अज्ञेय

  • आंगन के पार द्वार
  • सरस्वती पुत्र / अज्ञेय
    • मन्दिर के भीतर वे सब धुले-पुँछे उघड़े-अवलिप्त,
    • खुले गले से
    • मुखर स्वरों में
    • अति-प्रगल्भ
    • गाते जाते थे राम-नाम।
    • भीतर सब गूँगे, बहरे, अर्थहीन, जल्पक,
    • निर्बोध, अयाने, नाटे,
    • पर बाहर जितने बच्चे उतने ही बड़बोले।
    • बाहर वह
    • खोया-पाया, मैला-उजला
    • दिन-दिन होता जाता वयस्क,
    • दिन-दिन धुँधलाती आँखों से
    • सुस्पष्ट देखता जाता था;
    • पहचान रहा था रूप,
    • पा रहा वाणी और बूझता शब्द,
    • पर दिन-दिन अधिकाधिक हकलाता था:
    • दिन-दिन पर उसकी घिग्घी बँधती जाती थी।
  • बना दे, चितेरे / अज्ञेय
  • बना दे चितेरे,
    • मेरे लिए एक चित्र बना दे।
      • पहले सागर आँक :
      • विस्तीर्ण प्रगाढ़ नीला,
      • ऊपर हलचल से भरा,
      • पवन के थपेड़ों से आहत,
      • शत-शत तरंगों से उद्वेलित,
      • फेनोर्मियों से टूटा हुआ,
      • किन्तु प्रत्येक टूटन में
      • अपार शोभा लिये हुए,
      • चंचल उत्कृष्ट,
      • -जैसे जीवन।
      • हाँ, पहले सागर आँक :
      • नीचे अगाध, अथाह,
      • असंख्य दबावों, तनावों,
      • खींचों और मरोड़ों को
      • अपनी द्रव एकरूपता में समेटे हुए,
      • असंख्य गतियों और प्रवाहों को
      • अपने अखण्ड स्थैर्य में समाहित किये हुए
      • स्वायत्त,
      • अचंचल
      • -जैसे जीवन....
      • सागर आँक कर फिर आँक एक उछली हुई मछली :
      • ऊपर अधर में
      • जहाँ ऊपर भी अगाध नीलिमा है
      • तरंगोर्मियाँ हैं, हलचल और टूटन है,
      • द्रव है, दबाव है
      • और उसे घेरे हुए वह अविकल सूक्ष्मता है
      • जिस में सब आन्दोलन स्थिर और समाहित होते हैं;
      • ऊपर अधर में
      • हवा का एक बुलबुला-भर पीने को
      • उछली हुई मछली
      • जिसकी मरोड़ी हुई देह-वल्ली में
      • उसकी जिजीविषा की उत्कट आतुरता मुखर है।
      • जैसे तडिल्लता में दो बादलों के बीच के खिंचाव सब कौंध जाते हैं-
      • वज्र अनजाने, अप्रसूत, असन्धीत सब
      • गल जाते हैं।
      • उस प्राणों का एक बुलबुला-भर पी लेने को-
      • उस अनन्त नीलिमा पर छाये रहते ही
      • जिस में वह जनमी है, जियी है, पली है, जियेगी,
      • उस दूसरी अनन्त प्रगाढ़ नीलिमा की ओर
      • विद्युल्लता की कौंध की तरह
      • अपनी इयत्ता की सारी आकुल तड़प के साथ उछली हुई
      • एक अकेली मछली।
    • बना दे, चितेरे,
    • यह चित्र मेरे लिए आँक दे।
    • मिट्टी की बनी, पानी से सिंची, प्राणाकाश की प्यासी
    • उस अन्तहीन उदीषा को
    • तू अन्तहीन काल के लिए फलक पर टाँक दे-
    • क्योंकि यह माँग मेरी, मेरी, मेरी है कि प्राणों के
    • एक जिस बुलबुले की ओर मैं हुआ हूँ उदग्र, वह
    • अन्तहीन काल तक मुझे खींचता रहे :
    • मैं उदग्र ही बना रहूँ कि
    • -जाने कब-
    • वह मुझे सोख ले
  • भीतर जागा दाता / अज्ञेय
    • मतियाया
    • सागर लहराया।
    • तरंग की पंखयुक्त वीणा पर
    • पवन से भर उमंग से गाया।
    • फेन-झालरदार मखमली चादर पर मचलती
    • किरण-अपसराएँ भारहीन पैरों से थिरकीं-
    • जल पर आलते की छाप छोड़ पल-पल बदलती।
