=३— वैशेषिक— == वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक ‘महर्षिकणाद’ हैं। कहा जाता हैं। कहा जाता है कि ये इतने बड़े संतोषी थे कि खेतों से चुने हुये अन्नकणों के सहारे ही जीवन यापन करते थे। इसलिये इनका उपमान ‘कणाद’ पड़ा है। उनका वास्तविक नाम ‘उलूक’ था अतएव वैशेषिक दर्शन कणाद या ‘औलूक्य’ दर्शन नाम से प्रसिद्ध है। इस दर्शन में ‘विशेष’ नामक पदार्थ की विशद विवेचना है अत: इसे ‘वैशेषिक’ भी कहते हैं। अन्यत्र भी यही बाता है।‘‘मुनिविशेषस्य कापोतीं वृत्तिमनुतिष्ठवतो रथ्यानिपतांस्तंडुलानादायादाय कृताहारस्याहार नि—मित्तात्कणादसंज्ञा अजनि। तस्य कणादस्य पुर: शिवेनोलूकरुपेण मतमेतत्प्रकाशितम् ‘तत औलूक्यं प्रोच्यते। पशुपतिभक्तत्वेन पाशुपतं चोच्यते’’।कापोत सदृशवृत्ति का अनुसरण करने वाले मार्ग में पतित तंदुल कणों को खाने वाले होने से इन्हें कणाद संज्ञा हुई, इनके आगे शिव ने उल्लू का शरीर धारण करके इस मत को चलाया अत: ‘औलूक्य’ हैं। वैशेषिक लोग पशुपति—शिव के भक्त हैं अत: यह दर्शन ‘पाशुपात’ भी कहलाता है। वैशेषिक कणाद के शिष्य हैं अत: काणाद भी कहलाते हैं। (षड्द. ४०६) इनके यहां कणाद कृत मूलग्रन्थ ‘षट्पदार्थी—वैशेषिक सूत्र’ नाम ये है। इस पर प्रशस्त का ‘पदार्थ धर्म संग्रह’ है, इस प्रशस्तपाद भाष्य—पदार्थ धर्मसंग्रह पर दो उत्तम टीकायें हैं, उदयन आचार्य की किरणावली, और श्रीधराचार्य की ‘न्यायकंदली’। इसके बाद का जो वैशेषिक साहित्य है वह न्याय और वैशेषिक इन दोनों का संमिश्रण है। ऐसे ग्रन्थों में शिवादित्य की ‘सप्तपदार्थी’ लौगाक्षि भास्कर की ‘तर्ककौमुदी’ वल्लभाचार्य की ‘न्यायलीलावती’ और विश्वनाथ पंचानन का भाषा परिच्छेद (सिद्धांत मुक्तावली टीका के साथ) प्रमुख है। (भारतीयद. पृ. १४६) व्योमशिवाचार्य कृत व्योमवती टीका, श्रीवत्साचार्यकृत लीलावती तर्क, आत्रेयतन्त्र आदि। ==४—मीमांसक— == मीमांसक का मूल ग्रन्थ है ‘जैमिनिसूत्र’ इस जैमिनि के सूत्र पर शबरस्वामी का विशद भाष्य है जिसे ‘शाबरभाष्य’ कहते हैं। उनके बाद बहुत से टीकाकार और स्वतंत्र ग्रन्थकार हुये, उनमें दो मुख्य हैं— कुमारिल भट्ट और प्रभाकर। इन दोनों के नाम पर मीमांसा में दो प्रधान संप्रदाय चल पड़े जिनका नाम है—भाट्ट मीमांसा और प्रभाकर मीमांसा। (भारतीयद.पृ. १९९) मीमांसा दर्शन के दो भेद हैं— पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा। पूर्व मीमांसावादी यजन—याजन, अध्ययन—अध्यापन, दान और प्रतिग्रह इन छह ब्राह्मण कर्मों का अनुष्ठान करने वाले हैं ब्रह्म सूत्रधारी हैं, यज्ञादि क्रिया काण्ड में मुख्य रूप से प्रवृत्ति करते हैं। इनके साधु एक दण्डी, त्रिदण्डी, गेरुआ वस्त्रधारी मृगछाला, कमंडलु आदि रखते हैं, सिर मुंडाते हैं। इनका वेद ही गुरु और भगवान् है ये लोग वेद के सिवा किसी को सर्वज्ञ मानने को तैयार नहीं है। इनमें कुमारिल का मीमांसाश्लोकवार्तिक, प्रभाकर का ‘बृहती’ आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। ==५—उत्तर मीमांसकवादी वेदांती— == कहलाते हैं ये केवल अद्वैत ब्रह्म को ही मानते हैं। इनके साधु कुटीचर, बहूदक, हंस, परमहंस ऐसे चार तरह के होते हैं । जो त्रिदण्डधारी, शिखाधारी ब्रह्म सूत्रधारी हैं यजमानों के यहां भोजन करते हैं गृह त्यागी हैं कुटिया बनाकर जंगल में रहते हैं, वे ‘कुटीचर’ कहते हैं। बहुत जल वाली नदी में स्नान करने से बहूदक होते हैं । ‘हंस’ कहलाते हैं। इन हंस साधु को तत्त्वज्ञान होने के बाद ‘परमहंस‘ कहते हैं। इसे ही वेदांत दर्शन कहते हैं। वेदांत का अर्थ है वेद का अंत। उपनिषदों को भिन्न—भिन्न अर्थों में वेद का अंत कहा जाता है। वैदिक काल में तीन तरह के साहित्य होते हैं। सबसे प्रथम वैदिक मंत्र जो भिन्न—भिन्न संहिताओं ऋग्वेद यजुर्वेद, सामवेद में संकलित हैं। तत: पर ब्राह्मण भाग जिसमें वैदिक कर्मकाण्ड की विवेचना है, अंत में उपनिषद जिसमें दर्शनिक तथ्यों की आलोचना है। ये तीनों मिलकर श्रुति या वेद कहलाते हैं। अध्ययन के विचार में उपनिषदों की बारी अंत में आती थी। लोग संहिता से शुरु करते थे। गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर गृहस्थोचित यज्ञादि कर्म करने से ब्राह्म, वानप्रस्थ या सन्यास लेकर वन में रहने पर आरण्यक नाम होता है। उपनिषदों का विकास आरण्यक साहित्य से हुआ है। स्वयं उपनिषदों में कहा है कि वेद—वेदांग सभी शास्त्रों का अध्ययन कर लेने पर जब तक ज्ञान पूर्ण न हो जावे तब तक मनुष्य उपनिषदों की शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता, उपनिषद् (उप + नि + सद ) जो ईश्वर के समीप या गुरु के समीप पहुंचावे वह उपनिषद् है। भिन्न—भिन्न उपनिषदों के विचार भेद का परिहार करने के लिये वादरायण ने ‘ब्रह्मसूत्र’ ग्रन्थ की रचना की। इसे वेदांत सूत्र, शारीरिकमीमांसा या उत्तरमीमरंसा भी कहते हैं। ब्रह्मसूत्र पर अनेकों भाष्य हैं, शंकर, रामानुज , मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, निंबार्काचार्य, आदि के भाष्यों से उनके नाम पर भिन्न भिन्न— संप्रदाय चल पड़े हैं। आजकल शंकराचार्य का ‘अद्वैतवाद’ औश्र रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतवाद अधिक प्रसिद्ध है। ==६. सांख्य— == कुछ सांख्य ईश्वर मानते हैं कुछ निरीश्वरवादी हैं, जो निरीश्वर हैं उनके नारायण ही देवता हैं। इनके आचार्य विष्णु ,प्रतिष्ठाकारक चैतन्य आदि शब्दों से कहे जाते हैं। सांख्य दर्शन के रचियता महर्षि कपिल हैं। सांख्य अत्यन्त प्राचीन मत है इसमें