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कबिरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय ।

रोम रोम में रमि रहा, और अमल क्या खाय ॥

जल में बसै कमोदिनी, चंदा बसै अकास ।

जो है जाको भावता, सो ताही के पास ॥

प्रीतम के पतियाँ लिखूँ, जो कहुँ होय बिदेस ।

तन में मन में नैन में, ताको कहा सँदेस ॥

नैनन की करि कोठरी, पुतली पलँग बिछाय ।

पलकों की चिक डारिकै, पिय को लिया रिझाय ॥

भक्ति भाव भादों नदी, सबै चलीं घहराय ।

सरिता सोइ सराहिये, जो जेठ मास ठहराय ॥

लागी लागी क्या करै, लागी बुरी बलाय ।

लागी सोई जानिये, जो वार पार ह्वै जाय ॥

जाको राखे साइयाँ, मारि न सक्कै कोय ।

बाल न बाँका करि सकै, जो जग बैरी होय ॥

नैनों अंतर आव तूँ, नैन झाँपि तोहिं लेवँ ।

ना मैं देखी और को, ना तोहि देखन देवँ ॥

सब आए उस एक में, डार पात फल फूल ।

अब कहो पाछे क्या रहा, गहि पकड़ा जब मूल ।।

लाली मेरे लाल की, जित देखों तित लाल ।

लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥

कस्तूरी कुंडल बसै, मृग ढूँढ़ै बन माहिं ।

ऐसे घट में पीव है, दुनिया जानै नाहिं ॥

सिर राखे सिर जात है, सिर काटे सिर होय ।

जैसे बाती दीप की, कटि उजियारा होय ॥

जिन ढूँढ़ा तिन पाइयाँ, गहिरे पानी पैठ ।

जो बौरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ ॥

बिरहिनि ओदी लाकड़ी, सपचे और धुँधुआय ।

छुटि पड़ौं या बिरह से, जो सिगरी जरि जाय ॥

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं ।

प्रेम गली अति साँकरी, ता मैं दो न समाहिं ॥

इस तन का दीवा करौं, बाती मेलूँ जीव ।

लोही सींचीं तेल ज्यूँ, कब मुख देखीं पीव ॥

हेरत-हेरत हे सखी, रह्या कबीर हिराइ ।

बूँद समानी समँद में, सो कत हेरी जाइ ॥

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर ।

पंथी को छाया नहीं, फल लागै अति दूर ॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरज से सब होय ।

माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आये फल होय ॥

दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय ।

बिना जीव की स्वाँस से, लोह भसम ह्वै जाय ॥

ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय ।

औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय ॥

जो तोको काँटा बुवै, ताहि बोउ तू फूल ।

तोकि फूल को फूल है, वाको है तिरसूल ॥

साईं इतना दीजिए, जामे कुटुंब समाय ।

मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय ॥

माटी कहै कुम्हार सों, तू क्या रौंदै मोहिं ।

इक दिन ऐसा होइगा, मैं रौंदोंगी तोहिं ॥

माली आवत देखिकै, कलियाँ करीं पुकार ।

फूली-फूली चुनि लईं, कालि हमारी बार ॥

- कबीरदास

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जो तुम तोरौ राम, मैं नहिं तोरौं,

तुम सो तोरि कवन संग जोरौं॥

तीरथ बरत न करौं अंदेसा, तुम्हरे चरन कमल को भरोसा॥

जहँ जहँ जावों तुम्हरी पूजा, तुम सा देव और नहिं दूजा॥

मैं अपनो मन हरि सों जोर्यो, हरि सो जारि सवन सों तोर्यो॥

सबहीं पहर तुम्हरी आसा, मन क्रम बचन कहै 'रैदासा'॥

- रैदास

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मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।

जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥

पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।

जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदीकूल कदम्ब की डारन॥

या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।

आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख, नंद की धेनु चराय बिसारौं॥