    • दूर धुँधला किनारा
    • झूम-झूम आया, डगमगाया किया।
    • मेरे भीतर जागा
    • दाता
    • बोला :
    • लो, यह सागर मैंने तुम्हें दिया।
    • हरियाली बिछ गयी तराई पर,
    • घाटी की पगडण्डी
    • लजाई और ओट हुई-
    • पर चंचला रह न सकी, फिर उझकी और झाँक गयी।
    • छरहरे पेड़ की नयी रंगीली फुनगी
    • आकाश के भाल पर जय-तिलक आँक गयी।
    • गेहूँ की हरी बालियों में से
    • कभी राई की उजली, कभी सरसों की पाली फूल-ज्योत्स्ना दिप गयी,
    • कभी लाली पोस्ते की सहसा चौंका गयी-
    • कभी लघु नीलिमा तीसी की चमकी और छिप गयी।
    • मेरे भीतर फिर जागा
    • दाता
    • और मैंने फिर नीरव संकल्प किया :
    • लो, यह हरी-भरी धरती-यह सवत्सा कामधेनु-मैंने तुम्हें दी
    • आकाश भी तुम्हें दिया
    • यह बौर, यह अंकुर, ये रंग, ये फूल, ये कोंपलें,
    • ये दूधिया कनी से भरी बालियाँ,
    • ये मैंने तुम्हें दीं।
    • आँकी-बाँकी रेखा यह,
    • मेड़ों पर छाग-छौने ये किलोलते,
    • यह तलैया, गलियारा यह
    • सरसों के जोड़े, मौन खड़े पर तोलते-
    • यह रूप जो केवल मैंने देखा है,
    • यह अनुभव अद्वितीय, जो केवल मैंने जिया,
    • सब तुम्हें दिया।
    • एक स्मृति से मन पूत हो आया।
    • एक श्रद्धा से आहुत प्राणों ने गाया।
    • एक प्यार की ज्वार दुर्निवार बढ़ आया।
    • मैं डूबा नहीं उमड़ा-उतराया,
    • फिर भीतर
    • दाता खिल आया।
    • हँसा, हँस कर तुम्हें बुलाया :
    • लो, यह स्मृति, यह श्रद्धा, यह हँसी,
    • यह आहूत, स्पर्श-पूत भाव
    • यह मैं, यह तुम, यह खिलना,
    • यह ज्वार, यह प्लवन,
    • यह प्यार, यह अडूब उमड़ना-
    • सब तुम्हें दिया।
    • सब
    • तुम्हें
    • दिया।
  • अन्धकार में दीप / अज्ञेय
    • अन्धकार था :
    • सब-कुछ जाना-
    • पहचाना था
    • हुआ कभी न गया हो, फिर भी
    • सब-कुछ की संयति थी,
    • संहति थी,
    • स्वीकृति थी।
      • दिया जलाया :
      • अर्थहीन आकारों की यह
      • अर्थहीनतर भीड़-
      • निरर्थकता का संकुल-
      • निर्जल पारावार न-कारों का
      • यह उमड़ा आया।
    • कहाँ गया वह
    • जिस ने सब-कुछ को
    • ऋत के ढाँचे में बैठाया ?
  • पास और दूर / अज्ञेय
    • जो पास रहे
    • वे ही तो सबसे दूर रहे :
    • प्यार से बार-बार
    • जिन सब ने उठ-उठ हाथ और झुक-झुक कर पैर गहे,
    • वे ही दयालु, वत्सल स्नेही तो
    • सब से क्रूर रहे।
    • जो चले गये
    • ठुकरा कर हड्डी-पसली तोड़ गये
    • पर जो मिट्टी
    • उन के पग रोष-भरे खूँदते रहे,
    • फिर अवहेला से रौंद गये :
    • उसको वे ही एक अनजाने नयी खाद दे गाड़ गये :
    • उसमें ही वे एक अनोखा अंकुर रोप गये।
    • -जो चले गये, जो छोड़ गये,
    • जो जड़े काट, मिट्टी उपाट,
    • चुन-चुन कर डाल मरोड़ गये
    • वे नहर खोद कर अनायास
    • सागर से सागर जोड़ गये
    • मिटा गये अस्तित्व,
    • किन्तु वे
    • जीवन मुझको सौंप गये।
  • पहचान / अज्ञेय
  • तुम वही थीं :
  • किन्तु ढलती धूप का कुछ खेल था-
  • ढलती उमर के दाग़ उसने धो दिये थे।
  • भूल थी
  • पर
  • बन गयी पहचान-
  • मैं भी स्मरण से
  • नहा आया।

