जैन परम्परा में पर्यावरण संरक्षण एवं वृक्षों पर विपुल सामग्री उपलब्ध है । प्रत्येक तीर्थंकर के दीक्षा वन, कैवल्यवृक्ष एवं समवशरण के अन्तर्गत अष्टभूमियों के वर्णन में वृक्षों की प्रकृति के बारे में यथेष्ट सामग्री उपलब्ध है । प्रस्तुत आलेख में प्रत्येक तीर्थंकर के कैवल्य वृक्ष का नाम, संस्कृत नाम, लैटिन नाम एवं औषधियाें के महत्व की विवेचना की गई है । पर्यावरण संरक्षण को अब गंभीरता से लिया जा रहा है । पर्यावरण में परिवर्तन से जहाँ नदियों का जल ग्रहण क्षेत्र घट रहा है वहीं भूमि का जलस्तर बहुत नीचे जाकर लुप्त होने की स्थिति में है । मौसम में तेजी से परिवर्तन होने के साथ फरवरी में तेज गर्मी एवं मार्च में ठंड अनुभव हो रही है । मौसम वैज्ञानिकों के अनुसार अमेरिका में गर्मियों में आये तीन बड़े चक्रवाती तूफानों का कारण भी यही है । मौसम परिवर्तन से जहां फसलों पर प्रभाव पड़ रहा है वहीं मानव स्वास्थ्य भी प्रभावित हुआ है । पर्यावरणविदों के अनुसार बढ़ रहे तापमान को सुधारने का उपाय है कि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन न्यूनतम किया जावे तथा बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण किया जाये। पौधों, जन्तुओं (जिसमें मनुष्य सम्मिलित हैं) तथा उनके समस्त वातावरण में आपसी संबंध है । ये पारस्परिक क्रिया करते रहते हैं तथा एक दूसरे पर अन्योन्याश्रित हैं। वे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। यह तंत्र यदि संतुलित है तो स्वचालित एवं स्वावलम्बी होता है । हमारा अनियोजित विकास के कारण प्रभावित हुआ है । मानव जाति का अस्तित्व वृक्ष तथा वन पर अत्यंत निर्भर है । वन -वातावरण, जलचक्र, मृदा की स्थिरता को सुनिश्चित करते हैं। जंगली पशुओं को उचित भोजन तथा रहने के लिये उचित स्थान प्रदान करते हैं तथा वायु प्रदूषण को घटाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। पर्यावरण दूषित न होने के लिए संविधान के अनुच्छेद ४८ — ए में निदेशात्मक सिद्धान्त (Directive Principles) बताये गये हैं तथा अनुच्छेद ५१— ए (उ) में बुनियादी कर्तव्य बताये गये हैं। जिनके अनुसार प्रत्येक भारतीय नागरिक को पर्यावरण की सुरक्षा और उसके संरक्षण हेतु कर्तव्यपरायण रहना चाहिए। ये प्रावधान १९७६ में किये गये हैं। Article 48 A- Protection and improvement of environment and safeguarding of forests and wild life. The state shall endeavour to protect and improve the environment and to safeguard the forests and wildlife of the country. Article 51 A- (G) reads thus- To protect and improve the natural environment including forests, lakes, rivers and wildlife and to have compassion for living creatures. भारतीय वन अधिनियम १९२७ (क्रमांक १६/१९२७) में वन तथा वृक्ष को निम्नानुसार उल्लिखित किया है— ‘वन’ एक ऐसा विस्तीर्ण भूभाग है जो वृक्षों से तथा उसमें उगने वाले वृक्षों से ढ़का हुआ रहता है और कभी—कभी चारागाह में मिला जुला भूभाग रहता है— यह परिभाषा ऑक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोश के आधार पर— लक्ष्मण इच्छाराम विरुद्ध डिवीजनल फॉरेस्ट ऑफिसर के मामले में नागपुर हाईकोर्ट ने (ए.