(सिद्धान्तचिंतामणि टीका) से संग्रहीत
सिद्धान् भूम्यष्टमीप्राप्तान्, अष्टगुणसमन्वितान्।
अष्टाङ्गेन नुमो नित्य-मष्टकर्मविमुक्तये।।१।।
श्लोकार्थ- जो आठ गुणों से सहित हैं, आठवीं-ईषत्प्राग्भारा नाम की पृथ्वी को प्राप्त हो चुके हैं ऐसे सिद्ध भगवन्तों को हम आठों कर्मों से छूटने के लिये नित्य ही अष्टांग नमस्कार करते हैं।
इदं सूत्रं प्रथममहादण्डकप्रतिपादनपरत्वेनास्ति। तत्र सम्यक्त्वाभिमुखजीवै: बध्यमानप्रकृतीनां समुत्कीर्तनायां त्रिषु महादण्डकेषु एष: प्रथमो महादण्डक: कर्तव्य:-वक्तव्य: इति। कथमेतस्य महत्त्वं कथितम् ? एतस्यावगमेन महापापस्य क्षयोपलंभात्, प्रथमसम्यक्त्वाभिमुखत्वेन महत्त्वं संप्राप्तजीवै: बध्यमानत्वाद्वा।
यहाँ यह सूत्र प्रथम महादण्डक के प्रतिपादनरूप है। प्रकृत में सम्यक्त्व के अभिमुख जीवों के द्वारा बध्यमान प्रकृतियों की समुत्कीर्तना करने पर प्रथम महादण्डक का कथन करना चाहिए।
शंका – इसे बड़ापना किस कारण से है ?
समाधान – क्योंकि इसके ज्ञान से महापाप का क्षय पाया जाता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. ११४)
प्रवचने अनुमानस्य प्रमाणस्य प्रमाणत्वाभावात्। उत्तं च-‘‘आगमो हि णाम केवलणाणपुरस्सरो पाएण अणिंदियत्थविसओ अचिंतियसहावो जुत्तिगोयरादीदो। तदो ण लिंगबलेण किंचि वोत्तुं सक्किज्जदि तम्हा सुत्तमिदमाढवेदव्वं चेव।’’
प्रवचन (परमागम) में अनुमान प्रमाण से प्रमाणता नहीं मानी गई है। श्री वीरसेन स्वामी ने धवला टीका में कहा है कि-‘‘जो केवलज्ञानपूर्वक उत्पन्न हुआ है, प्राय: अतीन्द्रिय पदार्थों को विषय करने वाला है, अचिन्त्य-स्वभावी है और युक्ति के विषय से परे है, उसका नाम आगम है।’’ अतएव उस आगम में िंलग अर्थात् अनुमान के बल से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। इसलिए यह सूत्र बनाना ही चाहिये।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. १३६)
आवलियं आबाहा उदीरणमासिज्ज सत्तकम्माणं। परभविय-आउगस्स य उदीरणा णत्थि णियमेण३२।।१५९।।
अत्रायमर्थ:-वर्तमानकाले भुज्यमानायुष: उदीरणा भवितुं शव्नति किंतु बध्यमानागामिभवस्यायुष: उदीरणा नास्ति। राज्ञ: श्रेणिकस्य बद्ध नरकायुष: अपकर्षणं जातं चतुरशीतिसहस्रवर्षमात्रं इति ज्ञातव्यं। भुज्यमानायुषां उदीरणाविषये सूत्रं प्ररूपितं श्रीमदुमास्वामिना तत्त्वार्थसूत्रग्रन्थे- औपपादिकचरमोत्तमदेहाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवत्त्र्यायुष:।।५३।। चरमशब्दस्यान्तवाचित्वात्तज्जन्मनि निर्वाणार्हग्रहणं। उत्तमशब्दस्योत्कृष्टवाचित्वा-च्चक्रधरादिग्रहणं। बाह्यस्योपघातनिमित्तस्य विषशस्त्रादे: सति सन्निधाने ह्रासोऽपवर्त इत्युच्यते। उत्तमदेहाश्चक्रधरादयोऽनपवत्र्यायुष: इत्येतल्लक्षणमव्यापि। कुत:? अन्तस्य चक्रधरस्य ब्रह्मदत्तस्य वासुदेवस्य च कृष्णस्य अन्येषां च तादृशानां बाह्यनिमित्त-वशादायुरपवर्तदर्शनात् ? न वैष दोष:। किं कारणं ? चरमशब्दस्योत्तमविशेषणत्वात्। पुनरपि कश्चिदाशंकते- अप्राप्तकालस्य मरणानुपलब्धेरपवर्ताभाव: इति चेत्, न; दृष्टत्वादाम्रफलादिवत् ।१०। यथा अवधारितपाककालात् प्राक् सोपायोपक्रमे सत्याम्रफलादीनां दृष्ट: पाकस्तथा परिच्छिन्नमरणकालात् प्रागुदीरणाप्रत्यय आयुषो भवत्यपवर्त:। आयुर्वेदसामथ्र्याच्च।११। यथा अष्टाङ्गायुर्वेदविद् भिषक् प्रयोगे अतिनिपुणो यथाकालवाताद्युदयात् प्राक् वमनविरेचनादिना अनुदीर्णमेव श्लेष्मादि निराकरोति, अकालमृत्युव्युदासार्थं रसायनं चोपदिशति, अन्यथा रसायनोपदेशस्य वैयथ्र्यं। न चादोऽस्ति ? अत: आयुर्वेदसामथ्र्यादस्त्यकालमृत्यु:। स्यान्मतं-दु:खप्रतीकारोऽर्थ: आयुर्वेदस्येति ? तन्न, किं कारणं ? उभयथा दर्शनात्। उत्पन्नानुत्पन्नवेदनयोर्हि चिकित्सादर्शनात्। स्यान्मतं-यद्यकालमृत्युरस्ति कृतप्रणाश: प्रसज्येत इति ? तन्न, किं कारणं ? दत्वैव फलं निवृत्ते:, नाकृतस्य कर्मण: फलमुपभुज्यते, न च कृतकर्मफलविनाश: अनिर्मोक्षप्रसंगात्, दानादिक्रियारम्भाभावप्रसंगात् च। किंतु कृतं कर्म फलं दत्वैव निवर्तते वितताद्र्रपट शोषवत् अयथाकालनिर्वृत्त: पाक: इत्ययं विशेष:३३।
