गुलज़ार

उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा

देर तक हाथ हिलती रही वह शाख़ फ़िज़ा में

अलविदा कहने को ? या पास बुलाने के लिए ?

क्या पता कब कहाँ मारेगी ?

बस कि मैं ज़िंदगी से डरता हूँ

मौत का क्या है, एक बार मारेगी

सब पे आती है सब की बारी से

मौत मुंसिफ़ है कम-ओ-बेश नहीं

ज़िंदगी सब पे क्यों नहीं आती ?

कौन खायेगा ? किसका हिस्सा है

दाने-दाने पे नाम लिख्खा है

सेठ सूद चंद, मूल चंद जेठा

भीगा-भीगा सा क्यों है अख़बार

अपने हॉकर को कल से चेंज करो

"पांच सौ गाँव बह गए इस साल"

चौदहवें चाँद को फिर आग लगी है देखो

फिर बहुत देर तलक आज उजाला होगा

राख हो जाएगा जब फिर से अमावस होगी

गोले, बारूद, आग, बम, नारे

बाज़ी आतिश की शहर में गर्म है

बंध खोलो कि आज सब "बंद" है

रात के पेड़ पे कल ही तो उसे देखा था -

चाँद बस गिरने ही वाला था फ़लक से पक कर

सूरज आया था, ज़रा उसकी तलाशी लेना

***************************

मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे

आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने

रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे

सारा दिन बैठा,मैं हाथ में लेकर खा़ली कासा(भिक्षापात्र)

रात जो गुज़री,चांद की कौड़ी डाल गई उसमें

सूदखो़र सूरज कल मुझसे ये भी ले जायेगा।

सामने आये मेरे,देखा मुझे,बात भी की

मुस्कराए भी,पुरानी किसी पहचान की ख़ातिर

कल का अख़बार था,बस देख लिया,रख भी दिया।

शोला सा गुज़रता है मेरे जिस्म से होकर

किस लौ से उतारा है खुदावंद ने तुम को

तिनकों का मेरा घर है,कभी आओ तो क्या हो?

ज़मीं भी उसकी,ज़मी की नेमतें उसकी

ये सब उसी का है,घर भी,ये घर के बंदे भी

खुदा से कहिये,कभी वो भी अपने घर आयें!

लोग मेलों में भी गुम हो कर मिले हैं बारहा

दास्तानों के किसी दिलचस्प से इक मोड़ पर

यूँ हमेशा के लिये भी क्या बिछड़ता है कोई?

आप की खा़तिर अगर हम लूट भी लें आसमाँ

क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़ के!

चाँद चुभ जायेगा उंगली में तो खू़न आ जायेगा

पौ फूटी है और किरणों से काँच बजे हैं

घर जाने का वक्‍़त हुआ है,पाँच बजे हैं

सारी शब घड़ियाल ने चौकीदारी की है!

बे लगाम उड़ती हैं कुछ ख्‍़वाहिशें ऐसे दिल में

‘मेक्सीकन’ फ़िल्मों में कुछ दौड़ते घोड़े जैसे।

थान पर बाँधी नहीं जातीं सभी ख्‍़वाहिशें मुझ से।

तमाम सफ़हे किताबों के फड़फडा़ने लगे

हवा धकेल के दरवाजा़ आ गई घर में!

कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!!

कभी कभी बाजा़र में यूँ भी हो जाता है

क़ीमत ठीक थी,जेब में इतने दाम नहीं थे

ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था।

वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन

जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न था

फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं।

वह जिस साँस का रिश्ता बंधा हुआ था मेरा

दबा के दाँत तले साँस काट दी उसने

कटी पतंग का मांझा मुहल्ले भर में लुटा!

कुछ मेरे यार थे रहते थे मेरे साथ हमेशा

कोई साथ आया था,उन्हें ले गया,फिर नहीं लौटे

शेल्फ़ से निकली किताबों की जगह ख़ाली पड़ी है!

इतनी लम्बी अंगड़ाई ली लड़की ने

शोले जैसे सूरज पर जा हाथ लगा

छाले जैसा चांद पडा़ है उंगली पर!

बुड़ बुड़ करते लफ्‍़ज़ों को चिमटी से पकड़ो

फेंको और मसल दो पैर की ऐड़ी से ।

अफ़वाहों को खूँ पीने की आदत है।

चूड़ी के टुकड़े थे,पैर में चुभते ही खूँ बह निकला

नंगे पाँव खेल रहा था,लड़का अपने आँगन में

बाप ने कल दारू पी के माँ की बाँह मरोड़ी थी!