आई, आर. १९५३ नागपुर ५१) दी है । ‘वृक्ष’— भारतीय वन अधिनियम १९२७ धारा २ (७) के अनुसार वृक्ष में सम्मिलित है ताड़, बांस, ठूठ, झाड़ी, लकड़ी तथा बेंत प्रजाति। ‘वृक्ष’ म.प्र. वृक्षों का परिरक्षण (नगरीय क्षेत्र) अधिनियम २००७ (म.प्र. अधिनियम क्रमांक २० सन् २००१) की धारा २ (ख) के अनुसार वृक्ष से अभिप्रेत है कोई ऐसा काष्ठीय पौधा जिसकी शाखायें तने या काय से निकलती हैं तथा जो तने या काय पर आलंबित हो और जिसके तने या काय का व्यास भूमितल से २ मीटर से कम न हो। जैन साहित्य में वनों एवं वृक्षों का वर्णन है लेकिन जैन तीर्थंकरों ने जिस वन में दीक्षा ग्रहण की उसी दीक्षावन के विशिष्ट वृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त किया है । तीर्थंकरों के समवशरण का जो मनोहारी वर्णन है उनकी अष्टभूमियों में तीसरी, चौथी तथा छठवीं भूमि के वन तथा वृक्षों के महत्व को दर्शाया गया है । मंगलाष्टक में जम्बूवृक्ष, शाल्मली वृक्ष, चैत्यवृक्ष पर स्थित जिनचैत्यालय से मंगलकामना की गई है ।ज्योतिर्व्यन्तर भावनामरगृहे मेरौ कुलाद्रौ तथा जम्बू—शाल्मलि चैत्यशाखिषु तथा वक्षार रुप्यादिषु। इष्वाकारगिरौ च कुण्डलनगे द्वीपे च नन्दीश्वरे शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहा: कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ।।७।।इसी प्रकार दशलक्षणधर्म पूजा में अपनी सुगंध से उर्ध्वलोक को सुगन्धित करने वाले मन्दार, कुन्द, मौलसिरी (वकुल), कमल और पारिजात का वर्णन किया गया है । मन्दार—कुन्द बकुलोत्पल — पारिजातै : पुष्पै: सुगन्ध सुरभीकृतमूर्ध्वलोकै: ।कल्पद्रुम (समवशरण ही कल्पद्रुम है) विधान में तीर्थंकरों के अंतरंग और बहिरंग वैभव के साथ समवशरण का मनोहारी वर्णन संयोजित है । इसमें अष्टभूमि पूजन, चैत्यवृक्ष, कल्पवृक्ष, सिद्धार्थवृक्ष, मानस्तम्भ तथा जिनस्तूप पूजन का समावेश है । अष्ट भूमियां हैं— १. चैत्यप्रासाद भूमि, २. खातिका भूमि, ३. लता भूमि, ४. उपवन भूमि, ५. ध्वजा भूमि, ६. कल्पवृक्ष भूमि, ७. भवनभूमि, एवं ८.श्री मंडपभूमि। भगवान तीर्थंकरों के समवशरण में अष्टभूमियों में से तीसरी भूमि लताभूमि है जो विविध लताओं से शोभित है । चौथी भूमि उपवन भूमि है जिसमें चैत्यवृक्ष हैं। छठवीं भूमि कल्पवृक्ष भूमि है इसी भूमि में सिद्धार्थ वृक्ष है ।