पच्चीस तत्त्वों की संख्या होने से इसे सांख्य मत कहते हैं। सांख्य दर्शन का मूल ग्रन्थ है कपिल का ‘तत्त्वसमास’। इसमें निरीश्वर सांख्य का दर्शन है। योगदर्शन में ईश्वर का प्रतिपादन किया गया है अत: इसे ‘सेश्वर सांख्य’ कहते हैं। इस सेश्वर सांख्य मत के प्रवर्तक पतञ्जलि ऋषि है अत: इसे ‘पातञ्जल दर्शन’ भी कहते हैं। कपिल, आसुरि, पंचशिख, भार्गव तथा उलूक आदि सांख्य मत के प्रमुख प्रवक्ता हैं। इसलिए इसे सांख्य या कपिलमत भी कहते हैं। कपिल को परमर्षि कहने से इस मत को ‘पारमर्ष’ भी कहते हैं । सांख्यों का प्राचीन ग्रन्थ है ईश्वर कृष्ण की ‘सांख्यकारिका’ गौडपाद का ‘सांख्यकारिकाभाष्य’ वाचस्पति की ‘तर्क कौमुदी’ विज्ञान भिक्षु का ‘सांख्य प्रवचन भाष्य’और सांख्यसार आदि ग्रन्थ हैं। एवं इनके षष्टितंत्र का पुन: संस्कार रूप ‘माठर भाष्य’ सांख्यसप्तति, तत्त्व कौमुदी, आत्रेयतंत्र आदि हैं। ==७. बौद्ध—== बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध हैं। इन्हें सुगत भी कहते हैं अत: इनके अनुयायी बौद्ध या सौगत कहलाते हैं, इनमें चार भेद हैं —सौत्रांतिक, वैभाषिक, योगाचार और माध्यमिक। बौद्धों के ज्ञान पारमिता आदि दश ग्रन्थ हैं— तर्कभाषा, हेतुबिन्दु, अर्चटकृत, हेतुविंदु की अर्चट तर्क नाम की टीका , प्रमाणवार्तिक, तत्त्वसंग्रह, न्यायबिंदु, कमलशीलकृत तत्त्वसंग्रह पंजिका, न्यायप्रवेश आदि ग्रंथ हैं। महात्मा बुद्ध के उपदेश के तीन पिटक इनके यहां माने गये हैं उनमें—विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्म पिटक ये नाम हैं। इन पिटकों में केवल प्राचीन बौद्ध धर्म का वर्णन मिलता है। धर्मकीर्ति का ‘प्रमाणवार्तिक’ उसकी टीका में प्रभाकर गुप्त का ‘प्रमाणवार्तिकांलकार है। शांतरक्षित का ’तत्त्वसंग्रह’ दिग्नाग का ‘न्यायप्रवेश’ धर्मकीर्ति का ‘न्यायबिंदु’आदि। षड्दर्शन समुच्चय में बौद्ध , नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक और जैमिनीय इनको ‘षड्दर्शन’ कहा है। आगे चलकर नैयायिक और वैशेषिक दर्शनों को दो न कहकर एक कहने से आस्तिकवादी के पांच ही दर्शन कह देते हैं एवं उसमें नास्तिक चार्वाक की संख्या मिलाकर ‘षड्दर्शन’ कहते हैं। इस षड्दर्शन में मीमांसक और वेदांती को भी एक ही में लिया है। ८. जैनधर्म में किसी को इस जैनधर्म का प्रवर्तक नहीं माना गया है क्योंकि यह जैनधर्म अनादिनिधन धर्म है। अनादि काल से जीव कर्मों का नाशकर सर्वज्ञ होते रहे हैं और वर्तमान से लेकर अनंतानन्त काल तक सर्वज्ञ होते रहेंगे। जैन दर्शन में संसार पूर्वक—बंधपूर्वक ही मोक्ष माना गया है। अत: संसारी जीव ही आत्मा की सर्वोच्च विशुद्धि प्राप्त करके भगवान बन जाते हैं, ‘कर्मारातीन् जयतीति जिन: जिनो देवता अस्य स जैन:’ जो कर्म शत्रुओं को जीतते हैं वे जिन कहलाते हैं एवं ‘जिन’ देवता जिसके उपास्क हैं वे जैन कहलाते हैं, यह धर्म ‘अहिंसामय’ है अत: ‘‘सर्वेभ्यो हित: सार्व:’’ प्राणिमात्र का हितकारी होने से ‘सार्वधर्म’ कहलाता है। जिन भगवान के ही सार्व, सर्वज्ञ , अर्हंत, जिनेन्द्र, शिव, परमेश्वर, महेश्वर, महादेव आदि सार्थक नाम हैं। जैनधर्म में मनुष्य रत्नत्रयरूप उपाय तत्त्व से मोक्षरूप उपेयतत्त्व को प्राप्त कर लेता है जैन धर्म में — सभी वस्तुयें द्रव्यदृष्टि से नित्य हैं एवं पर्याय दृष्टि से अनित्य हैं, सत् रूप— महासत्ता से एक एवं पृथक्—पृथक् अवांतरसत्ता से अनेक हैं किन्तु इस मर्म—स्याद्वाद को न समझकर बौद्धों ने वस्तु को सर्वथा क्षणिक कह दिया है। सांख्य ने ही सर्वथा नित्य कह दिया है। वेदांती ने एक ब्रह्मरूप एवं अन्यों ने अनेक रूप कह दिया है। ऐसे ही कर्मों की विचित्रता से संसार का वैचित्र्य देखकर वैशेषिकों ने ईश्वर को सृष्टि का कर्ता कह दिया है, किन्तु जैनाचार्यों ने सृष्टि को अनादि निधन एवं जीव पुद्गल संयोग से उत्पन्न हुई सिद्ध किया है। मीमांसक ने वेद को अनादि कह दिया है किन्तु वास्तव में अर्थ की अपेक्षा आगम अनादि है एवं सर्वज्ञ की वाणी द्वारा गणधर ग्रथित होने से परम्परा कृत आचार्य प्रणीत होने से सादि भी हैं। अनेकांत शासन में कुछ भी दोष नहीं है। इसलिए इन अन्य मतावलंबियों के ग्रंथों का पठन, मनन, कुश्रुत का पठन मनन है, इससे मिथ्यात्व का आश्रव होता है, ऐसा समझना चाहिय। जैनाचार्यों ने इन ग्रन्थों का अवलोकन केवल उनके तत्त्वों की मान्यताओं का खण्डन करने के लिये ही किया है। जब बौद्ध परंपरा में दिङ्नाग के पश्चात धर्मकीर्ति जैसे प्रखरतार्विकों की तूती बोलती थी, तो ब्राह्मण परम्परा में कुमारिल जैसे उद्भट् विद्वानों की प्रतिध्वनि मंद नहीं हुई थी दोनों ही विद्वानों ने अपनी—अपनी कृतियों में जैप परम्परा के मंतव्यों की खिल्ली उड़ाई थी और समंतभद्र जैसे तार्विकों का खण्डन किया था । उस समय अकलंक देव ने आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत लेकर बौद्धदर्शन आदि पढ़ने का संकल्प किया , उस समय श्री अकलंक देव ने न्याय प्रमाण विषयक अनेकों ग्रन्थ रचे, लघीयस्त्रयी, न्याय विनिश्चय, सिद्धि विनिश्चय, अष्टशती, प्रमाणसंग्रह आदि ग्रन्थों में दिङ्नाग, धर्मकीर्ति जैसे बौद्ध तार्विâकों की एवं उद्योतकर भर्तृहरि कुमारिल जैसे ब्राह्मण तार्विकों की उक्तियों का निरसन करते हुये जैन मन्तव्यों की स्थापना तार्विक शैली से की है। इन अकलंक देव से पूर्व श्री समंतभद्र स्वामी ने भगवान की स्तुति करते हुये न्याय का बहुत ही सुन्दर विषेचन किया है। श्री उमास्वामी आचार्य के महाशास्त्र