनाती है। वर्षा के मौसम में यहां पिकनिक मनाने लोगों के समूह आते हैं और 'गोठ' का आयोजन करते है।
इतिहास के संदर्भ से यह जानकारी प्राप्त होती है कि सम्राट पृथ्वीराज चौहान के सैनिकों में "बोया (पंवार) राजपूत" थे, जो जहां आज #बोराज_गांव है, वहां स्थित सैनिक छावनी क्षेत्र में निवासरत थे। बोया राजपूतों ने ही बोराज गांव को बसाया। यहां के बोया शासक द्वारा बनाई गई प्राचीन बावड़ी तथा महल के भग्न अवशेष आज भी विद्यमान है, जो ऐतिहासिकता के साक्षी है।
यहां #_मेवाड़ के #_गुहिलोत_वंश के 'ठाकुर मानसिंह' और 'ठाकुर जीवनसिंह' ने इस सैनिक छावनी पर आधिपत्य स्थापित कर लिया। ये दोनों ठिकानेदार #_बदनोरा_राज्य में अपने शौर्य, पराक्रम एवं न्यायप्रियता के लिए जाने जाते थे।
अजमेर जिले के बोराज-काजिपुरा गांव की अरावली पहाड़ी के पश्चिमी ढ़लान पर चामुंडा माता मंदिर स्थित है, जो कि भारत के १५१ शक्तिपीठों में से एक है। चामुंडा माता #_हिन्दू_सम्राट #_पृथ्वीराज_चौहान की आराध्य देवी थी।
अरावली पहाड़ी में स्थित माँ चामुण्डा के दरबार में जब पृथ्वीराज चौहान दर्शन हेतु जाते थे, तो मैदानी क्षेत्र में उनके हाथियों का काफिला खड़ा रहता था, वो स्थान ही आज #हाथीखेड़ा_गांव कहलाता है। वर्तमान में इस स्थान पर #_चीतावंशीय #_मोरेचा_चौहान साख के राजपूत बसे हुए हैं।
बोराज-काजिपुरा गांव के ठाकुर मानसिंह गुहिलोत एवं ठाकुर जीवनसिंह गुहिलोत के वंशजो को ११वीं सदी से ही माता की सेवा करने का आदेश प्राप्त है और आज तक भी यह परिवार माता की सेवा आराधना करता है।
यहां आने वाले हर श्रद्धालु की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है। इस मंदिर के ठीक पास में जलकुंड है, जिसे गंगा माई के नाम से जाना जाता है। यहीं पर शिव मंदिर है। चामुंडा माता मंदिर परिसर में ही भव्य हनुमान मंदिर है। चामुंडा माता मंदिर के ठीक नीचे बड़ा भैरव मंदिर बना हुआ है। इस चामुंडा माता मंदिर में एक प्राचीन शिलालेख भी है, जिसमें मन्दिर का ऐतिहासिक विवरण अंकित है। यहां का नवरात्रा का नजारा अत्यन्त आकर्षक रहता है क्योंकि हर रोज अजमेर शहर के हजारों श्रद्धालु यहां माता के दर्शनों के लिए आते है। यहां सावन शुक्ला अष्टमी को यहां मेला लगता है।
इस गांव में अच्छा धार्मिक माहौल देखने को मिलता है। इस गांव में सभी देवी-देवताओं के भव्य मन्दिर बने हुए है। यहां तेजाजी, रामदेवजी, शिवजी, बालाजी, पाबूजी एवं देवनारायण जी भगवान के मंदिर है जिनमें ग्रामीणों की अटूट श्रद्धा है। विशेष दिनों में तेजाजी और रामदेवजी का बड़ा जागरण होता है। गांव के तालाब से ही कुछ ही दूरी पर पूर्व-दक्षिण की ओर भैरूजी का मंदिर है। इस गांव में पौराणिक काल का #_हिंगलाज_माता #_मंदिर भी है, जो वर्तमान में खण्डहर रूप में स्थित है।