रसखान कबौं इन आँखिन सों, ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।

कोटिक हू कलधौत के धाम, करील के कुंजन ऊपर वारौं॥

सेस गनेस महेस दिनेस, सुरेसहु जाहि निरंतर गावै।

जाहि अनादि अनंत अखण्ड, अछेद अभेद सुबेद बतावैं॥

नारद से सुक व्यास रहे, पचिहारे तू पुनि पार न पावैं।

ताहि अहीर की छोहरियाँ, छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं॥

धुरि भरे अति सोहत स्याम जू, तैसी बनी सिर सुंदर चोटी।

खेलत खात फिरैं अँगना, पग पैंजनी बाजति, पीरी कछोटी॥

वा छबि को रसखान बिलोकत, वारत काम कला निधि कोटी।

काग के भाग बड़े सजनी, हरि हाथ सों लै गयो माखन रोटी॥

कानन दै अँगुरी रहिहौं, जबही मुरली धुनि मंद बजैहै।

माहिनि तानन सों रसखान, अटा चड़ि गोधन गैहै पै गैहै॥

टेरी कहाँ सिगरे ब्रजलोगनि, काल्हि कोई कितनो समझैहै।

माई री वा मुख की मुसकान, सम्हारि न जैहै, न जैहै, न जैहै॥

मोरपखा मुरली बनमाल, लख्यौ हिय मै हियरा उमह्यो री।

ता दिन तें इन बैरिन कों, कहि कौन न बोलकुबोल सह्यो री॥

अब तौ रसखान सनेह लग्यौ, कौउ एक कह्यो कोउ लाख कह्यो री।

और सो रंग रह्यो न रह्यो, इक रंग रंगीले सो रंग रह्यो री।

- रसखान

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तोसों लाग्यो नेह रे प्यारे, नागर नंद कुमार।

मुरली तेरी मन हर्यो, बिसर्यो घर-व्यौहार॥

जब तें सवननि धुनि परि, घर आँगण न सुहाइ।

पारधि ज्यूँ चूकै नहीं, मृगी बेधी दइ आइ॥

पानी पीर न जानई ज्यों मीन तड़फि मरि जाइ।

रसिक मधुप के मरम को नहिं समुझत कमल सुभाइ॥

दीपक को जो दया नहिं, उड़ि-उड़ि मरत पतंग।

'मीरा' प्रभु गिरिधर मिले, जैसे पाणी मिलि गयो रंग॥

- मीराबाई

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पायो जी म्हें तो राम रतन धन पायो।

वस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरू, किरपा कर अपनायो॥

जनम-जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो।

खरच न खूटै चोर न लूटै, दिन-दिन बढ़त सवायो॥

सत की नाँव खेवटिया सतगुरू, भवसागर तर आयो।

'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, हरख-हरख जस पायो॥

- मीराबाई

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पग घूँघरू बाँध मीरा नाची रे।

मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गई दासी रे।

लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे॥

विष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।

'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर सहज मिले अविनासी रे॥

- मीराबाई

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मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई।

जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।

तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई॥।

छाँड़ि दी कुल की कानि कहा करिहै कोई।

संतन ढिंग बैठि-बैठि लोक लाज खोई॥

चुनरी के किये टूक ओढ़ लीन्ही लोई।

मोती मूँगे उतार बनमाला पोई॥

अँसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।

अब तो बेल फैल गई आणँद फल होई॥

दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोई।

माखन जब काढ़ि लियो छाछा पिये कोई॥

भगत देख राजी हुई जगत देखि रोई।

दासी "मीरा" लाल गिरिधर तारो अब मोही॥

- मीराबाई

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घर आवो जी सजन मिठ बोला।

तेरे खातर सब कुछ छोड्या, काजर, तेल तमोला॥

जो नहिं आवै रैन बिहावै, छिन माशा छिन तोला।

'मीरा' के प्रभु गिरिधर नागर, कर धर रही कपोला॥

- मीराबाई

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प्रथम सकल सुचि मज्जन अमल बास,