चाँद के माथे पर बचपन की चोट के दाग़ नज़र आते हैं

रोड़े, पत्थर और गु़ल्लों से दिन भर खेला करता था

बहुत कहा आवारा उल्काओं की संगत ठीक नहीं!

कोई सूरत भी मुझे पूरी नज़र आती नहीं

आँख के शीशे मेरे चुटख़े हुये हैं कब से

टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझ को!

कोने वाली सीट पे अब दो और ही कोई बैठते हैं

पिछले चन्द महीनों से अब वो भी लड़ते रहते हैं

क्लर्क हैं दोनों,लगता है अब शादी करने वाले हैं

कुछ इस तरह ख्‍़याल तेरा जल उठा कि बस

जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में

अब फूंक भी दो,वरना ये उंगली जलाएगा!

कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं

ख़ून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है

क्यों इस फौ़जी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है।

आओ ज़बानें बाँट लें अब अपनी अपनी हम

न तुम सुनोगे बात, ना हमको समझना है।

दो अनपढ़ों कि कितनी मोहब्बत है अदब से

नाप के वक्‍़त भरा जाता है ,रेत घड़ी में-

इक तरफ़ खा़ली हो जबफिर से उलट देते हैं उसको

उम्र जब ख़त्म हो ,क्या मुझ को वो उल्टा नहीं सकता?

तुम्हारे होंठ बहुत खु़श्क खु़श्क रहते हैं

इन्हीं लबों पे कभी ताज़ा शे’र मिलते थे

ये तुमने होंठों पे अफसाने रख लिये कब से?

*****************************

वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा

न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत

जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है

शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही

और जब आया ख़्यालों को एहसास न था

आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन

मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था

चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी

दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा

बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली

लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी

मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है

पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर

लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको

बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था

चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल

और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें

मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है

वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा

जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने

इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी

____________________________________________

हिंदुस्तान में दो दो हिंदुस्तान दिखाई देते हैं

एक है जिसका सर नवें बादल में है

दूसरा जिसका सर अभी दलदल में है

एक है जो सतरंगी थाम के उठता है

दूसरा पैर उठाता है तो रुकता है

फिरका-परस्ती तौहम परस्ती और गरीबी रेखा

एक है दौड़ लगाने को तय्यार खडा है

‘अग्नि’ पर रख पर पांव उड़ जाने को तय्यार खडा है

हिंदुस्तान उम्मीद से है!

आधी सदी तक उठ उठ कर हमने आकाश को पोंछा है

सूरज से गिरती गर्द को छान के धूप चुनी है

साठ साल आजादी के…हिंदुस्तान अपने इतिहास के मोड़ पर है

अगला मोड़ और ‘मार्स’ पर पांव रखा होगा!!

हिन्दोस्तान उम्मीद से है..

____________________________________________

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते

वक़्त की शाख़ से लम्हें नहीं तोड़ा करते

जिस की आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन

ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते

शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा

जाने वालों के लिये दिल नहीं थोड़ा करते

तूने आवाज़ नहीं दी कभी मुड़कर वरना

हम कई सदियाँ तुझे घूम के देखा करते

लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो

ऐसी दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते

____________________________________________

कुरान हाथों में लेके नाबीना एक नमाज़ी

लबों पे रखता था

दोनों आँखों से चूमता था

झुकाके पेशानी यूँ अक़ीदत से छू रहा था

जो आयतं पढ़ नहीं सका

उन के लम्स महसूस कर रहा हो

मैं हैराँ-हैराँ गुज़र गया था

मैं हैराँ हैराँ ठहर गया हूँ

तुम्हारे हाथों को चूम कर

छू के अपनी आँखों से आज मैं ने

जो आयतें पड़ नहीं सका

उन के लम्स महसूस कर लिये हैं

____________________________________________

याद है इक दिन

मेरी मेज़ पे बैठे-बैठे

सिगरेट की डिबिया पर तुमने

एक स्केच बनाया था

आकर देखो

उस पौधे पर फूल आया है !