पूर्व दिशा — नन्दनवन, अशोकवन दक्षिण दिशा — सप्तच्छदवन पश्चिम दिशा — चंपकवन उत्तर दिशा — आम्रवन==चैत्यवृक्ष जिनप्रतिमा युक्त हैं ==पूर्व दिशा — अशोक चैत्यतरु दक्षिण दिशा — सप्तच्छद चैत्यतरु पश्चिम दिशा — चंपक चैत्यतरु उत्तर दिशा — आम्रवन चैत्यतरुकल्पवृक्ष भूमि — चारों दिशाओं में सिद्धार्थवृक्ष पर जिनप्रतिमाजी हैं। कल्पवृक्ष — १. पानांग, २. तूर्यांग, ३. भूषणांग, ४. वस्त्रांग, ५. भोजनांग, ६. आलयांग, ७. दीपांग, ८. भाजनांग, ९. मालांग, १०. तेजांग। इसी भूमि में सिद्धार्थ वन हैं— आग्नेय दिशा — मेरु भूप तरु नैऋत्य दिशा — मंदार भूप तरु वायव्य दिशा — संतानक भूप तरु ईशान दिशा — पारिजात भूप तरु जिस वन में जाकर तीर्थंकरों ने दीक्षा ली उसे दीक्षावन तथा जिस वृक्ष के नीचे दीक्षा धारण करते हैं उसे दीक्षा वृक्ष कहते हैं। चौबीस तीर्थंकरों के दीक्षावन निम्नानुसार हैं— १. आदिनाथ (सिद्धार्थ), २. अजितनाथ (सहेतुक), ३. सम्भवनाथ (सहेतुक), ४. अभिनन्दननाथ (उग्रवन), (५) सुमतिनाथ (सहेतुक), ६. पद्मप्रभ (मनोहर), ७. सुपार्श्वनाथ (सहेतुक) , चंद्रप्रभ (सर्वर्तुक/सर्वार्थ), ९. पुष्पदंत (पुष्प/पुष्पक), १०. शीतलनाथ (सहेतुक), ११. श्रेयांसनाथ (मनोहर), १२.वासुपूज्य (मनोहर), १३.विमलनाथ (सहेतुक), १४. अनन्तनाथ (सहेतुक), १५. धर्मनाथ (शालि /शाल), १६. शांतिनाथ (आम/सहस्राम्र), १७. कुंथुनाथ (सहेतुक), १८.अरहनाथ (सहेतुक), १९.मल्लिनाथ (शालि तथा प्रतिष्ठा रत्नाकर तथा चौबीस पुराण में श्वेतवन), २०. मुनिसुव्रत (नीलवन), २१.नमिनाथ (चैत्रवन/ चित्रवन), २२. नेमिनाथ (सहस्राम्र), २३. पार्श्वनाथ (अश्वत्थवन / अश्ववन), २४. महावीर (षण्डवन तथा प्रतिष्ठा रत्नाकर में ज्ञातृ (नाथ) वन)। तीर्थंकरों ने जिस वृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त किया उस वृक्ष को कैवल्यवृक्ष कहा गया है । विभिन्न ग्रंथों में दिये गये वृक्षों को निम्न तालिका में दर्शाया गया है ।
“wikitable”- व्रं. तीर्थंकर उत्तरपुराण चौबीसी पुराण भाषावचनिका प्रतिष्ठा रत्नाकर पंच कल्याणक प्रतिष्ठा –
1. आदिनाथ ………. जैन तत्वविद्या वट न्यग्रोध-
2. अजितनाथ सप्तपर्ण (छतिवन) सप्तपर्ण सप्तपर्ण सप्तच्छद सप्तपर्ण –
3. सम्भवनाथ शाल्मलि (सेमर) शाल शाल साल शाल्मलि-
4. अभिनन्दननाथ असन (बीजक) शाल सरल शाल असन-
5. सुमतिनाथ प्रियंगु प्रियंगु प्रियंगु प्रियंगु प्रियंगु-
6. पद्मप्रभ ……… प्रियंगु प्रियंगु प्रियंगु –
7. सुपार्श्वनाथ शिरीष शिरीष शिरीष श्रीखंड (सिरस) शिरीष-
8. चंद्रप्रभ नागवृक्ष नाग नागवृक्ष नागकेशर नागवृक्ष नाग –
9. पुष्पदंत नागवृक्ष नाग शाल साल अक्ष (बहेड़ा)-
10. शीतलनाथ बिल्व ….. अक्ष (बहेड़ा) पलाश धूलीपलाश (बेल) –
11. श्रेयांसनाथ तुम्बुर तुम्बुर तेदुं तिन्दुकतेन्दु (तुम्बूर)-
12. वासुपूज्य कदम्ब कदम्ब पाटला पाटल कदम्ब (पाटल)-
13. विमलनाथ जामुन जामुन पाटल/कदम जम्बू जम्बू –
14. अनन्तनाथ पीपल पीपल पीपल पीपल पीपल-
15. धर्मनाथ सप्तच्छद सप्तच्छद दधिपर्ण/कैंथ दधिपर्ण दधिपर्ण (सप्तच्छद) –
16. शांतिनाथ नन्द्यावर्त वृक्ष नन्द्यावर्त नन्दी नन्दी नन्द्यावर्त –
17. कुंथुनाथ तिलक तिलक तिलक तिलक तिलक –
18. अरहनाथ आम्र माकन्दआम्र आम्र आम्र आम्र-
19. मल्लिनाथ अशोक अशोक अशोक अशोक अशोक (कंकेली) –
20. मुनिसुव्रत चम्पक चम्पक चम्पक/चम्पा चम्पा चम्पक –
21. नमिनाथ बकुल मौलिश्री बकुल बकुल (मौलिश्री) मलसिरी (बकुल ) …..-