अस्यैव तत्त्वार्थसूत्रमहाग्रन्थस्य श्लोकवार्तिकमहाभाष्ये ग्रन्थे श्रीमदाचार्य-विद्यानन्दमहोदयेनापि३४ प्रोक्तं- ‘‘सत्यप्यसद्वेद्योदयेऽन्तरंगे हेतौ दु:खं बहिरंगे वातादिविकारे तत्प्रतिपक्षौषधौ-पयोगोपनीते दु:खस्यानुत्पत्ते: प्रतिकार: स्यात्’’- कटुकादिभेषजौपयोगजपीडामात्रं स्वफलं दत्वैवासद्वेद्यस्य निवृत्तेर्न कृतप्रणाश:३५।’’ अकालमृत्युविषये श्रीकुन्दकुन्ददेवेनापि प्रोत्तं- विसवेयणरत्तक्खय-भयसत्थग्गहणसंकिलेसाणं। आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जदे आऊ३६।।२५।। पुरा षडशीतिसहस्रपंचशतवर्षपूर्वं महाभारतयुद्धकाले सर्वाधिकाकालमृत्यु: संजात: इति उत्तरपुराणे श्रीगुणभद्रसूरिणा कथितं- तत्र वाच्यो मनुष्याणां मृत्योरुत्कृष्टसञ्चय:। कदलीघातजातस्येत्युक्तिमत् तद्रणाङ्गणम्३७।।१०९।। वर्तमानकालेऽपि आकस्मिक् दुर्घटना नानाविधा श्रूयते-क्वचित् भूकंपदुर्घटनायां सहस्राणि मनुष्या: पशवश्च सार्धमेव म्रियन्ते, क्वचिद् नदीपूरप्रवाहेण अनेकग्रामा: जलमग्ना: जायन्ते, तत्रापि शतानि सहस्राणि च परिवारा: नश्यन्ति। कुत्रचिद् वायुयानपतनदुर्घटनायां शतानि मनुष्या: उपरितनादधो पतित्वा मृत्युं प्राप्नुवन्ति। कदाचित् एवमेव वाष्पयान-विद्युद्यान-चतुश्चक्रिका-त्रिचक्रिका-द्विचक्रिकादिपतन-परस्पर-संघट्टनादिदुर्घटनासु अनेके मनुष्या: म्रियन्ते, क्वचित् बमविस्फोटकेन वा कालं कुर्वन्ति, एतत्सर्वं प्रत्यक्षेण दृश्यते, अत्रापि नानादुर्घटनाभिर्ये म्रियन्ते तेषामधिकांशत: अकालमृत्युना एव मरणं, न च सर्वेषां युगपदेव मृत्युमागच्छति, अतो जिनवचनस्योपरि श्रद्धानं कर्तव्यम्। तथा च संप्रत्यपि अकालमृत्युनिवारणं श्रूयते-केषांचित् संघट्टनादिदुर्घटनाभि: अधिकरूपेण रक्तस्रावे संजाते आंग्लवैद्या: परस्य रत्तंâ तस्य मरणासन्नस्य शरीरे प्रवेश्य जीवनदानं ददति।
हृदयरोगस्यापि शल्यचिकित्सां कृत्वा आरोग्यं जीवनं च यच्छन्ति। केषांचित् रुग्णानां नेत्रादीन् अवयवानपि परिवत्र्य स्वस्थं कुर्वन्ति, न चैषामपलापं कर्तुं शक्यते। जिनभक्त्या महद्जाप्याद्यनुष्ठानेन सिद्धचक्र कल्पद्रुम-इन्द्रध्वजादिमहामण्डल-विधानैश्च बहूनि दु:खानि नश्यन्ति अकालमृत्युमपि जित्वा पूर्णायु: भुञ्जन्ति जना:। एका कथापि श्रीशांतिनाथपुराणे पठ्यते- एकदा श्रीविजयनरेशस्य सभायामागत्य केनचित् निमित्तज्ञेन कथितं-अस्य पोदनपुरनरेशस्य अद्यप्रभृति सप्तमे दिवसे अशनिपातेन मृत्युर्भविष्यति। राज्ञा तस्यापमृत्योर्निवारणार्थं राज्यं त्यक्त्वा जिनालयं गत्वा महतीं जिनपूजां चकार। तत: तस्याकालमृत्युरभूत्वा राज्यसिंहासनस्थमूत्र्ते: शतखण्डानि बभूव। उत्तं च- ‘‘एकदागामुक: कश्चिद् दृष्ट्वा श्रीविजयं द्विज:। सिंहासनस्थमित्याह रहसि प्राप्य चासनम्।।५२।। इत: पौदननाथस्य सप्तमे वासरे दिव:। मूध्र्नि प्रध्वनन्नुच्चैरशनै: पतिताशनि:।।५३।। इत्युक्त्वा विरते वाणीं तस्मिन् पप्रच्छ स स्वयं। कस्त्वं किमभिधानो वा कियज्ज्ञानं तवेति तम् ।।५४।। इति पृष्ट: स्वयं राज्ञा ततोऽवादीत्स धीरधी:। बंधुरं सिंधुदेशेऽस्ति पद्मिनीखेटकं पुरम्।।५५।। तस्मादमोघजिह्वाख्यस्त्वां द्विजातिरिहागमम्। पुत्रो विशारदस्याहं ज्योतिज्र्ञानविशारद:।।५६।। इत्थमात्मानमावेद्य स्थितिमन्तं विसज्र्य तं। अप्राक्षीत्सचिवान् राजा स्वरक्षामशनेस्तत:।।५७।। रक्षोपायेषु बहुषु प्रणीतेष्वथ मंत्रिभि:। प्रत्याचिख्यासुरित्याह तां कथां मतिभूषण:।।५८।। कुंभकारकटं नाम शैलेन्द्रोपत्यकं पुरं। अस्ति तत्रावसद् विप्रो दुर्गतश्चंडकौशिक:।।५९।। अभूत्प्रणयिनी तस्य सोमश्रीरिति विश्रुता। भूतान्याराध्य सा प्रापदपत्यं मुण्डकौशिकम् ।।६०।। जिघत्सो रक्षस: कुंभाद्रक्षितुं पुत्रमन्यदा। भूतानामर्पयद् विप्रो गुहायां तैन्र्यधायि स:।।