जो श्रमण हैं, गुणों से परिपूर्ण हैं, कुल, रूप तथा वय से विशिष्ट हैं, और अन्य श्रमणों-मुनियों को अति इष्ट हैं, ऐसे आचार्य को ‘हे भगवन्! मुझे स्वीकार करो’, ऐसा कहकर प्रणाम करता है और आचार्य के द्वारा अनुगृहीत किया जाता है । पुन: वह ‘‘मैं किंचित् मात्र भी पर का नहीं हूँ, पर भी किंचित् मात्र मेरे नहीं है । इस लोक में आत्मा के सिवाय अन्य कुछ भी मेरा नहीं है इस प्रकार निश्चय करके जितेन्द्रिय होता हुआ ‘यथाजात’ रूपधारी हो जाता है । जन्मसमय के जैसा रूप वाला, शिर और दाढ़ी मूँछ के केशों का लोंच किया हुआ, परिग्रहरहित, िंहसादि से रहित और प्रतिकर्म-शरीर श्रङ्गारादि से रहित ऐसा लिंग यतिधर्म का बहिरंग चिन्ह है । मूर्च्छा और आरंभरहित, उपयोग और योग की शुद्धि से युक्त तथा पर की अपेक्षा से रहित ऐसा जिनेन्द्रदेव का लिंग श्रमण अवस्था का अंतरंग लिंग है जो कि अपुनर्भव-मोक्ष का कारण है । तत्पश्चात् परमगुरु के द्वारा प्रदत्त उन दोनों लिंगों को ग्रहण करके उन्हें नमस्कार करके व्रतसहित क्रिया को सुनकर प्रतिक्रमण आदि के द्वारा उपस्थित होता हुआ वह श्रमण होता है । व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, लोंच, आवश्यक, अचेलत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, स्थितिभोजन और एकभक्त-श्रमणों के इन अट्ठाईस मूलगुणों को जिनेन्द्रदेव ने कहा है । उनमें प्रमत्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है । अर्थात् इन भेदरूप मूलगुणों में अपने को स्थापित करता हुआ-मूलगुणों में भेदरूप से आचरण करता हुआ छेदोपस्थापक कहलाता है ।’’ इस प्रकार से आध्यात्मिक ग्रंथ प्रवचनसार में भी चरणानुयोग चूलिका में भगवान श्री कुन्दकुन्ददेव ने दीक्षा का क्रम बताया है । अब आचारसार आदि ग्रंथों में दीक्षा के योग्यपात्र का वर्णन जैसा बताया है, वैसा यहाँ कहते हैं। ‘‘जो आचार्य लोकव्यवहार की सब बातों को जानने वाले हैं, मोहरहित और बुद्धिमान् हैं उनको सबसे पहले यह मालूम कर लेना चाहिए कि यह देश अच्छा है या नहीं? दीक्षा देने योग्य है या नहीं ? मुनियों के लिए निर्वाह योग्य है या नहीं ? दीक्षार्थी पुरुष ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीन वर्णों में से किस वर्ण का है ? अथवा पतित या बहिष्कृत तो नहीं है ? उसके सब अंग पूर्ण हैं या नहीं ? यदि अपूर्ण हों तो दीक्षा का पात्र नहीं है । वह राज्य अथवा लोक के विरुद्ध तो नहीं है ? इसने कुटुम्ब और परिवारजनों से आज्ञा ले ली है या नहीं ? इसका घर आदि संबंधी मोह नष्ट हो गया है या नहीं ? यह अपस्मार-मृगी आदि रोग से सहित तो नहीं है इत्यादि बातों को उसी के जाति तथा कुटुम्ब के लोगों से पूछ कर निर्णय कर लेते हैं।’’
कुल और जाति इन दोनों की विशुद्धि को सज्जाति कहते हैं, इस सज्जाति के प्राप्त होने पर सहज ही प्राप्त हुए गुणों से रत्नत्रय की प्राप्ति सुलभ हो जाती है । यह सज्जाति उत्तम शरीर के जन्म से ही वर्णन की गई है क्योंकि पुरुषों के समस्त इष्ट पदार्थों की सिद्धि का मूल कारण यही एक सज्जाति है ।। निष्कर्ष यह निकला कि उपर्युक्त गुणों से युक्त भव्य जीव ही जैनेश्वरी दीक्षा के लिए पात्र होता है । तब आचार्यदेव उसकी दीक्षा के लिए शुभ मुहूर्त का निर्णय करके संघ को और जनता को सूचित कर देते हैं। कहा भी है-‘‘मुमुक्षु पुरुष को शुभ तिथि, शुुभ नक्षत्र, शुभयोग, शुभ लग्न और शुभ ग्रहों के अंश में निग्र्रंथ आचार्य के पास जाकर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए।’ ‘‘दीक्षा के पूर्व दिन भोजन के समय वह दीक्षार्थी गुरु के पास विधिवत् पात्र में भोजन करने का त्याग करके करपात्र में भोजन ग्रहण करके जिनमंदिर में आता है पुन: दीक्षा के दिन उपवास ग्रहण करने के लिए ‘बृहत्प्रत्याख्यानप्रतिष्ठापन’ क्रिया में सिद्धभक्ति और योगभक्ति पढ़कर, गुरु के पास उपवास सहित प्रत्याख्यान ग्रहण करके-आचार्य भक्ति, शांति भक्ति और समाधि भक्ति पढ़कर गुरु को नमकार करता है । पुन: दीक्षादाता-दीक्षा दिलाने वाले श्रावक उस दीक्षार्थी से शांति विधान, गणधर वलय विधान या चारित्रशुद्धि विधान आदि कोई विधान कराते हैं। यदि विधान का कार्यक्रम बड़ा है, तो कई दिन पूर्व से ही विधान प्रारंभ कर देते हैं। यदि दीक्षार्थी स्वयं सम्पन्न है तो वह अपने द्रव्य से ही विधान आदि कार्य करता है । अनन्तर दीक्षादाता श्रावक उस दीक्षार्थी को दीक्षा के दिवस मंगल स्नान कराकर यथायोग्य वस्त्र, अलंकार आदि से युक्त कर महामहोत्सव (बाजे-गाजे) के साथ उसे जिनमंदिर में लाते हैं। वह दीक्षार्थी देव-शास्त्र और गुरु की पूजा करके वैराग्य भावना में तत्पर होता हुआ सभी से क्षमा याचना करके गुरु के पास बैठ जाता है ।
वहाँ पर दीक्षाविधि कराने वाले विद्वान् के कहे अनुसार पहले से ही सौभाग्यवती स्त्रियाँ पाटे पर धुले चावल पैâलाकर उस पर पीले चावलों से स्वस्तिक बनाती हैं और उसके ऊपर श्वेतवस्त्र ढक देती हैं । दीक्षार्थी विनय से खड़ा होकर और हाथ में श्रीफल लेकर संघ के समक्ष गुरुदेव से दीक्षा की याचना करता है कि हे भगवन्! मुझे संसार समुद्र से पार करने वाली ऐसी जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान करके मुझ पर अनुग्रह कीजिए । उस समय गुरुदेव उसकी प्रार्थना स्वीकार करके उसे उस स्वस्तिक के आसन पर बैठने की आज्ञा देते हैं। वह शिष्य पूर्व दिशा में मुख करके पर्यंकासन से उस पर बैठ जाता है और गुरु भी वहीं पर पास में उत्तरमुख करके बैठ जाते हैं पुनरपि सभी संघ को पूछकर सबसे पहले दीक्षार्थी का लोंच शुरू करते हैं। उस समय आचार्यदेव उस शिष्य के मस्तक पर मंत्रोच्चारणपूर्वक गंधोदक लगाते हैं। पुन: वर्धमान मंत्र के द्वारा पीले अक्षत आदि निक्षेपित करके भस्म (राख) लगाकर विधिवत् मंत्रपूर्वक केशलोंच विधि करते हैं। ‘‘वह शिष्य यदि केशलोंच करने में कुशल है, तो स्वयं अपने हाथ से केशलोंच करता है । अन्यथा अन्य साधु उसका केशलोंच पूरा करते हैं१।’’ पुन: वह गुरुभक्ति करके गुरु की आज्ञा से अपने वस्त्र, आभूषण, यज्ञोपवीत आदि का त्याग करके उसी आसन पर बैठकर दीक्षा की याचना करता है । आचार्यदेव उसके मस्तक पर ‘श्रीकार’ लिखकर विधिवत् अट्ठाईस मूलगुण रूप व्रत प्रदान करते हैं । लवंग पुष्पों से सोलह संस्कारों को मस्तक पर आरोपित करके संयम का उपकरण पिच्छी, ज्ञान का उपकरण शास्त्र और शौच का उपकरण कमण्डलु देते हैं । इस प्रकार से विधिवत् दीक्षाविधि समाप्त होने पर वह शिष्य दिगम्बर मुनि बन जाता है और सारे विश्व में पूज्य हो जाता है ।
श्री कुंदकुंदस्वामी दु:खों से छुटकारा चाहने वाले पुरुषों को मुनिपद ग्रहण करने की प्रेरणा करते हैं-
एवं पणमिय सिद्धे, जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे।
पडिवज्जद सामण्णं, जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं।।१।।