22. नेमिनाथ बांस वंश मेषश्रृंग (गुडमार) बांस मेषश्रृंग –
23. पार्श्वनाथ देवदारु आम्र धब/धौ धव धव (देवदारु)-
24. महावीर शाल सागौन शाल साल शाल्मलि (शाल) अब हम क्रमश: चौबीस तीर्थंकरों के दीक्षावन तथा कैवल्यवृक्ष के आगमिक संदर्भों एवं उनके आधुनिक वनस्पतिविज्ञानियों में प्रचलित नामों को संकलित करेंगे। इसी श्रृंखला में हमने संस्कृत भाषा में कैैवल्यवृक्षों के वर्णनों को भी संकलित किया है तथा इन पौधों के औषधीय महत्व को भी रेखांकित किया है । जैनायुर्वेद के ग्रंथों तथा इन पौधों के औषधीय महत्व पर व्यापक गहन अनुसंधान अपेक्षित है ।
मौनी ध्यानी स निर्मानो देशान् प्रविहरन् शनै:।
पुरं पुरिमतालाख्यं सुधीरन्येद्युरासदत् ।।२१८।।
नात्यासन्नविदूरेऽस्मादुद्याने शकटाह्रये।
शुचौ निराकुले रम्ये विविक्तेऽस्थाद् विजन्तुके।।२१९।।
न्यग्रोधपादस्याध: शिलापट्टं शुचिं पृथुम् ।
सोऽध्यासीन: समाधानमधाद् ध्यानाय शुद्धधी:।।२२०।।
तत्र पूर्वमुखं स्थित्वा कृतपल्यड़कबन्धन: ।
ध्याने प्रणिदधौ चित्तं लेश्याशुद्धिं परां दधत् ।।२२१।।
आदिपुराण भाग—१ पूर्व—२०पुरिमतालनगर के समीप शकट नामक उद्यान जो पवित्र, आकुलतारहित, रमणीय, एकान्त और जीवरहित था, में भगवान ठहर गये। भगवान ने वहाँ वटवृक्ष के नीचे एक पवित्र तथा लम्बी चौड़ी शिला पर पूर्व दिशा की ओर मुखकर पद्मासन में बैठकर ध्यान में अपना चित्त लगाया।
वटो: रक्तफल: श्रृङ्गी न्यग्रोध: स्कन्धजो ध्रुव: । क्षीरी वैश्रवणो वासो बहुपादो वनस्पति:।।१।।
भाव प्रकाश निघण्टु: (वटादि वर्ग), पृ.— ५१३ वट, रक्तफल, श्रृंगी, न्यग्रोध, स्कन्धज, ध्रुव, क्षीरी, वैश्रवण, वास, बहुपाद, वनस्पति ये सब बरगद के संस्कृत नाम हैं। लेटिन में Ficus bengalensis, fam. moraceae कहते हैं। यह सब प्रांतों में उत्पन्न होता है इसका वृक्ष बहुत विशाल होता है ।वट: शीतो गरुग्राही कफपित्तव्रणापह: । वर्ण्यो विसर्पदाहध्न: कषायो योनिदोषहृत।।२।। भा.प्र. नि., पृ.—५१३बरगद — कषायरसयुक्त, शीतल, गुरु, ग्राही, शरीर के वर्ण को उत्तम करने वाला एवं कफ, पित्त, व्रण, विसर्प, दाह और योनि सम्बंधी दोषों को दूर करता है ।
माघे मासि सिते पक्षे रोहिण्यां नवमीदिने। सहेतुके वने सप्तपर्णद्रुमसमीपग: ।।३८।।
उत्तरपुराण, पृ. —४भगवान अजितनाथ ने सहेतुक वन में सप्तपर्ण वृक्ष के समीप दीक्षा ली। दीक्षा लेते ही मन:पर्ययज्ञान से सम्पन्न हो गये।सप्तपर्ण: (छतिवन — सतौना) सप्तपर्णो विशालत्वक् शारदो विषमच्छद: ।।७४।। सप्तपर्णो व्रणश्लेश्म वातकुष्ठास्तजन्तुजिम् । दीपन: श्वासगुल्मघ्न: स्निग्श्रोष्णस्तु वर: सर: ।।७५।। भा.प्र. नि., पृ.—५४६सप्तपर्ण, विशालत्वक्, शारद तथा विषमच्छद संस्कृत नाम हैं । लेटिन में alstonia scholaris r,br कहते हैं। छतिवन का वृक्ष प्राय: सभी आर्द्र प्रान्तों में पाया जाता है । इसका वृक्ष सुन्दर, विशाल, सीधा, सदैव हरा रहने वाला एवं क्षीरयुक्त होता है । इसकी छाल का उपयोग ज्वर, विषम ज्वर, अतिसार प्रवाहिका, चर्मरोग एवं कृमि में किया जाता है ।
