स्थापना
अडिल्लछन्द बाइसवें तीर्थंकर नेमीनाथ हैं।
इनके तप की कथा जगत विख्यात है।।
राहू ग्रह की शांति हेतु मैं पूजहूँ।
आह्वानन स्थापन विधि से मैं जजूँ।।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारकश्रीनेमिनाथ जिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरण स्थापनं।
अष्टक
तर्ज-धीरे-धीरे बोल………….
नेमिनाथ प्रभू जी की पूजा कर लो, पूजा कर लो प्रभू पूजा कर लो।
प्रभु पूजा ही बस सार है, बाकी संसार असार है।
नेमिनाथ प्रभू जी की पूजा कर लो, पूजा कर लो प्रभु पूजा कर लो।।टेक.।।
जल का कलश लिया है मैंने हाथ में, जलधारा मैं करूँ जिनेश्वर पाद में।
जनम जरा अरु मरण नशें त्रय ताप हैं, जग में रहकर भी पाऊँ सुखशान्ति मैं।।
पूजा करो, अर्चा करो, प्रभु पूजा ही बस सार है, बाकी संसार असार है।।नेमिनाथ.।।१।।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
काश्मीरी केशर कर्पूर सहित घिसी, जिनवर के चरणों में उसको चर्च दी।
वह केशर मस्तक के रोग निवारती, तिलक करो तो सिद्धी होती कार्य की।।
पूजा करो, अर्चा करो, प्रभु पूजा ही बस सार है, बाकी संसार असार है।।नेमीनाथ.।।२।।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ्र श्वेत तन्दुल धोकर अक्षत बना, पुंज चढ़ा कर चाहूँ मैं अक्षयपना।
भावसहित वह चावल ही मोती बना, मनोवती सम मैं भी फल पाऊँ घना।
पूजा करो, अर्चा करो, प्रभु पूजा ही बस सार है, बाकी संसार असार है।।नेमीनाथ.।।३।।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चुन चुन कर उपवन से फूल मंगा लिए, अंजलि भरकर प्रभु के पास चढ़ा दिये।
भाग्य खिला उन पुष्पों का जो चढ़ गये, बाकी तो खिलकर पेड़ों से झड़ गये।।
पूजा करो, अर्चा करो, प्रभु पूजा ही बस सार है, बाकी संसार असार है।।नेमीनाथ.।।४।।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
जो भोजन हर तन की भूख मिटा रहा, वह भोजन आतम की व्यथा बढ़ा रहा।
वह यदि प्रभु की पूजा में चढ़ जाएगा, कर्म वेदनी भव भव का घट जाएगा।
पूजा करो, अर्चा करो, प्रभु पूजा ही बस सार है, बाकी संसार असार है।।नेमीनाथ.।।५।।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक पूजा प्रभु पूजा का अंग है, अष्टद्रव्य में दीपक भी इक द्रव्य है।
थाल सजाकर दीप जला आरति करूँ, मोहतिमिर को घटा सकल आरत हरूँ।।
पूजा करो, अर्चा करो, प्रभु पूजा ही बस सार है, बाकी संसार असार है।।नेमीनाथ.।।६।।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुद्ध धूप को बना अग्नि में दहन की, एक यही इच्छा कर्मों के हवन की।
धूप जलाना प्रभु पूजा का अंग है, उसके बिन कैसे जल सकते कर्म हैं।।
पूजा करो, अर्चा करो, प्रभु पूजा ही बस सार है, बाकी संसार असार है।।नेमीनाथ.।।७।।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
खट्टे मीठे फल को एकत्रित किया, स्वर्णथाल में लेकर उन्हें चढ़ा दिया।
सुना बहुत सतियों को उत्तम फल दिया, इसीलिए प्रभु मैंने तुम्हें नमन किया।।
पूजा करो, अर्चा करो, प्रभु पूजा ही बस सार है, बाकी संसार असार है।।नेमीनाथ.।।८।।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चन्दन अक्षत अरु पुष्प मंगाय के, चरु दीपक धूपम् फल आदि मिलाय के।
अघ्र्य थाल ‘‘चन्दना’’ चढ़ाऊँ आज मैं, पद अनघ्र्य पा बैठूँ प्रभु के पास में।।
पूजा करो, अर्चा करो, प्रभु पूजा ही बस सार है, बाकी संसार असार है।।नेमीनाथ.।।९।।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टद्रव्य को चढ़ा शांतिधारा करूँ, शांति बढ़े धरती पर यह आशा करूँ।
हो सुभिक्षता क्षेम प्रेम मैत्री बढ़े, पृथिवी से दुर्भिक्ष अनिष्ट सभी हटे।।
पूजा करो, अर्चा करो, प्रभु पूजा ही बस सार है, बाकी संसार असार है।।नेमीनाथ.।।१०।।
शांतये शांतिधारा
बेला चंप चमेली की कलियाँ जहाँ, खिल जातीं तो वातावरण महक रहा।
उन पुष्पों की अंजलि भर पूजा करूँ, पर्यावरण प्रदूषण दूर किया करूँ।।
पूजा करो, अर्चा करो, प्रभु पूजा ही बस सार है, बाकी संसार असार है।।नेमीनाथ.।।१०।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
(अब मण्डल पर राहुग्रह के स्थान पर श्रीफल सहित अघ्र्य चढ़ावें)
हे नेमिनाथ भगवान् मेरे, तन में बढ़ गई असाता है।
होती है अरुचि धर्म में भी, शूगर का रोग सताता है।।
तुम भक्ती में कुछ रुची बनी, इसलिए विनय यह है मेरी।
राहू ग्रह की बाधा हरकर, ‘‘चन्दना’’ व्याधि हर लो मेरी।।१।।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
तर्ज-लेके पहला-पहला……..
