मधुशाला में मरकत द्वीप की कविता

Nostalgia and Emerald Island in Madhushala

Madhushala Podcast, Episode 18

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In the previous episode, we spoke about the deep and strange relationship between the arid sandy deserts of Sahara and the dense green rainforests of Amazon, the Yin-Yang of it and why we discuss this in Madhushala. One more story was from Bachchan’s childhood, of his birthday and Chamarin Amma (shout out episode 12). Today, we will talk about Bachchan’s friend “Karkal”, nostalgia, and emerald island in Madhushala.


पिछले अंक में हमने बात की थी कि Amazon rain forest यानी Amazon के घने बरसाती जंगलों और सहारा के सूखे रेतीले रेगिस्तान का आपस में क्या रिश्ता है, इसमें Yin-Yang का क्या संदर्भ है और मधुशाला में ये बातें कहाँ से आ गई! और एक कहानी सुनाई थी बच्चन जी के बचपन की, जिसमें चमारिन अम्मा से जुड़ा एक किस्सा भी था। आज बात करते हैं कुछ nostalgia, augmented reality, बच्चन जी के मित्र “कर्कल” की, और मरकत द्वीप की – देखिए ये मधुशाला की अगली कविता में कैसे झलक रहा है -



अधरों पर हो कोई भी रस जिह्वा पर लगती हाला,

भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,

हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,

आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला (32)


अर्थात अधरों पर, होंठों पर कोई भी रस क्यों न हो, जुबान पर स्वाद हाला का ही आता है। हाथों में कोई भी बर्तन क्यों न हो, एहसास प्याले का ही आता है, आस पास दिखने वाले हर चेहरे में साकी का चेहरा नज़र आता है, और आँखों के आगे चाहे जो भी दृश्य हो, आँखों में तो बस मधुशाला ही रची बसी है!


लड़कपन के दिनों में बच्चन साहब के बड़े अच्छे मित्र थे – कर्कल – मित्र क्या वो उनके भाई जैसे थे, उनकी मुंहबोली बुआ के पुत्र – और कर्कल की पत्नी थी चंपा – वो भी बच्चन जी की अच्छी मित्र थी - इन दोनों की बात विस्तार से आगे फिर कभी करेंगे जब हम बच्चन के जीवन में आई अलग-अलग विशेष महिलाओं की बात करेंगे, बहरहाल कर्कल और चंपा की मृत्यु से बच्चन जी को गहरा दुख पहुँच और इसके बाद बहुत समय तक वो शोक में डूबे रहे – मधुशाला में वो जब जलते हृदय की आग या अनुभव रूपी अंगूरों को निचोड़ कर हाला बनाने की बात करते हैं – उसकी पृष्ठभूमि में कुछ इस तरह के दुख भरे अनुभव भी सम्मिलित हैं।


कर्कल और चंपा की मृत्यु के कुछ समय बाद बच्चन जी की मुलाकात हुई श्री कृष्ण नाम के व्यक्ति से जो पहली मुलाकात से ही उनके अच्छे मित्र बन गए और बच्चन की कविताओं के बड़े प्रशंसक भी – यहाँ तक की सम्पूर्ण या complete मधुशाला सुनने वाले लोगों में वो पहले कुछ लोगों में शुमार थे – श्री कृष्ण एक स्वतंत्रता की लड़ाई से भी जुड़े हुए थे जो छिपकर क्रांतिकारियों की सहायता किया करते थे – उनकी एक महिला मित्र थी – रानी या प्रकाशो – वो असल में यशपाल की संगिनी जैसी थी और श्री कृष्ण उन्हें भाभी मानते थे। यशपाल के बारे में शायद कुछ लोग अवश्य जानते होंगे – उनकी और रानी की बात आगे कभी करेंगे, बच्चन जी ने एक समय उनकी भी काफी सहायता की थी।