जावक सुदेस केस-पास को सम्हारिबौ।

अंगराज भूषन बिबिध मुखबास-राग,

कज्जल कलित लोल लोचन निहारिबौ॥

बोलनि हँसनि मृदु चाकरी, चितौनि चार,

पल प्रति पर प्रतिबत परिपालिबौ।

'केसोदास' सबिलास करहु कुँवरि राधे,

इहि बिधि सोरहै सिंगारनि सिंगारिबौ॥

- केशवदास

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किधौं मुख कमल ये कमला की ज्योति होति,

किधौं चारु मुख चंद चंदिका चुराई है।

किधौं मृग लोचनि मरीचिका मरीचि किधौं,

रूप की रुचिर रुचि सुचि सों दुराई है॥

सौरभ की सोभा की दसन घन दामिनि की,

'केसव' चतुर चित ही की चतुराई है।

ऐरी गोरी भोरी तेरी थोरी-थोरी हाँसी मेरे,

मोहन की मोहिनी की गिरा की गुराई है॥

- केशवदास

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'केसव' चौंकति सी चितवै, छिति पाँ धरके तरकै तकि छाँहि।

बूझिये और कहै मुख और, सु और की और भई छिन माहिं॥

डीठी लगी किधौं बाई लगी, मन भूलि पर्यो कै कर्यो कछु काहीं।

घूँघट की, घट की, पट की, हरि आजु कछु सुधि राधिकै नाहीं॥

- केशवदास

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मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।

जा तनु की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय॥

अधर धरत हरि के परत, ओंठ, दीठ, पट जोति।

हरित बाँस की बाँसुरी, इंद्र धनुष दुति होति॥

या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।

ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ॥

पत्रा ही तिथी पाइये, वा घर के चहुँ पास।

नित प्रति पून्यौ ही रहे, आनन-ओप उजास॥

कहति नटति रीझति मिलति खिलति लजि जात।

भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात॥

नाहिंन ये पावक प्रबल, लूऐं चलति चहुँ पास।

मानों बिरह बसंत के, ग्रीषम लेत उसांस॥

इन दुखिया अँखियान कौं, सुख सिरजोई नाहिं ।

देखत बनै न देखते, बिन देखे अकुलाहिं॥

सोनजुही सी जगमगी, अँग-अँग जोवनु जोति।

सुरँग कुसुंभी चूनरी, दुरँगु देहदुति होति॥

बामा भामा कामिनी, कहि बोले प्रानेस।

प्यारी कहत लजात नहीं, पावस चलत बिदेस॥

गोरे मुख पै तिल बन्यो, ताहि करौं परनाम।

मानो चंद बिछाइकै, पौढ़े सालीग्राम॥

मैं समुझ्यो निराधार, यह जग काचो काँच सो।

एकै रूप अपार, प्रतिबिम्बित लखिए तहाँ॥

- बिहारी

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पृथ्वीराज रासो (अंश)

पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान।

ता उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान॥

मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय।

बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥

बिगसि कमल-स्रिग, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय।

हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय॥

छप्पति गयंद हरि हंस गति, बिह बनाय संचै सँचिय।

पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ काम-कामिनि रचिय॥

मनहुँ काम-कामिनि रचिय, रचिय रूप की रास।

पसु पंछी मृग मोहिनी, सुर नर, मुनियर पास॥

सामुद्रिक लच्छिन सकल, चौंसठि कला सुजान।

जानि चतुर्दस अंग खट, रति बसंत परमान॥

सषियन संग खेलत फिरत, महलनि बग्ग निवास।

कीर इक्क दिष्षिय नयन, तब मन भयो हुलास॥

मन अति भयौ हुलास, बिगसि जनु कोक किरन-रबि।

अरुन अधर तिय सुघर, बिंबफल जानि कीर छबि॥

यह चाहत चष चकित, उह जु तक्किय झरंप्पि झर।

चंचु चहुट्टिय लोभ, लियो तब गहित अप्प कर॥

हरषत अनंद मन मँह हुलस, लै जु महल भीतर गइय।

पंजर अनूप नग मनि जटित, सो तिहि मँह रष्षत भइय॥

तिहि महल रष्षत भइय, गइय खेल सब भुल्ल।

चित्त चहुँट्टयो कीर सों, राम पढ़ावत फुल्ल॥

कीर कुंवरि तन निरषि दिषि, नष सिष लौं यह रूप।

करता करी बनाय कै, यह पद्मिनी सरूप॥

कुट्टिल केस सुदेस पोहप रचयित पिक्क सद।

कमल-गंध, वय-संध, हंसगति चलत मंद मंद॥

सेत वस्त्र सोहे सरीर, नष स्वाति बूँद जस।

भमर-भमहिं भुल्लहिं सुभाव मकरंद वास रस॥

नैनन निरषि सुष पाय सुक, यह सुदिन्न मूरति रचिय।

उमा प्रसाद हर हेरियत, मिलहि राज प्रथिराज जिय॥

- चन्द वरदाई

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मुकरियाँ

रात समय वह मेरे आवे। भोर भये वह घर उठि जावे॥

यह अचरज है सबसे न्यारा। ऐ सखि साजन? ना सखि तारा॥

नंगे पाँव फिरन नहिं देत। पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत॥

पाँव का चूमा लेत निपूता। ऐ सखि साजन? ना सखि जूता॥

वह आवे तब शादी होय। उस बिन दूजा और न कोय॥

मीठे लागें वाके बोल। ऐ सखि साजन? ना सखि ढोल॥

जब माँगू तब जल भरि लावे। मेरे मन की तपन बुझावे॥

मन का भारी तन का छोटा। ऐ सखि साजन? ना सखि लोटा॥

बेर-बेर सोवतहिं जगावे। ना जागूँ तो काटे खावे॥

व्याकुल हुई मैं हक्की बक्की। ऐ सखि साजन? ना सखि मक्खी॥

अति सुरंग है रंग रंगीले। है गुणवंत बहुत चटकीलो॥

राम भजन बिन कभी न सोता। क्यों सखि साजन? ना सखि तोता॥

अर्ध निशा वह आया भौन। सुंदरता बरने कवि कौन॥

निरखत ही मन भयो अनंद। क्यों सखि साजन? ना सखि चंद॥

शोभा सदा बढ़ावन हारा। आँखिन से छिन होत न न्यारा॥

आठ पहर मेरो मनरंजन। क्यों सखि साजन? ना सखि अंजन॥

जीवन सब जग जासों कहै। वा बिनु नेक न धीरज रहै॥

हरै छिनक में हिय की पीर। क्यों सखि साजन? ना सखि नीर॥

बिन आये सबहीं सुख भूले। आये ते अँग-अँग सब फूले॥

सीरी भई लगावत छाती। क्यों सखि साजन? ना सखि पाति॥

- अमीर खुसरो

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हमहु सब जानति लोक की चालनि, क्यौं इतनौ बतरावति हौ।

हित जामै हमारो बनै सो करौ, सखियाँ तुम मेरी कहावती हौ॥

'हरिचंद जु' जामै न लाभ कछु, हमै बातनि क्यों बहरावति हौ।

सजनी मन हाथ हमारे नहीं, तुम कौन कों का समुझावति हौ॥

ऊधो जू सूधो गहो वह मारग, ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है।

कोऊ नहीं सिख मानिहै ह्याँ, इक श्याम की प्रीति प्रतीति खरी है॥

ये ब्रजबाला सबै इक सी, 'हरिचंद जु' मण्डलि ही बिगरी है।

एक जो होय तो ज्ञान सिखाइये, कूप ही में इहाँ भाँग परी है॥

- भारतेन्दु हरीश्चन्द्र

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बालकाण्ड - रामचरितमानस

(अंश)

कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥

मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥

भए बिलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥

देखि सीय सोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥

जनु बिरंचि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥

सुंदरता कहुँ सुंदर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥

सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥

सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।

बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥ २३० ॥

तात जनकतया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥

पूजन गौरि सखीं लै आई। करत प्रकासु फिरइ फुलवाई॥

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥

सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मन कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥

मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ प्ररनारि न हेरी॥

जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥

मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥

करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।

मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥ २३१ ॥

चितवति चकित चहुँ दिसि सीता। कहँ गए नृप किसोर मनु चिंता॥

जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥

लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥

देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥

थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥

अधिक सनेहुँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥

लोचन मग रामही उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥

जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥

लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।

निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ॥ २३२ ॥

सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥

मोरपंख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥

भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥

बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥

चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥

मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥

उर मनि माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥

सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥

केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।

देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥ २३३ ॥

धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥

बहुरि गौरि कर ध्यान करेहु। भूपकिसोर देखि किन लेहु॥

सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंह निहारे॥

नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥

परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥

पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥

गूढ़ गिरा सुनि सुय सकुचानी। भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥

धरि बड़ि धीर रामु उर आने। फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥

देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।

निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥ २३४ ॥

जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥

प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥

परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥

गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥

जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥

जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥

नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥

भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥

पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।

महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥ २३५ ॥

सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥

देबि पुजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥

मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥

कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥

बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥

सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥

सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥

नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥

मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।

करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥

एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।

तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥

जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।

मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥ २३६ ॥

- गोस्वामी तुलसीदास

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कवितावली

अवधेस के द्वारे सकारे गई सुत गोद में भूपति लै निकसे ।

अवलोकि हौं सोच बिमोचन को ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से ॥

'तुलसी' मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन जातक-से ।

सजनी ससि में समसील उभै नवनील सरोरुह-से बिकसे ॥

तन की दुति श्याम सरोरुह लोचन कंज की मंजुलताई हरैं ।

अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंग की दूरि धरैं ॥

दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि ज्यों किलकैं कल बाल बिनोद करैं ।

अवधेस के बालक चारि सदा 'तुलसी' मन मंदिर में बिहरैं ॥

सीस जटा, उर बाहु बिसाल, बिलोचन लाल, तिरीछी सी भौंहैं ।

तून सरासन-बान धरें तुलसी बन मारग में सुठि सोहैं ॥

सादर बारहिं बार सुभायँ, चितै तुम्ह त्यों हमरो मनु मोहैं ।

पूँछति ग्राम बधु सिय सों, कहो साँवरे-से सखि रावरे को हैं ॥

सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने, सयानी हैं जानकी जानी भली ।

तिरछै करि नैन, दे सैन, तिन्हैं, समुझाइ कछु मुसुकाइ चली ॥

'तुलसी' तेहि औसर सोहैं सबै, अवलोकति लोचन लाहू अली ।

अनुराग तड़ाग में भानु उदै, बिगसीं मनो मंजुल कंजकली ॥

- गोस्वामी तुलसीदास

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झीनी-झीनी बीनी चदरिया,

काहे कै ताना, काहै कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया।

इंगला पिंगला ताना भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया॥

आठ कँवल दल चरखा डोलै, पाँच तत्त गुन तीनी चदरिया।

साँई को सियत मास दस लागै, ठोक-ठोक कै बीनी चदरिया॥

सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी, ओढ़ी कै मैली कीनी चदरिया।

दास 'कबीर' जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया॥

- कबीरदास

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काहे री नलिनी तूं कुमिलानी ।

तेरे ही नालि सरोवर पानीं ॥

जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास ।

ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि ॥

कहे 'कबीर' जे उदकि समान, ते नहिं मुए हमारे जान ।

- कबीरदास