____________________________________________

सितारे लटके हुए हैं तागों से आस्माँ पर

चमकती चिंगारियाँ-सी चकरा रहीं आँखों की पुतलियों में

नज़र पे चिपके हुए हैं कुछ चिकने-चिकने से रोशनी के धब्बे

जो पलकें मुँदूँ तो चुभने लगती हैं रोशनी की सफ़ेद किरचें

मुझे मेरे मखमली अंधेरों की गोद में डाल दो उठाकर

चटकती आँखों पे घुप अंधेरों के फाये रख दो

यह रोशनी का उबलता लावा न अन्धा कर दे।

____________________________________________

मौत तू एक कविता है,

मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे

ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुचे

दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब

ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ

मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

____________________________________________

मैं अपने घर में ही अजनबी हो गया हूँ आ कर

मुझे यहाँ देखकर मेरी रूह डर गई है

सहम के सब आरज़ुएँ कोनों में जा छुपी हैं

लवें बुझा दी हैंअपने चेहरों की, हसरतों ने

कि शौक़ पहचनता ही नहीं

मुरादें दहलीज़ ही पे सर रख के मर गई हैं

मैं किस वतन की तलाश में यूँ चला था घर से

कि अपने घर में भी अजनबी हो गया हूँ आ कर

____________________________________________

खड़खड़ाता हुआ निकला है उफ़क से सूरज

जैसे कीचड़ में फँसा पहिया ढकेला किसी ने

चब्बे-टब्बे-से किनारों पर नज़र आते हैं

रोज़-सा गोल नहीं

उधड़े-उधड़े-से उजाले हैं बदन पर

और चेहरे पर खरोंचे के निशान हैं

____________________________________________

रात भर सर्द हवा चलती रही

रात भर हमने अलाव तापा

मैंने माजी से कई खुश्क सी शाखें काटीं

तुमने भी गुजरे हुये लम्हों के पत्ते तोड़े

मैंने जेबों से निकालीं सभी सूखीं नज़्में

तुमने भी हाथों से मुरझाये हुये खत खोलें

अपनी इन आंखों से मैंने कई मांजे तोड़े

और हाथों से कई बासी लकीरें फेंकी

तुमने पलकों पे नामी सूख गयी थी, सो गिरा दी |

रात भर जो भी मिला उगते बदन पर हमको

काट के दाल दिया जलाते अलावों मसं उसे

रात भर फून्कों से हर लोऊ को जगाये रखा

और दो जिस्मों के ईंधन को जलाए रखा

रात भर बुझते हुए रिश्ते को तापा हमने |

____________________________________________

रिश्ते बस रिश्ते होते हैं

कुछ इक पल के

कुछ दो पल के

कुछ परों से हल्के होते हैं

बरसों के तले चलते-चलते

भारी-भरकम हो जाते हैं

कुछ भारी-भरकम बर्फ़ के-से

बरसों के तले गलते-गलते

हलके-फुलके हो जाते हैं

नाम होते हैं रिश्तों के

कुछ रिश्ते नाम के होते हैं

रिश्ता वह अगर मर जाये भी

बस नाम से जीना होता है

बस नाम से जीना होता है

रिश्ते बस रिश्ते होते हैं

____________________________________________

वो ख़त के पुरज़े उड़ा रहा था

हवाओं का रुख़ दिखा रहा था

कुछ और भी हो गया नुमायाँ

मैं अपना लिखा मिटा रहा था

उसी का इमान बदल गया है

कभी जो मेरा ख़ुदा रहा था

वो एक दिन एक अजनबी को

मेरी कहानी सुना रहा था

वो उम्र कम कर रहा था मेरी

मैं साल अपने बढ़ा रहा था

____________________________________________

दूर सुनसान-से साहिल के क़रीब

एक जवाँ पेड़ के पास

उम्र के दर्द लिए वक़्त मटियाला दोशाला ओढ़े

बूढ़ा-सा पाम का इक पेड़, खड़ा है कब से

सैकड़ों सालों की तन्हाई के बद

झुक के कहता है जवाँ पेड़ से... ’यार!

तन्हाई है ! कुछ बात करो !’

____________________________________________

कोई मेला लगा है परबत पर

सब्ज़ाज़ारों पर चढ़ रहे हैं लोग

टोलियाँ कुछ रुकी हुईं ढलानों पर

दाग़ लगते हैं इक पके फल पर

दूर सीवन उधेड़ती-चढ़ती,

एक पगडंडी बढ़ रही है सब्ज़े पर !

चूंटियाँ लग गई हैं इस पहाड़ी को

जैसे अमरूद सड़ रहा है कोई !