असाध्य वीणा

"मुझे स्मरण है

उझक क्षितिज से

किरण भोर की पहली

जब तकती है ओस-बूँद को

उस क्षण की सहसा चौंकी-सी सिहरन।

और दुपहरी में जब

घास-फूल अनदेखे खिल जाते हैं

मौमाखियाँ असंख्य झूमती करती हैं गुंजार --

उस लम्बे विलमे क्षण का तन्द्रालस ठहराव।

और साँझ को

जब तारों की तरल कँपकँपी

स्पर्शहीन झरती है --

मानो नभ में तरल नयन ठिठकी

नि:संख्य सवत्सा युवती माताओं के आशिर्वाद --

उस सन्धि-निमिष की पुलकन लीयमान।

"मुझे स्मरण है

और चित्र प्रत्येक

स्तब्ध, विजड़ित करता है मुझको।

सुनता हूँ मैं

पर हर स्वर-कम्पन लेता है मुझको मुझसे सोख --

वायु-सा नाद-भरा मैं उड़ जाता हूँ। ...

मुझे स्मरण है --

पर मुझको मैं भूल गया हूँ :

सुनता हूँ मैं --

पर मैं मुझसे परे, शब्द में लीयमान।

"मैं नहीं, नहीं ! मैं कहीं नहीं !

ओ रे तरु ! ओ वन !

ओ स्वर-सँभार !

नाद-मय संसृति !

ओ रस-प्लावन !

मुझे क्षमा कर -- भूल अकिंचनता को मेरी --

मुझे ओट दे -- ढँक ले -- छा ले --

ओ शरण्य !

मेरे गूँगेपन को तेरे सोये स्वर-सागर का ज्वार डुबा ले !

आ, मुझे भला,

तू उतर बीन के तारों में

अपने से गा

अपने को गा --

अपने खग-कुल को मुखरित कर

अपनी छाया में पले मृगों की चौकड़ियों को ताल बाँध,

अपने छायातप, वृष्टि-पवन, पल्लव-कुसुमन की लय पर

अपने जीवन-संचय को कर छंदयुक्त,

अपनी प्रज्ञा को वाणी दे !

तू गा, तू गा --

तू सन्निधि पा -- तू खो

तू आ -- तू हो -- तू गा ! तू गा !"

राजा आगे

समाधिस्थ संगीतकार का हाथ उठा था --

काँपी थी उँगलियाँ।

अलस अँगड़ाई ले कर मानो जाग उठी थी वीणा :

किलक उठे थे स्वर-शिशु।

नीरव पद रखता जालिक मायावी

सधे करों से धीरे धीरे धीरे

डाल रहा था जाल हेम तारों-का ।

सहसा वीणा झनझना उठी --

संगीतकार की आँखों में ठंडी पिघली ज्वाला-सी झलक गयी --

रोमांच एक बिजली-सा सबके तन में दौड़ गया ।

अवतरित हुआ संगीत

स्वयम्भू

जिसमें सीत है अखंड

ब्रह्मा का मौन

अशेष प्रभामय ।

डूब गये सब एक साथ ।

सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे ।

राजा ने अलग सुना :

"जय देवी यश:काय

वरमाल लिये

गाती थी मंगल-गीत,

दुन्दुभी दूर कहीं बजती थी,

राज-मुकुट सहसा हलका हो आया था, मानो हो फल सिरिस का

ईर्ष्या, महदाकांक्षा, द्वेष, चाटुता

सभी पुराने लुगड़े-से झड़ गये, निखर आया था जीवन-कांचन

धर्म-भाव से जिसे निछावर वह कर देगा ।

रानी ने अलग सुना :

छँटती बदली में एक कौंध कह गयी --

तुम्हारे ये मणि-माणिक, कंठहार, पट-वस्त्र,

मेखला किंकिणि --

सब अंधकार के कण हैं ये ! आलोक एक है

प्यार अनन्य ! उसी की

विद्युल्लता घेरती रहती है रस-भार मेघ को,

थिरक उसी की छाती पर उसमें छिपकर सो जाती है

आश्वस्त, सहज विश्वास भरी ।

रानी

उस एक प्यार को साधेगी ।

सबने भी अलग-अलग संगीत सुना ।

इसको

वह कृपा-वाक्य था प्रभुओं का --

उसकी

आतंक-मुक्ति का आश्वासन :

