धर्मवीर भारती

शाम: दो मनःस्थितियाँ

एक:

शाम है, मैं उदास हूँ शायद

अजनबी लोग अभी कुछ आयें

देखिए अनछुए हुए सम्पुट

कौन मोती सहेजकर लायें

कौन जाने कि लौटती बेला

कौन-से तार कहाँ छू जायें!

बात कुछ और छेड़िए तब तक

हो दवा ताकि बेकली की भी,

द्वार कुछ बन्द, कुछ खुला रखिए

ताकि आहट मिले गली की भी -

देखिए आज कौन आता है -

कौन-सी बात नयी कह जाये,

या कि बाहर से लौट जाता है

देहरी पर निशान रह जाये,

देखिए ये लहर डुबोये, या

सिर्फ़ तटरेख छू के बह जाये,

कूल पर कुछ प्रवाल छूट जायें

या लहर सिर्फ़ फेनावली हो

अधखिले फूल-सी विनत अंजुली

कौन जाने कि सिर्फ़ खाली हो?

दो:

वक़्त अब बीत गया बादल भी

क्या उदास रंग ले आये,

देखिए कुछ हुई है आहट-सी

कौन है? तुम? चलो भले आये!

अजनबी लौट चुके द्वारे से

दर्द फिर लौटकर चले आये

क्या अजब है पुकारिए जितना

अजनबी कौन भला आता है

एक है दर्द वही अपना है

लौट हर बार चला आता है

अनखिले गीत सब उसी के हैं

अनकही बात भी उसी की है

अनउगे दिन सब उसी के हैं

अनहुई रात भी उसी की है

जीत पहले-पहल मिली थी जो

आखिरी मात भी उसी की है

एक-सा स्वाद छोड़ जाती है

ज़िन्दगी तृप्त भी व प्यासी भी

लोग आये गये बराबर हैं

शाम गहरा गयी, उदासी भी!

- धर्मवीर भारती

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क्योंकि

...... क्योंकि सपना है अभी भी -

इसलिए तलवार टूटे, अश्व घायल

कोहरे डूबी दिशायें,

कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध-धूमिल,

किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी

...... क्योंकि है सपना अभी भी!

तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा

जबकि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा,

कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा,

विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था

(एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा)

किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना

है धधकती आग में तपना अभी भी

...... क्योंकि सपना है अभी भी!

तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर

यह तुम्ही हो जो

टूटती तलवार की झंकार में

या भीड़ की जयकार में

या मौत के सुनसान हाहाकार में

फिर गूंज जाती हो

और मुझको

ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको

फिर याद आता है कि

सब कुछ खो गया है - दिशाएँ, पहचान, कुंडल-कवच

लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं

तुम्हारा अपना अभी भी

इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल,

कोहरे डूबी दिशाएँ,

कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध-धुमिल

किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी

...... क्योंकि सपना है अभी भी!

- धर्मवीर भारती

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आम्र-बौर का गीत

कनुप्रिया (अंश)

यह जो मैं कभी-कभी चरम साक्षात्कार के क्षणों में

बिलकुल जड़ और निस्पन्द हो जाती हूँ

इस का मर्म तुम समझते क्यों नहीं मेरे साँवरे!

तुम्हारी जन्म-जन्मान्तर की रहस्य्मयी लीला की

एकान्त संगिनी मैं

इन क्षणों में अकस्मात

तुम से पृथक नहीं हो जाती हूँ मेरे प्राण,

तुम यह क्यों नहीं समझ पाते कि लाज

सिर्फ जिस्म की नहीं होती

मन की भी होती है

एक मधुर भय

एक अनजाना संशय,

एक आग्रह भरा गोपन,

एक निर्व्याख्या वेदना, उदासी,

जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी

अभिभूत कर लेती है।

भय, संशय, गोपन, उदासी

ये सभी ढीठ, चंचल, सरचढ़ी सहेलियों की तरह

मुझे घेर लेती हैं,

और मैं कितना चाह कर भी तुम्हारे पास ठीक उसी समय

नहीं पहुँच पाती जब आम्र मंजरियों के नीचे

अपनी बाँसुरी में मेरा नाम भर कर तुम बुलाते हो!

