राजस्थान रावत राजपुत समाज परिचय (अजमेर-मगरा-मेवाड-मारवाड)
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राजस्थान रावत राजपुत समाज परिचय (अजमेर-मगरा-मेवाड-मारवाड)
इतिहास का महत्व
इतिहास शब्द 'इति-ह-आस' तीन शब्दों से बना है इसका अर्थ "ऐसा ही हुआ" होता है। किसी देश या जाति के इतिहास की सच्ची घटनाओं की बातें जानना अत्यन्त आवश्यक है। इससे आने वाली पीड़ियों में आत्म गौरव, स्वजाति प्रेम व देश भक्ति का संचार होता है अज्ञान एवं दीर्घ निद्रा में पड़ी हुई जाति के उत्थान एवं जागृति में इतिहास एक सर्वोत्कृष्ट एवं आवश्यक साधन है।
अंग्रेज कवि ने ठीक ही कहा है....
If we preserve the history of ancestors we will provide roots for our children and grand children they will have a firm foundation they will know who they are? and where they came from?
"यदि हम इतिहास को सुरक्षित रख सके तो हमारी आने वाली संतान जान सकेगी कि वो कौन है और कहां से आये हैं?"
इतिहास ही किसी देश और जाति का सर्वस्व है यही उसके पूर्वजों की उपार्जित विद्या है और यही भूले हुओं को मार्ग बताने वाली दीप शिखा है, देश और जाति का यही नेत्र है। मानव जाति की उन्नति की आधारशिला और उसको जीवित रखने वाली संजीवनी बूटी यही है। जिस जाति का इतिहास ही नहीं तो वह जाति अपना गौरव भूलकर दासता की बेड़ियों में जकड़ी रहती है। सभ्यता का आधार इतिहास है।
राजस्थान में एक कहावत प्रसिद्ध है :-
"नांव (नाम) गीतड़ा ने भीतड़ा सूं रहवे"
अर्थात मनुष्य जाति की कीर्ति को चिरस्थायी रखने वाली या तो उसका इतिहास है या, उसके कीर्ति स्तम्भ, परन्तु इन दोनों में इतिहास का महत्व अधिक है क्योंकि भीतड़े (इमारते) तो धूल में मिल जाते हैं परन्तु गीतड़े (ऐतिहासिक बातें) अनन्तकाल तक अपने से सम्बन्ध रखने वाले विर पुरूषो, विरांगनाओ, साधु-संतो जेसे समाजरत्नों का नाम अमर रखती है।
राम और कृष्ण के राजमहलों का लोप हो जाने पर भी उनकी गाथाएँ वाल्मीकि और व्यास द्वारा लिखी हुई उनकी स्मृति को आज भी अमर बनाये हुए हैं। राजस्थान के राजपूतों का इतिहास गौरवपूर्ण है उनके बलिदान एवं त्याग की गाथाएं मुर्दा दिलों में जोश पैदा करती है। राजूपतों की वीर रमणियों ने आत्मरक्षा के लिए जौहर की आहुतियां देकर जो अलौकिक कार्य किये है उनकी गौरव गाथाएं सुनकर बुजदिल की नसें भी एक बार फड़क उठती है।
" रावत " पदवी परिचय एवमं इतिहास
