छत्तेहिं एयछत्तं भुंजइ पुह्वी सवत्तपरिहीणो।
चामरदाणेण तहा विज्जिज्जइ चमरणिवहेहिं।।४९०।।
विजयपडाएहिं णरो संगाममुहेसु विजइओ होइ।
छक्खंडविजयणाहो णिप्पडिवक्खो जसस्सी य।।४९२।।
अर्थ–छत्र–प्रदान करने से मनुष्य, शत्रुरहित होकर पृथिवी को एक छत्र भोगता है। तथा चमरों के दान से चमरों के समूहों द्वारा परिवीजित किया जाता है, अर्थात् उसके ऊपर चमर ढोरे जाते हैं।।४९०।।
अर्थ–जिन–मंदिर में विजय पताकाओं के देने से मनुष्य सुदर्शन मेरू के ऊपर क्षीरसागर के जल से सुरेन्द्र प्रमुख देवों के द्वारा भक्ति के साथ अभिषिक्त किया जाता है।।४९२।।
(वसुनंदि श्रावकाचार)
घंटाहिं घंटसद्दाउलेसु पवरच्छराणमज्झम्मि।
संकीडइ सुरसंघायसेविओ वरविमाणेसु।।४८९।।
अर्थ-जिनमन्दिर में घंटा समर्पण करने वाला पुरुष घंटाओं के शब्दों से आकुल अर्थात् व्याप्त, श्रेष्ठ विमानों में सुर समूह से सेवित होकर प्रवर–अप्सराओं के मध्य में क्रीड़ा करते हैं।।४८९।।
अहिसेयफलेण णरो अहिसिंचिज्जइ सुदंसणस्सुवरिं।
खीरोयजलेण सुरिंदप्पमुहदेवेहिं भत्तीए।।४९१।।
अर्थ-जिनभगवान के अभिषेक करने के फल से मनुष्य सुदर्शन मेरू के उपर क्षीरसागर के जल से सुरेन्द्र प्रमुख देवो के द्वारा भक्ति के साथ अभिषिक्त किया जाता है।।४९१।।