सिद्धार्थ शिबिकामूढां देवैरारुह्य निर्गत:। सहेतुकवने राज्ञां सहस्रेणाप संयमम् ।।३७।।
अथमौनव्रतेनायं छदमस्थोऽब्देषु शुद्धधी: । द्विसप्तसु गते दीक्षावन शालतरोरध:।।४०।।
उत्तरपुराण, पृ.— १७ भगवान संभवनाथ सहेतुक (दीक्षा) वन में पहुंचकर शाल्मली वृक्ष के नीचे अनन्तचतुष्टय को प्राप्त हुये। शाल्मली, शाल्मलि: शाल्मलिस्तु भवेन्मोचा पिच्छिक पूरणीति च। रक्तापुष्पा स्थिरायुश्र्व कण्टाटया च तूलिनी।।५४।। शाल्मली शीतला स्वाद्वी रसे पाके रसायनी। श्लेष्मला पित्तवातास्नहारिणी रक्तपित्तजित् ।।५५।।भा. प्र. नि., पृ.—५३७शाल्मलि, मोचा, पिच्छिका, पूरणी, रक्तपुष्प, स्थिरायु, कण्टकाटया तथा तूलिनी, सेमर के संस्कृत नाम हैं। लेटिन नाम bobbax malabaricum de , देश के प्राय: सब प्रान्तों के वन, उपवन, वाटिकाओं में उत्पन्न होता है । इसके वृक्ष बहुत विशाल और मोटे हुआ करते हैं। सेमर रस तथा विपाक में मधुर रसयुक्त, शीतल, रसायन, कफजनक एवं पित्त, वात, रक्तविकार या वातरक्त तथा रक्तपित्त को दूर करने वाला होता है ।
हस्तचित्राख्ययानाधिरुढोऽग्रोद्यानमागत:। माघे सिते स्वर्गर्भर्क्षे द्वादश्यामपराह्वग: ।।५२।।
अथ मौनव्रतेनेते छाद्मस्थेऽष्टादशाब्दके। दीक्षावनेऽसनक्ष्मामूले षष्ठोपवासिन:।।५५।।
उत्तर पुराण, पृ.—२२ एवं २३ भगवान अग्र उद्यान (दीक्षा वन) में असनवृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ हुये। असन (बीजक:/ विजयसार) बीजक: पीतसारश्च पीतशालक इत्यपि। बन्धूकपुष्प: प्रियक: सर्जकश्चासन: स्मृत: ।।२८।। बीजक: कुष्ठवीसर्पश्चित्रमेहगुद किमान् । हन्ति श्लेष्मास्रपित्तञ्च त्वच्य: केश्यो रसायन:।।२९।।बीजक, पीतसार, पीतशालक, बन्धूकपुष्प, प्रियक,सर्जक और असन विजयसार के संस्कृत नाम हैं। इसका लेटिन नामterminalia tomentosa है । यह दक्षिण भारत, बिहार और पश्चिमी प्रायद्वीप में होता है । इसका वृक्ष सुन्दर, बहुत बड़ा किन्तु अचिरस्थायी होता है । विजयसार त्वचा के लिए हितकारी, बालों को उत्तम बनाने वाला, रसायन एवं कुष्ठ, वीसर्प, श्वेतकुष्ठ, प्रमेह, गुदा के कृमि, कफ, रक्तविकार, पित्त या रक्तपित्त को दूर करने वाला है ।
दीक्षां षष्ठोपवासेन सहेतुक वनेऽगृहीत् । सिते राज्ञां सहस्रेण सुमतिर्नवमीदिने।।७०।।
विशतिं वत्सरान्नीत्वा छद्मस्थ प्राक्तने वने। प्रियङ्गुभूरुहोऽधस्तादुपवासद्वयं, श्रित: ।।७४।।
उत्तर पुराण, पृ.—३० सहेतुक वन में प्रियंगु वृक्ष के नीचे दो दिन का उपवास लेकर योग धारण किया। प्रियंगु प्रियड़्गु फलिनी कान्ता लता च महिलाऽऽहृया।१०१ गुन्द्रा गन्धफला श्याम विष्वक्सेनाङु नाप्रिया। प्रियङु शीतला तिक्ता तुवराऽनिल पित्तहृत् ।१२०। रक्तातीसारदौर्गन्ध्य स्वेददाहज्वरापहा। (वान्तिभ्रान्तयतिसारध्नी वक्त्रजाडयविनाशिनी)। गुल्मतृड्विषमोहध्नी तद्वद् गन्धप्रियङका। भा.प्र.नि., पृ.