राजपूताना में मध्ययुग में सामन्ती शासन व्यवस्था थी। सामन्तों को अदम्य साहस, वीरतापूर्ण कार्य व राजशाही सेना को सुदृढ़ बनाने के बदले राव, रावल, राणा, राजा, रावत आदि उपाधियां प्रदान की जाती थी। राजपूत व रावत शब्द मुगलकाल की देन है। अरबी भाषा में 'त्र-वर्ण' नहीं होने से राजपुत्र को राजपूत कहा गया। चित्तौड़ के सिसोदिया वंश के शासक अपने जागीरदार सामन्तों को उपयुक्त उपाधियों के अलावा 'रावत' उपाधि भी प्रदान करते थे। रावत उपाधि प्रायः उन्हीं लोगों को प्रदान की जाती थी जो राजा के वंशज अर्थात् राजा के भाई, पुत्र, पौत्र आदि होते थे। कई बार दूसरी जाति या गौत्र के उन लोगों को भी 'रावत' उपाधि प्रदान कर दी जाती थी जो राजा के वंशज न होते हुए भी राजा के बहुत वफादार होते थे। राजपूतों में विशेष रूप से लड़ने वाले यौद्धाओं को उनके शौर्य एवं पराक्रम के कारण "रावत" उपाधि दी जाती रही, उनके वंशज रावत-राजपूत कहलाये। ये हमेशा स्वतंत्र रहे थे तथा सभी ठाकुर के पद नाम से ही जाने जाते रहे हैं। 'रावत' उपाधि सैनिक उपाधि थी। मेवाड़ घराने में महाराणा हमीर ने सन् 1373 ई. में अपने बड़े पुत्र चूंडा को 'रावत' की उपाधि दी थी। चूंडा के वंशज रावत व चुंडावत कहलाते थे। रावत उपाधि वंशानुगत होती थी अर्थात् उनके वंशज भी रावत उपाधि को अपने नाम के साथ जोड़ सकते थे। यही कारण है कि आज भी सूर्यवंशी तथा अग्निवंशी राजपूतों में रावत उपाधि सन्मानित व्यक्ति मिलते हैं। मेवाड़ शासकों ने अपने वफादार सरदारो एवमं सामंतो भाटी, गहलोत, राठौड़, चौहान, सोलंकी, पंवार आदि अन्य राजपूतवंशों को भी पट्टा व रावत की उपाधि सन्मानित कीया हे ।
मूलवंश या राजा द्वारा शासित वंश परम्परा से प्राप्त राजा नहीं हो तो उस राजा के वंश के व्यक्ति, समूह, गौत्र या संघ के मुखिया को सर्वसम्मति से मुखिया चुना जाकर उसे राजावत कहा जाने लगा। संस्कृत भाषा का मूल शब्द 'राजपुत्र' उपाधिवाचक शब्द बिगड़कर धीरे-धीरे वंश परम्परा से रावत बोला जाने लगा। और इसी तरह कालान्तर में कई अन्य समाज, वर्ग, जातियों के लोग भी रावत शब्द का उपयोग करने लगे।
इतिहासकारों ने 'रावत' का संधि विच्छेद इस प्रकार किया है...
रा- राजपूताना व- वीर और त- तलवार,अर्थात राजपूताना के वीर जो तलवार के धनी है, वे रावत कहलाते हैं। रावत की पदवी 10 हाथियों की रोता से मुकाबला करने वाले बौर को प्रदान की जाती थी।
रावत की पदवी की गरिमा को किसी कवि ने इन शब्दों में बखान किया है....
"सौ नरों एक शूरमा, सौ शूरो एक सामन्त। सौ सामन्त के बराबर होत है. एक रावत।"
इस प्रकार राजपूताना में कई राजा-महाराजाओं द्वारा अत्यन्त पराक्रमी और वीर पुरुषों को रावत की उपाधियां प्रदान की गई थी जिसे आज भी उनके यशज बड़े गये के साथ अपने नाम के साथ लगाते हैं।
बरड चौहान वंश के राव वीहलजी को क्षत्रियोचित इतिहास में सर्वप्रथम रावत की पदवीसे विभुषित होने का बहुमान प्राप्त हे।