इसको

वह भरी तिजोरी में सोने की खनक --

उसे

बटुली में बहुत दिनों के बाद अन्न की सोंधी खुशबू ।

किसी एक को नयी वधू की सहमी-सी पायल-ध्वनि ।

किसी दूसरे को शिशु की किलकारी ।

एक किसी को जाल-फँसी मछली की तड़पन --

एक अपर को चहक मुक्त नभ में उड़ती चिड़िया की ।

एक तीसरे को मंडी की ठेलमेल, गाहकों की अस्पर्धा-भरी बोलियाँ

चौथे को मन्दिर मी ताल-युक्त घंटा-ध्वनि ।

और पाँचवें को लोहे पर सधे हथौड़े की सम चोटें

और छठें को लंगर पर कसमसा रही नौका पर लहरों की अविराम थपक ।

बटिया पर चमरौधे की रूँधी चाप सातवें के लिये --

और आठवें को कुलिया की कटी मेंड़ से बहते जल की छुल-छुल

इसे गमक नट्टिन की एड़ी के घुँघरू की

उसे युद्ध का ढाल :

इसे सझा-गोधूली की लघु टुन-टुन --

उसे प्रलय का डमरू-नाद ।

इसको जीवन की पहली अँगड़ाई

पर उसको महाजृम्भ विकराल काल !

सब डूबे, तिरे, झिपे, जागे --

ओ रहे वशंवद, स्तब्ध :

इयत्ता सबकी अलग-अलग जागी,

संघीत हुई,

पा गयी विलय ।

वीणा फिर मूक हो गयी ।

साधु ! साधु ! "

उसने

राजा सिंहासन से उतरे --

"रानी ने अर्पित की सतलड़ी माल,

हे स्वरजित ! धन्य ! धन्य ! "

संगीतकार

वीणा को धीरे से नीचे रख, ढँक -- मानो

गोदी में सोये शिशु को पालने डाल कर मुग्धा माँ

हट जाय, दीठ से दुलारती --

उठ खड़ा हुआ ।

बढ़ते राजा का हाथ उठा करता आवर्जन,

बोला :

"श्रेय नहीं कुछ मेरा :

मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में

वीणा के माध्यम से अपने को मैंने

सब कुछ को सौंप दिया था --

सुना आपने जो वह मेरा नहीं,

न वीणा का था :

वह तो सब कुछ की तथता थी

महाशून्य

वह महामौन

अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय

जो शब्दहीन

सबमें गाता है ।"

नमस्कार कर मुड़ा प्रियंवद केशकम्बली। लेकर कम्बल गेह-गुफा को चला गया ।

उठ गयी सभा । सब अपने-अपने काम लगे ।

युग पलट गया ।

प्रिय पाठक ! यों मेरी वाणी भी

मौन हुई ।

अज्ञेय

___________________________________________________

आ गये प्रियंवद ! केशकम्बली ! गुफा-गेह !

राजा ने आसन दिया। कहा :

"कृतकृत्य हुआ मैं तात ! पधारे आप।

भरोसा है अब मुझ को

साध आज मेरे जीवन की पूरी होगी !"

लघु संकेत समझ राजा का

गण दौड़े ! लाये असाध्य वीणा,

साधक के आगे रख उसको, हट गये।

सभा की उत्सुक आँखें

एक बार वीणा को लख, टिक गयीं

प्रियंवद के चेहरे पर।

"यह वीणा उत्तराखंड के गिरि-प्रान्तर से

--घने वनों में जहाँ व्रत करते हैं व्रतचारी --

बहुत समय पहले आयी थी।

पूरा तो इतिहास न जान सके हम :

किन्तु सुना है

वज्रकीर्ति ने मंत्रपूत जिस

अति प्राचीन किरीटी-तरु से इसे गढा़ था --

उसके कानों में हिम-शिखर रहस्य कहा करते थे अपने,

कंधों पर बादल सोते थे,

उसकी करि-शुंडों सी डालें

हिम-वर्षा से पूरे वन-यूथों का कर लेती थीं परित्राण,

कोटर में भालू बसते थे,

केहरि उसके वल्कल से कंधे खुजलाने आते थे।

और --सुना है-- जड़ उसकी जा पँहुची थी पाताल-लोक,

उसकी गंध-प्रवण शीतलता से फण टिका नाग वासुकि सोता था।

उसी किरीटी-तरु से वज्रकीर्ति ने

सारा जीवन इसे गढा़ :