जय जय नेमिनाथ भगवान्, हम करते तेरा गुणगान,
तेरी पूजन से मिटता है तिमिर अज्ञान।।
करते प्रभू जगत कल्याण, तुमने पाया पद
निर्वाण, तेरी पूजन से मिटता है तिमिर अज्ञान।।टेक.।।
राजुल को त्यागा प्रभु जी, ब्याह न रचाया।
गिरनार गिरि पर जाकर, योग लगाया।
प्राप्त हुआ फिर केवलज्ञान, दूर हुआ सारा अज्ञान,
तेरी पूजन से मिटता है तिमिर अज्ञान।।१।।
शिवादेवी माता तुमसे, धन्य हुई थीं।
शौरीपुरी की जनता, पुलकित हुई थी।।
समुद्रविजय की कीर्ति महान, गाई सुरइन्द्रों ने आन,
तेरी पूजन से मिटता है तिमिर अज्ञान।।२।।
राहुग्रह की शांति हेतु, पूजा रचाऊँ।
तेरे गुण गाके प्रभुजी, निजगुण को पाऊँ।।
करे ‘‘चन्दना’’ तव गुणगान, होवे मेरा भी कल्याण,
तेरी पूजन से मिटता है तिमिर अज्ञान।।३।।
ॐ ह्रीं राहुग्रहारिष्टनिवारक श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
दोहा
नेमिनाथ भगवान् की, पूजन है सुखकार।
दर्शन-वन्दन सब करो, शौरीपुर-गिरनार।।
इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिः।
जैतिजै जैतिजै जैतिजै नेमकी, धर्म औतार दातार श्यौचैनकी।
श्रीशिवानंद भौफंद निकन्द ध्यावै, जिन्हें इंद्र नागेन्द्र ओ मैनकी।।
पर्मकल्यान के देनहारे तुम्हीं, देव हो एव तातें करों ऐनकी।
थापि हौ वार त्रै शुद्ध उच्चारत्रै, शुद्धताधार भौपारकूँ लेनकी।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अष्टक
(चाल होली, ताज जत्त)
दाता मोक्षके, श्रीनेमिनाथ जिनराय, दाता मोक्ष के।।टेक।।
निगम नदी कुश प्राशुक लीनौ, कंचन भृंग भराय।
मनवचतनतें धार देते ही, सकल कलंक नशाय।
दाता मोक्षके, श्रीनेमिनाथ जिनराय।।दाता.।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।
हरिचन्दनजुत कदलीनन्दन, कुंकुम सङ्ग घसाय।
विघनताप नाशनके कारन, जजौं तिहारे पाय।।दाता.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।।
पुण्यराशि तुमजस सम उज्जल, तंदुल शुद्ध मंगाय।
अखय सौख्य भोगन के कारन, पुंज धरों गुनगाय।।दाता.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।
पुण्डरीक तृणद्रुमको आदिक, सुमन सुगंधितलाय।
दर्पण मनमथभंजनकारन, जजहुँ चरन लवलाय।।दाता.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।
घेवर बावर खाजे साजे, ताजे तुरत मँगाय।
क्षुधावेदनी नास करनको, जजहुँ चरन उमगाय।।दाता.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।
कनक दीप नवनीत पूरकर, उज्ज्वल जोति जगाय।
तिमिरमोहनाशक तुमकों लखि, जजहुँ चरन हुलसाय।।दाता.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।
दशविध गंध मँगाय मनोहर, गुंजत अलिगन आय।
दशों बंध जारन के कारन, खेवों तुमढिग लाय।।दाता.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।
सुरस वरन रसना मनभावन, पावन फल सु मंगाय।
मोक्षमहाफल कारन पूजों, हे जिनवर तुमपाय।।दाता.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।
जलफलआदि साज शुचि लीने, आठों दरब मिलाय।
अष्टम छितिके राज करनको, जजों अंग वसु नाय।।
दाता मोक्षके, श्रीनेमिनाथ जिनराय, दाता मोक्ष के।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।।
पाइता छंद
सित कातिक छट्ठ अमंदा।
गरभागम आनंदकन्दा।
शचि सेय सिवापद आई।
हम पूजत मनवचकाई।।१।।
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लषष्ठ्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सित सावन छट्ठ अमन्दा।
जनमें त्रिभुवन के चंदा।
पितु समुद महासुख पायो।