६१।। तं तत्राप्यघद् भीष्म: शिशुमाकस्मिक: शयु:। को वा त्रातुमलं मृत्योर्धर्मं मुक्त्वा शरीरिणां।।६२।। तत: शांतिं विधायासो रक्षोपायो न विद्यते। अस्यापि पौदनेशित्वं निरस्यामो महीपते:।।६३।। इत्युक्त्वा विरते तस्मिन् राज्यं वैश्रवणे प्रजा:। ताम्रीये स्थापयामास राजा चास्थाञ्जिनालये।।६४।। सप्तमेऽहनि संपूर्णे पपाताशनिरम्बरात्। मुकुटालंकृते मूध्र्नि धनदस्य महीक्षित:।।६५।। तत: श्रीविजयस्तस्मै तन्मनोरथवाञ्छितं। दिदेशामोघजिह्वाय पद्मिनीखेटमेव स:३८।।६६।। अद: कथानकं श्रुत्वा ज्योतिर्विद: शरणं न गन्तव्यं, न च पुरुषार्थविहीनेन भवितव्यं। प्रत्युत जिनभक्ति-पूजा-जाप्यानुष्ठानादिभि: असाताकर्मणां उदय: कृशीकरणीय:।
अकालमृत्योरुपरि अपि विजय: प्राप्तव्य: इति सार: गृहीतव्य:।
उदीरणा की अपेक्षा सात कर्मों की आबाधा एक आवलीमात्र है और परभव संबंधी बध्यमान आयु की उदीरणा नियम से नहीं होती है।।१५९।। इसका अर्थ यह है कि वर्तमानकाल की भुज्यमान आयु की उदीरणा होना शक्य है किन्तु बध्यमान आगामी भव की आयु की उदीरणा नहीं होती है। राजा श्रेणिक के नरकायु का बंध हो गया था ऐसे बंधी आयु का अपकर्षण हुआ है जो कि चौरासी हजार वर्ष मात्र रह गया है, ऐसा समझना। भुज्यमान आयु की उदीरणा के विषय में श्रीमान् उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ में कहा है- उपपाद जन्म वाले देव और नारकी चरमोत्तम देहधारी और असंख्यात वर्ष की आयु वाले जीव परिपूर्ण आयु वाले होते हैं अर्थात् इनकी आयु का घात नहीं होता है।।५३।। चरम शब्द अन्तवाची है, इसलिए उसी जन्म में निर्वाण के योग्य हो उसका ग्रहण करना चाहिए। उत्तम शब्द उत्कृष्टवाची है, इससे चक्रवर्ती आदि का ग्रहण होता है। बाह्य उपघात के निमित्त विष, शस्त्रादि के कारण आयु का ह्रास होता है, वह अपवत्र्य है-अपवत्र्य आयु जिनके है वे अपवत्र्य आयु वाले कहलाते हैं।
प्रश्न – उत्तम देह वाले अंतिम चक्रवर्ती आदि के आयु का अपवर्तन देखा जाता है इसलिए यह लक्षण अव्याप्त है। अंतिम चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त, वासुदेव कृष्ण आदि के आयु का बाह्य के निमित्तवश अपवर्तन देखा गया है अर्थात् इनकी अकालमृत्यु सुनी जाती है और अन्य भी ऐसे लोगों की आयु का बाह्य निमित्तों से ह्रास हुआ है इसलिए यह अव्याप्ति दोष से दूषित है ? समाधान – यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ चरम शब्द में उत्तम विशेषण दिया गया है।
यहाँ कोई पुन: शंका करता है- अप्राप्त काल में मरण की अनुपलब्धि होने से अकालमरण नहीं है, ऐसा नहीं कहना क्योंकि फलादि के समान-जैसे-कागज, पयाल आदि उपायों के द्वारा आम्र आदि फल अवधारित (निश्चित) परिपाक काल के पूर्व ही पका दिये जाते हैं या परिपक्व हो जाते हैं, ऐसा देखा जाता है। उसी प्रकार परिच्छिन्न (अवधारित) मरणकाल के पूर्व ही उदीरणा के कारण से आयु की उदीरणा होकर अकालमरण हो जाता है। आयुर्वेद के सामथ्र्य से अकालमरण सिद्ध होता है। जैसे-आयुर्वेद को जानने वाला अतिनिपुण वैद्य यथाकाल वातादि के उदय के पूर्व ही वमन, विरेचन आदि के द्वारा अनुदीर्ण ही कफ आदि दोषों को बलात् निकाल देता है-दूर कर देता है तथा अकालमृत्यु को दूर करने के लिए रसायन आदि का उपदेश देता है। अन्यथा यदि अकालमरण नहीं है तो रसायन आदि का उपदेश व्यर्थ हो जायेगा, किन्तु रसायन आदि का उपदेश है अत: आयुर्वेद के सामथ्र्य से भी अकालमरण सिद्ध होता है।
शंका – केवल दु:ख के प्रतीकार के लिए ही औषध दी जाती है ?
समाधान – यह बात नहीं है, अपितु उत्पन्न रोग को दूर करने के लिए और अनुत्पन्न को हटाने के लिए भी दी जाती है। जैसे-औषधि से असाता कर्म दूर किया जाता है, उसी प्रकार विष आदि के द्वारा आयु ह्रास और उसके अनुकूल औषधि से आयु का अपवर्तन देखा जाता है।
शंका – यदि अकालमृत्यु है तो कृतप्रणाश दोष आता है अर्थात् किये हुए का फल नहीं भोगा गया, अकाल में आयु नष्ट हो गई ?
