जैनदर्शन में ‘गणेश’ की मान्यता एवं पूजा की परम्परा अति प्राचीन है, जो तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव के काल से प्रवर्तित है। ‘गणेश’ की संज्ञा जैनशास्त्रों में मूलत: तीर्थंकरों के प्रधानशिष्य गणाधिपति ‘गणधरदेव’ के लिए प्रयुक्त हुई थी। ‘गणेश’ विषयक एक प्राचीन जैनस्तुति यहाँ अनुवादसहित प्रस्तुत है-
जिनान् जितारातिगणान् गरिष्ठान् देशावधीन् सर्वपरावधींश्च ।
सत्कोष्ठबीजादिपदानुसारीन् स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ।।१।।
अर्थ- मैं आरतीयगणों के जेता, गंभीर, देशावधि एवं सर्वावधि परमावधिज्ञानों के धारक, सम्यक् कोष्टबुद्धि एवं बीजबुद्धि पदों के अनुसरणकत्र्ता ‘जिन’ स्वरूप गणेशों की उनके गुणों की प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ।
संभिन्नश्रोत्रान्वित सन्मुनीन्द्रान्, प्रत्येक सम्बोधित बुद्धधर्मान् ।
स्वयंप्रबुद्धांश्च विमुक्तमार्गान्, स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ।।२।।
अर्थ- संभिन्न एवं संश्रोतृ से अन्वित श्रेष्ठ मुनीन्द्र, (स्वयं बुद्ध) प्रत्येकबुद्ध एवं बोधितबुद्ध धर्म वाले, स्वयं प्रबुद्ध, साक्षात् मोक्षमार्गरूप गणेशों का मैं उन जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए स्तवन करता हूँ।
द्विधा मन:पर्ययचित्प्रयुक्तान्, द्वि-पंच-सप्त-द्वय पूर्वसक्तान् ।
अष्टाङ्गनैमित्तिकशास्त्रदक्षान्, स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ।।३।।
अर्थ- (ऋजुमति एवं विपुलमति-इन) दो प्रकार के मन:पर्यायज्ञानों से युक्त, अंगबाह्य तथा ११ अंग एवं (दसपूर्वी एवं चतुर्दशपूर्वी), पूर्वों के ज्ञान वाले, अष्टाङ्ग महानिमित्तशास्त्र में निपुण गणेशों की उन जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए मैं स्तुति करता हूँ।
विकुर्वणारद्र्धिमहाप्रभावान्, विद्याधरांश्चारणप्रद्र्धिप्राप्तान् ।
प्रज्ञाश्रितान्नित्यखगामिनश्च, स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ।।४।।
अर्थ- ‘विकुर्वणा’ नामक ऋद्धि के महाप्रभाव से युक् त, विद्याओं के धारी, चारण़द्धि प्राप्त, प्रज्ञा-श्रमण एवं आकाश में गमन करने वाले गणेशों की मैं उन जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ।
आशिर्विषान् दृष्टिविषान्मुनीन्द्रानुग्रातिदीप्तोत्तम तप्ततप्तान् ।
महातिघोरप्रतप: प्रसक्तान् , स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ।।५।।
अर्थ- आशीर्विष एवं दृष्टिविष शक्ति-सम्पन्न मुनीन्द्र, उग्रतपस्वी, दीप्ततपस्वी, तप्ततपस्वी एवं महातपस्वी तथा अत्यन्त घोर प्रकृष्ट तपों के प्रसंगों से युक्त गणेशों की उन जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए मैं स्तुति करता हूँ।
वन्द्यान् सुरैर्घोरगुणांश्च लोके, पूज्यान् बुधैर्घोरपराक्रमांश्च ।
घोरातिसंसद्गुणब्रह्मयुक्तान्, स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ।।६।।
अर्थ- देवगणों के द्वारा वन्दनीय, प्रकृष्ट गुणों के समूह, लोक में विज्ञजनों द्वारा पूजित, घोर पराक्रम वाले, उत्कृष्ट अतिसंसद् (श्रेष्ठ समूह) ब्रह्मचर्यरूपी गुण से युक्त गणेशों की मैं उन जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ।
आमद्र्धि खेलद्र्धि प्रजल्लविट्प्रसर्वद्र्धिप्राप्तांश्च व्यथादिहंतृन् ।
मनो वच: कायबलोयुक्तान्, स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ।।७।।
अर्थ- आमौषधि ऋद्धि, खेल्लौषघि ऋद्धि, जलौषधि ऋद्धि, बिप्रुषौषधि ऋद्धि तथा सर्वौषधि ऋद्धि को प्राप्त; व्यथा आदि के विनाशक; मनोबल-वचनबल एवं कायबल से उपयुक्त गणेशों की मैं उन जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ।
सत्क्षीरसर्पिमधुरामृद्र्धीन् यतीन् वराक्षीणमहानसांश्च ।
प्रवद्र्धमानस्त्रिजगत्प्रूज्यान् स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ।।८।।
अर्थ- मंगलकारी क्षीरस्रावी, घृतस्रावी, मधु:स्रावी, अमृतस्रावी, श्रेष्ठ अक्षीणमहानस ऋद्धि आदि ऋद्धियों से सम्पन्न यति, प्रवद्र्धमान (ऋद्धियुक्त), तीनों लोकों द्वारा पूज्य गणेश की मैं उन जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए स्तुति करता हूँ।
सिद्धालयान् श्रीमहतोऽतिवीरान् श्रीवद्र्धमानद्र्धिविबुद्धिदक्षान् ।
सर्वान् मुनीन् मुक्तिवरानृषीन्द्रान्, स्तुवे गणेशानपि तद्गुणाप्त्यै ।९।।
अर्थ- सिद्धालयरूपी श्री सम्पन्न, अतिवीर वद्र्धमानश्री-ऋद्धि सम्पन्न विशिष्टबुद्धि में दक्ष, समस्त मुनियों एवं मोक्षाभिलाषी ऋषियों के इन्द्र (अधिपति) गणेशों का मैं उन जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए स्तवन करता हूँ।
नृ-सुर-खचरसेव्या विश्वश्रेष्ठद्र्धिभूषा, विविधगुणसमुद्रा मारमातङ्गसिंहा: ।
भवजलनिधिपोता वन्दिता में दिशन्तु, मुनिगणसकालान् श्रीसिद्धिदा: सदृषीन्द्रा: ।।१०।।
अर्थ- मनुष्यों, देवताओं एवं नभचारियों के द्वारा सेवित, विश् व की श्रेष्ठ ऋद्धियों से भूषित, विविध गुणों के समुद्र, कामदेवरूपी हाथी के लिए सिंह के समान, संसाररूपी समुद्र को (पार करने के लिए) जहाज के समान, समस्त मुनिगणों के द्वारा वन्दित, श्रेष्ठ ऋषियों के इन्द्र (अधिपति) तथा श्री (लक्ष्मी) एवं सिद्धि के दाता (गणेश जी) मुझे सन्मार्ग दिखायें/ मेरा कल्याण करें।
षडष्टद्र्धियुतं यस्य सर्वानिष्टविनाशनं । गणेशस्य सुखागारं विधिना स्थापयाम्यहं ।।
अर्थ- अड़तालीस (छर्ह x आठ) ऋषियों से संयुक्त, सर्व अनष्टिों के विनाशक, सुखों के निवास स्थान, गणेश जी को मैं विधिपूर्वक (भावों में) स्थापित करता हूँ।