इस गांव में आज भी प्राचीन न्याय व्यवस्था है अर्थात् गांव की किसी भी निजी समस्या का निस्तारण ग्रामीण स्तर पर चौपाल व्यवस्था से ही किया जाता है। गांव की युवा शक्ति आज भी सदियों से चली आ रही इसी परम्परा का निर्वहन करते हैं।
गांव में आज भी मेहनतकश परिवार रहते है। सभी का मुख्य व्यवसाय खेती एवं मजदूरी है। इस गांव के ग्रामीण युवा जागरूक है और ग्राम के सर्वागींंण विकास के लिए सदैव तत्पर रहते हैं, इसमें प्रमुख रूप से #_बोराज #_विकास_मंडल हर वर्ष ग्राम में चामुंडा माताजी के मेले से लेकर हर एक छोटे-बड़े कार्यक्रमों में सक्रिय भागीदारी निभाता है।
स्त्रोत-
(१). क्षत्रिय रा.- राजपूत दर्शन..लेखक- श्री गोविंदसिंह चौहान।
(२). वर्धनोरा राज्य का इतिहास लेखक- स्व. डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकड़ा।
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#___जय_मां_भवानी____
#___जय_राजपूताना____
स्वाभिमानी रावत राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर_
चीतावंशीय चौहान राजपूतों का ऐतिहासिक ठिकाना- #_बोरवागढ़ —
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यह तस्वीर मर्दों के मगरे के जोधा जी की डांग के चीतावंशीय चौहान जोधा जी के बोरवा रावला या गढ़ बोरवा की है, आज की। वर्धनोरा राज्य में नरवर से लेकर दिवेर तक हर जगह हमारे पूर्वजों के द्वारा बनवाए गए यह गढ़, हमारे पूर्वजों के अतीत के वैभव, हमारे पूर्वजों के शौर्य एवं गौरवपूर्ण इतिहास के साक्षी है। हमारे उन पूर्वजों को शत्-शत् नमन जिन्होंने अपने वीरता और बलिदान से हमे स्वाभिमानी और गौरवान्वित वंश के वंशज होने का मगरे का सपूत होने का दंभ दिया। अब यह हम पर निर्भर करता है की गुलामी के साथ जिए या स्वाभिमान के साथ।
पोस्ट साभार - मनोज_चौहान____
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स्वाभिमानी रावत राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर_
इतिहास के पन्नों में #_बरारगढ़ —
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#_बरारगढ़ गांव राजसमन्द जिले की भीम तहसील में राष्ट्रीय राजमार्ग ८/५८ पर बसा हुआ है, जो तत्कालीन मेवाड़ राज्य के #_वर्धनोरा (मगरांचल) परगने का प्रमुख गांव था। इतिहास के पन्नों में इससे जुड़ी हुई कुछ विशेष घटनाऐं इस प्रकार है –
#_वर्धनोरा (मेरवाड़ा) परगने में अनेक गांवो के मुखियाओं को #_राव व #_ठाकुर की पदवी थी और उनके अपने-अपने ठिकाने व गढ़ थे। बरारगढ़ के मुखिया को राव की पदवी थी। वर्धनोरा मेवाड़ व मारवाड़ राज्य की सीमा पर होने से यदाकदा वर्चस्व के लिए विवाद हो जाते थे।
✽. सन् १८१६ ई. में महाराणा भीमसिंह ने भगवानपुरा ठाकुर सार्दुलसिंह के नेतृत्व में सेना भेजकर #_बरारगढ़ के किले पर आक्रमण किया। बरार के राव की सेना ने मुकाबला किया जिसमें सार्दुलसिंह मारा गया। बरार के उस भू-भाग को #_सार्दुलडांग कहते हैं जो उस समय बरार राव ने युद्ध में सहयोग करने वालों को दी थी।