हम पूजत विघन नशायो।।२।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लषष्ठ्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
तजि राजमती व्रत लीनों।
सित सावन छट्ठ प्रवीनों।
शिवनारि तबै हरषाई।
हम पूजैं पद शिरनाई।।३।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लषष्ठ्यां तप:कल्याणकप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सित आश्विन एकम चूरे।
चारों घाती अति क्रूरे।
लहि केवल महिमा सारा।
हम पूजें पद अष्टप्रकारा।।४।।
ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लप्रतिपदायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सितषाढ़ अष्टमी चूरे।
चारों अघातिया क्रूरे।
शिव उज्र्जयन्ततें पाई।
हम पूजैं ध्यान लगाई।।५।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लाष्टम्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्याम छवी तन चाप दश, उन्नत गुननिधिधाम।
शंख चिन्हपद में निरखि, पुनि पुनि करों प्रनाम।।१।
पद्धरी छंद (१६ मात्रा लघ्वन्त)
जै जै जै नेमि जिनिन्द चंद।
पितु समुद देन आनंदकन्द।
शिवमात कुमुदमनमोददाय।
भविवृन्द चकोर सुखी कराय।।२।।
जयदेव अपूरव मारतंड।
तम कीन ब्रह्मसुत सहस खंड।
शिवतियमुखजलजविकाशनेश।
नहिं रहो सृष्टि में तम अशेष।।३।।
भविभीत कोक कीनों अशोक।
शिवगम दरशायो शर्मथोक।
जै जै जै जै तुम गुनगंभीर।
तुम आगम निपुन पुनीत धीर।।४।।
तुम केवल जोति विराजमान।
जै जै जै जै करुना निधान।
तुम समवसरन में तत्त्वभेद।
दरशायो जाते नशत खेद।।५।।
तित तमुकों हरि आनंदधार।
पूजत भगतीजुत बहु प्रकार।
पुनि गद्यपद्यमय सुजस गाय।
जै बल अनंत गुनवंतराय।।६।।
जय शिवशंकर ब्रह्मा महेश।
जय बुद्ध विधाता विष्णुवेष।
जय कुमति मतंगनको मृगेन्द्र।
जय मदनध्वांतकों रविजिनेन्द्र।।७।।
जय कृपासिंधु अविरुद्ध बुद्ध।
जय रिद्धसिद्ध दाता प्रबुद्ध।
जय जगजनमन रंजन महान।
जय भवसागरमहं सुष्टुयान।।८।।
तुव भगतिकरें ते धन्य जीव।
ते पावैं दिव शिवपद सदीव।
तुमरो गुनदेव विविध प्रकार।
गावत नित किन्नरकी जु नार।।९।।
वर भगतिमाहिं लवलीन होय।
नाचैं ता थेइ थेइ थेइ बहोय।
तुम करुणासागर सृष्टिपाल।
अब मोकों बेगि करों निहाल।।१०।।
मैं दुख अनंत वसुकरमजोग।
भोगे सदीव नहिं और रोग।
तुमको जगमें जान्यों दयाल।
हो वीतराग गुनरतनमाल।।११।।
तातें शरना अब गही आय।
प्रभु करो वेगि मेरी सहाय।
यह विघनकरम मम खंडखंड।
मनवांछितकारज मंडमंड।।१२।।
संसारकष्ट चकचूर चूर।
सहजानंद मम उर पूर पूर।
निजपर प्रकाशबुधि देई देई।
तजिके बिलंब सुधि लेई लेई।।१३।।
हम जांचत हैं यह बार बार।
भवसागरतें मो तार तार।
नहिं सह्यो जात यह जगत दु:ख।
तातैं विनवों हे सुगुनमुक्ख।।१४।।
घत्तानंद
श्रीनेमिकुमारं, जितमदमारं, शीलागारं सुखकारं।
भवभयहरतारं, शिवकरतारं, दातारं धर्माधारं।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय महार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
मालिनी (१५ वर्ण)
सुखधनजससिद्धी पुत्रपौत्रादि वृद्धी।
सकल मनसि सिद्धी होतु है ताहि रिद्धी।।
जजत हरषधारी नेमि को जो अगारी।
अनुक्रम अरिजारी सो वरे मोच्छनारी।।१६।।
।। इत्याशीर्वाद:। पुष्पाजंलिं क्षिपेत्।।
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(२)भगवान श्री नेमिनाथ जिनपूजा
अथ स्थापना
(तर्ज-करो कल्याण आतम का……)
नमन श्री नेमि जिनवर को, जिन्होंने स्वात्मनिधि पायी।
तजी राजीमती कांता, तपो लक्ष्मी हृदय भायी।।
करूँ आह्वान हे भगवन्! पधारो मुझ मनोम्बुज में।
करूँ मैं अर्चना रुचि से, अहो उत्तम घड़ी आई।।१।। नमन श्री…।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथ अष्टक