समाधान – ऐसी आशंका भी नहीं है। न तो अकृत कर्म का फल भोगना पड़ता है और न कृत कर्म का नाश ही होता है, अन्यथा मोक्ष नहीं हो सकेगा और न दानादि क्रियाओं के करने का उत्साह ही होगा। दानादिक्रिया के आरंभ के अभाव का प्रसंग आयेगा। किन्तु कृत कर्म कत्र्ता को अपना फल देकर के ही नष्ट होता है। जैसे-गीला कपड़ा फैला देने पर जल्दी सूख जाता है और वही कपड़ा इकट्ठा रखा रहे तो सूखने में बहुत समय लगता है, उसी तरह उदीरणा के निमित्तों से समय के पहले ही आयु झड़ जाती है, यही अकालमृत्यु है। इसी तत्त्वार्थसूत्र महाग्रंथ के श्लोकवार्तिक महाभाष्य ग्रंथ में श्रीमान् आचार्य विद्यानंद महोदय४ ने भी कहा है- अंतरंग में असाता वेदनीय का उदय होने पर और बहिरंग में वात, पित्त आदि विकार के होने पर दु:ख-रोग आदि होते हैं, उनके प्रतिपक्षी औषधि के देने पर दु:ख-रोग की अनुत्पत्ति-दूर होना रूप प्रतीकार देखा जाता है। कडुवी आदि औषधि का उपयोग करने से उतने मात्र से पीड़ारूप फल देकर ही असातावेदनीय का उदय खत्म हो जाता है अत: किये हुए कर्म का फल नहीं भोगा-नष्ट हो गया, ऐसा ‘कृतप्रणाश’ दोष नहीं आता है। अकाल मृत्यु के विषय में कुन्दकुन्ददेव ने भी कहा है- विष के भक्षण से, अधिक वेदना से, रक्तक्षय हो जाने से, भय से, शस्त्र लग जाने से-शस्त्रों के घात से, संक्लेश परिणामों से, आहार-भोजन न मिलने से, श्वासोच्छ्वास के रुक जाने से-या रोक लेने से आयु छिद जाती है-अकाल में मरण हो जाता है।।२५।।
पहले छियासी हजार पाँच सौ वर्ष पूर्व महाभारत के युद्ध के समय सबसे अधिक अकालमृत्यु हुई हैं, ऐसा श्री गुणभद्रसूरि ने उत्तरपुराण ग्रंथ में कहा है- ‘‘आगम में जो मनुष्यों का कदलीघात नाम का अकालमरण बतलाया गया है, उसकी अधिक से अधिक संख्या यदि हुई भी तो उस महाभारत के युद्ध में ही हुई थी, ऐसा उस युद्ध के विषय में कहा जाता है।।१०९।।’’ वर्तमानकाल में भी नाना प्रकार की आकस्मिक दुर्घटनाएँ सुनी जाती हैं-कहीं भूकंप की दुर्घटना में हजारों मनुष्य और पशु एक साथ मर जाते हैं। कहीं नदी पूर-नदियों के बाढ़ से अनेक गाँव जल में डूब जाते हैंं, तब सैकड़ों, हजारों परिवार नष्ट हो जाते हैं। कहीं पर हवाई जहाज के गिरने से ऊपर से नीचे गिरकर सैकड़ों मनुष्य मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। कहीं-कहीं इस प्रकार रेलगाड़ी, हवाई जहाज, बसें, स्कूटर, साइकिल आदि के गिरने, परस्पर टकराने (एक्सीडेंट) आदि की दुर्घटनाओं में अनेकों मनुष्य मर जाते हैं, कहीं बम विस्फोट से मरते हैं, यह सब प्रत्यक्ष में देखा जाता है। यहाँ पर भी जो मनुष्य नाना प्रकार की दुर्घटनाओं से मरते हैं, उनमें तो अधिकांश लोगों का मरण अकालमृत्यु से ही होता है, क्योंकि सभी मरने वालों की एक साथ मृत्यु नहीं आती है, अत: जिनेन्द्रदेव के वचनों पर श्रद्धान करना चाहिए। इसी प्रकार वर्तमान में अकालमृत्यु के निवारण-दूर करने के उपाय भी सुने जाते हैं-किन्हीं लोगों के संघट्टन-एक्सीडेंट आदि दुर्घटनाओं से अधिकरूप से रक्तस्राव हो जाने से डाक्टर दूसरे का खून उस मरणासन्न के शरीर में चढ़ाकर जीवनदान दे देते हैं-बचा लेते हैं। हृदय रोग की भी शल्य चिकित्सा-आप्रेशन करके स्वस्थता एवं जीवन देते हैं। किन्हीं रोगियों के नेत्र आदि अवयवों का प्रत्यारोपण करके स्वस्थ कर देते हैं, इनका अपलाप करना-झुठलाना भी शक्य नहीं है।
जिनेन्द्र भगवान की भक्ति से, महान् जाप्य आदि के अनुष्ठान से, सिद्धचक्र, कल्पद्रुम, इन्द्रध्वज आदि महामण्डल विधानों से बहुत से दु:ख नष्ट हो जाते हैं, वे लोग अकालमृत्यु को जीतकर पूरी आयु का उपभोग कर लेते हैं। एक कथा श्री शांतिनाथ पुराण में पढ़ी जाती है- एक समय श्री विजयनरेश की सभा में आकर किसी निमित्तज्ञानी ने कहा-इस पोदनपुर के राजा की आज से सातवें दिन वङ्कापात से मृत्यु होगी। राजा ने अपमृत्यु के निवारण के लिए राज्य का त्याग करके जिनमंदिर में जाकर विशाल-महती जिनेन्द्रदेव की पूजा की। तब उस पूजानुष्ठान के प्रभाव से राजा की अकालमृत्यु न होकर राज्यसिंहासन पर स्थापित पाषाण मूर्ति के सौ टुकड़े हो गये। शांतिनाथ पुराण में यह कथा इस प्रकार है-एक दिन किसी आगन्तुक ब्राह्मण ने श्रीविजय को सिंहासन पर स्थित देख एकान्त में आसन प्राप्त कर इस प्रकार कहा। आज से सातवें दिन पोदनपुर नरेश के मस्तक पर जोर से गरजता हुआ वङ्का वेगपूर्वक आकाश से गिरेगा। इतना कहकर जब वह चुप हो गया तब श्रीविजय ने उससे स्वयं पूछा कि तुम कौन हो ? किस नाम के धारक हो और तुम्हें कितना ज्ञान है ? इस प्रकार राजा के द्वारा स्वयं पूछे गये, धीर बुद्धि वाले उस आगन्तुक ब्राह्मण ने कहा कि सिंधु देश में एक पद्मिनीखेट नाम का सुन्दर नगर है। वहाँ से मैं तुम्हारे पास यहाँ आया हूँ अमोघजिह्व मेरा नाम है, मैं विशारद का पुत्र हूँ तथा ज्योतिष ज्ञान का पण्डित हूँ। इस प्रकार अपना परिचय देकर बैठे हुए उस ब्राह्मण को राजा ने विदा किया। पश्चात् मंत्रियों से वङ्का से अपनी रक्षा का उपाय पूछा।