— २४८प्रियंगु, फलिनी, कान्ता, लता, महिलाह्वया (स्त्रीवाचक सभी शब्द), गुन्द्रा गन्धफला, श्यामा, विष्वक्सेनङ्गना और प्रिया ये सब संस्कृत नाम प्रियंगु के हैं। तीन प्रकार के प्रियंगु का वर्णन मिलता है । प्रियंगु, फूलप्रियंगु, गंधीप्रियंगु, बुंडुड, बूढीघास, डइया, दहिया आदि हिन्दी नाम हैं तथा लेटिन में Callicarpa macophylla vahl नाम है” प्रियंगु जंगलों के किनारे, घाट और उँची चढ़ाइयों तथा खुले हुये जंगल और परती भूमि में होता है । यह नेपाल, देहरादून के जलप्राय स्थानों, बंगाल तथा बिहार के अनेक स्थानों में पाया जाता है । अन्य प्रकार के प्रियंगु बलूचिस्तान एवं पश्चिमी प्रायद्वीप में पाया जाता है । प्रियंगु तिक्त तथा कषायरसयुक्त और शीतवीर्य होती है । यह वात, पित्त, रक्तातिसार, दुर्गंध, पसीना, दाह, ज्वर, गुल्म,तृषा, विष और मोह इन सब रोगों को दूर करती है ।
निवृत्याख्यां समारुह्य शिविकांस मनोहरे। वने षष्ठोपवासेन दीक्षां शिक्षामिवाग्रहीत् ।१५१।
उत्तरपुराण, पृ.—३४ भगवान पद्मप्रभु ने मनोहर नाम के वन में दीक्षा ग्रहण की।प्रतिष्ठा रत्नाकर के अनुसार भगवान पद्मप्रभु का दीक्षावृक्ष भी प्रियंगु है जिसका वर्णन किया जा चुका है ।
सुपार्श्वो मौनमास्थाय छाद्मस्थ्ये नववर्षक: । सहेतुकवने मूले शिरीषस्य द्वयुपोषित :।।४४।।
उत्तर पुराण,पृ.—४२ सहेतुकवन में दो दिन के उपवास का नियम लेकर वे शिरीष वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ हुये। शिरीष: (सिरस) शिरीषो मण्डिलो भण्डी भण्डीरश्च कपीतन:। शुष्कपुष्प: शुकतरुर्मृदुपुष्प: शुकप्रिय: ।।१३।। शिरीषो मधुरोऽनुष्णस्तिक्तश्च तवरो लघु: । दोष शोथविसर्पध्न: कासव्रणविषापह: ।।१४।। भा.प्र.नि., पृ.—५८शिरीष, माण्डिल, भण्डी, भण्डीर, कपीतन, शुकपुष्प, शुकतरु, मृदुपुष्प और शुकप्रिय ये सभी सिरस के संस्कृत नाम हैं। लेटिन नाम albizzia lebbeck benth. है । यह प्राय: सभी प्रान्तों में पाया जाता है । सिरस के वृक्ष बड़े—बड़े और सघन होते हैं। सिरस मधुर, तिक्त तथा कषायरसयुक्त, किञ्चित उष्ण, लघु एवं वातादिक दोष, शोध, विसर्प, कास (खासी), व्रण तथा विष को दूर करने वाला है ।
दिनद्वियोपवासित्वा वने सर्वर्तुकाहये। पौषे मास्यनुराधायामेकादश्यां महीभुजाम् ।।२१६।।
त्रीन मासान् जिनकल्पेन नीत्वा दीक्षावनान्तरे। अधस्तन्नागवृक्षस्य स्थित्वा षष्ठोपवासभृत।।२२३।।
उत्तर पुराण, पृ.—६० सर्वर्तुक वन (दीक्षा वन) में नागवृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर स्थिर हुये। नागवृक्ष नागपुष्प: स्मृतो नाग: केशरो नागकेशर:। चाम्पेयो नागकिञ्जल्क: कथित: काञ्चनाह्वय: ।।भा.प्र.नि.पृ.—२२४नागपुष्प, नाग, केशर , नागकेशर, चाम्पेय, नागकिञ्जल्क तथा काञ्वनाह्य ये सब नागकेशर के वृक्षवाची हैं। लेटिन नाम mesua fam guttiferae. है । यह पूर्वी हिमालय, आसाम, ब्रह्मा, दक्षिण हिन्दुस्तान और पूर्व बंगाल के पहाड़ों पर पाया जाता है । इसको बगीचों में भी लगाया जा सकता है । इसका वृक्ष छोटा सुन्दर होता है और सदा हरा भरा रहता है ।नागपुष्पं कषायोष्णं रूक्षं लघ्वामपाचनम् ।।७०।। ज्वरकण्डूतृषास्वेदच्छर्दिहृल्लासनाशनम्। दौर्गन्ध्य कुष्ठवीसर्प कफपित्तविषापहम् ।।७१।। भा.प्र.नि., पृ.—२३०नागकेशर का फूल कषायरसयुक्त, उष्णवीर्य, रुक्ष, लघु तथा आम को पचाने वाला होता है एवं यह ज्वर, खुजली, तृषा, पसीना, वमन, हृल्लास, दुर्गन्ध, कुष्ठ, कफ, पित्त और विष को दूर करने वाला होता है।