(तर्ज-ऐ माँ तेरी सूरत से अलग भगवान की सूरत क्या होगी…..)
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आये हैं।
भगवान -२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
भव भव में नीर पिया, नहिं प्यास बुझा पाये।
तुम पद धारा देने, पद्माकर जल लाये।।
निज का अघमल धोने के लिए, जलधारा करने आये हैं। भगवान.।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आये हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
चंदन चंदा किरणें, नहिं शीतल कर सकते।
तुम पद अर्चा करने, केशर चंदन घिसके।।
तनु ताप शांत हेतू चंदन, चरणों में चढ़ाने आये हैं। भगवान.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आये हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
निज सुख के खंड हुए, नहिं अक्षय पद पाये।
सित अक्षत ले करके, तुम पास प्रभो! आये।।
अविनश्वर सुख पाने के लिए, सित पुंज चढ़ाने आये हैं।भगवान.।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
हे नाथ! कामरिपु ने, त्रिभुवन को वश्य किया।
इससे बचने हेतू, बहु सुरभित पुष्प लिया।।
निज आत्म गुणों की सुरभि हेतु, ये पुष्प चढ़ाने आये हैं।भगवान.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय कामबाणविनाशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
बहुविध पकवान चखे, नहिं भूख मिटा पाये।
इस हेतू चरु लेकर, तुम निकट प्रभो! आये।।
निज आत्मा की तृप्ती के लिए, नैवेद्य चढ़ाने आये हैं।भगवान.।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
निज मन में अंधेरा है, अज्ञान तिमिर छाया।
इस हेतू दीपक ले, प्रभु पास अभी आया।।
निज ज्ञान ज्योति पाने के लिए, हम आरति करने आये हैं।भगवान.।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
कर्मों ने दु:ख दिया, तुम कर्मरहित स्वामी।
अतएव धूप लेके, हम आये जगनामी।।
सब अशुभकर्म के भस्महेतु, हम धूप जलाने आये हैं। भगवान.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
बहुविध के फल खाये, नहिं रसना तृप्त हुई।
ताजे फल ले करके, प्रभु पूजूँ बुद्धि हुई।।
इच्छाओं की पूर्ती के लिए, फल अर्पण करने आये हैं।।भगवान.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ! तुम भक्ती से, निज शक्ति बढ़ाने आए हैं।
भगवान-२ तुम्हारे चरणों की, हम पूजा करने आये हैं।।
प्रभु तुम गुण की अर्चा, भवतारन हारी है।
भवदधि में डूबे को, अवलंबनकारी है।।
निज ‘‘ज्ञानमती’’ पूर्ती के लिए, हम अर्घ्य चढ़ाने आये हैं।।भगवान.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
शेर छंद
यमुना नदी का नीर स्वर्णभृंग में भरूँ।
श्रीनेमिनाथ के चरण में धार मैं करूँ।।
चउसंघ में सब लोक में भि शांति कीजिए।
बस ये ही एक याचना प्रभु पूर्ण कीजिए।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
हे नेमि! नीलकमल आप चिन्ह शोभता।
ये सुरभि पुष्प भी तो घ्राण नयन मोहता।।
प्रभु पाद कमल में अभी पुष्पांजलि करूँ।
सब रोग शोक दूर हों निज संपदा भरूँ।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।।
पंचकल्याणक अर्घ्य
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
श्रीसमुद्रविजय शौरीपुरि, नृप पितु मात शिवादेवी।
गर्भ बसे शुभ स्वप्न दिखाकर, तिथि कार्तिक शुक्ला षष्ठी।।
गर्भकल्याणक पूजा करते, मिले राह कल्याण की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।१।।