यह घराना नाडोल के चौहानवंशी राव लाखनसी के द्वितीय पुत्र अनूपराव के वंशज हैं, जो कभी मुसलमानों अथवा अग्रेजों के अधीन नहीं रहा। अनूपराव की 9 वीं पीढ़ी में बीहलजी रावत, चेता के ठिकानेदार थे, तब सन् 1222 में समसुदीन इल्तुतमिश दिल्ली से मेवाड के शासक रावल जैत्रसिंह पर हमला करने हेतु छापली के पास रात्रि विश्राम हेतु ठहरा हुआ था। रात्रि में वीहलजी ने इल्तुतमिश की मूंछ और उसकी बेगम की चोटी काट दी, जिससे भयभीत होकर वह वापस सेना सहित दिल्ली भाग गया, इस पीरता एवं साहिसिक कार्य के लिए मेवाड़ के शासक जैत्रसिंह ने वीहलजी को रावत की पदवी से सन्मानित कर गढ़बोर (चारभुजा) की जागीर प्रदान की। ऐतिहासिक घटनाओके साक्ष्य में चेता के ठिकानेदार विरवर ठा.सा.श्री वीहलजी चौहान को इतिहास में सर्वप्रथम 'रावत' की पदवी मिलना लिखा हे। सम्राट पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद दिल्ली पर मुसलमानों का शासन हो गया था। मुसलमान बादशाह समसुदीन इल्तुतमिश ने सन् 1222 से 32 के मध्य मेवाड़ राज्य पर अधिकार करने के लिए कई बार बड़ी सेना लेकर आक्रमण किये। उन दिनों मेबाढ़ की राजधानी नागदा थी और रावल जैतसी उसके शासक थे। नाडोल के चौहानवशी राव लाखनसी के द्वितीय पुत्र अनूपजी की नवीं पीढ़ी में वीहलजी चौहान हुए जो कि उन दिनों चेता गाँव में निवास करते थे और आस-पास के भू-भाग के स्वामी थे, जो कि वर्तमान कामलीघाट चौराहे से एक किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम दिशा में स्थित है। जब बीहलजी ने सुना कि मुसलमान बादशाह मेवाड़ की राजधानी नागदा पर अधिकार करने के लिए एक बड़ी सेना के साथ आया है तो वे भी अपने साथियों के साथ तत्कालीन मेवाड़ के शासक रावल जैतसी की सहायता हेतु पहुंचे। मुसलमान सेना अपना सैनिक पढ़ाव दिवेर के पास स्थापित कर रखा था। एक रात्रि को जब बादशाह की सेना छावनी में विश्राम कर रही थी तब प्रहरियों की आंखों से बचकर वीहलजी ने उस शिविर में प्रवेश किया जिसमें बादशाह और उसकी बेगम सो रहे थे। वीहलजी ने बड़ी सावधानी और कुशलता से सोती हुई बेगम के सिर से बालों की चोटी और सोते हुए बादशाह की मूँछ काटकर अपने पास लेकर प्रहरियों से बचते हुए अपने शिविर में आ गए। प्रातः जब बादशाह और बेगम की आँखे खुली तो उन्होंने पाया कि बादशाह की मूंछ तथा बेगम की चोटी कोई काटकर ले गया है तो बादशाह और बेगम सभी घबरा गए तथा उनके सैनिक शिविर में सनसनी फैल गई कि जिस व्यक्ति ने उनकी चोटी और मूंछ काटी है. वह उनका सिर भी कलम कर सकता था परन्तु उसने ऐसा न कर बादशाह को एक संकेत दिया है। बादशाह इस निर्णय पर पहुंचा कि जिस व्यक्ति ने इतना साहसिक कार्य किया हे वह निःसंदेह मेवाड़ की सेना का कोई बहादुर सैनिक ही होगा और जिस सेना में ऐसे देशभक्त और निर्भिक सैनिक हो, उन पर सफलता पाना लोहे के चने चबाना होगा। यह सोचकर बादशाह भयभीत और निराश होकर अपनी सेना के साथ वापस दिल्ली की ओर भाग गया।