________________________________________

वक़्त को आते न जाते न गुजरते देखा

न उतरते हुए देखा कभी इलहाम की सूरत

जमा होते हुए एक जगह मगर देखा है

शायद आया था वो ख़्वाब से दबे पांव ही

और जब आया ख़्यालों को एहसास न था

आँख का रंग तुलु होते हुए देखा जिस दिन

मैंने चूमा था मगर वक़्त को पहचाना न था

चंद तुतलाते हुए बोलों में आहट सुनी

दूध का दांत गिरा था तो भी वहां देखा

बोस्की बेटी मेरी ,चिकनी-सी रेशम की डली

लिपटी लिपटाई हुई रेशम के तागों में पड़ी थी

मुझे एहसास ही नहीं था कि वहां वक़्त पड़ा है

पालना खोल के जब मैंने उतारा था उसे बिस्तर पर

लोरी के बोलों से एक बार छुआ था उसको

बढ़ते नाखूनों में हर बार तराशा भी था

चूड़ियाँ चढ़ती-उतरती थीं कलाई पे मुसलसल

और हाथों से उतरती कभी चढ़ती थी किताबें

मुझको मालूम नहीं था कि वहां वक़्त लिखा है

वक़्त को आते न जाते न गुज़रते देखा

जमा होते हुए देखा मगर उसको मैंने

इस बरस बोस्की अठारह बरस की होगी

____________________________________________

तारपीन तेल में कुछ घोली हुई धूप की डलियाँ

मैंने कैनवास में बिख़ेरी थीं मगर

क्या करूँ लोगों को उस धूप में रंग दिखते ही नहीं!

मुझसे कहता था थियो चर्च की सर्विस कर लूँ

और उस गिरजे की ख़िदमत में गुजारूँ

मैं शबोरोज जहाँ-

रात को साया समझते हैं सभी,

दिन को सराबों का सफ़र!

उनको माद्दे की हक़ीकत तो नज़र आती नहीं

मेरी तस्वीरों को कहते हैं, तख़य्युल है

ये सब वाहमा हैं!

मेरे कैनवास पे बने पेड़ की तफ़सील तो देखो

मेरी तख़लीक ख़ुदाबंद के उस पेड़ से

कुछ कम तो नहीं है!

उसने तो बीज को एक हुक्म दिया था शायद,

पेड़ उस बीज की ही कोख में था,

और नुमायाँ भी हुआ

जब कोई टहनी झुकी, पत्ता गिरा, रंग अगर ज़र्द हुआ

उस मुसव्विर ने कहीं दख़ल दिया था,

जो हुआ, सो हुआ-

मैंने हर शाख़ पे, पत्तों के रंग-रूप पे मेहनत की है,

उस हक़ीकत को बयाँ करने में

जो हुस्ने हक़ीकत है असल में

उन दरख़्तों का ये संभला हुआ क़द तो देखो

कैसे ख़ुद्दार हैं ये पेड़, मगर कोई भी मग़रूर नहीं

इनको शेरों की तरह किया मैंने किया है मौजूँ!

देखो तांबे की तरह कैसे दहकते हैं ख़िजां के पत्ते,

कोयला खदानों में झौंके हुए मज़दूरों की शक्लें

लालटेनें हैं, जो शब देर तलक जलतीं रहीं

आलुओं पर जो गुज़र करते हैं कुछ लोग-पोटेटो ईटर्स

एक बत्ती के तले, एक ही हाले में बंधे लगते हैं सारे!

मैंने देखा था हवा खेतों से जब भाग रही थी

अपने कैनवास पे उसे रोक लिया-

रोलां वह चिट्ठीरसां

और वो स्कूल में पढ़ता लड़का

ज़र्द खातून पड़ोसन थी मेरी-

फ़ानी लोगों को तगय्यर से बचा कर उन्हें

कैनवास पे तवारीख़ की उम्रें दी हैं!

सालहा साल ये तस्वीरें बनाई मैंने

मेरे नक्काद मगर बोल नहीं-

उनकी ख़ामोशी खटकती थी मेरे कानों में,

उस पे तस्वीर बनाते हुए इक कव्वे की वह चीख़-पुकार

कव्वा खिड़की पे नहीं, सीधा मेरे कान पे आ बैठता था,

कान ही काट दिया है मैंने!

मेरे पैलेट पे रखी धूप तो अब सूख चुकी है,

तारपीन तेल में जो घोला था सूरज मैंने,

आसमाँ उसका बिछाने के लिए-

चंद बालिश्त का कैनवास भी मेरे पास नहीं है!

मैं यहाँ रेमी में हूं

सेंटरेमी के दवाख़ाने में थोड़ी-सी

मरम्मत के लिए भर्ती हुआ हूँ!

उनका कहना है कई पुर्जे मेरे जहन के अब ठीक नहीं हैं-

मुझे लगता है वो पहले से सवातेज हैं अब!

____________________________________________

वो जो शायर था चुप सा रहता था

बहकी-बहकी सी बातें करता था

आँखें कानों पे रख के सुनता था

गूँगी खामोशियों की आवाज़ें!