तत्त्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण पर आप्तमीमांसा स्तुति बनाकर तो एक अलौकिक प्रतिभाशाली कहलाये हैं। श्री विद्यानंद महोदय ने आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा एवं अष्टसहस्री, श्लोक वार्तिकालंकार टीका आदि ग्रंथों में न्याय का विशद वर्णन किया है। श्री माणिक्यनन्दि के परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थ पर प्रमेयरत्नमाला, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि विस्तृत टीकायें हुई हैं। जैन न्याय का मतलब यही है कि ‘प्रमाणेरर्थपरीक्षणां न्याय:’ प्रमाणों के द्वारा अर्थ किया है ‘नीयतें ज्ञायते विवक्षितार्थोऽनेनेति न्याय: न्यायकु.। ‘न ितरामीयंते गम्यंते गत्यर्थानां ज्ञानार्थत्वात् ज्ञायंतेऽर्था: अनित्यत्वादयोऽनेनेति न्याय: तर्कमार्ग: (न्याय प्रवेश पं.पृ. १)’ जिसके द्वारा विवक्षित अर्थ का ज्ञान हो उसे न्याय कहते हैं। अतिशयरूप से जिसके द्वारा अनित्यत्व, अस्तित्व आदि अर्थ जाने जाये वह न्याय—तर्क मार्ग हैं। न्यायविनिश्चयालंकार में जैनाचार्यों ने भी विशेष रूप से कहा है कि—‘निश्चितं च निर्बाधं च वस्तुतत्त्वमीयतेऽनेनेति न्याय:’(न्याय विनिश्चयालंकार भा. १पृ. ३३ )जिसके द्वारा निश्चित और निर्बाध वस्तु तत्त्व का ज्ञान होता है उसे न्याय कहते हैं। इसमें ‘निर्बाध’ पद जैन न्याय की निर्दोषता को प्रकट करता है। ऐसा ज्ञान प्रमाणों के द्वारा होता है इसी से न्याय विषयक ग्रन्थों का मुख्य विषय प्रमाण होता है। प्रमाण के ही भेद प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि माने गये हैं, किन्तु प्रत्यक्ष और आगम के द्वारा वस्तु तत्त्व को जानकर भी उसकी स्थापना और परीक्षा में हेतु और युक्तिवाद का अवलम्बन लेना पड़ता है। इसी से न्याय को तर्कमार्ग और युक्तिशास्त्र भी कहा है।जैनधर्म के बारहवें दृष्टिवाद अंग में ३६३ मिथ्यामतों का स्थापनापूर्वक खंडन किया गया है। न्यायविनिश्चय के प्रारम्भ में श्री अकलंक देव ने लिखा है।—बालानां हितकामिनामतिमहापापै: पुरोपार्जिते:। माहात्म्यात् तमस:स्वयं कलिबलात् प्रायो गुणद्वेषिभि:।। न्यायोऽयं मलिनीकृत: कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते। सम्यग्ज्ञानजलैर्वचोभिरमलं तत्रानुकंपापरै: ।।कल्याण के इच्छुक अज्ञजनों के पूर्वोपार्जित पाप के उदय से एवं स्वयं कलिकाल के प्रभाव से गुण द्वेषी एकांतवादियों ने न्यायशास्त्र को मलिन कर दिया है। करुणाबुद्धि से प्रेरित हो करके हम उस मलिन किये गये न्यायशास्त्र को सम्यग्ज्ञान रूपी जल से किसी तरह प्रक्षालित करके निर्मल करते हैं। इसी भावना से ही श्री अकलंक देव ने छ: महीन तक बौद्धों की अधिष्ठात्री तारादेवी से शास्त्रार्थ करके उसे पराजित करके जैनधर्म के स्याद्वाद की विजय पताका लहराई थी। और आज भी वीरप्रभु का अनेकांत शासन जयशील हो रहा है। तीर्थंकर श्री वृषभदेव या महावीर प्रभु ने इस जैनधर्म की स्थापना नहीं की है। प्रत्युत सभी तीर्थंकर धर्मतीर्थ के प्रकाशक , उपदर्शक मात्र होते हैं, स्याद्वादमय धर्म तो वस्तु का स्वरूप होने से किसी के द्वारा प्रस्थापित नहीं है। जैनधर्म में वर्तमान दो भेद दिख रहे हैं दिगम्बर और श्वेताम्बर। श्वेताम्बर संप्रदाय में स्त्रीमुक्ति केवली कवलाहार सवस्त्रामुक्ति आदि माने गये हैं, किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में स्त्रियों को उसी भाव से मुक्ति का निषेध , केवली के कलवाहार का निषेध एवं सवस्त्रमुक्ति का निषेध किया गया है। जैनधर्म के मर्म को समझने के लिये महापुराण, पद्मपुराण, भद्रबाहुचारित्र आदि प्रथमानुयोग, तत्त्वार्थ सूत्र , गोम्मटसार, त्रिलोकसार, षट्खंडागम आदि करणानुयोग, रत्नकरण्डश्रावकाचार, वसुनंदिश्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्ध् युपाय, मूलाचार, आचारसार आदि चरणानुयोग, एवं समाधितन्त्र, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश, समयसार आदि द्रव्यानुयोग ऐसे चारों अनुयोगों के ग्रन्थों का गुरुमुख से पठन, स्वाध्याय करना चाहिये। इस प्रकार से सर्वदर्शन के सिद्धान्त की संक्षिप्त समीक्षा की गई है। ==ईश्वर सृष्टि कर्तृव्य खंण्डन== वैशेषिक कहते हैं कि —‘सदाशिव’ नाम का एक महेश्वर है जो सदा ही मुक्त है, कभी भी कर्ममल से लिप्त नहीं था अनादिकाल से ही मुक्त है और सम्पूर्ण सृष्टि का कर्ता है यथा—‘‘तनुभुवनकरणादिकं विवादापन्नं बुद्धिमन्निमित्तकम् कार्यत्वात् । यत्कार्य तद् बुद्धिन्निमित्तकं दृष्टं यथा वस्त्रादि। कार्यचेदं प्रकृतं तस्माद् बुद्धिमन्निमित्तकं योऽसौ बुद्धिमास्तद्धेतु: स ईश्वर: इति।’’‘‘शरीर जगत् इन्द्रिय आदि विवाद की कोटि में आये हुये पदार्थ बुद्धिमान् निमित्त कारण से हुये हैं, क्योंकि वे कार्य हैं। जो कार्य होता है वह बुद्धिमान् निमित्त कारण से ही होता है, जैसे वस्त्रादि। और कार्य प्रकृत शरीर आदि हैं इसलिए यह सिद्ध होता है कि अनादि सिद्ध ईश्वर ही सम्पूर्ण विश्व का बनाने वाला है। जैनाचार्यों का कहना है कि ‘‘तनुभुवनकरणादयो न बुद्धिमन्निमित्तका: दृष्टकर्तृकप्रासादादि विलक्षणत्वात आकाशादिवत् ।’’ ‘शरीर जगत् और इन्द्रिय आदि बुद्धिमान् कारण जन्य नहीं हैं, क्योंकि जिन मकानादि के कर्ता देखे जाते हैं उसने भिन्न हैं । जैसे आकाशादि।’ दूसरी बात यह है कि वह ईश्वर सृष्टिकर्ता शरीर सहित है या रहित ? यदि रहित कहो तो अन्य मुक्त जीवों के समान वह भी सृष्टि नहीं बना सकता। यह शरीर सहित कहो, तो वह कर्मसहित होने से अज्ञानी संसारी प्राणी के समान सृष्टि नहीं कर सकेगा। इन वैशेषिकों ने एक सदाशिव ईश्वर को सृष्टिकर्ता माना है, उसमें ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न ऐसी तीन शक्तियां मानी है। पुन: प्रश्न यह भी होता है कि कर्म के बिना इच्छा शक्ति कैसे होगी ? यदि ज्ञान शक्ति से ही सम्पूर्ण कार्य करना मानो, तो भी असंभव है। यदि वैशेषिक कहे कि—समीहामंतरेणपि यथा वक्ति जिनेश्वर:। तथेश्वरोऽपि कार्याणि कुर्यादित्यप्यपेशलम् ।।१४।। सति धर्मविशेषे हि तीर्थंकृत्त्वसमाहये। ब्रूयाज्जिनेश्वरो मार्गं न ज्ञानादेव केवलात् ।।१५।। सिद्धस्यापास्तनि:शेष—कर्मणो वागसंभवात् । बिना तीर्थकरत्वेन नाम्ना नार्थोपशदेशना।।१६।।जिस प्रकार से आप जैनों का जिनेश्वर बिना इच्छा के मोक्ष मार्ग का उपदेश देता है, वैसे ही हमारा महेश्वर बिना इच्छा के सृष्टि बनावे क्या बाधा है ? आचार्य ने कहा कि भाई! हमारे जिनेश्वर की तीथ्ांकर नामा नाम कर्म विशेष से उपदेश में प्रवृत्ति होती है और वे तीर्थंकर तो कर्म सहित हैं शरीरसहित हैं। हां! मोहकर्म के नष्ट हो जाने से इच्छा रहित अवश्य हैं। पूर्णकर्म रहित सिद्धों का उपदेश हम नहीं मानते हैं। यदि आप भी ईश्वर के योग विशेष मानों तो शरीर अवश्य मानना पड़ेगा, पुन: प्रश्न माला चलती जायेंगी। वह सृष्टि रचने के पहले अपना शरीर बना लेता है या शरीर रहित ही सृष्टि बनाकर अपना शरीर बनाता है ? यदि कहो ईश्वर स्वयं अपना शरीर नहीं बनाता है वह स्वयं बन जाता है, तब तो जैसे ईश्वर की इच्छा और प्रयत्न के बिना उसका शरीर बन गया वैसे ही सारी सृष्टि बन जावे। यदि ईश्वर अपने पूर्व शरीर का कर्ता पूर्व पूर्वर्ती शरीर से होता है तब तो शरीर परम्परा अनादि सिद्ध होने से अनवस्था दोष आ जाता है, एवं संसारी प्राणी और ईश्वर में कोई अन्तर नहीं दिखता है। कार्मणशरीर से सहित ही संसारी प्राणी अनादि काल से शरीरों का निर्माण करता चला आ रहा है। दूसरी बात यह भी है कि उस ईश्वर का ज्ञान नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य कहो तो सारे कार्य एक साथ हो जावेंगे, क्योंकि ज्ञान सदा काल एक नित्य है, अनित्य कहो तो भी अनेकों दूषण आते हैं। यहां ईश्वर का ज्ञान व्यापी है या अव्यापी ? स्वसंविदित है या अस्वसंविदित ? वह ज्ञान महेश्वर के ज्ञान को महेश्वर से भिन्न या अभिन्न ? इत्यादि प्रश्न चलते ही रहेंगे। वैशेषिक महेश्वर के ज्ञान से भिन्न मानकर समवाय से महेश्वर को ज्ञानी कहता है तब आचार्य कहते हैं कि यह समवाय एक है तो समवाय महेश्वर में ही ज्ञान को जोड़े अन्यत्र आकाशादि में नहीं ऐसा क्यों ? यदि कहो आकाश अचेतन है, ईश्वर चेतन है तो भी ठीक नहीं है क्योंकि आपने ईश्वर को चेतन नहीं माना है चेतन के समवाय से ही चेतन माना है।‘‘नेशो ज्ञाता न चाज्ञाता स्वयं ज्ञानस्य केवलं। समवायात्सदा ज्ञाता यश्चात्मैव स किं स्वत: ।।६५।।यदि कहो कि ईश्वर न ज्ञाता है न अज्ञाता है किन्तुउ ज्ञान समवाय से ज्ञाता है तब तो बताओ ईश्वर आत्मा है या नहीं ? तब उसने कहा, ईश्वर न आत्मा है न अनात्मा हैं। आत्मत्व के समवाय ये आत्मा है। तब तो बताओ उस आत्मत्व सम्वाय के पहले वह क्या है ? द्रव्य है ?तब वह कहता है कि नहीं। ईश्वर न द्रव्य है न अद्रव्य है, द्रव्यत्व के समवाय से द्रव्य है तब प्रश्न होता है कि द्रव्यत्व समवाय के पहले वह सत् रूप तो अवश्य होगा ? उसने कहा नहीं। ईश्वर असत् ही रहेगा। अर्थात् उस ईश्वर का कुछ भी स्वरूप समझ में नहीं आता है। समवाय की सिद्धि तो असंभव है। क्योंकि जीव में या ईश्वर में ज्ञान समवाय के पहले वे ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? यदि ज्ञानी हैं तो समवाय ने क्या किया ? यदि अज्ञानी हैं तो पत्थर आदि अज्ञानी अचेतन में भी ज्ञान का समवाय क्यों नहीं होता है अत: समवाय सम्बन्प्ध नाम से तादात्मय सम्बन्ध मानकर स्वरूप का स्वरूपवान के साथ तादात्मय ही स्वीकार करन चाहिए अग्नि में उष्ण का जीव में ज्ञान का जो तादादत्मय सम्बन्ध है उसे ही समवाय भले ही कह दो। इस लिए उपयुक्त दोषों के निमित्त से आपका महेश्वर देहसहित, कर्मसहित, सर्वज्ञ एवं मोहरहित सिद्ध नहीं होता। दूसरी बात यह है कि वह ईश्वर सृष्टि क्यों बनाता है किसी अन्य पुरूष की प्रेरणा से या दया से, क्रीड़ा से या स्वभाव से ? यदि अन्य से प्रेरित होकर बनाता है तब तो उसकी स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है। यदि दया से बनाता है तो उसने दु:खी प्राणी को क्यों निर्माण किये ? यदि कहो पापियों को दण्ड देना पड़ता है तब तो उसने पाप की सृष्टि क्यों की ? परम पिता परमकारुणिक ईश्वर पाप और पापीजनों की सृष्टि क बवोंन फिर उन्हें दु:ख देवें यह तो उचित नहीं है। यदि कहो क्रीड़ा से सृष्टि का निर्माण करता है तबो तो वह प्रभु महान् कैसे रहेगा, प्रत्युत क्रीड़ा प्रिय होने से बालकवत् नादान समझा जावेगा। यदि कहो स्वभाव से वह सृष्टि का निर्माण करता है तब तो ईश्वर का स्वभाव नित्य है सदा काल है अत: सदा काल एक जैसी सृष्टि बनती रहेगी, तरह—तरह की विचित्रता का अनुभव नहीं होना चाहिये। इत्यादि अनेकों दोष आते हैं अत: ईश्वर को अनादि सिद्ध एवं सृष्टि का कर्ता मानना अनुचित्त है। यह संसारी प्राणी अनादि काल से कर्म सहित होने से स्वयं ही पुण्य पाप का कर्ता है और भोक्ता है। जब पुरुषार्थ से कर्मों का भेदन कर देता है तो ईश्वर महेश्वर, ब्रह्मा, महात्मा, परमात्मा सिद्ध शिव अक्षय, अच्युत आदि अनेकों नाम से पूज्य बन जाता है। ==सांख्य कर आप्त समीक्षा==‘कपिल एव मोक्षमार्गस्योपदेशक: क्लेशकर्मविपाकाशयानां भेत्ता च रजस्तमसोस्तिरस्करणात् ।’ (आप्त प.पृ.१५६)कपिल ही मोक्ष मार्ग का उपदेशक तथा क्लेश, कर्म, विपाक और आशयों का भेद करने वाला है, क्योंकि उसके रज और तम का सर्वथा अभाव है। यह कथन साँख्यों का है। इस पर आचार्य कहते हैं कि कपिल सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि वह स्वयं अपने ज्ञान से सर्वथा भिन्न है, इसलिये सर्वज्ञ नहीं है। सांख्य का कहना है कि मुक्त होना, संसारी होना पुरुष का धर्म नहीं हैं। प्रधान के ही संसारीपना, मुक्तपना ज्ञान और सुख का होना संभव है।प्रधानं ज्ञत्वतो मोक्षमार्गस्यास्तूपदेशकम् । तस्यैव विश्ववेदित्वात् भेदित्वात् कर्मभूभृताम् ।।८०।। इत्यसंभाव्यमेवास्याचेतनत्वात् पटादिवत् । तदसंभवतो नूनमन्यथा निष्फल: पुमान् ।।८१।। भोक्तात्मा चेत्स एवास्तु कर्ता तदविशेषत: । विरोधे तु तयोर्भोत्तिु: स्याद् भुजौ कर्तृता कथं।।८२।।प्रधान ही मोक्ष मार्ग का उपदेशक है, क्योंकि वह ज्ञानी है और ज्ञानी इसलिये है कि वी विश्व —वेदी—सर्वज्ञ है, तथा सर्वज्ञ भी इसलिये है कि कर्म पर्वतों का भेत्ता है। जैनाचार्य कहते हैं कि सांख्यों का यह मत असंभव है क्योंकि वह प्रधान वस्त्रादि की तरह अचेतन हैं। इसलिये प्रधान को कर्मों का नाशक, विश्वज्ञानी, मोक्षमार्ग का उपदेशकत्व आदि मानना असम्भव हैं। यदि मानोगे तो पुरूष की कल्पना ही व्यर्थ हो जावेगी। अगर कहो कि पुरूष भोक्ता है तब तो वही कर्ता भी होवे, क्योंकि कर्तृत्व और भोत्तृत्व दोनों एक जगह संभव हैं। यदि क्रिया के कर्तापने का विरोध कहा जावे तो भोक्ता पुरुष भुज् क्रिया का कर्ता कैसे रहा? आश्चर्य तो इस बात का है कि प्रधान सर्वज्ञ है और मुमुक्षुउ जन स्तुति पुरुष की करते हैं। तात्पर्य यह है कि कपिल ने ज्ञान के आश्रय भूत प्रधान के संसर्ग से ही ज्ञान माना है, वह पुरुष स्वयं तो ज्ञान रहित है, किन्तु यह सिद्धांत सर्वथा गलत है अचेतन में ज्ञान हो और उसके संसर्ग से संसार में पुरूष ज्ञानी बनें एवं मुक्त में अज्ञानी रहें यह कल्पना गलत है अत: ज्ञानदर्शन स्वरूप पुरूष विशेष ही कर्मों का नाशक, विश्व का ज्ञाता सर्वज्ञ और मोक्षमार्ग का उपदेष्टा आप्त है किन्तु कपिल आप्त नहीं है। =बुद्ध की आप्त समीक्षा== सुगत ही सर्वज्ञ है क्योंकि वह संपूर्ण तृप्णा से रहित है एवं ‘संपूर्ण गत: सुगत:, अथवा शोभनंगत: सुगत: यदि वा सुष्ठुगत: सुगत:’ इस नियम में जो संपूर्णता को प्राप्त है या शोभन अवस्था को प्राप्त है या अच्छी गति को प्राप्त है वह सुगत है एवं उस सुगत की जगत् के लिये महती कृपा है ‘बुद्धो भवेयम् जगते हिताय’ मैं जगत् का हित करने के लिये बुद्ध होऊं’ इत्यादि भावना से ही बुद्ध भगवान् सच्चे आप्त हैं और मोक्ष मार्ग का उपदेश देते हैं । यह सौगतों का कहना है किन्तु जैनाचार्य उत्तर देते हैं कि—सुगतोऽपि न निर्वाणमार्गस्य प्रतिपादक:। विश्वतत्वज्ञतापायात् तत्त्वत: कपिलादिवत् ।।८४।। संवृत्या विश्वतत्त्वज्ञ: श्रेमोयामार्गोपदेश्यपि। बुद्धों वंद्यो नतु स्वप्नस्तादृगित्यज्ञचेष्टितं ।।८५।।सुगत भी मोक्ष मार्ग का उपदेशक नहीं है, क्योंकि वास्तव में उसके सर्वज्ञता नहीं है, जैसे कपिल आदि में नहीं है।। यदि कहो बुद्ध संवृत्ति — कल्पना से सर्वज्ञ है और मोक्ष मार्ग का उपदेष्टा भी है। फिर भी संवृति से सर्वज्ञ होते हुये भी बुद्ध भगवान् तो वंदनीक होवें और कल्पित स्वप्न आदि वंद्य न होवें यह क्यों ? यह तो अज्ञानी का ही पक्षघात है। आपके द्वारा मानी गई तत्त्व व्यवस्था ठीक नहीं है पुन: उसके उपदेशक बुद्ध सर्वज्ञ कैसे होंगे! आपके यहां प्रत्येक पदार्थ को प्रतिक्षण विनाशी एवं परमाणु रूप मानते हैं। जो कि प्रत्यक्षज्ञान से अनुभव में नहीं आते हैं। इन बौद्धों में योगाचार बौद्ध केवल ‘विज्ञानमात्र’ तत्त्व को मानते हैं बाह्य पदार्थों को नहीं मानते हैं। उनकी इस मान्यता से सुगत की सिद्धि ही असंभव है क्योंकि ज्ञान से भिन्न सुगत को मानने से द्वैत आता है और संवृत्ति से सुगत की कल्पना करने से वह स्वप्न के सदृश होने से नमस्कार योग्य नहीं रहता। तथैव चित्राद्वैतवादी की मान्यता भी गलत है क्योंकि चित्र ज्ञान भी कहे और उसे एक एक अद्वैत भी कहें यह असंभव हैं। चित्रज्ञान का अर्थ ही है अनेक ज्ञान न कि एक ज्ञान । यदि आप कहें कि क्षणभंगुर वस्तु में और अद्वैत में स्थायी रहना या द्वैत रूप दिखाना है वह संवृत्ति मात्र है। तब तो आपका बुद्ध भी कल्पना से ही सर्वज्ञ होगा, पुन: वास्तव में सवंज्ञ न होने से कल्पित—असत्य मान्यता अपने आप में कल्पित असत्य ही है। ==ब्रह्माद्वैतवादी के ब्रह्म की समीक्षा == ब्रह्माद्वैतवादी इस जगत् को एक परम ब्रह्म स्वरूप मानते हैं उस ब्रह्म की ही उपासना करते हैं । ये लोग प्रत्यक्ष अनुमान और आगम से ब्रह्म की सिद्धि कर रहे हैं। उनका कहना है कि ‘प्रत्यक्ष प्रमाण तो उस ब्रह्म का ग्राहक है ही क्योंकि आंख खोलने के अनंतर सर्वविकल्पों से रहित शुद्ध सत्तामात्र ब्रह्म ही झलक्ता है। अनुमान भी परम ब्रह्म को ही सिद्ध करता है।‘ग्रामारामादय: पदार्था: प्रतिभा— सान्त:प्रविष्टा:, प्रतिभासमानत्वात् । यत्प्रतिभासते तत्प्रतिभासान्त:प्रविष्टम् ,यथा प्रतिभासस्वरूपम् । प्रतिभासंते च विवादापन्ना: इति’ ग्राम और उद्यान आदि सभी दिखलाई देने वाले पदार्थ प्रतिभास—परम ब्रह्म के अंत:प्रविष्ट हैं, क्योंकि वे प्रतिभासमान होते हैं। जो प्रतिभासित होता है।