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लाषष्ठ्यां श्रीनेमिनाथजिनगर्भकल्याणकाय अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
श्रावण शुक्ला छठ में मति श्रुत, अवधिज्ञानि प्रभु जन्मे थे।
मेरू पर जन्माभिषेक में, देव देवियाँ हर्षे थे।।
जन्मकल्याणक पूजा करते, मिले राह उत्थान की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।२।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां श्रीनेमिनाथजिनजन्मकल्याणकाय अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
चले ब्याहने राजुल को, पशु बंधे देख वैराग्य हुआ।
श्रावण सुदि छठ सहस्राम्र वन, में प्रभु दीक्षा स्वयं लिया।
दीक्षा तिथि जजते मिल जावे, बुद्धि आत्मकल्याण की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।३।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां श्रीनेमिनाथजिनदीक्षाकल्याणकाय अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
आश्विन सुदि एकम पूर्वाण्हे, ऊर्जयंत गिरि पर तिष्ठे।
केवलज्ञान सूर्य प्रगटा तब, प्रभु को वांसवृक्ष नीचे।।
समवसरण में किया सभी ने, पूजा केवलज्ञान की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।४।।
ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाप्रतिपदायां श्रीनेमिनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
आवो हम सब करें अर्चना, प्रभु के पंचकल्याण की।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।
वन्दे जिनवरम्-४।।
प्रभु गिरनार शैल से मुक्ती, रमा वरी शिवधाम गये।
सुदि आषाढ़ सप्तमी सुरगण, वंद्य नेमि जगपूज्य हुए।।
जो निर्वाण कल्याणक पूजें, मिले राह निर्वाण की।।
इन्द्र सभी मिल भक्ती करते, तीर्थंकर भगवान की।।५।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लासप्तम्यां श्रीनेमिनाथजिनमोक्षकल्याणकाय अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णार्घ्य
(दोहा)
नेमिनाथ की वंदना, करे नियम को पूर्ण।
पूर्ण अर्घ्य अर्पण करत, होवें सब दुख चूर्ण।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथ पंचकल्याणकाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
(तर्ज-चंदन सा बदन…….)
नेमी भगवन्! शत शत वंदन, शत शत वंदन तव चरणों में।
कर जोड़ खड़े, तव चरण पड़े, हम शीश झुकाते चरणों में।।टेक.।।
यौवन में राजमती को वरने, चले बरात सजा करके।
पशुओं को बांधे देख प्रभो! रथ मोड़ लिया उल्टे चल के।।
लौकांतिक सुर संस्तव करके, पुष्पांजलि की तव चरणों में।।१।।
प्रभु नग्न दिगंबर मुनि बने, ध्यानामृत पी आनंद लिया।
कैवल्य सूर्य उगते धनपति ने, समवसरण भी अधर किया।।
तब राजमती आर्यिका बनी, चतुसंघ नमें तव चरणों में।।नेमी.।।२।।
वरदत्त आदि ग्यारह गणधर, अठरह हजार मुनिराज वहाँ।
राजीमति गणिनी आदिक, चालिस हजार संयतिकाएँ वहाँ।।
इक लाख सुश्रावक तीन लाख, श्राविका झुकीं तव चरणों में।।नेमी.।।३।।
सर्वाण्ह यक्ष अरु कूष्मांडिनि, यक्षी प्रभु शंख चिन्ह माना।
आयू इक सहस वर्ष चालिस, कर सहस देह उत्तम जाना।।
द्वादशगण से सब भव्य वहाँ, शत-शत वंदें तव चरणों में।।नेमी.।।४।।
प्रभु समवसरण में कमलासन पर, चतुरंगुल से अधर रहें।
चउ दिश में प्रभु का मुख दीखे, अतएव चतुर्मुख ब्रह्म कहें।।
सौ इन्द्र मिले पूजा करते, नित नमन करें तव चरणों में।।नेमी.।।५।।
प्रभु के विहार में चरण कमल, तल स्वर्ण कमल खिलते जाते।
बहुकोशों तक दुर्भिक्ष टले, षट् ऋतुज फूल फल खिल जाते।।
तनु नीलवर्ण सुंदर प्रभु को, सब वंदन करते चरणों में।।नेमी.।।६।।