जमा करता था चाँद के साए

और गीली सी नूर की बूँदें

रूखे-रूखे से रात के पत्ते

ओक में भर के खरखराता था

वक़्त के इस घनेरे जंगल में

कच्चे-पक्के से लम्हे चुनता था

हाँ वही, वो अजीब सा शायर

रात को उठ के कोहनियों के बल

चाँद की ठोड़ी चूमा करता था

चाँद से गिर के मर गया है वो

लोग कहते हैं ख़ुदकुशी की है |

____________________________________________

शाम से आँख में नमी सी है

आज फिर आप की कमी सी है

दफ़्न कर दो हमें कि साँस मिले

नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है

वक़्त रहता नहीं कहीं छुपकर

इस की आदत भी आदमी सी है

कोई रिश्ता नहीं रहा फिर भी

एक तस्लीम लाज़मी सी है

____________________________________________

साँस लेना भी कैसी आदत है

जीये जाना भी क्या रवायत है

कोई आहट नहीं बदन में कहीं

कोई साया नहीं है आँखों में

पाँव बेहिस हैं, चलते जाते हैं

इक सफ़र है जो बहता रहता है

कितने बरसों से, कितनी सदियों से

जिये जाते हैं, जिये जाते हैं

आदतें भी अजीब होती हैं

____________________________________________

दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई

जैसे एहसान उतारता है कोई

आईना देख के तसल्ली हुई

हम को इस घर में जानता है कोई

पक गया है शज़र पे फल शायद

फिर से पत्थर उछलता है कोई

फिर नज़र में लहू के छींटे हैं

तुम को शायद मुघालता है कोई

देर से गूँजतें हैं सन्नाटे

जैसे हम को पुकारता है कोई

____________________________________________

नज़्म उलझी हुई है सीने में

मिसरे अटके हुए हैं होठों पर

उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह

लफ़्ज़ काग़ज़ पे बैठते ही नहीं

कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम

सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा

बस तेरा नाम ही मुकम्मल है

इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी

____________________________________________

रात कल गहरी नींद में थी जब

एक ताज़ा-सफ़ेद कैनवस पर

आतिशीं, लाल -सुर्ख रंगों से

मैं ने रौशन किया था इक सूरज-

सुबह तक जल गया था वह कैनवस

राख बिखरी हुई थी कमरे में

____________________________________________

’जोरहट’ में एक दफ़ा

दूर उफ़क के हलके-हलके कुहरे में

’हमीन बरुआ’ के चाय बाग़ान के पीछे

चांद कुछ ऎसे दिखा था

जैसे चीनी की चमकीली कैटल रखी हो!

