‘ मंगल ‘ शब्द कल्याणकारी एवं शुभ सूचक शब्द है । किसी भी शुभकार्य के प्रारंभ में मंगलरूप आचरण करना मंगलाचरण है । ग्रंथ जन हितार्थ लिखा एवं पढ़ा जाता है । अत: उसको प्रारम्भ करते समय मंगलाचरण का निर्वाह किया जाता है । मंगलाचरण में अपने इष्टदेव को याद कर उनको प्रणाम किया जाता है ।
मंगलाचरण में प्राय: पंचपरमेष्ठी या रत्नत्रय प्रदाता देव, शास्त्र और गुरू के गुणों की स्तुति की जाती है । इससे कषायों की मन्दता होती है और शुभ राग एवं पुण्य प्राप्त होता है । मंगलाचरण करने से परिणामों में निर्मलता आती है । मंगल आचरण करने से सारे पाप दूर होते हैं ।
इसलिए आचार्यो ने कहा है कि –
अपराजित –
मंत्रोऽयं, सर्व-विघ्न-विनाशनः । मंगलेषु च सर्वेषु, प्रथमं मंगलं मत: । ।
एसो पंच-णमोयारो, सव्व-पावप्पणा-सणो । मंगलाणं च सब्बेसिं, पढमं होई मंगलं । ।
विघ्नौघा: प्रलयं यान्ति,. शाकिनी- भूत-पन्नगाः । विषं निर्विषतां याति, स्तूयमाने जिनेश्वरे । ।
जिन भारती संग्रह, पृष्ठ – ६ अर्थात् यह पंच नमस्कार मंत्र ‘अजेय है, सब विम्बों का विनाश करने वाला है यह पंच नमस्कार मंत्र सब पापों का नाश करने वाला है और सर्व मंगलों में प्रथम मंगल है! मंगलाचरण में अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु – इन पांच परमेष्ठी, भगवान का स्तवन करने से विघ्नसमूह नष्ट हो जाते: हैं एव शाकिनी, डाकनि, भूत, पिशाच., सर्प, सिंह अग्नि आदि का भय नहीं रहता और हलाहल विष भी अपना असर त्याग देते हैं ।
(क) धवला टीका में आचार्य वीरसेन स्वामी जी ने मंगल का विवेचन धातु, निक्षेप, नय, एकार्थ, निरुक्ति औंर अनुयोगजिनेन्द्रवचनामृतसार – (डॉ. गुलाबचन्द जैन) पृष्ठ-७ में के द्वारा किया है ।
१. ‘ धातु’ या व्याकरण की अपेक्षा मंगल का कथन – ‘ धातु’ से ही शब्दों की निष्पत्ति मानी गयी है अथवा शब्दों के मूल कारणभूत धातु है । ‘ मती’ धातु से ‘ अलच् प्रत्यय करने पर ‘ मंगल’ शब्दु की निष्पत्ति हुई है ।
जिसका अर्थ है – सुख को लाने वाला जिनेन्द्रवचनामृतसार – (डॉ. गुलाबचन्द जैन) पृष्ठ-७
२.’ मंगल’ कें एकार्थवाची .शब्द – धवला ग्रंथ में आचार्य ने डस प्रकार बताये हैं – मंगल, पुण्य, पूत, पवित्र, शिव, शुभ., कल्याण, भद्र, सौख्य इत्यादिधवला पुस्तक १ पृष्ठ ३१
३. ‘ मंगल’ शब्द की निरूक्ति पूर्वक कथन –आचार्य वीरसेन स्वामी जी ने मंगल शब्द की निरुक्ति करते हुए लिखा है-
मंग-शब्दोऽयमुदिष्टः पुण्यार्थ-स्याभि- धायक ।
तल्ला-तीत्युव्यते सद्भि-र्मगल मंगलार्थिभि । ।
पापं मलमिति प्रोक्त-मुपचार समाश्रित: ।
तद्धि गालयती – त्युक्तं मंगलं पण्डितै जनै: ।|
धवला पुस्तक १ पृष्ठ ३३३४ अर्थात् मंग’ शब्द पुण्य रूप अर्थ का प्रतिपादक है, जो पुण्य को लाता है, उसे मंगल के इच्छुक सत्युरुष मंगल कहते हैं । अथवा उपचार से पाप को मल भी कहा जाता है, इसलिए जो उस पाप का गालन करे अर्थात् नाश करे उसको भी पण्डितजनों ने मंगल कहा है ।
४. निक्षेप की अपेक्षा मंगल का कथन – नामादि के द्वारा वस्तु में भेद करने के उपाय को न्यास या निक्षेप कहा जाता है । प्रमाण और नय के अनुसार प्रचलित हुए लोक- व्यवहार को निक्षेप कहते हैं । अनिर्णित वस्तु को निर्णित करने वाला निक्षेप कहलाता है । निक्षेप के छह भेद हैं – नाम, स्थापना, द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव ।षट्खण्डागम, खण्डे १, पुस्तक १, (टीकाकत्री- आ. ज्ञानमति माता) पृष्ठ-३० इन छह निक्षेप की अपेक्षा मंगल का कथन इस प्रकार है