आरूह्य शिबिकां सूर्यप्रभाख्यां पुष्पके वने। मार्गशीर्षे सिते पक्षे प्रतिपद्यपराह्वके।।४६।।
दिनद्वयोपवास: सन्नधस्तान्नागभूरुह: । दीक्षावने विधूताध: प्राप्तानन्तचतुष्टय:।।५०।।
भगवान पुष्पक वन (दीक्षावन) में नाग वृक्ष के नीचे स्थित हुए और अनंतचतुष्टय को प्राप्त हुये। नागवृक्ष का वर्णन पूर्व में भगवान चन्द्रप्रभ के साथ किया जा चुका है ।
लब्धलौकान्तिकस्तोत्र: प्राप्तुत्कालपूजन:। शुक्रप्रभां समारुह्य सहेतुकवनान्तरे ।।४४।।
छाद्मस्थ्येन समास्तिस्रो नीत्वा बिल्वद्रुमाश्रय:। पोषकृष्ण चतुर्दश्यां पूर्वाषाढेऽपराह्व गे।।४८।।
उत्तर पुराण, पृ.—७४सहेतुकवन में बेल के वृक्ष के नीचे दो दिन के उपवास का नियम लेकर विराजमान हुये। बिल्व: (बेल) बिल्व: शाण्डिल्यशैलूषौ मालूरश्रीफलावपि। भा.प्र.नि. पृ.—२७४ बिल्व शाण्डिल्य, मालूर तथा श्रीफल ये सब बेल के संस्कृत नाम हैं। लेटिन नामaegle marmelos corr. fam. rutaceae है । यह आसाम, ब्रह्मा, बंगला, बिहार, अवध, झेलम, मध्य और दक्षिण हिन्दुस्तान तथा श्रीलंका में जंगली और प्राय: सभी स्थानों में एवं बागों में उत्पन्न होता है । इसका वृक्ष मध्यम आकार का ५० फुट से भी ऊंचा होता है । बेल बहुत पवित्र माना जाता है । सूतिकागार के निर्माण में एवं सूतिका के पलंग की लकड़ी बेल की लेने का चरकादि में विधान है । सुश्रुत ने मेधायुष्कामीय अध्याय में विशिष्ट पद्धति से ऋग्वेदोक्त श्रीसूक्त के द्वारा बिल्व की आहुति आदि का विधान किया है जिससे अलक्ष्मी का नाश एवं आयु वृद्धि होती है । श्री फलस्तुवरस्तिक्तो ग्राही रुक्षो$ग्निपित्तकृत। वातश्लेष्महरो बल्यो लघुरुष्णश्च पाचन:।।१३।। भा.प्र.नि., पृ.—२७४ बेल कषाय तथा तिक्त रसयुक्त, ग्राही, रुक्ष, अग्निवर्धक, पित्तकारक, वातकारक, वातकफनाशक, बलकारक, लघु, उष्णवीर्य तथा पाचक है ।
द्विसंवत्सरमानेन छाद्मस्थये गतवत्यसौ । मुनिर्मनोहरोद्याने तुम्बुरद्रमसंश्रय: ।।५१।।
उत्तर पुराण, पृ.—८२ इस प्रकार छद्मस्थ अवस्था के दो वर्ष बीत जाने पर एक दिन महामुनि श्रेयांसनाथ मनोहर नामक उद्यान में दो दिन के उपवास का नियम लेकर तुम्बरु वृक्ष के नीचे बैठे।
तुम्बरु तुम्बरु: सौरभ: सौरो वनज: सानुजोऽन्धक:।।११३।।
भा. प्र.नि., पृ.—५६ तुम्बरु, सौरभ, सौर, वनज, सानुज और अन्धक ये तुम्बरु फल के नाम हैं। लेटिन नामzanthoxylum alatum roxb.fam. rutaceae है । यह हिमालय की गरम तराइयों में जम्मू से भूटान तक, खासिया पहाड़, टेहरी गढ़वाल, नागपहाड़, विजिगापट्टम और गंजाम के पहाड़ों पर पाया जाता है । इसका वृक्ष झाड़ीदार या किंचित छोटे वृक्षवत् रहता है ।तुम्बरुप्रथितं तिक्तं कटूपाकेऽपि तत्कटु। रुक्षोष्ण दीपनं तीक्ष्णं रूच्यं लघुविदाहि च।।११४।। वातश्लेष्माक्षिकर्णोंष्ठिशिरोरुग्गुरुता कृमीन। कुष्ठशूलारुचिश्वासप्लीहकृच्छ्राणि नाशयेत।।११५।। भा.प्र.नि.,पृ.—५६तुम्बरु फल तिक्त तथा कटुरसयुक्त है और विपाक में भी कटुरसयुक्त है । यह रूक्ष, उष्णवीर्य, अग्निदीपक , तीक्ष्ण, रुचिजनक, पाक में लघु और विदाही होता है । यह वात, श्लेष्म, नेत्र, कर्ण, ओष्ठ तथा शिर के रोगों को एवं गुरुता (शरीर का भारीपन), कृमि, कुष्ठ, शूल, अरुचि, श्वांस, प्लीहा और मूत्रकृच्छ इन सब रोगों को भी दूर करता है ।