उधर प्रात: होने पर रावल जैतसी और उनकी सेना जब बादशाह की सेना द्वारा आक्रमण की प्रतीक्षा कर ही रहे थे कि उनके गुप्तचरों ने उन्हें सूचना दी कि बादशाह की सेना तो दिल्ली की ओर कूच कर चुकी है। इस सूचना से रावल जैतसी बड़े आश्चर्य चकित हो गये कि बादशाह के वापस लौटने का क्या रहस्य है। उन्होंने तत्काल अपने सभासदों और सलाहकारों की एक आवश्यक आपात बैठक बुलाई जिसमें बादशाह के वापस लौटने पर विचार-विमर्श और चर्चा चल रही थी। उसी समय बीहलजी चौहान, रावल जैतसी की स्वीकृति से बैठक में बेगम की कटी हुई चोटी और बादशाह की मुठ को लेकर उपस्थित हुए और विस्तार से सारा वृतान्त बताया। रावल जैतसी पीहलजी की पराक्रमता अदमा साहस और देशभक्ति की इस मिशाल को देखकर अत्यन्त प्रसन्न एवं अभिभूत हुए और उसी समय बीहलजी को 'रावत' की पदवी से विभूषित कर गढ़बोर (चारभुजा) की जागीर प्रदान की। वीहलजी का निधन अल्पायु में ही हो गया था। इनके पुत्र केलहण चौहान को काला रावत नाम से जाने जाते हैं. उन्होंने भी अपने पिताश्री के समान कई साहसिक कार्य कर शूरवीरता का परिचय दिया, जिसमें पीपलाज माता को स्थापित करना प्रमुख था। आपने अपने नाम से कई नगरों और गाँवों की स्थापना की जिसमें केलया, केलवाडा, काला गुमान, कालेटरा प्रमुख है। इस वंश के शासन में मण्डला (भीम) , पीपली नगर, बरार और दिवेर प्रमुख ठिकाने हुए है।
चीता चौहान वंश में विरशीरोमणी श्री नराजी को सर्वप्रथम रावत पदवी से विभुषित होने का बहुमान प्राप्त हे।
चीता चौहान वंश में सर्वप्रथम नराजी रावत को जोधपुर नरेश राव मालदेव ने शेरशाह सूरी के खिलाफ लडाई में सेनापति जेता और कूपा के साथ गीरी सुमेल के युद्ध में नरा रावत के अदम्य साहस और पराक्रम का प्रर्दशन करने के कारण जोधपुर महाराजा ने "रावत" पदवी से सन्मानित कर बर ठीकाणा प्रदान किया। नरा रावत की छत्री (स्मृति) बर तालाब की पाल पर स्थित है, जिस पर लगे हुए शिलालेख पर वि. सं. 1668 अकित है।
रावत राजपूतों का इतिहास
रावत-राजपूत वीर, स्वतंत्रता प्रिय एवं स्वाभिमानी बहादुर क्षत्रिय जाति है, जिसने कभी किसी मुस्लिम शासक या अन्य राजपूत राजा/महाराजाओं की अधीनता स्वीकार नहीं की। राजस्थान में रावत राजपुत मुख्यतः अरावली पर्वत श्रृंखलाओंमें जिसे मगरा-मेरवाडा क्षेत्र के नाम से भी जाना जाता है, जीसमे अजमेर, पाली, राजसमन्द और भीलवाड़ा जिलों का क्षेत्र सामिल हे उसमे निवासरत है। इस क्षेत्र में राजपूतों की चौहान, पवार, गहलोत, राठौड़, सिसोदिया, भाटी, पडियार आदि शाखाएँ पाई जाती है, जिनमे चौहानों की जनसंख्या सर्वाधिक है जो कि प्रमुख रूप से चीता और बरड दो उप-शाखाओं में विभक्त है।
मगरा-मेरवाडा इन दो शब्द में मगरा का अर्थ छोटे पहाड़ से है और मेर का अर्थ बड़ा पर्वत अथवा पहाड़ से है तथा वाड़ा से तात्पर्य क्षेत्र अथवा स्थान परिधि से है। इस प्रकार अरावली पर्वत श्रेणियों के उक्त पहाडी क्षेत्र को मगरा-मेरवाड़ा क्षेत्र के नाम से जाना जाता है और गुर्जर बहुल्य इस पहाड़ी क्षेत्र के निवासियों को मेर कहा जाता था। अजमेर को भी पूर्वकाल में अजयमेरु नाम से जाना जाता था, जिसमे मेरू से तात्पर्य भी पहाड़ से ही है। पर्वत अथवा पहाड़ को सुमेरू भी कहा जाता है।