हठ-साधना यही थी उस साधक की --

वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन-लीला।"

राजा रुके साँस लम्बी लेकर फिर बोले :

"मेरे हार गये सब जाने-माने कलावन्त,

सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,

कोई ज्ञानी गुणी आज तक इसे न साध सका।

अब यह असाध्य वीणा ही ख्यात हो गयी।

पर मेरा अब भी है विश्वास

कृच्छ-तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।

वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी।

इसे जब सच्चा स्वर-सिद्ध गोद में लेगा।

तात! प्रियंवद! लो, यह सम्मुख रही तुम्हारे

वज्रकीर्ति की वीणा,

यह मैं, यह रानी, भरी सभा यह :

सब उदग्र, पर्युत्सुक,

जन मात्र प्रतीक्षमाण !"

केश-कम्बली गुफा-गेह ने खोला कम्बल।

धरती पर चुपचाप बिछाया।

वीणा उस पर रख, पलक मूँद कर प्राण खींच,

करके प्रणाम,

अस्पर्श छुअन से छुए तार।

धीरे बोला : "राजन! पर मैं तो

कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ--

जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।

वज्रकीर्ति!

प्राचीन किरीटी-तरु!

अभिमन्त्रित वीणा!

ध्यान-मात्र इनका तो गदगद कर देने वाला है।"

चुप हो गया प्रियंवद।

सभा भी मौन हो रही।

वाद्य उठा साधक ने गोद रख लिया।

धीरे-धीरे झुक उस पर, तारों पर मस्तक टेक दिया।

सभा चकित थी -- अरे, प्रियंवद क्या सोता है?

केशकम्बली अथवा होकर पराभूत

झुक गया तार पर?

वीणा सचमुच क्या है असाध्य?

पर उस स्पन्दित सन्नाटे में

मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा--

नहीं, अपने को शोध रहा था।

सघन निविड़ में वह अपने को

सौंप रहा था उसी किरीटी-तरु को

कौन प्रियंवद है कि दंभ कर

इस अभिमन्त्रित कारुवाद्य के सम्मुख आवे?

कौन बजावे

यह वीणा जो स्वंय एक जीवन-भर की साधना रही?

भूल गया था केश-कम्बली राज-सभा को :

कम्बल पर अभिमन्त्रित एक अकेलेपन में डूब गया था

जिसमें साक्षी के आगे था

जीवित रही किरीटी-तरु

जिसकी जड़ वासुकि के फण पर थी आधारित,

जिसके कन्धों पर बादल सोते थे

और कान में जिसके हिमगिरी कहते थे अपने रहस्य।

सम्बोधित कर उस तरु को, करता था

नीरव एकालाप प्रियंवद।

"ओ विशाल तरु!

शत सहस्र पल्लवन-पतझरों ने जिसका नित रूप सँवारा,

कितनी बरसातों कितने खद्योतों ने आरती उतारी,

दिन भौंरे कर गये गुंजरित,

रातों में झिल्ली ने

अनथक मंगल-गान सुनाये,

साँझ सवेरे अनगिन

अनचीन्हे खग-कुल की मोद-भरी क्रीड़ा काकलि

डाली-डाली को कँपा गयी--

ओ दीर्घकाय!

ओ पूरे झारखंड के अग्रज,

तात, सखा, गुरु, आश्रय,

त्राता महच्छाय,

ओ व्याकुल मुखरित वन-ध्वनियों के

वृन्दगान के मूर्त रूप,

मैं तुझे सुनूँ,

देखूँ, ध्याऊँ

अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुत, निर्वाक :

कहाँ साहस पाऊँ

छू सकूँ तुझे !

तेरी काया को छेद, बाँध कर रची गयी वीणा को

किस स्पर्धा से

हाथ करें आघात

छीनने को तारों से

एक चोट में वह संचित संगीत जिसे रचने में

स्वंय न जाने कितनों के स्पन्दित प्राण रचे गये।

"नहीं, नहीं ! वीणा यह मेरी गोद रही है, रहे,

किन्तु मैं ही तो

तेरी गोदी बैठा मोद-भरा बालक हूँ,

तो तरु-तात ! सँभाल मुझे,

मेरी हर किलक

पुलक में डूब जाय :

मैं सुनूँ,

गुनूँ,

विस्मय से भर आँकू

तेरे अनुभव का एक-एक अन्त:स्वर

तेरे दोलन की लोरी पर झूमूँ मैं तन्मय--

गा तू :

तेरी लय पर मेरी साँसें

भरें, पुरें, रीतें, विश्रान्ति पायें।

"गा तू !