जाति द्रव्य गुण और क्रिया के बिना किसी वस्तु का या मनुष्य का ‘ मंगल’ इस नाम के निश्चित करने को नाम मंगल कहते हैं, जैसे किसी बालक का नाम – मंगलराम या मंगलदास रख दिया जाय तो वह नाम मंगल है ।
लेखनी आदि से लिखित चित्र में, निर्मित मूर्ति में अथवा अन्य किसी वस्तु में बुद्धि से उसमें मंगल रूप जीव के, महात्मा या परमात्मा की ‘ ‘यही वही है ” इस प्रकार की स्थापना करना स्थापना मंगल है, जैसे भगवान् महावीर की मूर्ति में भगवान महावीर की स्थापना कर नमस्कार करना स्थापना मंगल है ।
भविष्य में पूर्ण ज्ञान के अतिशय को या मुक्तिदशा को प्राप्त होने के लिए सम्मुख महात्मा को अथवा भूतकाल में मुक्ति प्राप्त जीव को या पूर्ण ज्ञान प्राप्त पुरुष महात्मा को वर्तमान में नमस्कार करना द्रव्यमंगल कहा जाता है । इस भेद में भूतकाल और भविष्यकाल की मुख्यता लेकर उस पूज्य आत्मा को नमस्कार किया जाता है ।
गुण परिणत आसन क्षेत्र अर्थात्, जहाँ पर योगासन, वीरासन आदि .अनेक आसनों से तदनुकूल अनेक प्रकार के योगाभ्यास जितेन्द्रियता आदि गुण प्राप्त किये गये हों, ऐसा क्षेत्र परिनिष्क्रमण क्षेत्र अर्थात् जहां तीर्थकर आदि महापुरुषों ने दीक्षा ली है ऐसा क्षेत्र, केवलज्ञानोत्पत्ति क्षेत्र और निर्वाण क्षेत्र को क्षेत्र मंगल कहते हैं। जैसे- सम्मेदशिखर, गिरनार पर्वत, चम्पापुर पावापुर आदि ।
जिस काल में जीव केवलज्ञानादि अवस्थाओं को प्राप्त होता है, उसे पापरूपी मल गलाने वाला होने के कारण काल मंगल कहते हैं । दीक्षा, केवलज्ञान, निर्वाण प्राप्ति दिवस आदि काल मंगल कहे जाते हैं । जैसे- पर्युषण पर्व? श्रुतपंचमी, मोक्षसप्तमी, महावीर जयंती आदि ।
केवल ज्ञान प्राप्त अथवा मुक्ति दशा को प्राप्त वर्तमान पर्याय के सहित अरहन्त, एवं सिद्ध की आत्मा को भाव निक्षेप मंगल कहते हैं । अर्थात् वर्तमान में काल में मंगल पर्यायों से परिणत जो शुद्ध जीव है (पंच परमेष्ठियों की आत्मा) हैं, वे भाव मंगल है । सातिशय पुण्य के कारण भूत परिणाम या मोक्ष के साक्षात् हेतुभूत भाव भी भावमंगल है । जैसे- पूजा-भक्ति ध्यान के परिणाम ।
५- नय की अपेक्षा मंगल का कथन – नय के मूलरूप से दो भेद हैं –
१ द्रव्यार्थिकनय, २. पर्यायार्थिक नय । तीर्थकरों के वचन सामान्य प्रस्तार का मूल व्याख्यान करने वाला द्रव्यार्थिक नय है और उन्हीं वचनों के विशेष प्रस्तार का मूल व्याख्याता पर्यायार्थिक नय है । अथवा द्रव्य की मुख्यता से पंचपरमेष्ठी की आत्मा और पर्याय की दृष्टि से उनकी वर्तमान पर्याय मंगल है । शेष सभी नय इन दोनों के भेद हैं ।
6. अनुयोग की अपेक्षा मंगल का. कथन – इस अनुयोग में मंगल क्या है? मंगल किसका? किसके द्वारा मंगल किया जाता है? मंगल कहाँ होता है? कितने समय तक मंगल रहता है? मंगल कितने प्रकार का है? – इन सभी प्रश्नों का उत्तर -समाधान किया गया है ।षट्खण्डागम, खण्ड १?एपुसाक १, (टीकाकत्री- आ. ज्ञानमति माता) पृष्ठ-४०
मंगल क्या है? जीव द्रव्य मंगल है ।