तदनन्तर मंत्रियों ने बहुत सारे रक्षा के उपाय बतलाये, परन्तु उन उपायों का खंडन करने की इच्छा रखते हुए मतिभूषण मंत्री ने इस प्रकार एक कथा कही- गिरिराज के निकट एक कुंभकारकट नाम का नगर है। उसमें चण्डकौशिक नाम वाला एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था। ‘सोमश्री’ इस नाम से प्रसिद्ध उसकी स्त्री थी। उसने भूतों की आराधना कर एक मुण्डकौशिक नाम का पुत्र प्राप्त किया। कुंभ नाम का राक्षस उस पुत्र को खाना चाहता था अत: उससे रक्षा के लिए ब्राह्मण ने वह पुत्र भूतों को दे दिया और भूतों ने उसे गुहा में रख दिया। परन्तु वहाँ भी अकस्मात् आये हुए एक भयंकर अजगर ने उस पुत्र को खा लिया अत: ठीक ही है क्योंकि धर्म को छोड़कर मृत्यु से प्राणियों की रक्षा करने के लिए कौन समर्थ है ? इसलिए शांति को छोड़कर रक्षा का अन्य उपाय नहीं है। फिर भी हम इनके पोदनपुर के स्वामित्व को दूर कर दें अर्थात् इनके स्थान पर किसी अन्य को राजा घोषित कर दें। इस प्रकार कहकर जब मतिभूषण मंत्री चुप हो गया तब प्रजा ने ताम्बे की प्रतिमा बनाकर उसे राज्य सिंहासन पर स्थापित कर दिया और राजा जिनालय में स्थित हो गया। सातवां दिन पूर्ण होते ही राजा की प्रतिमा के मुकुटविभूषित मस्तक पर आकाश से वङ्का गिरा अर्थात् वह राज्यसिंहासन की प्रतिमा वङ्कापात से नष्ट हो गई। तदनन्तर (मंदिर में अनुष्ठान करते हुए सुरक्षित रहे राजा) श्रीविजय ने उस अमोघजिह्व नामक आगन्तुक ब्राह्मण के लिए उसका मनचाहा पद्मिनीखेट नगर ही दे दिया। इस कथानक को सुनकर ज्योतिषियों की शरण में नहीं जाना चाहिए और न पुरुषार्थहीन होना चाहिए, प्रत्युत् जिनेन्द्रदेव की भक्ति, पूजा-विधानानुष्ठान, जाप्यानुष्ठान आदि से असाता कर्मों के उदय को कम करना चाहिए और अकालमृत्यु पर भी विजय प्राप्त करना चाहिए, यहाँ यही सार लेना है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. १७३ से १७८)
प्रथमस्थिते: द्वितीयस्थितेश्च तावत् आगालप्रत्यागालौ यावत् आवलिकाप्रत्यावलिके च शेषे इति। प्रथमस्थिति से और द्वितीयस्थिति से तब तक आगाल और प्रत्यागाल होते रहते हैं जब तक कि आवली और प्रत्यावलीमात्र काल शेष रह जाता है। विशेषार्थ-अपकर्षण के निमित्त से द्वितीयस्थिति के कर्मप्रदेशों का प्रथमस्थिति में आना आगाल कहलाता है। उत्कर्षण के निमित्त से प्रथमस्थिति के कर्मप्रदेशों का द्वितीयस्थिति में जाना प्रत्यागाल कहलाता है। ‘आवली’ ऐसा सामान्य से कहने पर भी प्रकरणवश उसका अर्थ उदयावली लेना चाहिये तथा उदयावली से ऊपर के आवलीप्रमाण काल को द्वितीयाली या प्रत्यावली कहते हैं। जब अन्तरकरण करने के पश्चात् मिथ्यात्व की स्थिति आवलि-प्रत्यावलीमात्र रह जाती है, तब आगाल-प्रत्यागालरूप कार्य बन्द हो जाते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २०६)
अनादिमिथ्यादृष्टे: सम्यक्त्वस्य प्रथमवारं लाभ: सर्वोपशमेन भवति। तथा विप्रकृष्टसादिमिथ्यादृष्टे: जीवस्यापि प्रथमोपशमसम्यक्त्वस्य लाभ: सर्वोपशमेनैव। किन्तु यो जीव: सम्यक्त्वात् प्रच्युत्य पुन: सत्त्वरं सम्यक्त्वं गृण्हाति, स: सर्वोपशमेन देशोपशमेन वा भजितव्य:।
अनादि मिथ्यादृष्टि जीव के सम्यक्त्व का प्रथम बार लाभ सर्वोपशम से होता है। इसी प्रकार विप्रकृष्ट जीव के अर्थात् जिसने पहले कभी सम्यक्त्वप्रकृति एवं सम्यग्मिथ्यात्व कर्म की उद्वेलना कर बहुत काल तक मिथ्यात्व सहित परिभ्रमण कर पुन: सम्यक्त्व को प्राप्त किया है, ऐसे जीव के प्रथमोपशमसम्यक्त्व का लाभ भी सर्वोपशम से होता है किन्तु जो जीव सम्यक्त्व से गिरकर अभीक्ष्ण अर्थात् जल्दी ही पुन:-पुन: सम्यक्त्व को ग्रहण करता है वह सर्वोपशम और देशोपशम से भजनीय है। मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वप्रकृति, इन तीनों कर्मों के उदयाभाव को सर्वोपशम कहते हैं तथा सम्यक्त्वप्रकृतिसम्बन्धी देशघाती स्पर्धकों के उदय को देशोपशम कहते हैं। अनादि मिथ्यादृष्टि के प्रथमोपशमसम्यक्त्व के अनन्तर मिथ्यात्व का उदय होता है, किन्तु सादि मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व भजितव्य है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २१० )