____________________________________________

बर्फ़ पिघलेगी जब पहाड़ों से

और वादी से कोहरा सिमटेगा

बीज अंगड़ाई लेके जागेंगे

अपनी अलसाई आँखें खोलेंगे

सब्ज़ा बह निकलेगा ढलानों पर

गौर से देखना बहारों में

पिछले मौसम के भी निशाँ होंगे

कोंपलों की उदास आँखों में

आँसुओं की नमी बची होगी।

____________________________________________

अकसर तुझको देखा है कि ताना बुनते

जब कोई तागा टूट गया या खत्म हुआ

फिर से बांध के

और सिरा कोई जोड़ के उसमे

आगे बुनने लगते हो

तेरे इस ताने में लेकिन

इक भी गांठ गिरह बुन्तर की

देख नहीं सकता कोई

मैनें तो एक बार बुना था एक ही रिश्ता

लेकिन उसकी सारी गिराहें

साफ नजर आती हैं मेरे यार जुलाहे

____________________________________________

जिहाल-ए-मिस्कीं मुकों बा-रंजिश, बहार-ए-हिजरा बेचारा दिल है,

सुनाई देती हैं जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।

वो आके पेहलू में ऐसे बैठे, के शाम रंगीन हो गयी हैं,

ज़रा ज़रा सी खिली तबियत, ज़रा सी ग़मगीन हो गयी हैं।

कभी कभी शाम ऐसे ढलती है जैसे घूंघट उतर रहा है,

तुम्हारे सीने से उठता धुवा हमारे दिल से गुज़र रहा है।

ये शर्म है या हया है, क्या है, नज़र उठाते ही झुक गयी है,

तुम्हारी पलकों से गिरती शबनम हमारी आंखों में रुक् गयी है।

*******************************

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा

क़ाफिला साथ और सफर तन्हा

अपने साये से चौंक जाते हैं

उम्र गुज़री है इस कदर तन्हा

रात भर बोलते हैं सन्नाटे

रात काटे कोई किधर तन्हा

दिन गुज़रता नहीं है लोगों में

रात होती नहीं बसर तन्हा

हमने दरवाज़े तक तो देखा था

फिर न जाने गए किधर तन्हा

*******************************

ज़ुबान पर ज़ाएका आता था जो सफ़हे पलटने का

अब उँगली ‘क्लिक’ करने से बस इक

झपकी गुज़रती है

बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर

किताबों से जो जाती राब्ता था, कट गया है

कभी सीने पे रख के लेट जाते थे

*******************************

चलो ना भटके

लफ़ंगे कूचों में

लुच्ची गलियों के

चौक देखें

सुना है वो लोग

चूस कर जिन को वक़्त ने

रास्तें में फेंका थ

सब यहीं आके बस गये हैं

ये छिलके हैं ज़िन्दगी के

इन का अर्क निकालो

कि ज़हर इन का

तुम्हरे जिस्मों में

ज़हर पलते हैं

और जितने वो मार देगा

चलो ना भटके

लफ़ंगे कूचों में

*******************************

ख़ुमानी, अख़रोट बहुत दिन पास रहे थे

दोनों के जब अक़्स पड़ा करते थे बहते दरिया में,

पेड़ों की पोशाकें छोड़के,

नंग-धड़ंग दोनों दिन भर पानी में तैरा करते थे

कभी-कभी तो पार का छोर भी छू आते थे

ख़ुमानी मोटी थी और अख़रोट का क़द कुछ ऊँचा था

भँवर कोई पीछे पड़ जाए, तो पत्थर की आड़ से होकर,

अख़रोट का हाथ पकड़ क्के वापस भाग आती थी।

अख़रोट बहुत समझाता था,

"देख ख़ुमानी, भँवर के चक्कर में मत पड़ना,

पाँव तले की मिट्टी खेंच लिया करता है।"

इक शाम बहुत पानी आया तुग़यानी का,

और एक भँवर...

ख़ुमानी को पाँव से उठाकर, तुग़यानी में कूद गया।

अख़रोट अब भी उस जानिब देखा करता है,

जिस जानिब दरिया बहता है।

अख़रोट का क़द कुछ सहम गया है

उसका अक़्स नहीं पड़ता अब पानी में!

*******************************

किस क़दर सीधा सहल साफ़ है यह रस्ता देखो

न किसी शाख़ का साया है, न दीवार की टेक

न किसी आँख की आहट, न किसी चेहरे का शोर

न कोई दाग़ जहाँ बैठ के सुस्ताए कोई

दूर तक कोई नहीं, कोई नहीं, कोई नहीं

चन्द क़दमों के निशाँ, हाँ, कभी मिलते हैं कहीं

साथ चलते हैं जो कुछ दूर फ़क़त चन्द क़दम

और फिर टूट के गिरते हैं यह कहते हुए

अपनी तनहाई लिये आप चलो, तन्हा, अकेले

साथ आए जो यहाँ, कोई नहीं, कोई नहीं

किस क़दर सीधा, सहल साफ़ है यह रस्ता

*******************************

कुछ

खो दिया है

पाइके

कुछ

पा लिया

गवाइके।

कहाँ

ले चला है

मनवा

मोहे

बाँवरी

बनाइके।

*******************************

किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है

कभी सीने पर रखकर लेट जाते थे

कभी गोदी में लेते थे

कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बनाकर

नीम सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से

वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी

मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल

और महके हुए रुक्के

किताबें मँगाने, गिरने उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे

उनका क्या होगा

वो शायद अब नही होंगे !!