श्री कृष्ण और रानी में बच्चन जी पुराने मित्र कर्कल और चंपा की झलक दिखाई देती थी। बच्चन जी एक बार बीती बातों पर विचार करते हुए सोचते हैं और स्वयं से प्रश्न करते हैं – क्या जीवन पूर्व अनुभूतियों के क्षणों को दुहराता भी है? मात्र परिस्थितियाँ बदल जाती हैं पर अमूर्त भावनाएँ क्या पहले की ही उठकर उमड़ घुमड़ कर, मन को मथ नहीं जाती हैं? श्रीकृष्ण और रानी के साथ बैठे कभी झुटपुटे में, कभी मन्द प्रकाश में, कभी अंश-चन्द्र अथवा तारों की छाँह में इस बात को मैं बिल्कुल भूल जाता कि यह दिल्ली है, यह श्रीकृष्ण है, यह रानी है, या यह मैं हूँ; बस ऐसा लगता जैसे मैं इलाहाबाद में हूँ और कर्कल और चंपा के साथ बैठ हूँ। किंतु यदि कुछ वस्तुगत दृष्टि से (यानी practical होके) देख सकता तो मैं सोचता हूँ कि, न श्रीकृष्ण कर्कल थे, न रानी चम्पा थी, न दिल्ली इलाहाबाद था, ये जो था एक तरह की माया थी, एक तरह का भ्रम – या मृग मरीचिका थी कि हम जो जहाँ देखना चाहते हैं वो वहाँ दिखाई देने लगता है –

हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती, आँखों के आगे हो कुछ भी आँखों में है मधुशाला।


इसी को आजकल की technology वाली भाषा में Augmented Reality कहा जाता है – कि आप हों कहीं पर किन्तु उस जगह के परिप्रेक्ष्य में आप कोई और ही दृश्य, इंसान या कुछ वस्तुओं को प्रक्षेपित (प्रोजेक्ट)कर सकते हैं – ऐसी ही बात कई बार nostalgia में भी होती है। शायद इसीलिए कहते हैं कि nostalgia एक तरह की मेंटल वैकैशन है कि आप बिना अपनी असल जगह से हिले, मन मस्तिष्क से कहीं और ही, किसी और ही समय में घूम के आ सकते हैं! इसी तरह की बात अगली कविता में भी है -



किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला

किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,

किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी

किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला (39)


कहीं भी देख रहे हों, कहीं भी नजरें हों – जब किसी को डूब के चाहा हो तो हर जगह प्रेमी ही दिखाई देता है!


बच्चन जी के कैंब्रिज में पीएचडी वाले दिनों की बात है जब वो एक बार डबलिन गए थे - (Basere se door, 3958) जहाज से उतर कर डबलिन जैसा बच्चन जी को दिखाई दिया, वो उसके बारे में कहते हैं – “सूर्य के प्रकाश में डबलिन को देखकर मुझे ऐसा लगा जैसे मैं आँखों पर हरा चश्मा लगाकर वहाँ उतर पड़ा हूँ—चारों ओर हरियाली ही हरियाली। हरी घास-भरी भूमि, हरे पेड़-पौधों की सघनता की प्रत्याशा तो मैं करता हुआ आया ही था, किंतु वहाँ तो सब कुछ ही हरे रंग का, लेटर बॉक्स, ट्राफिक के बोर्ड, दीवारें, आदि। शायद इसी कारण तो आयरलैण्ड को ‘एमरल्ड आइलैण्ड’ कहते हैं या कहें - मरकत द्वीप। मरकत यानी पन्ना जो कि नौ तरह के रत्नों में सबसे हरे रंग का होता है।” बच्चन जी आयरलैण्ड और मरकत पर कई कविताएं भी लिखी हैं, जैसे ये वाली “पतझड़ की शाम” – जो मुझे स्वयं बहुत प्रिय है -


नीलम-से पल्लव टूट गए,

मरकत-से साथी छूट गए,

अटके फिर भी दो पीत पात

जीवन-डाली को थाम, सखे!

है यह पतझड़ की शाम, सखे!


लुक-छिप करके गानेवाली,

मानव से शरमानेवाली

कू-कू कर कोयल मांग रही

नूतन घूंघट अविराम, सखे!

है यह पतझड़ की शाम, सखे!


नंगी डालों पर नीड़ सघन,

नीड़ों में है कुछ-कुछ कंपन,

मत देख, नज़र लग जाएगी;

यह चिड़ियों के सुखधाम, सखे!

है यह पतझड़ की शाम, सखे!


इस कविता की चर्चा मधुशाला में आगे भी होगी किंतु आज यहीं विराम लेते हैं – अगले अंक में बात करेंगे अप्सराओं की, एक कहानी रंभा के जीवन की और बच्चन जी के जीवन में हम किस-किस को अप्सरा कहते हैं, जिनमें से एक थी आयर मधुवन की कलिका – नाम था जिसका नोरा।

मिलते हैं अगले अंक में, आपका दिन और जीवन मरकत के रंगों जैसा ही जीवंत रहे।


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