अथवा ‘जिणा’ इति उत्ते ‘चोद्दसपुव्वहरा’ गृहीतव्या:। केवली इति भणिते केवलज्ञानिन: तीर्थकर-कर्मोदयविरहिता: गृहीतव्या:, ‘तित्थयरा’ इति उत्ते तीर्थकरनामकर्मोदयजनिताष्टमहा-प्रातिहार्य-चतुस्त्रिंशदतिशयसहितानां ग्रहणं। एतेषां त्रयाणामपि पादमूले दर्शनमोहक्षपणं प्रस्थापयन्ति इति। अत्र जिनशब्दस्य आवत्र्तिं कृत्वा जिना: दर्शनमोहक्षपणं प्रस्थापयन्ति इति वक्तव्यं, अन्यथा तृतीयपृथिवीत: विनिर्गतानां कृष्णादीनां२ तीर्थकरत्वानुपपत्ते: इति केषांचित् आचार्याणां व्याख्यानं। एतेन व्याख्यानाभिप्रायेण दु:षमा-अतिदु:षमा-सुषमासुषमा-सुषमाकालेषु उत्पन्नानां एव दर्शनमोहनीयक्षपणा नास्ति, अवशेषद्वयोरपि कालयो: उत्पन्नानामस्ति, एकेन्द्रियात् आगत्य तृतीयकालोत्पन्नवद्र्धनकुमारादीनां३९ दर्शनक्षपणदर्शनात्। इदं चैवात्र व्याख्यानं प्रधानं कर्तव्यं।
यहाँ पर ‘जिन’ शब्द की आवृत्ति करके अर्थात् दुबारा ग्रहण करके, जिन दर्शनमोहनीयकर्म का क्षपण प्रारंभ करते हैं, ऐसा कहना चाहिए, अन्यथा तीसरी पृथिवी से निकले हुए कृष्ण आदिकों के तीर्थंकरत्व नहीं बन सकता है, ऐसा किन्हीं आचार्यों का व्याख्यान है। इस व्याख्यान के अभिप्राय से दु:षमा, अतिदु:षमा, सुषमा-सुषमा और सुषमा कालों में उत्पन्न हुए जीवों के ही दर्शनमोहनीय की क्षपणा नहीं होती है, अवशिष्ट दोनों कालों में उत्पन्न हुए जीवों के दर्शनमोह की क्षपणा होती है। इसका कारण यह है कि एकेन्द्रिय पर्याय से आकर (इस अवसर्पिणी के) तीसरे काल में उत्पन्न हुए वद्र्धनकुमार आदिकों के दर्शनमोह की क्षपणा देखी जाती है। यहाँ पर यह व्याख्यान ही प्रधानतया ग्रहण करना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २१४)
अकर्मभूमिजस्य-पंचम्लेच्छखंडनिवासिनां संयमं प्रतिपद्यमानस्य जघन्यं संयमस्थानमनन्तगुणं। तस्यैवोत्कृष्टं संयमं प्रतिपद्यमानस्य संयमस्थानमनन्तगुणं। कर्मभूमिजस्य संयमं प्रतिपद्यमानस्य उत्कृष्टं संयमस्थानमनन्तगुणं।
संयम को प्राप्त करने वाले अकर्मभूमिज, अर्थात् पाँच म्लेच्छ खंडों में रहने वाले, मनुष्य का जघन्य संयमस्थान अनन्तगुणा है। संयम को प्राप्त करने वाले उसका ही उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है। संयम को प्राप्त करने वाले कर्मभूमिज (आर्य) मनुष्य का उत्कृष्ट संयमस्थान अनन्तगुणा है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २२१)
उपशमश्रेणिं कतिवारां लब्धुं शक्नोति इति पृच्छायां कथ्यते- चत्तारि वारमुवसमसेढिं समरुहदि खविदकम्मंसो। बत्तीसं वाराइं, संजममुवलहिय णिव्वादि।।६१९।। भगवान् ऋषभदेव: पूर्वभवे द्विवारं उपश्रेणिमारुरोह।
उपशमश्रेणी कितनी बार प्राप्त करना शक्य है ? ऐसा प्रश्न होने पर कहते हैं- कर्मों के अंश का क्षपण करने वाले ऐसे क्षपितकर्मांश मुनि उपशम श्रेणी पर अधिक से अधिक चार बार ही चढ़ सकते हैं। सकल संयम को उत्कृष्टरूप से बत्तीस बार प्राप्त कर सकते हैं पुन: नियम से मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।।६१९।। भगवान ऋषभदेव पूर्व भव में दो बार उपशम श्रेणी में चढ़े हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २२४)
बहुषु दिवसपृथक्त्वगतेषु गर्भोपपन्ना: पर्याप्ता: पंचेन्द्रियतिर्यञ्च: प्रथमसम्यक्त्व-मुत्पादयितुं योग्या भवन्ति। इमे च असंख्यातेषु अपि द्वीपेषु असंख्यातेषु समुद्रेष्वपि प्रथमसम्यक्त्वग्रहणयोग्या भवंति। सार्धद्वयद्वीपेषु कर्मभूमिजा भोगभूमिजा तिर्यञ्च: संति। लवणोदधि-कालोदसमुद्रयो: तिर्यञ्च: सन्ति। शेषद्वीपेषु भोगभूमिजा: तिर्यञ्च: सन्ति। अंतिमार्धापरद्वीपे अन्तिमसमुद्रे च कर्मभूमिजा: तिर्यञ्च: सन्ति। भोगभूमिप्रतिभागिकेषु समुद्रेषु मत्स्या मकरा वा न सन्ति, आर्षेषु तत्र त्रसजीवप्रतिषेध: कृत: पुनस्तत्र प्रथमसम्यक्त्वोत्पत्तिर्न युज्यते ? नैष दोष:, पूर्ववैरिदेवै: कर्मभूमिजतिरश्च: उत्थाप्य तत्र इमे मत्स्यमकरादय: प्रक्षिप्यन्ते कदाचित् अतस्तेषां क्षिप्तपंचेन्द्रियतिरश्चां तत्र संभवोऽस्ति इति ज्ञातव्यं।
यहाँ पर ‘दिवस पृथक्त्व’ कहने से सात या आठ दिवस नहीं लेना। यहाँ यह पृथक्त्व शब्द विपुलता का वाचक है, इसलिए बहुत से दिवस पृथक्त्व के जाने पर गर्भ से उत्पन्न, पर्याप्तक, पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करने के योग्य होते हैं। ये असंख्यातों भी द्वीपों में और असंख्यातों समुद्रों में भी प्रथम सम्यक्त्व के ग्रहण के योग्य होते हैं। ढाई द्वीपों में कर्मभूमिज और भोगभूमिज दोनों प्रकार के तिर्यंच हैं। लवणोदधि और कालोदधि समुद्रों में तिर्यंच हैं। शेष द्वीपों में भोगभूमिज तिर्यंच होेते हैं। अंतिम आधे उधर के द्वीप में और अंतिम समुद्र में कर्मभूमिज तिर्यंच होते हैं।
शंका – चूँकि ‘भोगभूमि के प्रतिभागी समुद्रों में मत्स्य या मगर नहीं हैं’, ऐसा वहाँ त्रस जीवों का प्रतिषेध किया गया है, इसलिए उन समुद्रों में प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति मानना उपयुक्त नहीं है ?