✽. नवम्बर १८२१ ई. में मेवाड़, अग्रेजों की संयुक्त सेना ने #_बरारगढ़ पर तोपों से आक्रमण किया। अंग्रेजो द्वारा ध्वस्त किये गये #_बरारगढ़ के किले के अवशेष आज भी मौजूद है। इसी सैन्य अभियान में बरारगढ़ के साथ ही #_बरसावाड़ा (टॉडगढ़), #_मण्डलागढ़ (भीम) पर भी मेवाड़ व अंग्रेजी सेना ने विजय प्राप्त कर ली।
✽. मई १८२३ ई. में मेवाड़ नरेश ने अंगेजों से संधि कर ७६ गांव मेवाड़-मेरवाड़ा के १० वर्ष की अवधि के लिये अंग्रेजों को प्रबन्ध के लिए सौंप दिए जिसमें बरारगढ़ भी था।
✽. वर्ष १८२४-२५ ई. में अनावृष्टि के कारण अकाल था फिर भी अंग्रेजों ने फसल कर लागू कर रखा था जिसकी वसूली का कृषकों ने विरोध किया जिसको दबाने के लिये ज्यादती की गयी। कृषकों पर हो रहे अत्याचारों के विरोध का नेतृत्व #_रावत #_राजूसिंह_चौहान ने किया जिससे आस-पास के गांवों के कृषकों ने कर के रूप में मुट्ठीभर अनाज देने से मना कर दिया। रावत राजूसिंह के नेतृत्व के प्रभाव को समाप्त करने के लिये अंग्रेज अफसर तेजा मलाल ने राजूसिंह के परिवारजनों पर दमन की कार्यवाही शुरू कर दी। राजूसिंह के छोटे भाई हालू को पुलिस कार्यवाही में मारकर उसका सिर बरसावाड़ा के अंग्रेजी केम्प के पास एक वटवृक्ष पर टांग दिया गया, जिसे अब टॉडगढ़ में खूटा की बड़ली कहते हैं। इस प्रकार अंग्रेज किसी भी विद्रोह करने वाले व्यक्ति को सार्वजनिक स्थल पर लटका कर आम जनता में भय फैला देते थे ताकि कोई भी विरोध की आवाज नहीं उठावें।
✽. राजूसिंह ने भी अंग्रेजी सत्ता से मुकाबला करने के लिए अपने नौजवान साथियों का दल बना लिया जिसमें सुजा, मोटा, देवा, नाथु, पूरा, गांगा, चतरा, अजबा, हामा, हुक्मा, काना के नाम मिलते हैं। राजूसिंह ने अपने साथियों के सहयोग से तेजा मलाला व दो अंगरक्षकों को मौत के घाट उतार कर भाई की मौत का बदला लिया।
✽. अंग्रेजों को अपने नये क्षेत्र में प्रशासनिक व्यवस्था जमाने में राजूसिंह की चुनौती थी जिसे पकड़ने व दबाने के लिये नसीराबाद छावनी से और सैनिक/पुलिस दल बरसावाड़ा बुलाया गया। उसमें से जोधराज नामक अंग्रेज जमादार राजूसिंह को पकड़ने के अभियान में लाखागुडा के समीप मारा गया।
✽. काफी समय के प्रयास के बाद धोखे से राजूसिंह को गिरफ्तार किया गया। उसे अनेक यातनायें देते हुए राजद्रोह का मुकदमा चलाकर फाल्गुन वदी १३ वि.स. १८९१ को अंग्रेजी मुख्यालय ब्यावर में कृषकों पर किये जा रहे अत्याचारों का विरोध करने वाले क्रांतिकारी राजूसिंह को फांसी दे दी गयी। उस वक्त राजूसिंह की उम्र करीब ४० वर्ष थी, जिसका स्मारक बरार में है।