तरुवर अशोक था शोकरहित, सिंहासन रत्न खचित सुंदर।
छत्रत्रय मुक्ताफल लंबित, भामंडल भवदर्शी मनहर।।
निज सात भवों को देख भव्य, प्रणमन करते तव चरणों में।। नेमी.।।७।।
सुरदुंदुभि बाजे बाज रहे, ढुरते हैं चौंसठ श्वेत चंवर।
सुरपुष्पवृष्टि नभ से बरसे, दिव्यध्वनि फैले योजन भर।।
श्रीकृष्ण तथा बलदेव आदि, अतिभक्ति लीन तव चरणों में।।नेमी.।।८।।
हे नेमिनाथ! तुम बाह्य और अभ्यंतर लक्ष्मी के पति हो।
दो मुझे अनंत चतुष्टयश्री, जो ज्ञानमती सिद्धिप्रिय हो।।
इसलिए अनंतों बार नमें, हम शीश झुकाते चरणों में।।नेमी.।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
शेर छंद
नेमिनाथ पदपद्म, जो पूजें नितभक्ति से।
मिले निजातम सद्म, फेर न हो जग में भ्रमण।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:। पुष्पांजलि:।।
अतिशय क्षेत्र त्रिलोकपुर- भगवान नेमिनाथ पूजन
September 27, 2022पूजायें
रचयित्री-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी
श्री नेमिनाथ जिनराज! नमोऽस्तु तुभ्यं।
श्री नेमिनाथ मुनिनाथ! नमोऽस्तु तुभ्यं।।
अतिशायिक्षेत्रसुत्रिलोकपुरस्य नाथ:।
श्री नेमिनाथ जिनसूर्य! नमोऽस्तु तुभ्यं।।१।।
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुंदकुंदाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं।।२।।
।।अथ जिनपूजा प्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
श्री नेमिनाथ जिनराज! नमोऽस्तु तुभ्यं।
श्री नेमिनाथ मुनिनाथ! नमोऽस्तु तुभ्यं।।
अतिशायिक्षेत्रसुत्रिलोकपुरस्य नाथ:।
श्री नेमिनाथ जिनसूर्य! नमोऽस्तु तुभ्यं।।१।।
मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुंदकुंद कुंंदाद्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं।।२।।
।।अथ जिनपूजा प्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।
स्थापना (अडिल्ल छंद)
अतिशय क्षेत्र त्रिलोकपुरी के नेमिजिन।
अतिशयकारी प्रतिमा का करके वन्दन।।
अतिशायी फल प्राप्ति हेतु पूजन करूँ।
नेमिनाथ प्रभु के चौंतिस अतिशय नमूँ।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहिता: भवत भवत वषट् सन्निधीकरणं।
-अथाष्टक (शंभु छंद)
प्रभु नेमि के पावन मन सदृश जल स्वर्ण कलश में भर करके।
निज जन्ममरण के नाश हेतु, जलधार करूँ प्रभु के पद में।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।१।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु नेमिनाथ की गुण सुगंधि सम, सुरभित चन्दन ले करके।
संसारताप के नाश हेतु, चन्दन चर्चूं प्रभु के पद में।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।२।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु नेमिनाथ के शुभ्र दया, भावों सम अक्षत ले करके।
अक्षय पद की प्राप्ती हेतू, अक्षत के पुंज चढ़ाऊँ मैं।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।३।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु नेमिनाथ के वैरागी, भावों का अनुमोदन करके।
निज कामबाण विध्वंस हेतु, मैं पुष्प चढ़ाऊँ प्रभु पद में।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।४।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
केवलज्ञानी प्रभु नेमिनाथ नहिं कवलाहार को करते थे।
मेरा क्षुधरोग विनाशन हो, नैवेद्य चढ़ाऊँ प्रभु पद में।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।५।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु नेमि के राजुल त्याग का निर्मोही स्वभाव सुमिरन करके।