हे भव्यजीवों! यदि आप लोग दु:खों से छुटकारा चाहते हैं तो इस प्रकार सिद्धों को, जिनवरों में श्रेष्ठ तीर्थंकर अर्हन्तों को और आचार्योपाध्याय सर्व साधुरूप मुनियों को बार-बार प्रणाम कर मुनिपद को प्राप्त करें।।१।। मुनि होने का इच्छुक पुरुष पहले क्या करे, यह उपदेश देते हैं-
आपिच्छ बंधुवग्गं, विमोइदो गुरुकलत्तपुत्तेहिं।
आसिज्ज णाणदंसण, चरित्ततववीरियायारं।।२।।
समणं गणिं गुणड्ढं, कुलरूववयोविसिट्ठमिट्ठदरं।
समणेहि तं पि पणदो, पडिच्छ मं चेदि अणुगहिदो।।३।।
जो मुनि होना चाहता है वह सर्वप्रथम अपने बंधुवर्ग से पूछकर गुरु, स्त्री तथा पुत्रों से छुटकारा प्राप्त करे फिर ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों को प्राप्त हुए ऐसे आचार्य के पास पहुँचे जो कि अनेक गुणों से सहित हों, कुल, रूप तथा अवस्था से विशिष्ट हों और अन्य मुनि जिसे अत्यन्त चाहते हों। उनके पास पहुँचकर उन्हें प्रणाम करता हुआ यह कहे कि हे प्रभो! मुझे अंगीकार कीजिए। अनंतर उनके द्वारा अनुगृहीत होकर निम्नांकित भावना प्रकट करें।।२-३।।
णाहं होमि परेसिं, ण मे परे णत्थि मज्झमिह किंचि।
इदि णिच्छिदो जिदिंदो, जादो जधजादरूवधरो।।४।।
‘मैं दूसरों का नहीं हूँ, दूसरे मेरे नहीं हैं और न इस लोक में मेरा कुछ है।’ इस प्रकार निश्चित होकर जितेन्द्रिय होता हुआ सद्योजात बालक के समान दिगम्बर रूप को धारण करे।।४।। आगे सिद्धि के लिए कारणभूत बाह्य लिंग और अंतरंग लिंग इन दो लिंगों का वर्णन करते हैं-
जधजादरूवजादं, उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं।
रहितं हिंसादीदो,अपडिकम्मं हवदि लिंगं।।५।।
मुच्छारंभविजुत्तं, जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहिं।
लिंगं ण परावेक्खं, अपुणब्भवकारणं जोण्हं।।६।।जुगलं।।
जो सद्योजात बालक के समान निर्विकार निग्र्रंथ रूप के धारण करने से उत्पन्न होता है, जिसमें शिर तथा दाढ़ी-मूँछ के बाल उखाड़ दिये जाते हैं, जो शुद्ध है-निर्विकार है, हिंसादि पापों से रहित है और शरीर की संभाल तथा सजावट से रहित है वह बाह्य लिंग है तथा जो मूच्र्छा-परपदार्थ में ममता परिणाम और आरंभ से रहित है, उपयोग और योग की शुद्धि से सहित है, पर की अपेक्षा से दूर है एवं मोक्ष का कारण है वह श्री जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहा हुआ अंतरंग लिंग-भावलिंग है। जैनागम में बहिरंग लिंग और अंतरंग लिंग-दोनों ही लिंग परस्पर सापेक्ष रहकर ही कार्य के साधक बतलाये हैं। अंतरंग लिंग के बिना बहिरंग केवल नट के समान वेष मात्र है, उससे आत्मा का कुछ भी कल्याण साध्य नहीं है और बहिरंग लिंग के बिना अंतरंग लिंग का होना संभव नहीं है क्योंकि जब तक बाह्य परिग्रह का त्याग होकर यथार्थ निग्र्रंथ अवस्था प्रगट नहीं हो जाती, तब तक मूच्र्छा या आरंभ रूप आभ्यंतर परिग्रह का त्याग नहीं हो सकता और जब तक हिंसादि पापों का भाव तथा शरीरासक्ति का भाव दूर नहीं हो जाता, तब तक उपयोग और योग की शुद्धि नहीं हो सकती। इस प्रकार उक्त दोनों लिंग ही अपुनर्भव-फिर से जन्म धारण नहीं करना अर्थात् मोक्ष के कारण हैं।।५-६।। आगे श्रमण कौन होता है ? यह कहते हैं-
आदाय तं पि लिंगं, गुरुणा परमेण तं णमंसित्ता।
सोच्चा सवयं किरियं, उवट्ठिदो होदि सो समणो१।।७।।
जो अर्हंत परमेश्वर अथवा दीक्षागुरु से पूर्वोक्त दोनों लिंगों को ग्रहण कर उन्हें नमस्कार करता है और व्रतरहित आचारविधि को सुनकर शुद्ध आत्मस्वरूप में उपस्थित रहता है, अपने उपयोग को अन्य पदार्थों से हटाकर शुद्ध आत्मस्वरूप के चिंतन में लीन रहता है, वह श्रमण होता है।।७।।