समाधान – यह कोई दोष नहीं, क्योंकि पूर्वभव के बैरी देवों के द्वारा उन समुद्रों में डाले गये मछली, मगर आदि पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की संभावना है। कदाचित् उन डाले गये पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में सम्यक्त्व संभव है, ऐसा जानना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २४३)
जिनमहिमदर्शने तस्यान्तर्भावात्, किंच जिनबिंबेन विना जिनमहिमा अनुपपत्ते:। स्वर्गावतरण-जन्माभिषेक-परिनिष्क्रमणजिनमहिमा: जिनबिंबेन विना क्रियमाणा: दृश्यन्ते, अत: जिनमहिमादर्शने जिनबिंबदर्शनस्य अविनाभावो नास्ति ? एतन्नाशंकनीयं, तत्रापि भावि जिनबिंबस्य दर्शनोपलंभात् । अथवा एतासु महिमासु उत्पद्यमान-प्रथमोपशमसम्यक्त्वं न जिनबिंबदर्शननिमित्तं, किंतु जिनगुणश्रवणनिमित्तमिति।
जिनबिम्बदर्शन का जिनमहिमादर्शन में ही अन्तर्भाव हो जाता है, कारण कि जिनबिम्ब के बिना जिनमहिमा की उपपत्ति बनती नहीं हैं।
शंका – स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और परिनिष्क्रमणरूप जिनमहिमाएं जिनबिम्ब के बिना की जाने वाली देखी जाती हैं, इसलिए जिनमहिमादर्शन में जिनबिम्बदर्शन का अविनाभाव नहीं है ?
समाधान – ऐसी आशंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि स्वर्गावतरण, जन्माभिषेक और परिनिष्क्रमणरूप जिनमहिमाओं में भी भावी जिनबिम्ब का दर्शन पाया जाता है। अथवा, इन महिमाओं में उत्पन्न होने वाला प्रथम सम्यक्त्व जिनबिम्बदर्शननिमित्तक नहीं है, किन्तु जिनगुणश्रवणनिमित्तक है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २५१)
देवद्र्धिदर्शनं जातिस्मरणे किन्न प्रविशति ? न प्रविशति, आत्मन: अणिमादिऋद्धी: दृष्ट्वा एता: ऋद्धय: जिनप्रज्ञप्तधर्मानुष्ठानात् जाता: इति प्रथमसम्यक्त्वप्राप्ति: जातिस्मरणनिमित्ता भवति। किंतु यदा सौधर्मैद्रादिदेवानां महद्र्धी: दृष्ट्वा एता: सम्यग्दर्शनसंयुक्तसंयमफलेन जाता:, अहं पुन: सम्यग्दर्शनविरहितद्रव्यसंयमफलेन वाहनादिनीचदेवेषु उत्पन्न:, इति ज्ञात्वा यत् प्रथमसम्यक्त्वग्रहणं जायते तत् देवद्र्धिदर्शननिमित्तकं। तन्न द्वयोरेकत्वमिति। किं च जातिस्मरणं तु उत्पन्नप्रथमसमयप्रभृति अन्तर्मुहूर्तकालाभ्यन्तरे एव भवति। देवद्र्धिदर्शनं पुन: कालान्तरे चैव भवति-अन्तर्मुहूर्तानन्तरमेव, तेन न द्वयोरेकत्वं।
शंका – देवर्द्धिदर्शन का जातिस्मरण में समावेश क्यों नहीं होता ?
समाधान – नहीं होता, क्योंकि अपनी अणिमादिक ऋद्धियों को देखकर जब यह विचार उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ जिन भगवान द्वारा उपदिष्ट धर्म के अनुष्ठान से उत्पन्न हुई हैं, तब प्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति जातिस्मरण निमित्तक होती है। किन्तु जब सौधर्मेन्द्रादिक देवों की महाऋद्धियों को देखकर यह ज्ञान उत्पन्न होता है कि ये ऋद्धियाँ सम्यग्दर्शन से संयुक्त संयम के फल से प्राप्त हुई हैं, किन्तु मैं सम्यक्त्व से रहित द्रव्यसंयम के फल से वाहनादिक नीच देवों में उत्पन्न हुआ हूँ तब प्रथम सम्यक्त्व का ग्रहण देवद्र्धिदर्शननिमित्तक होता है। इससे जातिस्मरण और देवर्द्धिदर्शन, ये प्रथम सम्यक्त्वोत्पत्ति के दोनों कारण एक नहीं हो सकते तथा जातिस्मरण उत्पन्न होने के प्रथम समय से लगाकर अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर ही होता है। किन्तु देवद्र्धिदर्शन उत्पन्न होने के समय से अन्तर्मुहूर्तकाल के पश्चात् ही होता है। इसलिए भी उन दोनों कारणों में एकत्व नहीं है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २५१)
संज्ञिन: पर्याप्ता: पंचेंद्रियतिर्यञ्च: मिथ्यादृष्टय: तिर्यक्पर्यायेभ्य: कालगतसमाना: विनष्टा: सन्त:, तत्पर्यायेभ्य: मृत्वा चतस¸: अपि गती: प्राप्नुवन्ति। देवगतिषु भवनत्रिकेषु गच्छंति, सौधर्मादिसहस्रारकल्पपर्यंतं गन्तुं शक्नुवन्ति नोपरि, सम्यक्त्वाणुव्रतै: विना आनतादिषु कल्पेषु गमनाभावात्।
संज्ञी, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टी तिर्यंच तिर्यंचपर्याय से काल-मरण करके चारों ही गतियों को प्राप्त करते हैं। देवगति में भवनत्रिकों में जाते हैं, सौधर्म स्वर्ग से लेकर सहस्रार स्वर्ग पर्यंत जा सकते हैं। इसके ऊपर नहीं, क्योंकि आगे के आनत आदि कल्पों में सम्यक्त्व सहित अणुव्रतों के बिना जाना संभव नहीं है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २७२)