*******************************

एक शरीर में कितने दो हैं,

गिन कर देखो जितने दो हैं।

देखने वाली आँखें दो हैं,

उनके ऊपर भवें भी दो हैं,

सूँघते हैं ख़ुश्बू को जिससे

नाक एक है, नथुने दो हैं।

भाषाएँ हैं सैकड़ों लेकिन,

बोलने वाले होंठ तो दो हैं,

लाखों आवाज़ें सुनते हैं,

सुनने वाले कान तो दो हैं।

कान भी दो, होंठ भी दो हैं,

दाएँ, बाएँ, कन्धे दो हैं,

दो बाहें, दो कोहनियाँ उनकी,

हाथ भी दो, अँगूठे दो हैं

______________________

एक परवाज़ दिखाई दी है

तेरी आवाज़ सुनाई दी है

जिस की आँखों में कटी थी सदियाँ

उस ने सदियों की जुदाई दी है

सिर्फ़ एक सफ़ाह पलट कर उस ने

बीती बातों की सफ़ाई दी है

फिर वहीं लौट के जाना होगा

यार ने कैसी रिहाई दी है

आग ने क्या क्या जलाया है शव पर

कितनी ख़ुश-रंग दिखाई दी है

_______________________

एक पुराना मौसम लौटा याद भरी पुरवाई भी

ऐसा तो कम ही होता है वो भी हो तनहाई भी

यादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं

कितनी सौंधी लगती है तब माँझी की रुसवाई भी

दो दो शक़्लें दिखती हैं इस बहके से आईने में

मेरे साथ चला आया है आप का इक सौदाई भी

ख़ामोशी का हासिल भी इक लम्बी सी ख़ामोशी है

उन की बात सुनी भी हमने अपनी बात सुनाई भी

_____________________________

छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी

हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे

आँख लगाकर - कान बनाकर

नाक सजाकर -

पगड़ी वाला, टोपी वाला

मेरा उपला -

तेरा उपला -

अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से

उपले थापा करते थे

हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर

गोबर के उपलों पे खेला करता था

रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था

हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे

किस उपले की बारी आयी

किसका उपला राख हुआ

वो पंडित था -

इक मुन्ना था -

इक दशरथ था -

बरसों बाद - मैं

श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ

आज की रात इस वक्त के जलते चूल्हे में

इक दोस्त का उपला और गया!

______________________

चिपचिपे दूध से नहलाते हैं

आंगन में खड़ा कर के तुम्हें ।

शहद भी, तेल भी, हल्दी भी, ना जाने क्या क्या

घोल के सर पे लुढ़काते हैं गिलसियाँ भर के

औरतें गाती हैं जब तीव्र सुरों में मिल कर

पाँव पर पाँव लगाए खड़े रहते हो

इक पथराई सी मुस्कान लिए

बुत नहीं हो तो परेशानी तो होती होगी ।

जब धुआँ देता, लगातार पुजारी

घी जलाता है कई तरह के छौंके देकर

इक जरा छींक ही दो तुम,

तो यकीं आए कि सब देख रहे हो ।

__________________________

मोड़ पे देखा है वो बूढ़ा-सा इक आम का पेड़ कभी?

मेरा वाकिफ़ है बहुत सालों से, मैं जानता हूँ

जब मैं छोटा था तो इक आम चुराने के लिए

परली दीवार से कंधों पे चढ़ा था उसके

जाने दुखती हुई किस शाख से मेरा पाँव लगा

धाड़ से फेंक दिया था मुझे नीचे उसने

मैंने खुन्नस में बहुत फेंके थे पत्थर उस पर

मेरी शादी पे मुझे याद है शाखें देकर

मेरी वेदी का हवन गरम किया था उसने

और जब हामला थी बीबा, तो दोपहर में हर दिन

मेरी बीवी की तरफ़ कैरियाँ फेंकी थी उसी ने

वक़्त के साथ सभी फूल, सभी पत्ते गए

तब भी लजाता था जब मुन्ने से कहती बीबा

'हाँ उसी पेड़ से आया है तू, पेड़ का फल है।'

अब भी लजाता हूँ, जब मोड़ से गुज़रता हूँ

खाँस कर कहता है,"क्यूँ, सर के सभी बाल गए?"

सुबह से काट रहे हैं वो कमेटी वाले

मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको!

______________________

आदतन तुम ने कर िदये वादे

आदतन हम ने ऐतबार िकया

तेरी राहों में हर बार रुक कर

हम ने अपना ही इन्तज़ार िकया

अब ना माँगेंगे िजन्दगी या रब

ये गुनाह हम ने एक बार िकया

_________________

आँखों में जल रहा है क्यूँ बुझता नहीं धुआँ

उठता तो है घटा-सा बरसता नहीं धुआँ

चूल्हे नहीं जलाये या बस्ती ही जल गई

कुछ रोज़ हो गये हैं अब उठता नहीं धुआँ

आँखों के पोंछने से लगा आँच का पता

यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ

आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं

मेहमाँ ये घर में आयें तो चुभता नहीं धुआँ

______________________________

खिड़की पिछवाड़े को खुलती तो नज़र आता था

वो अमलतास का इक पेड़, ज़रा दूर, अकेला-सा खड़ा था

शाखें पंखों की तरह खोले हुए

एक परिन्दे की तरह

बरगलाते थे उसे रोज़ परिन्दे आकर

सब सुनाते थे वि परवाज़ के क़िस्से उसको

और दिखाते थे उसे उड़ के, क़लाबाज़ियाँ खा के

बदलियाँ छू के बताते थे, मज़े ठंडी हवा के!

आंधी का हाथ पकड़ कर शायद

उसने कल उड़ने की कोशिश की थी

औंधे मुँह बीच-सड़क आके गिरा है!!

_______________________________________-

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो, कि दास्ताँ आगे और भी है

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!