मंगल किसका है? जीव द्रव्य का मंगल है ।
किसके द्वारा मंगल किया जाता है? – औदयिक भावों के द्वारा मंगल किया जाता है अर्थात् पूजा-भक्ति अणुव्रत-महाव्रत आदि प्रशस्त रागरूप औदयिक भाव-परिणाम भी मंगल में कारण होते हैं ।
मंगल कहाँ होता है ?– जीव में मंगल होता है ।
कितने समय तक मंगल रहता है? नाना जीवों की अपेक्षा हमेशा मंगल रहता है और एक जीव की अपेक्षा अनादि अनन्त, और सादि-सान्त तक मंगल रहता है ।
मंगल कितने प्रकार का है – मंगल सामान्य की अपेक्षा एक प्रकार का है । मुख्य, गौण की अपेक्षा मंगल दो प्रकार का है । द्रव्य मंगल और भाव मंगल दो प्रकार का हैं । लौकिक और पारमार्थिक की अपेक्षा मंगल के दो प्रकार हैं । निश्चय व व्यवहार की अपेक्षा मंगल के दो प्रकार है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के भेद से तीन प्रकार का मंगल है । अरिहंत, सिद्ध साधु और अर्हन्त के भेद से मंगल चार प्रकार का है । सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और तीन गुप्ति के भेद से पांच प्रकार का है। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा मंगल के छह भेद हैं । पंचपरमेष्ठी की अपेक्षा मंगल पांच प्रकार का कहा जा सकता है । नवदेवता की अपेक्षा मगल नव प्रकार का सिद्ध होता है । अथवा जिनेन्द्र देव को नमस्कार करने की जितनी पद्धतियाँ हैं, मंगल के उतने भेद हो सकते हैं ।
मंगल के विषय मेँ छह अधिकारों द्वारा दंडक का कथन करना चाहिए । दण्डक के छह नाम इस प्रकार हैं – मंगल का अर्थ मंगलकर्ता, मंगलकरणीय मंगल का उपाय, मंगल के भेद मंगल का फल ।धवला १/१, १.१/3६/९, जैनेन्द्र सिद्धांत कोश भाग -३, पृष्ठ-२४१
1. मंगल का अर्थ – मंगल दो शब्दों के मेल से बना है – मं गल । ‘ मं ‘ का अर्थ है – ‘ पाप ‘ एवं ‘ गल ‘ का अर्थ है – गलाना । या ” मं-पापं गालयति इति मंगलम् । ” अर्थात् जो पापों को नष्ट करें गला देवें, वह मंगल होता है । जो संसार के समस्त दुःखों को नष्ट करने वाला तथा लौकिक सुख व आध्यात्मिक सुखों को देने के निमित्त कारण हैं वे मंगल कहलाते हैं ।
2. मंगल-कर्त्ता – चौदह विद्या-स्थानों के पारगामी आचार्य परमेष्ठी मंगलकर्त्ता है।
3. मंगलकरणीय – भव्य जन मंगल करने योग्य है ।
4. मंगल का उपाय – रत्नत्रय की साधक सामग्री मंगल का उपाय है ।
५.मंगल के भेद – ‘ जिनेन्द्र देव को नमस्कार हो ‘ इत्यादि रूप से मंगल अनेक प्रकार का है । जो श्लोकादि की रचना के बिना ही जिनेन्द्र गुण-स्तवन किया जाता है वह अनिबद्ध मंगल के तथा जो श्लोकादि की रचना रूप से ग्रंथ के आदि में ग्रंथकार के द्वारा इष्टदेवता को नमस्कार निबद्धकर किया जाता है वह निबद्ध मंगल होता है । इस प्रकार निबद्ध और अनिबद्ध के भेद से मंगल के दो रूप हैं।
6. मंगल का फल – अम्युदय और मोक्ष सुख मंगल का फल है । अर्थात् जितने प्रमाण में यह जीव मंगल के साधन मिलाता है, उतने ह्रीं प्रमाण में उससे जो यथायोग्य अभ्युदय और नि:श्रेयस सुख मिलता है वही उसके मंगलाचरण एवं मंगल का फल है ।