इस क्षेत्र में प्राचीन काल में गुर्जर जाति का आधिपत्य था, जिन्हें चीता और बरड वंशीय चौहानों ने पराजित कर अपना शासन स्थापित किया। मध्यकालीन युग में मुस्लिम शासकों के अत्याचारों से अपनी संस्कृति, सभ्यता, धर्म और मान-मर्यादाओं की रक्षा हेतु अपना क्षेत्र छोड़कर अरावली भू-भाग के इस पहाड़ी क्षेत्रों में पंवार, राठौड़, भाटी, गहलोत आदि अन्य राजपूत जातियों की शाखाएं भी यहां आकर बसने लगे। बरड़वंशी एवं चीता वंशी चौहानों ने अपने में सम्मिलित होने वाले राजपूतों को ही अपने क्षेत्र में बसने दिया। और सबको साथ लेकर मुस्लिमों के विरूद्ध छापामार गुद्ध करते रहे और इस क्षेत्र से दूर रखा।
मगरा मेरवाडा क्षेत्र में अजमेर जिले के किशनगढ़ के पास नरवर गांव से राजसमन्द जिले के महाराणा प्रताप की विजय स्थली दिवेर गांव तक चीता एवं बरड वशीय चौहानों का राज्य था। दिवेर से मल्याथड़ी (भीम के पास) तक 34 मील बरड वंशीय चौहान और मल्याथड़ी से नरवर 74 मील तक चीता वंशीय चौहानों का शासन था। उक्त दोनों सीमाओं को मिलाकर इस क्षेत्र को अजमेर-मेरवाड़ा कहलाता था। यह क्षेत्र कभी भी मुगलों के अधीन नहीं रहा और न ही किसी अन्य राजा अथवा अग्रेजों के अधीन रहा। जब अंग्रेजों द्वारा कई प्रयासों और समस्त नीतियां अपनाने के बाद भी इस क्षेत्र को अपने कब्जे में नहीं लिया जा सका, तो उन्होंने एक सुलहपूर्ण रास्ता निकाला. जिसके तहत इस क्षेत्र के लोगों को भर्ती कर मगरा मेरवाड़ा रेजीमेन्ट नाम से एक अलग सेना की टुकड़ी का गठन किया गया जिसमें सिपाही से लेकर उच्चतम अधिकारी तक इसी क्षेत्र के निवासी थे तब उसी सेना की टुकड़ी को इस क्षेत्र का शासन सौंपकर अप्रत्यक्ष रूप से शासन किया।
वर्तमान में चीता और बरड वंशीय चौहानों के साथ पवार भाटी, राठौड, गहलोत, सिसोदिया आदि राजपूतों की गोत्रे भी मिली हुई है। रावत-राजपूतों के अतिरिक्त इस क्षेत्र में ब्राह्मण जैन, गुर्जर, राजपूत, रावणा राजपूत, आदि जातियों भी निवास करती है।
मगरा-मेरवाड़ा क्षेत्र में तो रावत पद नाम इतना प्रचलित हुआ, कि राजपूतों की कई जातियों "रावत" नाम से अपनी पहचान करवाने से गौरवान्वित महसूस करती है, और अपनी पहचान केवल "रावत" नाम से करवाती है।
यहीं की वीरांगनाए भी अपने पति की वीरता के विषय में कहती है कि....
"बिण मरियां बिण जीतियां, जे धव आवे धाम। पग-पग चूड़ी पाछटू, तो रावत री जाम।"
अर्थात एक पत्नि अपने पति से कहती है कि यदि वह रणभूमि में जाकर या तो विजय होकर अपने घर आये अन्यथा वीरगति को प्राप्त करें, नहीं तो वह कदम-कदम पर चूड़ी और फोडकर और उसकी बहादुरी का बखान नहीं करेगी।
मगरे किसी रावत वीर ने अपने परिचय में कहा है कि...