यह वीणा रखी है : तेरा अंग -- अपंग।

किन्तु अंगी, तू अक्षत, आत्म-भरित,

रस-विद,

तू गा :

मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा

स्मृति का

श्रुति का --

तू गा, तू गा, तू गा, तू गा !

" हाँ मुझे स्मरण है :

बदली -- कौंध -- पत्तियों पर वर्षा बूँदों की पटापट।

घनी रात में महुए का चुपचाप टपकना।

चौंके खग-शावक की चिहुँक।

शिलाओं को दुलारते वन-झरने के

द्रुत लहरीले जल का कल-निनाद।

कुहरें में छन कर आती

पर्वती गाँव के उत्सव-ढोलक की थाप।

गड़रिये की अनमनी बाँसुरी।

कठफोड़े का ठेका। फुलसुँघनी की आतुर फुरकन :

ओस-बूँद की ढरकन-इतनी कोमल, तरल, कि झरते-झरते

मानो हरसिंगार का फूल बन गयी।

भरे शरद के ताल, लहरियों की सरसर-ध्वनि।

कूँजो की क्रेंकार। काँद लम्बी टिट्टिभ की।

पंख-युक्त सायक-सी हंस-बलाका।

चीड़-वनो में गन्ध-अन्ध उन्मद मतंग की जहाँ-तहाँ टकराहट

जल-प्रपात का प्लुत एकस्वर।

झिल्ली-दादुर, कोकिल-चातक की झंकार पुकारों की यति में

संसृति की साँय-साँय।

"हाँ मुझे स्मरण है :

दूर पहाड़ों-से काले मेघों की बाढ़

हाथियों का मानों चिंघाड़ रहा हो यूथ।

घरघराहट चढ़ती बहिया की।

रेतीले कगार का गिरना छ्प-छपाड़।

झंझा की फुफकार, तप्त,

पेड़ों का अररा कर टूट-टूट कर गिरना।

ओले की कर्री चपत।

जमे पाले-ले तनी कटारी-सी सूखी घासों की टूटन।

ऐंठी मिट्टी का स्निग्ध घास में धीरे-धीरे रिसना।

हिम-तुषार के फाहे धरती के घावों को सहलाते चुपचाप।

घाटियों में भरती

गिरती चट्टानों की गूंज --

काँपती मन्द्र -- अनुगूँज -- साँस खोयी-सी,

धीरे-धीरे नीरव।

"मुझे स्मरण है

हरी तलहटी में, छोटे पेडो़ की ओट ताल पर

बँधे समय वन-पशुओं की नानाबिध आतुर-तृप्त पुकारें :

गर्जन, घुर्घुर, चीख, भूख, हुक्का, चिचियाहट।

कमल-कुमुद-पत्रों पर चोर-पैर द्रुत धावित

जल-पंछी की चाप।

थाप दादुर की चकित छलांगों की।

पन्थी के घोडे़ की टाप धीर।

अचंचल धीर थाप भैंसो के भारी खुर की।

___________________________________________________

___________________________________________________

चाँदनी चुप-चाप सारी रात

सूने आँगन में

जाल रचती रही।

मेरी रूपहीन अभिलाषा

अधूरेपन की मद्धिम

आँच पर तँचती रही।

व्यथा मेरी अनकही

आनन्द की सम्भावना के

मनश्चित्रों से परचती रही।

मैं दम साधे रहा,

मन में अलक्षित

आँधी मचती रही :

प्रातः बस इतना कि मेरी बात

सारी रात

उघड़कर वासना का

रूप लेने से बचती रही।

___________________________________________________

मैं ने देखा

एक बूँद सहसा

उछली सागर के झाग से;

रंग गई क्षणभर,

ढलते सूरज की आग से।

मुझ को दीख गया:

सूने विराट् के सम्‍मुख

हर आलोक-छुआ अपनापन

है उन्‍मोचन

नश्‍वरता के दाग से!