उस दिन तुम उस बौर लदे आम की

झुकी डालियों से टिके कितनी देर मुझे वंशी से टेरते रहे

ढलते सूरज की उदास काँपती किरणें

तुम्हारे माथे मे मोरपंखों

से बेबस विदा माँगने लगीं -

मैं नहीं आयी

गायें कुछ क्षण तुम्हें अपनी भोली आँखों से

मुँह उठाये देखती रहीं और फिर

धीरे-धीरे नन्दगाँव की पगडण्डी पर

बिना तुम्हारे अपने-आप मुड़ गयीं -

मैं नहीं आयी

यमुना के घाट पर

मछुओं ने अपनी नावें बाँध दीं

और कन्धों पर पतवारें रख चले गये -

मैं नहीं आयी

तुम ने वंशी होठों से हटा ली थी

और उदास, मौन, तुम आम्र-वृक्ष की जड़ों से टिक कर

बैठ गये थे

और बैठे रहे, बैठे रहे, बैठे रहे

मैं नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी

तुम अन्त में उठे

एक झुकी डाल पर खिला एक बौर तुम ने तोड़ा

और धीरे-धीरे चल दिये

अनमने तुम्हारे पाँव पगडण्डी पर चल रहे थे

पर जानते हो तुम्हारे अनजान में ही तुम्हारी उँगलियाँ

क्या कर रही थीं!

वे उस आम्र मंजरी को चूर-चूर कर

श्यामल वनघासों में बिछी उस माँग-सी उजली पगडण्डी पर

बिखेर रही थीं .....

यह तुमने क्या किया प्रिय!

क्या अपने अनजाने में ही

उस आम के बौर से मेरी क्वाँरी उजली पवित्र माँग

भर रहे थे साँवरे?

पर मुझे देखो कि मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर

इस अलौकिक सुहाग से प्रदीप्त हो कर

माथे पर पल्ला डाल कर

झुक कर तुम्हारी चरणधूलि ले कर

तुम्हें प्रणाम करने -

नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी!

**

पर मेरे प्राण

यह क्यों भूल जाते हो कि मैं वही

बावली लड़की हूँ न जो - कदम्ब के नीचे बैठ कर

जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को

तोड़ कर, मसल कर, उन की लाली से मेरे पाँव को

महावर रचने के लिए अपनी गोद में रखते हो

तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हूँ

अपनी दोनों बाँहों में अपने धुटने कस

मुँह फेर कर निश्चल बैठ जाती हूँ

पर शाम को जब घर आती हूँ तो

निभॄत एकान्त में दीपक के मन्द आलोक में

अपनी उन्हीं चरणों को

अपलक निहारती हूँ

बावली-सी उनहें बार-बार प्यार करती हूँ

जल्दी-जल्दी में अधबनी महावर की रेखाओं को

चारों ओर देख कर धीमे-से

चूम लेती हूँ।

***

रात गहरा आयी है

और तुम चले गये हो

और मैं कितनी देर तक बाँह से

उसी आम्र डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हूँ

जिस पर टिक कर तुम मेरी प्रतीक्षा करते हो

और मैं लौट रही हूँ,

हताश, और निष्फल

और ये आम के बौर के कण-कण

मेरे पाँव मे बुरी तरह साल रहे हैं।

पर तुम्हें यह कौन बतायेगा साँवरे

कि देर ही में सही

पर मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी

और माँग-सी उजली पगडण्डी पर बिखरे

ये मंजरी-कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो

इसी लिए न कि इतना लम्बा रास्ता

कितनी जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है

और काँटों और काँकरियों से

मेरे पाँव किस बुरी तरह घायल हो गये हैं!