निज मोहध्वांत के नाश हेतु आरति कर लूँ घृत दीपक से।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।६।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु नेमिनाथ के कर्मनाश, स्थल गिरनार नमन करके।
निज कर्म नाश हित अष्टगंध की, धूप जलाऊँ प्रभु पद में।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।७।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु नेमिनाथ के तप का फल, शिवपद का अनुमोदन करके।
शिवफल की प्राप्ती हो मुझको, फल थाल समर्पूं प्रभु पद में।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।८।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
ले अर्घ्य थाल ‘‘चन्दनामती’’ अर्पण कर लूँ प्रभु के पद में।
मैं भी अनर्घ्य पद प्राप्त करूँ है भाव सदा मेरे मन में।।
तीरथ त्रिलोकपुर के अतिशयकारी, प्रभुवर का अर्चन है।
सांवरिया जिनवर नेमिनाथ को, मन वच तन से वन्दन है।।९।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थितश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक के अर्घ्य
शौरीपुर में माँ शिवादेवी ने सोलह सपने देखे थे।
महाराज समुद्रविजय पति से फिर सपनों के फल पूछे थे।।
कार्तिक शुक्ला षष्ठी की तिथि प्रभु गर्भकल्याण से पावन थी।
प्रभु नेमिनाथ के गर्भकल्याण की पूजन करूँ यहाँ मैं भी।।१।।
ॐ ह्रीं कार्तिकशुक्लाषष्ठयां गर्भकल्याणकप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन प्रभु नेमिनाथ का जन्म हुआ।
शौरीपुर नगरी के संग पूरा स्वर्गलोक भी धन्य हुआ।।
पर्वत सुमेरु की पांडु शिला पर शिशु प्रभु का अभिषेक हुआ।
उस जन्मकल्याणक का सुमिरन कर अर्घ्य चढ़ाऊँ आज यहाँ।।२।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां जन्मकल्याणकप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बस वही जन्मतिथि श्रावण सुदि, छठ प्रभु वैराग्य की बन आई।
जूनागढ़ में पशु बंधे देख, बारात चली वापस आई।।
प्रभु नेमि गये गिरनार जहाँ तपकल्याणक इन्द्रों ने किया।
तपकल्याणक का अर्घ्य चढ़ा मैंने भी निज को धन्य किया।।३।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लाषष्ठ्यां दीक्षाकल्याणकप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आश्विन शुक्ला एकम तिथि थी घातिया कर्म का नाश किया।
गिरनार गिरी पर नेमिनाथ ने केवलज्ञान को प्राप्त किया।।
उस समवसरण में राजुल भी दीक्षा ले गणिनीप्रमुख बनीं।
मैं अर्घ्य समर्पण करूँ ज्ञान कल्याणक की है पुण्य घड़ी।।४।।
ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाप्रतिपदायां केवलज्ञानकल्याणकप्राप्ताय श्रीनेमिनाथ-जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आषाढ़ सुदी सप्तमी नेमि, जिनवर ने शिवपद को पाया।
सौधर्म इन्द्र निज परिकर सह, निर्वाणोत्सव करने आया।।
उस ऊर्जयन्त गिरनार शिखर की पावनता को नमन करूँ।
निर्वाण कल्याणक अर्घ्य चढ़ा प्रभु नेमिनाथ का यजन करूँ।।५।।
ॐ ह्रीं आषाढ़शुक्लासप्तम्यां मोक्षकल्याणकप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-विशेष अर्घ्य-
प्रभु गर्भ-जन्म से पावन शौरीपुर तीरथ को वन्दन है।
श्रीनेमिनाथ बाइसवें तीर्थंकर को अर्घ्य समर्पण है।।
तीर्थंकर से ही तीर्थ बने जो पुण्यभूमि कहलाते हैं।
ऐसे शौरीपुर तीरथ को हम हर्षित अर्घ्य चढ़ाते हैं।।६।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथ गर्भ-जन्मकल्याणकपवित्र शौरीपुर तीर्थक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप-ज्ञान और निर्वाण तीन कल्याणक से जो पावन है।