___________________________________________________

एक दिन सहसा

सूरज निकला

अरे क्षितिज पर नहीं,

नगर के चौक:

धूप बरसी

पर अंतरिक्ष से नहीं,

फटी मिट्टी से।

छायाएँ मानव-जन की

दिशाहिन

सब ओर पड़ीं-वह सूरज

नहीं उगा था वह पूरब में, वह

बरसा सहसा

बीचों-बीच नगर के:

काल-सूर्य के रथ्‍ा के

पहियों के ज्‍यों अरे टूट कर

बिखर गए हों

दसों दिशा में।

कुछ क्षण का वह उदय-अस्‍त!

केवल एक प्रज्‍वलित क्षण की

दृष्‍य सोक लेने वाली एक दोपहरी।

फिर?

छायाएँ मानव-जन की

नहीं मिटीं लंबी हो-हो कर:

मानव ही सब भाप हो गए।

छायाएँ तो अभी लिखी हैं

झुलसे हुए पत्‍थरों पर

उजरी सड़कों की गच पर।

मानव का रचा हुया सूरज

मानव को भाप बनाकर सोख गया।

पत्‍थर पर लिखी हुई यह

जली हुई छाया

मानव की साखी है।

_____

दीप पत्थर का

लजीली किरण की

पद चाप नीरव :

अरी ओ करुणा प्रभामय !

कब ? कब ?

______________________________________________

हम निहारते रूप

काँच के पीछे

हाँप रही है, मछली ।

रूप तृषा भी

(और काँच के पीछे)

हे जिजीविषा ।

___________________________________________________

अंकुरित धरा से क्षमा

व्योम से झरी रुपहली करुणा

सरि, सागर, सोते-निर्झर-सा

उमड़े जीवन :

कहीं नहीं है मरना ।

___________________________________________________

हे अमिताभ !

नभ पूरित आलोक,

सुख से, सुरुचि से, रूप से, भरे ओक :

हे अवलोकित

हे हिरण्यनाभ !

___________________________________________________

उड़ गई चिड़िया

काँपी, फिर

थिर

हो गई पत्ती।

___________________________________________________

बाँगर में

राजाजी का बाग है,

चारों ओर दीवार है

जिस में एक ओर द्वार है,

बीच-बाग़ कुआँ है

बहुत-बहुत गहरा।

और उस का जल

मीठा, निर्मल, शीतल।

कुएँ तो राजाजी के और भी हैं

-एक चौगान में, एक बाज़ार में-

पर इस पर रहता है पहरा।

खादर में

राजाजी के पुरवे हैं,

मिट्टी के घरवे हैं,

आगे खुली रेती के पार

सदानीरा नदी है।

गाँव के गँवार

उसी में नहाते हैं,

कपड़े फींचते हैं,

आचमन करते हैं,

डाँगर भँसाते हैं,

उसी से पानी उलीच

पहलेज सींचते हैं,

और जो मर जायें उन की मिट्टी भी

वहीं होनी बदी है।

कुएँ का पानी

राजाजी मँगाते हैं,

शौक़ से पीते हैं।

नदी पर लोग सब जाते हैं,

उस के किनारे मरते हैं

उसके सहारे जीते हैं।

बाँगर का कुआँ

राजाजी का अपना है

लोक-जन के लिए एक

कहानी है, सपना है

खादर की नदी नहीं

किसी की बपौती की,

पुरवे के हर घरवे को

गंगा है अपनी कठौती की।

___________________________________________________

न देखो लौट कर पीछे

वहाँ कुछ नहीं दीखेगा

न कुछ है देखने को

उन लकीरों के सिवा, जो राह चलते

हमारे ही चेहरों पर लिख गयीं

अनुभूति के तेज़ाब से

राह चलते

बड़ी लम्बी राह।

गा रही थी एक दिन

उस छोर बेपरवाह,

लोभनीय, सुहावनी, रूमानियत की चाह

--अवगुण्ठवमयी ठगिनी !—

एक मीठी रागिनी

बड़ी लम्बी राह।

आज सँकरे मोड़ पर यह

वास्तविक विडम्बना

रो रही है :

एक नंगी डाकिनी

बड़ी लम्बी राह : आह,

पनाह इस पर नहीं—

कोई ठौर जिस पर छाँह हो।

कौन आँके मोल उस के शोध का

मूल्य के भी मूल्य की जो थाह पाने

एक मरु-सागर उलीच रहा अकेला ?

जल जहाँ है नहीं

क्या वह अब्धि है ?

रेत क्या

उपलब्धि है ?