यह कैसे बताऊँ तुम्हें

कि चरम साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी

जो कभी-कभी मेरे हाथ से छूट जाते हैं

तुम्हारी मर्म-पुकार जो कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती

तुम्हारी भेंट का अर्थ जो नहीं समझ पाती

तो मेरे साँवरे -

लाज मन की भी होती है

एक अज्ञात भय,

अपरिचित संशय,

आग्रह भरा गोपन,

और सुख के क्षण

में भी घिर आने वाली निर्व्याख्या उदासी -

फिर भी उसे चीर कर

देर में ही आऊँगी प्राण,

तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी

चन्दन-बाहों में भर कर बेसुध नहीं

कर दोगे?

- धर्मवीर भारती

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विप्रलब्धा

कनुप्रिया (अंश)

बुझी हुई राख, टूटे हुए गीत, डूबे हुए चाँद,

रीते हुए पात्र, बीते हुए क्षण-सा -

- मेरा यह जिस्म

कल तक जो जादू था, सूरज था, वेग था

तुम्हारे आश्लेष में

आज वह जूड़े से गिरे जुए बेले-सा

टूटा है, म्लान है

दुगुना सुनसान है

बीते हुए उतस्व-सा, उठे हुए मेले-सा -

मेरा यह जिस्म -

टूटे खँडहरों के उजाड़ अन्तःपुर में

छूटा हुआ एक साबित मणिजटित दर्पण-सा -

आधी रात दंश भरा बाहुहीन

प्यासा सर्वीला कसाव एक

जिसे जकड़ लेता है

अपनी गुंजलक में

अब सिर्फ मै हूँ, यह तन है, और याद है

खाली दर्पण में धुँधला-सा एक, प्रतिबिम्ब

मुड़-मुड़ लहराता हुआ

निज को दोहराता हुआ!

...................

...................

कौन था वह

जिस ने तुम्हारी बाँहों के आवर्त में

गरिमा से तन कर समय को ललकारा था!

कौन था वह

जिस की अलकों में जगत की समस्त गति

बँध कर पराजित थी!

कौन था वह

जिस के चरम साक्षात्कार का एक गहरा क्षण

सारे इतिहास से बड़ा था, सशक्त था!

कौन था कनु, वह,

तुम्हारी बाँहों में

जो सूरज था, जादू था, दिव्य मन्त्र था

अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है, और याद है।

मन्त्र-पढ़े बाण-से छूट गये तुम तो कनु,

शेष रही मैं केवल,

काँपती प्रत्यंचा-सी

अब भी जो बीत गया,

उसी में बसी हुई

अब भी उन बाहों के छलावे में

कसी हुई

जिन रूखी अलकों में

मैं ने समय की गति बाँधी थी -

हाय उन्हीं काले नागपाशों से

दिन-प्रतिदिन, क्षण-प्रतिक्षण बार-बार

डँसी हुई

अब सिर्फ मैं हूँ, यह तन है -

- और संशय है

- बुझी हुई राख में छिपी चिन्गारी-सा

रीते हुए पात्र की आखिरी बूँद-सा

पा कर खो देने की व्यथा-भरी गूँज-सा ......

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उसी आम के नीचे

कनुप्रिया (अंश)

उस तन्मयता में

तुम्हारे वक्ष में मुँह छिपा कर

लजाते हुए

मैं ने जो-जो कहा था

पता नहीं उस में कुछ अर्थ था भी या नहीं :

आम-मंजरियों से भरी हुई मांग के दर्प में

मैं ने समस्त जगत् को

अपनी बेसुधी के

एक क्षण में लीन करने का

जो दावा किया था - पता नहीं

वह सच था भी या नहीं:

जो कुछ अब भी इस मन में कसकता है

इस तन में काँप-काँप जाता है

वह स्वप्न था या यथार्थ

- अब मुझे याद नहीं

पर इतना जरूर जानती हूँ

कि इस आम की डाली के नीचे

जहाँ खड़े हो कर तुम ने मुझे बलाया था

अब भी मुझे आ कर बड़ी शान्ति मिलती है

***

न,

मैं कुछ सोचती नहीं

कुछ याद भी नहीं करती

सिर्फ मेरी अनमनी, भटकती उँगलियाँ

मेरे अनजाने, धूल में तुम्हारा

वह नाम लिख जाती हैं

जो मैं ने प्यार के गहनतम क्षणों में

खुद रखा था

और जिसे हम दोनों के अलावा

कोई जानता ही नहीं

और ज्यों ही सचेत हो कर

अपनी उँगलियों की

इस धृष्टता को जान पाती हूँ

चौंक कर उसे मिटा देती हूँ

(उसे मिटाते दुःख क्यों नहीं होता कनु!

क्या अब मैं केवल दो यन्त्रों का पुंज-मात्र हूँ?

- दो परस्पर विपरीत यन्त्र -

उन में से एक बिन अनुमति नाम लिखता है

दूसरा उसे बिना हिचक मिटा देता है!)

***

तीसरे पहर

चुपचाप यहाँ छाया में बैठती हूँ

और हवा ऊपर ताज़ी नरम टहनियों से,

और नीचे कपोलों पर झूलती मेरी रूखी अलकों

से खेल करती है

और मैं आँख मूंद कर बैठ जाती हूँ

और कल्पना करना चाहती हूँ कि

उस दिन बरसते में जिस छौने को

अपने आँचल में छिपा कर लायी थी

वह आज कितना, कितना, कितना महान हो गया है

लेकिन मैं कुछ नहीं सोच पाती

सिर्फ -

जहाँ तुम ने मुझे अमित प्यार दिया था

वहीं बैठ कर कंकड़, पत्ते, तिनके, टुकड़े चुनती रहती हूँ

तुम्हारे महान बनने में

क्या मेरा कुछ टूट कर बिखर गया है कनु!

वह सब अब भी

ज्यों का त्यों है

दिन ढले आम के नये बौरों का

चारों ओर अपना मायाजाल फेंकना

जाल में उलझ कर मेरा बेबस चले आना

नया है

केवल मेरा

सूनी माँग आना

सूनी माँग, शिथिल चरण, असमर्पिता

ज्यों का त्यों लौट जाना ........

उस तन्मयता में - आम-मंजरी से सजी माँग को

तुम्हारे वक्ष में छिपा कर लजाते हुए

बेसुध होते-होते

जो मैं ने सुना था

क्या उस में कुछ भी अर्थ नहीं था?

- धर्मवीर भारती

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समुद्र-स्वप्न

कनुप्रिया (अंश)

जिस की शेषशय्या पर

तुम्हारे साथ युगों-युगों तक क्रीड़ा की है

आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु!

लहरों के नीले अवगुण्ठन में

जहाँ सिन्दूरी गुलाब जैसा सूरज खिलता था

वहाँ सैकड़ों निष्फल सीपियाँ छटपटा रही है

- और तुम मौन हो

मैंने देखा कि अगणित विक्षुब्ध विक्रान्त लहरें

फेन का शिरस्राण पहने

सिवार का कवच धारण किये

निर्जीव मछलियों के धनुष लिये

युद्धमुद्रा में आतुर हैं

- और तुम कभी मध्यस्थ हो

कभी तटस्थ

कभी युधरत

और मैं ने देख कि अन्त में तुम

थक कर

इन सब से खिन्न, उदासीन, विस्मित और

कुछ-कुछ आहत

मेरे कन्धों से टिक कर बैठ गये हो

और तुम्हारी अनमनी भटकती उँगलियाँ

तट की गीली बालू पर

कभी कुछ, कभी कुछ लिख देती हैं

किसी उपलब्धि को व्यक्त करने के अभिप्राय

से नहीं;

मात्र उँगलियों को ठण्डे जल में डुबोने का

क्षणिक सुख लेने के लिए!

आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु!

विष भरे फेन, निर्जीव सूर्य, निष्फल सीपियाँ, निर्जीव मछलियाँ ......

- लहरें नियन्त्रणहीन होती जा रही हैं

और तुम तट पर बाँह उठा-उठा कर कुछ कहे जा रहे हो

पर तुम्हारी कोई नहीं सुनता, कोई नहीं सुनता!

अन्त में तुम हार कर, लौट कर, थक कर

मेरे वक्ष के गहराव में

अपना चौड़ा माथा रख कर

गहरी नींद में सो गये हो .....

और मेरे वक्ष का गहराव

समुद्र में बहता हुआ, बड़ा-सा ताजा, क्वाँरा, मुलायम, गुलाबी

पटपत्र बन गया है

जिस पर तुम छोटे-से छौने की भांति

लहरों के पालने में महाप्रलय के बाद सो रहे हो!

नींद में तुम्हारे होठ धीरे-धीरे हिलते हैं

"स्वधर्म! ........ आखिर मेरे लिए स्वधर्म क्या है?"

और लहरें थपक दे कर तुम्हे सुलाती हैं

"सो जाओ योगिराज .... सो जाओ ..... निद्रा

समाधि है!"

नींद में तुम्हारे होठ धीरे-धीरे हिलते हैं

"न्याय-अन्याय, सद्-असद्, विवेक-अविवेक -

कसौटी क्या है? आखिर कसौटी क्या है?"

और लहरें थपकी दे कर तुम्हें सुला देती हैं

"सो जाओ योगेश्वर ........ जागरण स्वप्न है,

छलना है, मिथ्या है!"

तुम्हारे माथे पर पसीना झलक आया है

और होंठ काँप रहे हैं

और तुम चौंक कर जाग जाते हो

और तुम्हें कोई भी कसौटी नहीं मिलती

और जुए के पाँसे की तरह तुम निर्णय को फेंक देते हो

जो मेरे पैताने है वह स्वधर्म

जो मेरे सिरहाने है वह अधर्म ........

और यह सुनते ही लहरें

घायल साँपों-सी लहर लेने लगती है

और प्रलय फिर शुरू हो जाता है

और तुम फिर उदास हो कर किनारे बैठ जाते हो

और विषादपूर्ण दृष्टि से शून्य में देखते हुए

कहते हो - "यदि कहीं उस दिन मेरे पैताने

दुर्योधन होता तो ..................... आह

इस विराट् समुद्र के किनारे ओ अर्जुन, मैं भी

अबोध बालक हूँ!

आज मैंने समुद्र को स्वप्न में देखा कनु!

तट पर जल-देवदारुओं में

बार-बार कण्ठ खोलती हुई हवा

के गूँगे झकोरे,

बालू पर अपने पगचिन्ह बनाने के करुण प्रयास में

बैसाखियों पर चलता हुआ इतिहास,

...... लहरों में तुम्हारे श्लोकों से अभिमन्त्रित गाण्डीव

गले हुए सिवार-सा उतरा आया है ......

और अब तुम तटस्थ हो और उदास

समुद्र के किनारे

नारियल का कुंज है

और तुम एक बूढ़े पीपल के नीचे चुपचाप बैठे हो

मौन, परिशमित, विरक्त

और पहली बार जैसे तुम्हारी अक्षय तरुणाई पर

थकान छा रही है!

और चारों ओर

एक खिन्न दृष्टि से देख कर

एक गहरी साँस लेकर

तुम ने असफल इतिहास को

जीर्णवसन की भाँति त्याग दिया है

और इस क्षण

केवल अपने में डूबे हुए

दर्द में पके हुए

तुम्हें बहुत दिन बाद मेरी याद आयी है!