अभी तो टूटी है कच्ची मिट्टी, अभी तो बस जिस्म ही गिरे हैं

अभी तो किरदार ही बुझे हैं।

अभी सुलगते हैं रूह के ग़म, अभी धड़कते हैं दर्द दिल के

अभी तो एहसास जी रहा है।

यह लौ बचा लो जो थक के किरदार की हथेली से गिर पड़ी है

यह लौ बचा लो यहीं से उठेगी जुस्तजू फिर बगूला बनकर

यहीं से उठेगा कोई किरदार फिर इसी रोशनी को लेकर

कहीं तो अंजाम-ओ-जुस्तजू के सिरे मिलेंगे

अभी न पर्दा गिराओ, ठहरो!

_______________________________________________

खुशबू जैसे लोग मिले अफ़साने में

एक पुराना खत खोला अनजाने में

जाना किसका ज़िक्र है इस अफ़साने में

दर्द मज़े लेता है जो दुहराने में

शाम के साये बालिस्तों से नापे हैं

चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में

रात गुज़रते शायद थोड़ा वक्त लगे

ज़रा सी धूप दे उन्हें मेरे पैमाने में

दिल पर दस्तक देने ये कौन आया है

किसकी आहट सुनता है वीराने मे ।

__________________________________________________

जब भी यह दिल उदास होता है

जाने कौन आस-पास होता है

होंठ चुपचाप बोलते हों जब

सांस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो

आंखें जब दे रही हों आवाज़ें

ठंडी आहों में सांस जलती हो

आँख में तैरती हैं तसवीरें

तेरा चेहरा तेरा ख़याल लिए

आईना देखता है जब मुझको

एक मासूम सा सवाल लिए

कोई वादा नहीं किया लेकिन

क्यों तेरा इंतजार रहता है

बेवजह जब क़रार मिल जाए

दिल बड़ा बेकरार रहता है

जब भी यह दिल उदास होता है

जाने कौन आस-पास होता है

(2)

हाल-चाल ठीक-ठाक है

सब कुछ ठीक-ठाक है

बी.ए. किया है, एम.ए. किया

लगता है वह भी ऐंवे किया

काम नहीं है वरना यहाँ

आपकी दुआ से सब ठीक-ठाक है

आबो-हवा देश की बहुत साफ़ है

क़ायदा है, क़ानून है, इंसाफ़ है

अल्लाह-मियाँ जाने कोई जिए या मरे

आदमी को खून-वून सब माफ़ है

और क्या कहूं?

छोटी-मोटी चोरी, रिश्वतखोरी

देती है अपा गुजारा यहाँ

आपकी दुआ से बाक़ी ठीक-ठाक है

गोल-मोल रोटी का पहिया चला

पीछे-पीछे चाँदी का रुपैया चला

रोटी को बेचारी को चील ले गई

चाँदी ले के मुँह काला कौवा चला

और क्या कहूं?

मौत का तमाशा, चला है बेतहाशा

जीने की फुरसत नहीं है यहाँ

आपकी दुआ से बाक़ी ठीक-ठाक है

हाल-चाल ठीक-ठाक है

(3)

अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई

मास्टर जी की आ गई चिट्ठी

चिट्ठी में से निकली बिल्ली

बिल्ली खाए जर्दा-पान

काला चश्मा पीले कान

कान में झुमका, नाक में बत्ती

हाथ में जलती अगरबत्ती

अगर हो बत्ती कछुआ छाप

आग में बैठा पानी ताप

ताप चढ़े तो कम्बल तान

वी.आई.पी. अंडरवियर-बनियान

अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई

मास्टर जी की आ गई चिट्ठी

चिट्ठी में से निकला मच्छर

मच्छर की दो लंबी मूँछें

मूँछ पे बाँधे दो-दो पत्थर

पत्थर पे इक आम का झाड़

पूंछ पे लेके चले पहाड़

पहाड़ पे बैठा बूढ़ा जोगी

जोगी की इक जोगन होगी

- गठरी में लागा चोर

मुसाफिर देख चाँद की ओर

पहाड़ पै बैठा बूढ़ा जोगी

जोगी की एक जोगन होगी

जोगन कूटे कच्चा धान

वी.आई.पी. अंडरवियर बनियान

अ-आ, इ-ई, अ-आ, इ-ई

मास्टर जी की आ गई चिट्ठी

चिट्ठी में से निकला चीता

थोड़ा काला थोड़ा पीला

चीता निकला है शर्मीला

घूँघट डालके चलता है

मांग में सेंदुर भरता है

माथे रोज लगाए बिंदी

इंगलिश बोले मतलब हिंदी

‘इफ’ अगर ‘इज’ है, ‘बट’ पर

‘व्हॉट’ माने क्या

इंगलिश में अलजेब्रा छान

वी.आई.पी. अंडरवियर-बनियान