एवमेव श्रीअकलंकदेवेन कथितं- तैर्यग्योनेषु असंज्ञिन: पर्याप्ता: पंचेन्द्रिया: संख्येयवर्षायुष्षु अल्पशुभपरिणामवशेन पुण्यबंधमनुभूय भवनवासिषु व्यन्तरेषु च उत्पद्यन्ते। तत्त्वार्थवार्तिक ग्रंथ में श्री अकलंकदेव ने भी कहा है- तिर्यंच योनि में रहने वाले असंज्ञी, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय जीव अल्पशुभ परिणाम के वश से पुण्यबंध का अनुभव करके संख्यात वर्ष की आयु वाले भवनवासी और व्यंतर देवों में उत्पन्न हो जाते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. २७३)
तिरिक्खेसु उववण्णल्लया तिरिक्खा केइं छ उप्पाएंति।।२१९।। मणुसेसु उववण्णल्लया मणुस्सा केइमेक्कारस उप्पाएंति-केइमाभिणि-बोहिय-णाणमुप्पाएंति, केइं सुदणाणमुप्पाएंति, केइं मणपज्ज-वणाणमुप्पा-एंति, केइमोहिणाण-मुप्पाएंति, केइं केवलणाणमुप्पाएंति, केइं सम्मामिच्छत्त-मुप्पाएंति, केइं सम्मत्तमुप्पाएंति, केइं संजमासंजममुप्पाएंति, केइं संजममुप्पाएंति। णो बलदेवत्तं णो वासुदेवत्तमुप्पाएंति, णो चक्कवट्टि-मुप्पाएंति। केइं तित्थयरत्तमुप्पाएंति, केइमंतयडा होदूण सिज्झंति बुज्झंति मुच्चंति परिणिव्वाणयंति सव्वदुक्खाणमंतं परिविजाणंति।।२२०।। सिद्धान्तचिंतामणिटीका-सूत्राणामर्थ: सुगमोऽस्ति। उपरि तिसृभ्य: उद्वर्तिता: तिर्यक्षु उत्पन्ना: केचित् मतिश्रुतावधिज्ञानानि सम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वसंयमा-संयमांश्चोत्पादयन्ति। मनुष्येषु उत्पन्ना: केचित् एकादशगुणान् उत्पादयन्ति। मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलज्ञानानि, सम्यग्मिथ्यात्वं सम्यक्त्वं संयमासंयमं संयमं च तीर्थकरत्वं मोक्षं चापि, किंतु नरकेभ्य: निर्गत्य केचिदपि बलदेववासुदेव चक्रधरत्वानि नोत्पादयन्ति।
ऊपर की तीन पृथिवियों से निकलकर तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले तिर्यंच कोई छह गुणों को उत्पन्न करते हैं।।२१९।।
ऊपर की तीन पृथिवियों से निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य कोई ग्यारह गुणों को उत्पन्न करते हैं-कोई आभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई श्रुतज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई अवधिज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं, कोई सम्यग्मिथ्यात्व उत्पन्न करते हैं, कोई सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं, कोई संयमासंयम उत्पन्न करते हैं और कोई संयम उत्पन्न करते हैं। किन्तु वे जीव न बलदेवत्व उत्पन्न करते, न वासुदेवत्व उत्पन्न करते, और न चक्रवर्तित्व उत्पन्न करते हैं। कोई तीर्थकरत्व उत्पन्न करते हैं, कोई अन्तकृत् होकर सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, वे सर्व दु:खों के अन्त होने का अनुभव करते हैं।।२२०।। ऊपर की तीन पृथिवियों से निकलकर तिर्यंचों में उत्पन्न हुए कोई जीव मति, श्रुत, अवधिज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और संयमासंयम इन छह गुणों को उत्पन्न करते हैं। मनुष्यों में उत्पन्न हुए कोई जीव ग्यारहों गुणों को उत्पन्न कर लेते हैं-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञान, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, संयमासंयम, संयम, तीर्थकरत्व और मोक्ष, इन ग्यारह स्थानों को भी प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु नरक से निकलकर कोई भी बलभद्र, नारायण और चक्रवर्ती नहीं हो सकते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ६, पृ. ३०५-३०६)
संसारिणां जीवानां सर्वश्रेष्ठं सुखं सर्वार्थसिद्धौ सर्वाधिकं दु:खं च सप्तमीपृथिवीगतनारकाणां। उत्तं श्रीजिनसेनाचार्येण- सुकृतफलमुदारं विद्धि सर्वार्थसिद्धौ, दुरितफलमुदग्रं सप्तमीनारकाणाम्। शमदमयमयोगैरग्रिमं पुण्यभाजां, अशमदमयमानां कर्मणा दुष्कृतेन।।२२०।।
संसारी जीवों में सर्वश्रेष्ठ सुख सर्वार्थसिद्धि में है और सबसे अधिक दु:ख सातवें नरक में रहने वाले नारकी जीवों में होता है। श्री जिनसेनाचार्य देव ने कहा भी है- पुण्यकर्मों का उत्कृष्ट फल सर्वार्थसिद्धि में और पापकर्मों का उत्कृष्ट फल सप्तम पृथिवी के नारकियों के जानना चाहिए। पुण्य का उत्कृष्ट फल परिणामों को शान्त रखने, इन्द्रियों का दमन करने और निर्दोष चारित्र पालन करने से पुण्यात्मा जीवों को प्राप्त होता है और पाप का उत्कृष्ट फल परिणामों को शान्त नहीं रखने, इन्द्रियों का दमन नहीं करने तथा निर्दोष चारित्र पालन नहीं करने से पापी जीवों को प्राप्त होता है।