"मैं हो, अजमेरा का राव, रावत मोरी जात। आ रवताई रावत बीहल ने मिल, हुई बात विख्यात ।"
फ्रांस के इतिहासकार प्राकृतिक वेता मिस्टर जेकमेन्ट जो कि 1832 में भारत भ्रमण के लिए आए थे, उन्होंने "Letters from India" नामक पुस्तक के पेज नं 67 में अपने शब्दों में रावत-राजपूत समाज की विरता, बहादुरी और शोर्य का मूल्याकन करते हुए लिखा है कि...
"No Rajput Chief No Mughal Emperor had ever been able to Subdue them, Merwara always remained independent"
अर्थात
"न तो कोई अन्य राजपूत राजा और न ही कोई मुगल सम्राट इन्हें हराकर अपने नियन्त्रण में कर सके, मेरवाड़ा सदैव आजाद रहा।
रावत राजपूत साहसी एवं वीर स्वाभीमान के धनी थे और अपनी मान मर्यादा और भोम रक्षार्थ हेतु मुस्लिम शासकों व अन्य राजपुत शासको के साथ इनका स्वायतता हेतु लंबा संघर्ष चलता रहा। इतिहास साक्षी है, कि रावत राजपूतों ने अपनी मातृभुमी और मान-मर्यादा की रक्षा हेतु इस पहाड़ी क्षेत्रों में रहते हुए कई युद्ध कीये और अपने क्षेत्र को हमेशा आबाद रखा।
अजमेर मगरा मेरवाडा क्षेत्र मे चीता और बरड वंशीय चौहानोमें अन्य कई राजपूत क्षत्रिय शाखाएं भी समयांतर मिलती गई, जिसमे निम्नलिखित प्रमुख है।
१. मेवाड़ के प्रसिद्ध धारा नगरी से धारानाथ परमार (पंवार) के पंशज जिसमें सीमावत, धोधींग, बोया, बोरवाड़ कलावत, देलावत, मोटीस और जेलायत, आदि गौत्रे।
२. चितोड के प्रथम सार्क (सं. 1359) से छिन्न-भिन्न गहलोत राजपूत, जिनमें गोधावत, कीट गरतूड भोंडक महेन्द्रावत, भीलावत, वाकल, डींगा, सिसोदिया (काशी) आदि गौत्रे।
३. सोढारायसिंह राठोडों से पोकरिया, भरल, भाण्यावत / बाण्यावत, चौरोत, पीलोत आदि गौत्रों के साथ मारवाडेश्वर राव यूडाजी राठौड़ के १४ पुत्रों में से एक रायसिंहजी थे, जिनका पुत्र धीराजी हालू भी इनमें मिल गया, जिनके वंशज पोखरिया राठौड़ कहलाते हैं।
४. पडियारों से ततर्क साडरवाल, छन्नीवाल, देलोत, बालोत और भीलोत गोत्रे हैं।
अजमेर- मगरा मेरवाडा-रावत राजपूतों गोत्रावली
१ .राव अनहल वंशीय (चीता) चौहान
सुरावत, देवावत, लगेत, बिगडियात, काठात, धाडियात, भोपात, जेहलात, लाडात विलोत, मुण्यात, घोडारात, हेलोत, राजोरिया, भैरोत, मुण्डियात, वाणियात, नगैत, कुम्बात, बीजलोत, भोगडियात, नागोत, पोखरियात, नाडोत, कणियात, दृडियात, भादात, पालोत, मलैत, विरभोवत, बलाडिया, नरात, करमावत उदावत, नेतावत, तेजावत, सेंगणीत, लूणावत आदि।
२. राव अनूपवंशीय (बरड) चौहान