, वह सर्व प्रतिभास के अंत:प्रविष्ट हैं, जैसे कि प्रतिभास का स्वरूप। विवादापन्न ग्राम और उद्यान आदि प्रतिभासित होते हैं, इसलिये वे सभी परमब्रह्म के ही स्वरूप हैं। इस परमब्रह्म को सिद्ध करने के लिये श्रतिवाक्य भी अनेकों पाये जाते हैं।‘‘सर्व वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन। आरामं तस्य पश्यंति न तं पश्यति कश्चन’’।। सभी दृश्यमान पदार्थ ब्रह्म स्वरूप हैं इससे भिन्न जगत् में नाना पदार्थ कुछ नहीं हैं। हम सभी लोग उस ब्रह्म की पर्यायों को ही देखते हैं , किन्तु उसे कोई नहीं देखते हैं।। इत्यादि रूप से ब्रह्मवादी अपना पक्ष स्थापित करते हैं। अब आचार्य कहते हैं कि आपने जो परमब्रह्म को प्रत्यक्ष का विषय कहा है वह गलत है क्योंकि विशेष से निरपेक्ष सामान्य मात्र का प्रत्यक्षज्ञान से अनुभव होना ही अशक्य है।जो आपने अनुमान से ब्रह्म को सिद्ध किया है उसमें प्रश्न यह होता है कि ‘प्रतिभासित होने वाले धर्मी , हेतु दृष्टांत आदि प्रतिभासरूप ब्रह्म के अंत:प्रविष्ट होकर (भीतर घुसकर) प्रतिभासित होते हैं या ब्रह्म से बहिभूर्त रहकर ही प्रतिभासित होते हैं? यदि अंदर होकर प्रतिभासित होते है। तब तो अनुमान नहीं बनेगा।अनुमान में साध्य, हेतु उदाहरण अवश्य होने से द्वैत आ जावेगा। यदि बहिर्भूत होकर प्रतिभासित होते हैं कहों , तो स्पष्ट ही द्वैत हो गया। आपने अद्वैत को सिद्ध करने के लिये अनुमान बनाया, उसने द्वैत को ही सिद्ध कर दिया। आगम आदि भी ब्रह्म से भिन्न है या अभिन्न ? इत्यादि विकल्प उठते रहने से आपका ब्रह्माद्वैत सिद्ध नहीं होगा। एवं उस ब्रह्म से सृष्टि की मान्यता कहना तो बिल्कुल ही असंभव है। एक परमब्रह्म रूप चैतन्य आत्मा से अनेकों चेतन अचेतन रूप जगत् को उत्पन्न हुआ मानना गलत है। अत: परमब्रह्म को आप्त भगवान् कहना सर्वथा गलत है। उपसंहार— इस प्रकार महेश्वर, कपिल, सुगत और परमब्रह्म इनके सर्वज्ञत्व और आप्तपने का अभाव होने से मोक्षमार्ग का प्रणयण नहीं बनता है और जो सर्वज्ञ हैं, कर्म पर्वतों के भेत्ता हैं, मोक्ष मार्ग के प्रणेता हैं वेउ अर्हंत ही हैं वे ही सच्चे आप्त हैं। चार्वाक— चार्वाक कहता है कि ‘कोई पुरुष सर्वज्ञ है’’ यह बात किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं हैं। आगम प्रमाण से सर्वज्ञ का अस्तित्व बतलाना योग्य नहीं है, क्योंकि जब सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध नहीं तब उसका कहा हुआ आगम कैसे होगा? एवं असर्वज्ञप्रणीत आगम से सर्वज्ञ को सिद्ध करना गलत है क्योंकि अल्पज्ञ का कहा हुआ आगम प्रमाणिक नहीं है। प्रत्यक्ष प्रमाण से भी सर्वज्ञ का ज्ञान नहीं होता है क्योंकि इस समय यहां सर्वज्ञ नहीं है यह बात प्रत्यक्ष से स्पष्ट है। अनुमान से भी सर्वज्ञ ज्ञान नहीं होता क्योंकि सर्वज्ञ के साथ जिसका अविनाभाव हो ऐसा कोई साधन नहीं है अत: कोई पुरुष तीर्थंकर आप्त सर्वज्ञ भगवान् नहीं है। न उनके द्वारा कथित आत्मा और परलोक आदि ही हैं। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि आज भले ही इंद्रिय प्रत्यक्ष से यहां पर सर्वज्ञ न हो फिर भी सर्वज्ञ के प्रतिपादक आगम एवं अनुमान सिद्ध हैं यथा—‘कश्चित् पुरुष: सकलपदार्थसाक्षात्कारी, तद्गहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबंधप्रत्ययं तत् तत् सकलपदार्थसाक्षात्कारी या अपगततिमिरं लोचनं रूपसाक्षात्कारि, तथा चायं पुरुष: तस्मात्सकलपदार्थसाक्षात्कारी इति’’ (विश्वत.प्र.पृ.४)‘कोई पुरुष सम्पूर्ण पदार्थों का साक्षात्कार करने वाला अवश्य है, क्योंकि उसके पदार्थों का ग्रहण स्वभाव होने से ज्ञान के प्रतिबंधक कारण नष्ट हो चुके हैं। जो—जो पदार्थ के ग्रहण स्वभाव वाला होने पर प्रतिबंधक कारण से रहित है वह—वह सकल पदार्थों को साक्षात् करने वाला है जैसे तिमिर दोष से रहित नेत्र रूप का साक्षात् करने वाला है जैसे तिमिर दोष से रहित नेत्र रूप का साक्षात्कार करने वाले हैं और उसी प्रकार से यह कोई पुरूष है इसीलिये सम्पूर्ण पदार्थों को साक्षात् करने वाला है। दूसरी बात यह है कि जब चार्बाक प्रत्यक्ष से सारे विश्व को देखकर आवे कि कोई सर्वज्ञ नहीं है तभी वह निर्णय दे सकता है कि विश्व में कहीं भी कोई पुरूष सर्वज्ञ नहीं है अन्यथा सारे विश्व को देखे बिना कैसे निर्णय देगा ? और जब सारे विश्व को देखकर आयेगा तब वही तो सर्वज्ञ बन जायेगा क्योंकि जो सारे विश्व को जाने वह सर्वज्ञ है। पुन: सर्वज्ञ का निषेध वह कैसे करेगा, अर्थात् नहीं कर सकेगा। मीमांसक— मीमांसक भी यही कहते हैं कि अतीन्द्रियदर्शी कोई भी सर्वज्ञ नहीं है, अत: नित्य वेदवाक्यों से ही अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान होता है, किन्तु जैनाचार्यों ने इन मीमांसकों के मत की भी मीमांसा करके सर्वज्ञ की सिद्धि की है। कुमारिल भट्ट कहता है कि —‘धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते। सर्वमन्यद् विजानान: पुरुष: केन वार्यते’ अर्थात् हम तो मनुष्य को केवल धर्मज्ञ होने का निषेध करते हैं । धर्म को छोड़कर यदि मनुष्य सबकी भी जान ले तो कौन मना करता है? मतलब यह है कि ये मीमांसक किसी को सब कुछ जानने वाला कहकर भी धर्मज्ञ का निषेध कर देते हैं, इनको वेद के द्वारा अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान होना सिद्ध करना है क्योंकि ये क्रियाकांडी लोग वेद को अपौरूषेय कहकर उसकी प्रमाणता को सिद्ध करने में बहुत ही प्रयत्नशील हैं। खैर! ‘सूक्ष्म अन्तरित दूरवर्ती आदि पदार्थों का साक्षात्कार करने वाला, अतीद्रिंय धर्म, अधर्म आदि सभी को स्पष्ट करने वाला सर्वज्ञ अवश्य है।’ अकलंकदेव ने सर्वज्ञत्व के साधन में अनेक युक्तियों के साथ युक्ति बहुत विशेष दी है कि ‘सर्वज्ञ के सद्भाव में कोई बाधक प्रमाण नहीं हैं अत: उसका अस्तित्व होना ही चाहिए’ एवं दूसरी युक्ति यह दी है कि —‘ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते। अप्राप्यकारिणस्मात् सर्वार्थावलोकनम् ।। (न्यायविनिश्चय) आत्मा ‘ज्ञ’— ज्ञाता है और उसके ज्ञानस्वभाव को ढकने वाले आवरण दूर होते हैं। अत: आवरणों के विछिन्न हो जाने पर ज्ञस्वभाव आत्मा के लिये फिर ज्ञेय—जानने योग्य क्या रह जाता है ? अर्थात् कुछ भी नहीं । अप्राप्यकारी ज्ञान से सकलार्थ परिज्ञान होना अवश्यंभावी है। इसलिये सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध है। तात्पर्य यह है कि चार्वाक शून्यवादी और मीमांसक सर्वज्ञ का अस्तित्व ही नहीं मानते हैं एवं सांख्य बौद्ध वैशेषिक वेदांती ईश्वर का अस्तित्व मानते हैं किन्तु उनकी मान्यतायें सुघटित नहीं है इसलिए सबका निराकरण करते हुये जैनाचार्य युक्तिपूर्वक सर्वज्ञ की सिद्धि कर रहे हैं। जैन—सोऽर्हन्नेव मुनीन्द्राणां वंद्य: समवतिष्ठते। तत्सद्भावे प्रमाणस्य निर्बाध्यस्य विनिश्चयात् ।।८७।। ततोऽन्तरिततत्त्वानि प्रत्क्षाण्यर्हतोऽञ्जसा । प्रमेयत्वाद्यथास्मादृक् प्रत्यक्षार्था : सुनिश्चिता: ।।८८।। (आप्तपरीक्षा)जो सर्वज्ञ हैं, कर्म पर्वतों के भेत्ता हैं, मोक्षमार्ग के प्रणेता हैं, वे अर्हंत ही हैं और इसलिये वे ही मुनीश्वरों के वंदनीय प्रसिद्ध हैं , क्योंकि सर्वज्ञ का अस्तित्व सिद्ध करने के लिये अबाधित और निश्चित प्रमाण पाये जाते हैं। ‘एवं ईश्वर आदि सर्वज्ञ नहीं है, इसलिये सूक्ष्मादि, अन्तरित पदार्थ अर्हंत के परमार्थत: प्रत्यक्ष हैं क्योंकि वे प्रमेंय हैं जैसे हम लोगों के द्वारा जाने गये प्रत्यक्ष पदार्थ।’ शंका — ‘‘आत्मा का इन्द्रियों के साथ समीचीन सम्बन्ध होने पर जो उत्पन्न होता है। वह प्रत्यक्ष है।’’ अत: हम लोगों का प्रत्यक्ष ज्ञान उन देशकाल और स्वभाव से अन्तरित (दूरवर्ती) पदार्थों को नहीं जानता है अत: धर्मी असिद्ध होने से हेतु आश्रयासिद्ध है। समाधान— नहीं, क्योंकि स्फटिक आदि अन्तरित कितने ही पदार्थों का स्वभाव हम लोग देखते हैं। और दीवाल आदि से ढकी हुई अग्नि आदि को भी धूमादि हेतु से निश्चित कर देते हैं। काल से अन्तरित वर्षा आदि को भी विशिष्ट मेघ आदि के द्वारा जानते हैं तथा स्वभाव से अन्तिरित इन्द्रिय शक्ति आदि कितने ही पदार्थ अर्थापत्ति से सिद्ध होने से धर्मी प्रसिद्ध है अत: हेतु आश्रयासिद्ध नहीं है। शंका— आप अतीन्द्रि प्रत्यक्ष से अन्तरित पदार्थों को अर्हंत के सिद्ध करते हो या इंद्रिय प्रत्यक्ष से ? समाधान— अर्हंत भगवान् इन्द्रिय प्रत्यक्ष से धर्मादिक सूक्ष्म पदार्थ एवं सुमेरु आदि दूरवर्ती पदार्थों को जानने में समर्थ नहीं हैं। अत: अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष ही जानते हैं। शंका— जो अर्हंत के प्रत्यक्ष नहीं है वह प्रमेय नहीं है जैसे प्रत्यक्ष से बहिर्भूत मिथ्या एकान्त। समाधान— जो मिथ्या एकान्त ज्ञान हैं वे सभी परमागम और अनुमान से हम लोगों के प्रमेय हैं और अर्हंत के प्रत्यक्ष हैं अत: वे विपक्ष नहीं हैं। शंका— धर्मादिक पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष नहीं है क्योंकि सदैव अत्यन्त परोक्ष हैं। जो किसी के प्रत्यक्ष हैं वे सदैव अत्यन्त परोक्ष नहीं है जैसे घटादिक पदार्थ। समाधान— ‘‘अक्ष्णोति व्यप्नोति जानाति इति अक्ष आत्मा’’ अर्थात् जो व्याप्त करे जाने उसे अक्ष कहते हैं और अक्ष नाम आत्मा का है । अत: आत्मा के आश्रय से जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। अर्हंत का प्रत्यक्ष मुख्य प्रत्यक्ष है, वह सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों को विषय करने वाला है। क्योंकि वह कम रहित है। और वह क्रम रहित इसीलिए है कि उसमें मन तथा इन्द्रिय की अपेक्षा नहीं है। इन्द्रिय मन की अपेक्षा भी इसलिए नहीं है कि वह इन दोषों के कारण भूत मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय इन चार कर्मों का नाश कर चुके हैं जो दोष रहित भी नहीं है जैसे हम लोगों का प्रत्यक्ष। मोहादि कर्म रहित अर्हंत का प्रत्यक्ष है इस कारण वह समस्त दोष रहित है। शंका— अर्हंत के मोहादि का नाश कैसे सिद्ध है ? समाधान— अर्हंत के मोहादि चार कर्मों के कारणभूत मिथ्यात्व आदि के प्रतिपक्षियों का प्रकर्ष देखा जाता है। यथा— मोहादि चार कर्म किसी बात्मा विशेष में सर्वथा नष्ट हो जाते हैं क्योंकि जहां उनके कारणों के प्रतिपक्षी का प्रकर्ष पाया जाता है वहां उसका नाश हो जाता है । जैसे आंख का तिमिरदोष । मोहादि चार कर्मों के कारणों के प्रतिपक्षियों का प्रकर्ष केवली में पाया जाता है इस कारण वहां उनका सर्वथा नाश हो जाता है। शंका— मोहादि चार कर्मों का कारण क्या है ? समाधान— मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ये तीनों मोहादि चार कर्मों के कारण हैं। शंका मिथ्यादर्शनादि के प्रतिपक्ष (विरोधी) क्या हैं ? समाधान— सम्यग्दर्शनादि तीन मिथ्यादर्शन आदि तीन के विरोधी हैं। क्योंकि उनके प्रकर्ष होने पर उन मिथ्यादर्शन आदि की हानि देखी जाती हैं। जिसके प्रकर्ष में जिसका अप्रकर्ष देखा जाता है वह उसका विरोधी है। जैसे—ठंढ का प्रतिपक्षी अग्नि है एवं सम्यग्दर्शन आदि तीनों वृद्धिंगत होने वाले हैं। जो बढ़ने वाला है वह कहीं पर प्रकर्ष के अन्त को प्राप्त होता है। जैसे परिमाण परमाणु से लेकर आकाश में चरम सीमा