काँपती हुई दीप लौ जैसे

पीपल के पत्ते

एक-एक कर बुझ गये

उतरता हुआ अँधियारा ......

समुद्र की लहरें अब तुम्हारी फैली हुई साँवरी शिथिल बाँहें हैं

भटकती सीपियाँ तुम्हारे काँपते अधर

और अब इस क्षण तुम

केवल एक भरी हुई

पकी हुई

गहरी पुकार हो ..........

सब त्याग कर

मेरे लिए भटकती हुई ......

- धर्मवीर भारती

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समापन

कनुप्रिया (अंश)

क्या तुम ने उस वेला मुझे बुलाया था कनु?

लो, मैं सब छोड़-छाड़ कर आ गयी!

इसी लिए तब

मैं तुम में बूँद की तरह विलीन नहीं हुई थी,

इसी लिए मैं ने अस्वीकार कर दिया था

तुम्हारे गोलोक का

कालावधिहीन रास,

क्योंकि मुझे फिर आना था!

तुम ने मुझे पुकारा था न

मैं आ गयी हूँ कनु!

और जन्मान्तरों की अनन्त पगडण्डी के

कठिनतम मोड़ पर खड़ी हो कर

तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ।

कि इस बार इतिहास बनाते समय

तुम अकेले न छूट जाओ!

सुनो मेरे प्यार!

प्रगाढ़ केलिक्षणों में अपनी अन्तरंग

सखी को तुम ने बाहों में गूँथा

पर उसे इतिहास में गूँथने से हिचक क्यों गये प्रभू?

बिना मेरे कोई भी अर्थ कैसे निकल पाता

तुम्हारे इतिहास का

शब्द, शब्द, शब्द ....

राधा के बिना

सब

रक्त के प्यासे

अर्थहीन शब्द!

सुनो मेरे प्यार!

तुम्हें मेरी जरूरत थी न, लो मैं सब छोड़ कर आ गयी हूँ

ताकि कोई यह न कहे

कि तुम्हारी अन्तरंग केलिसखी

केवल तुम्हारे साँवरे तन के नशीले संगीत की

लय बन कर रह गयी .........

मैं आ गयी हूँ प्रिय!

मेरी वेणी में अग्निपुष्प गुँथने वाली

तुम्हारी उँगलियाँ

अब इतिहास में अर्थ क्यों नहीं गूँथतीं?

तुम ने मुझे पुकारा था न!

मैं पगडण्डी के कठिनतम मोड़ पर

तुम्हारी प्रतीक्षा में

अडिग खड़ी हूँ, कनु मेरे!

- धर्मवीर भारती

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हिचकियों से एक बात का पता चलता है, कि कोई हमे याद तो करता है,

बात न करे तो क्या हुआ, कोई आज भी हम पर कुछ लम्हे बरबाद तो करता है

ज़िंदगी हमेशा पाने के लिए नही होती, हर बात समझाने के लिए नही होती,

याद तो अक्सर आती है आप की, लकिन हर याद जताने के लिए नही होती

महफिल न सही तन्हाई तो मिलती है, मिलन न सही जुदाई तो मिलती है,

कौन कहता है मोहब्बत में कुछ नही मिलता, वफ़ा न सही बेवफाई तो मिलती है

कितनी जल्दी ये मुलाक़ात गुज़र जाती है प्यास भुजती नही बरसात गुज़र जाती है

अपनी यादों से कह दो कि यहाँ न आया करे नींद आती नही और रात गुज़र जाती है

उमर की राह मे रस्ते बदल जाते हैं, वक्त की आंधी में इन्सान बदल जाते हैं,

सोचते हैं तुम्हें इतना याद न करें, लेकिन आंखें बंद करते ही इरादे बदल जाते हैं

कभी कभी दिल उदास होता है हल्का हल्का सा आँखों को एहसास होता है

छलकती है मेरी भी आँखों से नमी जब तुम्हारे दूर होने का एहसास होता है

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