सुजावत, पदमावत, धामावत, धकोत, खांखावत पातलावत, हुलगीत, दूंगावत, सहवीत, चरात, बाहडोत, झूठावत, मेघावत, हालावत, कानावत, गोदावत, मोकावत, खीमावत, मालावत, आपावत, हीरावत, लाखावत, भीलावत, करणावत, कुम्पावत, रत्नावत, कीकावत, सोढावत, गोपावत, बीदांवत, चांदावत, टाटीक, माणकावत, आदि।
३. गहलोत वंश
डाकल, भूण्डक, गोदावत, विहलावत, बावलात, लोहरावत, वाणियावत, सिसोदिया (काशी) टीगांत, बावलात, मादावत, गरतूण्ड, वालावत, धर्मलावत, महेन्द्रावत, मन्नावत, डींगा, वीरोल, कीट, चरेड, बालोत, काट आदि।
४. पंवार वश
मोटिस, बोया, धोधिग, देहलावत, कल्लावत, खियात, जेहलात आदि।
५. भाटी वंश
सैहलोत, चौरोत, ठेकरोत, घाटात, पायडियावत, जालावत, वाणावत, आदि।
६. राठौड़ वंश :-
पोकरिया, मामणियावत, बोच, भरड, बूज, बदलोत, राजवंशीय आदि।
राजस्थान रावत राजपूत महासभा ब्यावर की संभाग सभा मातृकुंडिया में निम्न गौत्रे विद्यमान है |
बरगट,मॉल पवार,काशी, ठेकर, वालोत,मोटीस,गहलोत, रहलोत,विटोल वीहिल धोधीँग बुज,खंडासी, पामडात,मोटा,भाटी लौरा, चरेड, देलात, ग्रतुण्ड, विटोल आदि
चीता चौहाँन वश में
1 घोड़ात- कान्याखेड़ा,बेटूमी, मासखेडा,धीनवा,शिव सिंह का खेड़ा, रूपपुरा,बीलिया खुर्द, कुंवारिया |
2 भोपात- रावो का खेड़ा हथूनिया,नयागांव शिव सिंह का खेड़ा, सोजी खेड़ा,बेजनाथीया |
3 घोड़ात-लुनेरा, हारणी, नंगपुरा हरनाथपुरा, पहुना, देवरिया,दाता का खेड़ा, लालास नेतावाला |
4 चिता- कबीर जी की भागल, सांवलिया खेड़ा, माताजी का खेड़ा,कपासन कुंवारिया बराड़ा चंदेरिया,महादेवपुरा |
5 * सुरावत - गोपालपुरा चंगेडी |
6* देवावत गोपालपुरा,खेड़ी |
7 राजोरिया - खरताना, काकरवा,हापावास मॉदलडा |
8*कनियात*-चंगेड़ी |
9 उदावत -नेतावला, भोजपुरा |
10 लगेत -हरनिया, मानगिरी, शंभूपुरा,फाटक का खेड़ा|
11 विरमोत -मरडा, जोधपुरा |
बरड चौहाँन वंशीय गोत्र
1 बाहड़ौत - नंगपुरा, भांडावास, चंगेड़ी, काकरवा, देवपुरा, नवाण्या, कुंडालिया, सेमरड़ा, बघाना, भेमली, धीनवा, कपासन, भंवरीया कुआँ, भरवेयी, चंदेरिया, शिव सिंह जी का खेड़ा, रेलमगरा, नंगपुरा, सतपुरा, मालिखेड़ा, रावो का खेड़ा, सूरजपुरा, मुरला |
2 सुजावत - जमुनिया कला, कान्या खेड़ा, घटेरा, खेडी, रावो का खेड़ा |
3 हीरावत - अरनीया, मानगिरी,, माता जी का खेड़ा, मोमी |
4 वरावत - नयागांव, कानिया खेड़ा, बांसखेड़ा, किशनगढ़, जानदा, मारू खेड़ा, धारूखेड़ा, बीकाखेड़ा, कंवरपुरा, वल्लभनगर, मेणार, नेतवाला, मनोहरपुरा, माना, उन्नटाला, देवड़ा का खेड़ा, मुंगाना, ठग्गों का खेड़ा, ओनार जी का खेड़ा, भेमली, घटेरा, शंभूपुरा, बराड़ा, चंदेरिया, कुरार्सिया , ऑनर जी का खेड़ा, आपावास, सतपुरा, दाता का खेड़ा, भराई, जीवाखेड़ा, सूरजपुरा, कबीर जी की भागल, गोपालपुरा, हरनाथपुरा,|