को प्राप्त है। अतएव सम्यग्दर्शनादि के पूर्ण प्रकर्ष को प्राप्त होने पर मिथ्यादर्शन अािद अत्यन्त नाश को प्राप्त हो जाते हैं। उनके नाश होने पर मोहादि चार कर्मों का अत्यन्त क्षय होने से अर्हंत भगवान् दोष रहित सर्वज्ञ वीतराग सिद्ध हो जाते हैं। और मिथ्या एकांतों का अभाव तो अनेकांत की सिद्धि से ही हो जाता है। शंका— अर्हंत सर्वज्ञ नहीं है, क्योंकि वह वक्ता है पुरुष है जैसे ब्रह्मा वगैरह। समाधान— ज्ञान के बढ़ने पर वक्तापन की हानि नहीं देखी जाती है। अत: वक्तापन सर्वज्ञता का विरोधी नहीं हैं। सर्वज्ञ का जो समस्त पदार्थों को विषय करने वाला वक्तापन है वह युक्ति एवं शास्त्र से अविरोधी सिद्ध हैं। तथा स्पष्ट है कि समस्त अज्ञानादि दोष रहित पुरुषपना परमात्मा सर्वज्ञ में सिद्ध होता हुआ समस्त ज्ञानादि गुणों के परम प्रकर्ष की प्राप्ति को ही सिद्ध करता है। अत: आपका अनुमान सर्वज्ञ का बाधक नहीं है। दूसरी बात यह है कि सर्वज्ञ के अभाव को सिद्ध करने वाला कोई व्यक्ति पहले तीनों लोकों में एवं तीनों कालों में सबको देख कर यह निर्णय करे कि कोई भी सर्वज्ञ नहीं है तब तो वह स्वयं ही तीनों लोकों एवं तीनों कालों को जान लेने से सर्वज्ञ सिद्ध हो जाता है। यदि उसने तीनों लोकों एवं तीनों कालों को नहीं जाना तब वह यह निर्गय ही कैसे करेगा कि तीनों जगत में सर्वज्ञ नहीं है। अत: आप सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं कर सकते हैं। शंका— कर्म कार्य—कारण रूप प्रवाह से प्रवर्तमान है इसलिए वे अनादि हैं । उनका विनाशक कारण न होने से कोई सर्वज्ञ भी कर्म पर्वत का भेत्ता नहीं हो सकता है ? समाधान”— नहीं, क्योंकि अर्हंत में विरोधी सम्यग्दर्शन आदिकों की वृद्धि चरम सीमा को प्राप्त हो जाती है, तब प्रवाहरूपसेअनादि होने पर भी कर्मों का सर्वथा नाश हो जाता है। बीजांकुर की अनादि संतान की प्रतिपक्षी अग्नि से जलकर खाक हुई देखी जाती है। शंका— कर्म पर्वतों का विपक्ष क्या है। समाधान— आगामी कर्मों का विपक्ष संवर है और संचित कर्मों का विपक्ष तप से होने वाली निर्जरा है। अर्थात् कर्मों के आने के द्वार का रूक जाना संवर है। और कर्मों के वे द्वार पाँच हैं— (१) मिथ्यात्व (२) अविरति (३) प्रमाद (४) कषाय (५) योग । इनके होने पर कर्म आते हैं अत: ये आश्रव हैं । आश्रव का निरोध संपूर्णतया तो गुप्तियों से होता है। एक देश रूप समिति, धर्म, परीषहजय, अनुप्रेक्षा और चारित्र से होता है। और संपूर्ण रूप से योग निरोध रूप संवर तो अयोग केवली के अंतिम समय में होता है क्योंकि वही समस्त कर्मों के निरोध का कारण है। इसीलिए अयोग केवली के अंतिम समयवर्ती सम्यग्दर्शन आदि तीनों साक्षात् मोक्ष के माने जाते हैं। निर्जरा भी दो प्रकार की है :— (१) अनुपक्रमा (२) औपक्रमिकी। अनुपक्रमा निर्जरा तो यथा समय हर एक संसारी जीवों में पाई जाती है और औपक्रमिकी बारह प्रकार के तपों से प्राप्त (सिद्ध) होती है। अत: संवर और निर्जरा से कर्मों का अत्यन्त अभाव हो जाता है। शंका— कर्म पर्वत क्या हैं ? समाधान– कर्म के दो भेद हैं—द्रव्य कर्म और भाव कर्म । जीव के जो द्रव्य कर्म हैं वे पौद्गलिक हैं उनके अनेक भेद हैं । और जो भाव कर्म हैं वे आत्मा के चैतन्य परिणाम रूप हैं क्योंकि आत्मा से कथंचित् अभिन्न हैं वे क्रोधादिक हैं। ये द्रव्य—भाव कर्म ही पर्वत नाम से कहे जाते हैं। उनकों जीव से पृथ्क् करना ही उनका भेदन है। शंका— ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय, ये चार चातिया कर्म जीव के अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य रूप गुणों के घातक हैं । किन्तु नाम, गोत्र, वेदनीय और आयु ये चार कर्म जीव के स्वरूप के घातक न होने से अघाति कर्म, कर्म नहीं है क्योंकि ये परतंत्रता के कारण नहीं हैं। समाधान— नहीं । नामादि अघाति कर्म भी जीव के स्वरूप—सद्धत्व रूप के प्रतिबंधक हैं अत: परतंत्रता के कारण प्रसिद्ध ही हैं। शंका— पुन: इन्हें अघाति क्यों कहा है ? समाधान— ये जीवन्मुक्त उत्कृष्ट आर्हत्य लक्ष्मी—अनन्त चतुष्टयादि विभूति के घातक नहीं हैं इसीलिए इन्हें हम अघाति कर्म कहते हैं। शंका— कर्म ,धर्म —अधर्म रूप हैं और वे आत्मा के गुण हैं अत: कर्म औदयिक एवं पुद्गल रूप नहीं हैं । समाधान— यदि कर्म आत्मा के गुण हैं और वे आत्मा की परतंत्रता में कारण नहीं हो सकते हैं और इस तरह आत्मा के कभी भी बंध न हो सकने से मुक्ति का प्रसंग आ जावेगा, किन्तु ऐसा है नहीं। शंका— मोक्ष का स्वरूप क्या है ? समाधान— समस्त कर्मों की संवर और निर्जरा होकर जो अपने स्वरूप का लाभ होता है उसे ही आस्तिक पुरुषों ने मोक्ष कहा है। क्योंकि आत्मा का स्वरूप अनंत चतुष्टय आदि रूप है न कि अचेतन रूप। शंका— मोक्ष मार्ग क्या है ? समाधान— मोक्ष की प्राप्ति का उपाय, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की एकता ही है। और चौदहवें गुणस्थान के अन्त में परम शुक्ल ध्यान रूप तपोविशेष जो कि चारित्र के अंतर्गत है उसकी पूर्ति होने पर ही मोक्ष होता है रत्नत्रय की पूर्णता चौदहवें गुणस्थान के अन्त में ही होती है, अत: तीनों की एकता ही मोक्ष मार्ग है। अत: मोक्ष में ज्ञानादि गुणों का उच्छेद नहीं होता है प्रत्युत अनंत ज्ञान अव्याबाध सुखादि गुणों की पूर्ण प्रगटता हो जाने से यह जीव कृतकृत्य सिद्ध हो जाता है इस प्रकार से अर्हंत में सर्वज्ञता की सिद्धि घटित होती है अन्यत्र नहीं होती है। इस प्रकार आप्त की समीक्षा करते हुये अर्हंत को ही आप्तता सिद्ध होती है।