मंगल एवं मंगलाचरण करने का प्रयोजन – किसी भी शुभ कार्य के आरंभ में मंगल आचरण करना मंगलाचरण कहलाता है । मंगलमय आचरण-व्यवहार क्यों करना चाहिए? मंगलाचरण करने का कब उपदेश है? मंगलाचरण करने का क्या प्रतिफल है? इन सभी प्रश्न का उत्तर यह है कि – हमारे जीवन में आध्यात्मिक साधना का जो परम लक्ष्य है वही लक्ष्य,उद्देश्य,प्रतिफल इस स्तुति – वंदना स्वरूप मंगलाचरण का भी है । स्तुति, वंदना स्वरूप मंगलाचरण में देव, शास्त्र, गुरु या पंचपरमेष्ठी या नव देवता या तीर्थकर का गुणानुवाद किया जाता है । अशुभ, विकार भाव या पापों को नष्ट करने के ध्येय से पुण्यप्राप्ति या आत्मशुद्धि के लिए भी मंगलाचरण किया जाता है । पुण्यप्राप्ति, आत्मशुद्धि के अतिरिक्त मंगलाचरण कै प्रयोजन १० इस प्रकार है –
1. परमपिता परमेश्वर मंगल स्वरूप है । उन परमात्मा को मंगलाचरण में नमोस्तु करने से हमारा उद्देश्य निर्विघ्न रूप से सम्पन्न होता है । अर्थात् मंगल स्वरूप मंगल प्रदाता परमात्मा का गुणानुवाद करने से ग्रंथ जैसे शुभकार्य की रचना निर्विघ्न रूप से पूर्ण होती है ।
2. जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करते हुए मंगलाचरण करना शिष्टाचार का परिपालन भी है । लोक में शिष्ट एवं विशिष्ट व्यक्तियों की यह परम्परा है कि प्रतिदिन परमात्मा का दर्शन, पूजन-भक्ति करते हैं तथा प्रत्येक शुभ कार्य के शुभारम्भ में पूजा इष्टदेव को स्मरण कर उनको नमस्कार कर मंगलाचरण -करते हैँ और उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए शिष्टाचार का पालन करते हैं । क्योंकि जिन परमात्मा की कृपा से श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र रूप रत्नत्रय गुण की प्राप्ति होती है । मंगल विधि द्वारा उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना शिष्टजनों का कार्य है ।
3. ईश्वर की सत्ता में विश्वास करना मंगलाचरण का द्योतक है । मंगलाचरण करने से नास्तिक मत का खण्डन ‘और आस्तिक भाव -का समर्थन होता हैं । मंगलाचरण करने वाले भक्त परमात्मा, पुनर्जन्म, आत्मा, सही, मोक्ष, धर्म आदि को विश्वासपूर्वक जानता है -तथा सद् आचरण करता है वह भक्त आस्तिक कहलाता है । आस्तिक अथवा परीक्षा प्रधानी भक्त सर्वज्ञ शास्त्र, व्रत और जीवतत्त्वों में अस्तित्व बुद्धि रखने को आस्तिक्य कहते हैं । आस्तिक प्रयोजन के बिना भी मानव का परमात्मा में भक्ति का भाव नहीं हो सकता ।
4. नमस्कार ‘पूर्वक मंगलाचरण करने से मन पवित्र-निर्मल हो जाता है । जब मनुष्य सर्वज्ञ परमात्मा के श्रेष्ठ गुणों का कीर्तन या चिंतन करता है तब उसमें अहित विचार -दूर होकर या पापवासना का नाश होकर मन में अच्छे विचार तथा उत्साह जागृत होता है जो मन को पवित्र करता है । गुणी महापुरुष के गुणों के चिन्तन या कीर्तन के बिना ह्र्दय की शुद्धि नहीँ हो सकती । आध्यात्मिक एवं लौकिक परोपकारी कार्य को पूर्ण करने के लिए मानसिक शुद्धि आवश्यक है ।
5. भगवान् की भक्ति करते समय उनको नमस्कार करने में आत्मकल्याण की भावना निहित्_है । आत्म-कल्याण के साथ-२ विश्व कल्याण की भावना भी इस नमस्कार सहित भक्ति में समाहित है । जौ व्यक्ति आत्महित की साधना करता है उस व्यक्ति से ही विश्व का कल्याण हो सकता है । इस प्रयोजन की सिद्धि परमेष्ठी की भक्ति के बिना नहीं हो सकती । कारण कि जिस आत्मा ने मुक्ति मार्ग की साधना कर मुक्ति को प्राप्त किया हैं, वह अत्मा ही संसार से मुक्ति का मार्ग दिखा सकता हैं ।