बड़ी लम्बी राह। जब उस ओर

थे हम, एक संवेदना की डोर

बाँधती थी हमें—तुम को : और हम-तुम मानते थे

डोरियाँ कच्ची भले हों, सूत क्योंकि

पुनीत है, उन से बँधे

सरकार आयेंगे चले

बड़ी लम्बी राह ! अब इस ओर पर

संवेदना की आरियाँ ही

मुझे तुम से काटती हैं :

और फिर लोहू-सनी उन धारियों में

और राहों की अथक ललकार है।

और वे सरकार ? कितनी बार हम-तुम और जायेंगे छले !

___________________________________________________

किसी का सत्य था

मैं ने सन्दर्भ में जोड़ दिया।

कोई मधु-कोष काट लाया था

मैं ने निचोड़ लिया।

किसी की उक्ति में गरिमा थी

मैं ने उसे थोड़ा-सा सँवार दिया,

किसी की संवेदना में आग का-सा ताप था

मैं ने दूर हटते-हटते उसे धिक्कार दिया।

कोई हुनरमन्द था :

मैं ने देखा और कहा, ‘यों !’

थका भारवाही पाया—

घुड़का या कोंच दिया, ‘क्यों ?’

किसी की पौध थी,

मैं ने सींची और बढ़ने पर अपना ली,

किसी की लगायी लता थी,

मैं ने दो बल्ली गाड़ उसी पर छवा ली।

किसी की कली थी

मैं ने अनदेखे में बीन ली,

किसी की बात थी

मैंने मुँह से छीन ली।

यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ :

काव्य-तत्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?

चाहता हूँ आप मुझे

एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें।

पर प्रतिमा—अरे, वह तो

जैसे आप को रुचि आप स्वयं गढ़े !

___________________________________________________

यह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया था

यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है :

दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं।

प्रश्न यही रहता है :

दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं

मैं कब, कैसे, उन के अनदेखे

उस में सेंध लगा दूँ

या भर कर विस्फोटक

उसे उड़ा दूँ।

कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते हैं, करें,

प्रयोजन मेरा बस इतना है :

ये दोनों जो

सदा एक-दूसरे से तन कर रहते हैं,

कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में

इन्हें मिला दूँ—

दोनों जो हैं बन्धु, सखा, चिर सहचर मेरे।

____________________________________________________

हम कृति नहीं हैं

कृतिकारों के अनुयायी भी नहीं कदाचित्।

क्या हों, विकल्प इस का हम करें, हमें कब

इस विलास का योग मिला ?—जो

हों, इतने भर को ही

भरसक तपते-जलते रहे—रहे गये ?

हम हुए, यही बस,

नामहीन हम, निर्विशेष्य,

कुछ हमने किया नहीं।

या केवल

मानव होने की पीड़ा का एक नया स्तर खोलाः

नया रन्ध्र इस रुँधे दर्द की भी दिवार में फोड़ाः

उस से फूटा जो आलोक, उसे

--छितरा जाने से पहले—

निर्निमेष आँखों से देखा

निर्मम मानस से पहचाना

नाम दिया।

चाहे

तकने में आँखें फूट जायें,

चाहे

अर्थ भार से तन कर भाषा झिल्ली फट जाये,

चाहे

परिचित को गहरे उकेरते

संवेदना का प्याला टूट जायः

देखा

पहचाना

नाम दिया।

कृति नहीं हैः

हों, बस इतने भर को हम

आजीवन तपते-जलते रहे—रह गये।

____________________________________________________

अच्छा

खंडित सत्य

सुघर नीरन्ध्र मृषा से,

अच्छा

पीड़ित प्यार सहिष्णु

अकम्पित निर्ममता से।

अच्छी कुण्ठा रहित इकाई

साँचे-ढले समाज से,

अच्छा

अपना ठाठ फ़क़ीरी

मँगनी के सुख-साज से।

अच्छा

सार्थक मौन

व्यर्थ के श्रवण-मधुर भी छन्द से।

अच्छा

निर्धन दानी का उघडा उर्वर दुख

धनी सूम के बंझर धुआँ-घुटे आनन्द से।

अच्छे

अनुभव की भट्टी में तपे हुए कण-दो कण

अन्तर्दृष्टि के,

झूठे नुस्खे वाद, रूढि़, उपलब्धि परायी के प्रकाश से

रूप-शिव, रूप सत्य की सृष्टि के।