✽. जैसा कि सर्वविदित है कि अंग्रेजों ने अपने शासन को स्थायित्व देने के लिये साम, दाम, दण्ड एवं भेद का भरपूर प्रयोग किया। ब्रिटिश शासित मेरवाड़ा के गांवों में भी गांव प्रमुख, राव, ठाकुर की प्रचलित पदवीयां लागू रखी। पटेल की पदवी और लागू की। इन्हें गांव के छोटे-मोटे विवाद सुलझाने व राजस्व वसूली के अधिकार दिये गये। बरार के राव को भी महत्वपूर्ण भूमिका दी गयी।
✽. उत्तराधिकारी वंश क्रम में बरार के #_राव_भारमल_चौहान हुये जिनकी सामाजिक मान्यता व क्षेत्र में प्रभाव होने से अंग्रेजी सरकार ने जिला समिति का सदस्य नियुक्त किया।
१ जनवरी, १८७७ ई. को महारानी विक्टोरिया के आगमन पर दिल्ली दरबार नामक सम्मेलन हुआ जिसमें देशी रियासतों व अंग्रेज टेरीटरी के प्रमुख लोगों ने भाग लिया। इसका प्रमाण पत्र #_राव_भारमल_चौहान बरार को भी दिया गया।
✽. वर्धनोरा (मगरांचल) में अंग्रेजों के खिलाफ बुलंद आवाज उठाने वाले क्रांतिकारी राव गोपालसिंह खरवा की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी जिनको जून १९१५ में अंग्रेजों ने टॉडगढ़ में नजरबंद कर दिया था जो टॉडगढ़ के क्षेत्र व प्रमुख लोगों से अच्छी तरह परिचित थे जिस कारण १० जुलाई, १९१५ को सुबह दिनचर्या के बाद अंग्रेज अधिकारियों को ऐलान देकर अपने साथियों सहित नजरबंदी तोड़ टॉडगढ़ की जेल से निकल गये जो अपने मित्र #_पीथा_पटेल #_बरार से मिलकर मेवाड़ क्षेत्र के गांव इशरमड की तरफ निकलते हुए अज्ञातवास में चले गये।
स्त्रोत– इतिहास के पन्नों में #_बरारगढ़।
लेखक– #_इतिहासकार #_श्री_चन्दनसिंह_खोखावत (पुलिस उपनिरीक्षक) ठि.-छापली, जिला-राजसमन्द मो.-७०१४१३९९९५
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#___जय_मां_भवानी____
#___जय_राजपूताना____
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर
चीतावंशीय चौहान राजपूतों का ऐतिहासिक ठिकाना- मानपुरा —
यह ठिकाना चीतावंशीय चौहान राजपूतों के प्रमुख ठिकानों में से एक है। यह सेन्दड़ा रेल्वे स्टेशन से १ मील की दूरी पर स्थित है। इसे भी सन् १८२९ ई. में ब्रिटिश व रजवाड़़ी सेना के संयुक्त आक्रमण से अन्य ठिकानों के साथ खण्डहर में तब्दील कर दिया गया।
स्त्रोत- वर्धनोरा राज्य का इतिहास लेखक- स्व. इतिहासकार डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकड़ा।
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#___जय_मां_भवानी____
#___जय_राजपूताना____
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया
ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर__
"ऐतिहासिक शहर- ब्यावर” —
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कर्नल चार्ल्स डिक्सन ब्रिटिश राज में अजमेर मगरांचल संयुक्त अंग्रेजी स्टेट के कमीश्नर व प्रशानिक अधिकारी थे। इनका जन्म ३० जून सन् १७९५ ई. को इंग्लैंड में हुआ था।