5 सेहडोत - ऑनार जी का खेड़ा|
6 लखियात - बराड़ा, रायपुर, मंडोल,
7 खाखावत- नवानिया, मेनिया, मठमादड़ी, कुंवारिया, भोजपुरा, राणावतों की सादडी, रकमपुरा, भोपाल सागर, वल्लभनगर, मेगा खेड़ा, जूनदा,, कुंरज|
8 मेघावत- पिपली, कबीर जी की भागल, मुरला, साकली, खोखरवास, तारा खेड़ी, सनवाड़, मोमी, ठगो का खेड़ा |
9 डूंगावत-मुरलिया, दाता का खेड़ा, लुनेरा |
10 भिलावत- रेल का अमराणा |
11 धामावत- दाता का खेड़ा |
12 आपावत -जाश्मा
13 पातलात- सूरजपुरा
उपरोक्त सभी गौत्र मातृकूडिया संभाग में विद्यमान है |इसके अलावा भी बहुत सी गौत्रे और गाँव हो सकते है | मुझे जो जानकारी है वो लिखी है, इनमे भी लिखने में कोई गलती हो गई हो तो उसे सुधरवाने का श्रम करावे | गाँव वार विवरण दिया है|
पोस्ट:- आपका अपना भाई - बरड़ वंशीय वरावत माधुसिंह चौहान बरजाल
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हरराज प्रशस्ति
प्रथम धणी परमेसरो, दूजो ब्रह्म सुजान। तीजो विष्णु जगतपति. चौथो नृप चौहान।।
निज शक्ति प्रकट कियो, चौहान भूपाल। सब भूमि सिपुरद करी, करो जगत प्रतिपाल ।।
सहस्त्र वश हो सूरमा, पिरषू पृथ्वीराज। आशापुरा पूरण करे, राव लाखन के काज ।।
अनहलराव सागो धरे, खाडो राज अनूप। परम पराक्रमी वीर वर अजमेरू के भूप।।
चीता-बरड़ चढ़ पड़े, नरवर से दिवेर। शत्रु का झटका करे, अरू मुण्डों के ढेर।।
मिहिरराज मेहरापति, नाडोल्या चौहान। पाली ने पल में लई, मारवाड़ चौगान ।।
गौडराज महाराज ने गोडवाड़ लियो छीन। जोधाणों डोलत फिरे अक्खो फिरे मलीन ।।
हर राज हर-हर करे, थर-थर करे तुरक्क। दोऊ हाथ खाडो फिरे, शाही दल-बल फक्क ।
उक्त कविता संग्रह जोधपुर नरेश पुस्तकालय से हरराज प्रशस्ति से मगरे के जनकवि स्व. श्री कानसिंहजी मास्टर द्वारा सकलन कर रावत- राजपूत संदेश, ब्यावर में प्रकाशित किया।
संदर्भ ग्रन्थ :-
1. उन्नीसवीं शताब्दी का अजमेर शिवनाथ जोशी
2. राजपुताने का इतिहास श्री जगदीशसिंह गहलोत, हिन्दी साहित्य मन्दिर, जोधपुर
३. मेरों की उत्पत्ति एवं उनका इतिहास
4 मेरा जीवन संघर्ष - माननीय मेजर फतहसिंह रावत
5. रावत-राजपूतों का इतिहास - श्री प्रेमसिंह चहुँआग
6.डो. मगनसिंह चौहान, निवासी कुकडा (भीम)
7. राजस्थानी जातियों की खोज - रमेशचन्द्र गुष्णार्थी
8.रावत राजपुत संदेश -ब्यावर में प्रकाशित लेख
9. मगरा-मेरवाडा संदेश - काछबली में प्रकाशित लेख
खरवा नरेश श्री राव गोपालसिंह खरवा द्वारा टाडगढ़ में रावत राजपूत सरदार महासभा सम्मेलन वर्ष 1926 की झलक
राव अनहल वंशीय चिता चौहान महेरात गोत्र की जानकारी संत श्री मिश्री महाराज