प्रभु नेमिनाथ की कर्मभूमि निष्कर्मपने का साधन है।।
वे सिद्धशिला पर पहुँच गये गिरनार सिद्धि का धाम बना।
उस सिद्धक्षेत्र को अर्घ्य चढ़ाकर पाऊँ आतम सौख्य घना।।७।।
ॐ ह्रीं तीर्थंकरश्रीनेमिनाथ दीक्षा-केवलज्ञान-निर्वाणकल्याणकपवित्र-श्रीगिरनारसिद्धक्षेत्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशयक्षेत्र श्री त्रिलोकपुर का अर्घ्य
अतिशय क्षेत्र त्रिलोकपुरी के नेमिनाथ जिनवर को नमन।
जिनके पद में करें देवता भी परोक्ष में फल अर्पण।।
पारिजात सिद्धार्थ वृक्ष एवं नवग्रह जिनवर को नमन।
अष्ट द्रव्य का थाल ‘‘चन्दनामती’’ करूँ प्रभु पद अर्पण।।१।।
-दोहा-
अतिशय क्षेत्र त्रिलोकपुर, नेमिनाथ का धाम।
अर्घ्य चढ़ाकर मैं चहूँ, अतिशययुत शिवधाम।।२।।
ॐ ह्रीं त्रिलोकपुरअतिशयक्षेत्रे विराजमानश्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय सर्वजिनबिम्बेभ्यश्च अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे नेमिनाथ भगवान! तुम्हारे चरणों में शत वन्दन है।
आठों द्रव्यों का अर्घ्य थाल प्रभु जयमाला में समर्पण है।।
शौरीपुर के महाराजा समुद्रविजय व शिवादेवी रानी।
उनके महलों में रत्नवृष्टि करते थे धनकुबेरज्ञानी।।१।।
सोलहस्वप्नों के फल में शिवादेवी तीर्थंकर मात बनीं।
सौधर्म इन्द्र शचि इन्द्राणी परिकर सह आए उसी घड़ी।।
इन्द्राणी गई प्रसूतिगृह माँ को निद्रा में मग्न किया।
मायामयि शिशु को रखके वहाँ लाई प्रभु निज को धन्य किया।।२।।
सौधर्म इन्द्र प्रभु को लखके, नहिं तृप्त हुआ दो आँखों से।
तब नेत्र हजार बना करके, प्रभु अंग अंग निरखा उनसे।।
खुशियों के आँसू छलक पड़े, फिर ताण्डव नृत्य किया उसने।
शौरीपुर नगरी धन्य हुई, प्रभु जन्मकल्याणक उत्सव में।।३।।
वे पंचकल्याणक अधिपति नेमीनाथ चतुर्थ बालयति थे।
पशु बंधे देख निज ब्याह समय, वैराग्य हुआ जूनागढ़ में।।
राजुल कर में जयमाल लिये, पर ब्याह न पाई नेमी को।
वह भी वैरागिन बन चल दी, अपना कर्तव्य निभाने को।।४।।
जूनागढ़ की वैराग्य कथा, गिरनार पे जा साकार हुई।
तप-ज्ञान व मोक्षकल्याणक से पावन धरती इतिहासमयी।।
प्रभु नेमिनाथ के समवसरण की गणिनी राजुल माता थीं।
नारी की धैर्य परीक्षा में आदर्श आर्यिका माता थीं।।५।।
प्रभु नेमिनाथ के अतिशयकारी तीरथ पर अब चलना है।
उत्तरप्रदेश के श्रीत्रिलोकपुर तीर्थ का परिचय करना है।।
बाराबंकी जनपद के निकट यह तीर्थ हमारा स्थित है।
भूगर्भ से निकली नेमिनाथ प्रतिमा का मंदिर निर्मित है।।६।।
कतिपय प्राचीन साल पहले यहाँ देव परोक्ष में आते थे।
वे लौंग-नारियल हरे हरे, वेदी में बन्द चढ़ाते थे।।
मंदिर के दरवाजे प्रात: श्रावकगण खोला करते थे।
तब चढ़े सुगंधित द्रव्य देख आश्चर्य से बोला करते थे।।७।।
जय जय हे नेमिनाथ भगवन्! तुम भक्ति देव भी करते हैं।
इस पंचमकाल में भी भक्ति कर मनवाञ्छित फल वरते हैं।।
इस अवधप्रान्त की गौरवमणि गणिनी श्री ज्ञानमती जी हैं।
इस चैत्यवृक्ष शुभ पारिजात बनवाने की प्रेरणा दी है।।८।।
प्रभु नेमिनाथ मंदिर के सिवा प्राचीन जिनालय ग्राम में है।
वहँ नर नारी अभिषेक व पूजा निशदिन करते रहते हैं।।
इस अतिशय क्षेत्र के अतिशयकारी नेमिनाथ को वन्दन है।
‘‘चन्दनामती’’ प्रभु पूजन कर जयमाला अर्घ्य समर्पण है।।९।।
ॐ ह्रीं अतिशयक्षेत्रत्रिलोकपुरस्थित श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलि:।
नेमिनाथ भगवान का, अतिशयक्षेत्र महान।
श्री त्रिलोकपुर नाम का, धाम करे कल्याण।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।