अरावली पर्वतमाला के गोरमघाट और नागपहाड़ के मध्य स्थित नरवर से दिवेर तक का क्षेत्र वर्धनोरा (मगरांचल) राज्य कहलाता है। प्राचीनकाल से यहां वीर रावत-राजपूतों का आधिपत्य रहा है। वर्धनोरा राज्य पश्चिम व उत्तर में 'मारवाड़' से घिरा हुआ तथा पूर्व व दक्षिण में 'मेवाड़' से जुड़ा हुआ है। यह क्षेत्र ८ परगनों और ५३४ ग्रामों में विभक्त था।
इस क्षेत्र में मुगलकाल से लेकर ब्रिटिशकाल तक अनेक आक्रमण हुए, लेकिन वर्धनोरा राज्य के राजपूत योद्धाओं ने उन सभी प्रयासों को असफल कर दिया। इस क्षेत्र के लोगों की स्वतंत्रप्रिय और संगठित भावना बाहरी आक्रमणों के प्रभाव से रक्षा करती रही।
सन् १८१७ ई. तक ईस्ट इंडिया कंपनी अजमेर में अपनी शासन व्यवस्था स्थापित कर चुकी थी। सन् १८१९ व १८२० ई. में मेवाड़ तथा मारवाड़ के राज्यों से समझौते पर तीन शक्तियों (वर्धनोरा, मेवाड़, मारवाड़) में विभाजित वर्धनोरा क्षेत्र का एकीकरण कर सम्पूर्ण शासन प्रबन्ध की जिम्मेदारी ब्रिटिश शासन के अधीन की गई।
इस प्रान्त पर शांति स्थापित करने तथा रावत-राजपूतों के शौर्य व साहस का उचित उपयोग करने की नीति के तहत कर्नल हेनरी हैनरी हॉल ने सन् १८२३ ई. में ब्रिटिश हुकूमत के आदेश से अजमेर के दक्षिण पश्चिम में ३० मील दूर '१४४ मगरांचल राजपूताना इन्फेन्ट्री बटालियन' का गठन किया और रावत-राजपूत समुदाय के लोगों को इस बटालियन में सम्मिलित किया। कर्नल हैनरी हॉल के बाद १८३५ ई.में कप्तान कर्नल सी. जी. डिक्सन ने इस मगरांचल के प्रशानिक अधिकारी के रूप में भार संभाला और १८४२ से १८५७ मृत्यु तक संयुक्त अजमेर मेरवाड़ा के गवर्नर रहे। कर्नल डिक्सन भी कर्नल हाल से काफी चतुर, समझदार सिद्ध हुए। उन्होंने इस बटालियन को अपने तौर तरीके से अनुशासित किया और उसको यह विश्वास हो गया कि किसी भी संकट के समय उनकी यह बटालियन हर प्रकार से अन्य शत्रुओं का सामना कर सकेगी। यह क्षेत्र अब तक अंग्रेज प्रशासन के लिए सिर दर्द बना हुआ था, लेकिन रावत-राजपूत समुदाय के लोगों को बटालियन में सम्मिलित करने के बाद इस क्षेत्र में शान्ति स्थापित होने लगी, जिससे इस क्षेत्र का अन्य प्रकार से विकास होना प्रारंभ हुआ ।
कर्नल डिक्सन ने इस सैनिक छावनी के साथ यहां नये शहर की स्थापना हेतु अजमेरी गेट पर स्थापना शिला रखकर १ फरवरी, १८३६ को ब्यावर शहर की नींव रखी।
नये शहर को डिक्सन ने क्रॉस की आकृति अनुसार चारों दिशाओं में चार दरवाजे (अजमेरी गेट, सूरजपोल गेट, मेवाड़ी गेट व चांग गेट) बनाकर उसको परकोटे से जोड़ते हुए एक किले का रूप दिया। अंग्रेजों द्वारा इस नये शहर को 'बि-अवेयर' नाम से पुकारे जाने के कारण उनका यही नाम बाद में अपभ्रंश होते हुए 'ब्यावर' हो गया।
इसके पश्चात् डिक्सन ने इस क्षेत्र की सीमाओं को अकंन कर सन् १८३९ ई. में नौ परगनों को मिलाकर ' मेरवाड़ा स्टेट' की घोषणा की, जिसका मुख्यालय 'ब्यावर' शहर को बनाया। यहां इसका ई.ए.सी. कार्यालय था, जो सम्पूर्ण वर्धनोरा क्षेत्र को नियन्त्रित करता था।