6. परमात्मा’ की अर्चना, भक्ति एवं साधना करते समय उनको प्रणाम किया जाता है क्योंकि ऐसा- करने से परमात्मा के .अन्दर विराजमान सद्गुणों की प्राप्ति होती है । परमात्मा अनन्तानन्त गुणों के स्वामी होते हैं । इसलिए उनके गुण हमे भी प्रात हों इस भावना से हम उनको नमस्कार करते हैं ।
जो व्यक्ति जिस गुणी पुरुष के समान गुणों को प्राप्त करना चाहता हैं, वह उसी गुणी पुरुष की संगति करता है, उसको आदर्श मानता है, उसको नमस्कार करता है, उसकी प्रशंसा करता है इसलिए परमात्मा के समान श्रेष्ठ गुणों को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति उनकी पूजा, वंदना करता है, उनको प्रणाम करके शुभ कार्य का प्रारंभ करते हैं । व्यक्ति को गुण ग्राही बनकर गुणी की पूजन वंदन’ अभिवंदन करना चाहिए न कि लोक समान, धन लालसा, विषय भोग आदि के लोभ से । .आचार्य पूज्यपाद स्वामी सर्वार्थसिद्धि के मंगलाचरण में लिखते हैं –
” मोक्ष मार्गस्य नेतार, भेत्तारं कर्म भू भृताम् ।
ज्ञातारं विश्वतत्वानां, वन्दे तद गुण -लब्धये । ।
”न्यायदीपिका – डॉ. दरबारीलाल कोठिया, पृष्ठ- १३५ (हिन्दी अनुवाद) 10. अर्थ-जो मोक्ष मार्ग- के नेता, कर्मरूपी पर्वतों को भेदने वाले एवं विश्व -के तत्त्वों को जानने वाले, ऐसे विशेषणों से सुशोभित हितोपदेशी. वीतरागी और सर्वज्ञ भगवान् को उनके श्रेष्ठ गुणों की ‘प्राप्ति के लिए मैं उनकी वंदना करता हूँ ।
7.पंचपरमेष्ठी या परमात्मा की साधना करने से जीवन का परमलक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति होती है । परमात्मा को ध्यान में रखकर की गयी उपासना ही उपासक को मुक्ति मार्ग की प्राप्ति कराती है । आचार्य विद्यानंद् स्वामी जी आप्त परीक्षा में लिखते हैं कि – .
‘ ‘श्रेयो मार्गस्थ संसिद्धि: प्रसादात्परमेष्ठिनः ।
‘ ‘आप्तपरीक्षा – (आचार्य विद्यानंद जी) अर्थात-परमेष्ठी- परमात्मा के प्रसाद से श्रेयोमार्ग- कल्याणकारी मार्ग अथवा मोक्षमार्ग की सिद्धि होती है । यहाँ पर प्रसाद का अर्थ है- प्रसन्नचित्त परमात्मा की उपासना-भक्ति करना । इससे जो कल्याण मार्ग की सिद्धि होती है वही यथार्थ में परमेष्ठी का प्रसाद है ।
सम्यक्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित सम्यक् आचरण ही मोक्षमार्ग-श्रेयमार्ग कहलाता है, आप्तपरी क्षा – सं. न्यायाचार्य पं. दरबारीलाल कोठिया, प्रकाशक-वीर सेवा मंदिर, दिल्ली पद्य २, पृष्ठ- -रूसम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग: ” – तत्त्वार्थसूत्र ‘ अध्याय , सूत्र इस मोक्ष मार्ग की प्राप्ति निर्मल भक्ति एवं वंदना से सम्भव है । जब हम प्रभु की भक्ति-वंदना स्तुति स्वरूप मंगल आचरण का व्यवहार करते हैं तब क्या हमें श्रेयमार्ग की प्राप्ति नहीं होगी? अर्थात् होगी । अर्थात् वीतराग जिनेन्द्र देव के स्मरण, कीर्तन, गुणानुवाद, स्तुति, पूजन, प्रणाम, नमोऽस्तु मंगलरूप आचरण करने से अनंतानंत संसार की जन्म-मरण रूप परम्परा का नाश कर मुक्ति धाम की प्राप्ति होती है ।
संदर्भ – षट्खण्डागम, खण्ड १, पुस्तक १, (टीकाकर्त्री- आ. ज्ञानमति माता) पृष्ठ-३१ 10. पंचास्तिकाय संग्रह १, आचार्य जिनसेन कृत तात्पर्यवृत्ति ।