सी.जी. डिक्सन ने इस शहर को एक नागरिक बस्ती का दर्जा देकर इसके सामाजिक, आर्थिक, प्रजातांत्रिक, प्रशासनिक आदि सभी क्षेत्रों में विकास के लिए उन्होंने कई नई प्रकार की योजनायें बनाकर इस क्षेत्र के लोगों का आकर्षण अंग्रेज प्रशासन के प्रति पैदा किया। यह शहर भीलवाड़ा, नागौर, राजसमन्द, पाली और अजमेर आदि शहरों के बीच प्रमुख दबदबा रखता है।
सी.जी. डिक्सन ने ब्यावर में ऊन, कपास और रूई की मण्डी स्थापित की, जो व्यापार में राष्ट्रीय स्तर की मण्डी बन गई।
ब्यावर में सूती कपड़ो की तीन बड़ी मीलें कृष्णा, एडवर्ड और महालक्ष्मी मिल्स की स्थापना हुई, जहां कपड़ा बुना जाकर देश भर में भेजा जाता था तथा निर्यात होता था। प्रदेश में उस समय एक शहर में तीन मिलें कहीं नहीं थी। अतः इसे 'भारत का मेनचेस्टर' भी कहा जाता था।
यहां व्यापार व उद्योगों के विकास के लिए यातायात के साधन और संचार के साधन डाक, तार व टेलीफोन उपलब्ध कराये गए। यहां सन् १८७७ ई. से १८८० ई. के दौरान रेल्वे लाइन शुरू की गई।
इस शहर के स्थापत्य कला के आज भी गवाह है डाक बंगला, नगर परिषद व राजकीय पटेल उच्च माध्यमिक विद्यालय। १९३७ ई. से पहले काष्टकला व इंजीनियरिंग क्षेत्र में बहुत नाम रखने वाले पटेल विद्यालय को हॉलेंड स्कूल के नाम से जाना जाता था। सन् १९५० ई. को स्कूल का नाम सरदार वल्लभ भाई पटेल की याद में परिवर्तन कर राजकीय पटेल उच्च माध्यमिक विद्यालय किया गया।
इस प्रकार ब्रिटिशकाल में ब्यावर शहर 'राजपूताना' में व्यापार और उद्योग जगत में उभर कर सामने आया।
१ मई, १८६७ में ब्रिटिश राज ने मगरांचल स्टेट के ब्यावर में प्रशासन की दृष्टि से कमिश्नरी राज (प्रजातांत्रिक गणराज्य) की स्थापना की जो भारत की स्वतंत्रता १४ अगस्त १९४७ तक अक्षुण रही। बाद में अजमेर व मेरवाड़ा संयुक्त रूप से एक स्वतंत्र भारत का केन्द्र शासित प्रदेश बनाया गया। सन् १९५२ में अजमेर मगरांचल संयुक्त नाम से स्वतंत्र प्रदेश घोषित किया गया।
नवम्बर १९५६ ई. में ब्यावर प्रदेश का सबसे बड़ा उपखण्ड बना। राजस्थान प्रदेश में मिलाते समय अजमेर को जिले के साथ राजधानी तथा मेरवाड़ा अर्थात् ब्यावर को जिला बनाना तय हुआ था। इसी मसौदे के तहत अजमेर ब्यावर को राजस्थान प्रदेश में मिलाने की रजामंदी दी थी, तब से लेकर आज तक राजनीतिक छल-कपट का शिकार मैनचेस्टर माने जाने वाले ब्यावर शहर को लगातार पतन का मंजर झेलना पड़ रहा है। ब्यावर उपखण्ड में दो पंचायत समिति जवाजा और मसूदा के ७१ ग्राम पंचायतों के ३६० राजस्व गांव थे। २५ जून १८५७ ई. मृत्यु पर्यन्त तक कर्नल चार्ल्स डिक्सन मगरांचल, अजमेर संयुक्त अंग्रेजी स्टेट के कमिश्नर रहे।
स्त्रोत-
वर्धनोरा राज्य का इतिहास लेखक- स्व. डॉ. मगनसिंह चौहान, रावजी का तालाब, कूकड़ा।
स्वाभिमानी रावत-राजपूत संस्था राजसमन्द राजस्थान
इतिहास संकलनकर्ता ― सूरजसिंह सिसोदिया ठि.– बोराज-काजिपुरा, अजमेर_