शिबिकां देवसंरूढामारूह्य पृथिवीपति:। वने मनोहरोद्याने चतुर्थोपोषितं वहन् ।।३७।।
कदम्ब वृक्षमूलस्थ: सोपवासोऽप्राह्वके।। माद्यज्योत्स्नाद्वितीयायां विशाखर्क्षे$भवज्जिन: ।।४२।।
उत्तरपुराण, पृ.—९०भगवान ने मनोहर नामक उद्यान में कदम्ब वृक्ष के नीचे बैठ कर उपवास का नियम लिया। कदम्ब कदम्ब: प्रियको नीपो वृत्तपुष्पो हलिप्रिय:। भा.प्र.नि., पृ.—४९५ कदम्ब, प्रियक, नीप, वृत्तपुष्प और हलिप्रिय ये सब संस्कृत नाम हैं। लेटिन नाम anthocephalus cadamba miq. fam.rubiaceae है । यह हिमालय के निचले भागों में नेपाल से पूर्व की तरफ वर्मा तक तथा दक्षिण में उत्तरी सरकार तथा पश्चिमी घाट में होता है । सभी स्थानों पर बागों में लगाया हुआ पाया जाता है । कदम्ब का वृक्ष ४०—५० फीट ऊंचा, बड़ा, छायादार होता है । कदम्बो मधुर: शीत: कषायो लवणो, गरु: । सरो विष्टम्भकृद्रूक्ष: कफस्तन्यानिलप्रद:।।भा.प्र.नि.पृ., —४९५ कदम्ब—मधुर, कषाय तथा लवण रसयुक्त, शीतल, गुरु, सारक, रुक्ष, वातविष्टम्भ (वायु का न खुलना) को उत्पन्न करने वाला, कफकारक, दुग्धवर्धक और वायुजनक होता है ।
देवदत्तां समारूह्य शिविकाममरैवृत:। विभु:सहेतुकोद्याने प्राव्राजीद्द्युपवासभाक।।
त्रिवत्सरमिते याते तपस्येष महामुनि: । निजदीक्षावने जम्बूद्रुममूले द्युपोषित: ।।४४।।
उत्तर पुराण,पृ.—१००भगवान सहेतुकवन उद्यान में (दीक्षावन) दो दिन के उपवास का नियम लेकर जामुन के वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ हुये। जम्बू (जामुन) जामुन की कई जातियां होती हैं लेकिन श्रेष्ठ राज जामुन है अत: उसका वर्णन किया गया है । फलेन्द्रा कथिता नन्दी राजजम्बूर्महा फला। तथा सुरभिपत्रा च महाजम्बूरपि स्मृता।भा.प्र.नि.,पृ,—५७० फलेन्द्रा, नदी, राजजम्बू, महाफला, सुरभिपत्रा और महाजम्बू ये सब संस्कृत नाम हैं। लेटिन नाम eugenia jambolana lam. myrtaccae है । यह अत्यन्त शुष्क भागों को छोड़कर सब प्रांतों में पाया जाता है । इसका वृक्ष बड़ा होता है और वह सदा हरा भरा रहता है । राजजम्बू फलं स्वादु विष्टम्भि गुरु रोचनम् ।।६९।। भा.प्र.नि., पृ.—५७० बड़ी जामुन का फल— स्वादिष्ट , विष्टम्भक, गुरु तथा रोचक होता है ।
सुरैस्तृतीयकल्याणपूजां प्राप्याधिरूढ़वान् । यानं सागरदत्ताख्यं सहेतुकवनान्तरे।।३१।।
संवत्सरद्वये यातेछाद्मस्थ्ये प्राक्तने वने। अश्वत्थपादपोपान्ते कैवल्यमुदपीपदत् ।।३५।।
उत्तर पुराण, पृ.१२३भगवान को सहेतुक वन में अश्वत्थ (पीपल) वृक्ष के नीचे केवलज्ञान उत्पन्न हुआ।
अश्वत्थ: (पीपल) बोधिद्रु: पिप्पलोऽश्वत्थश्चलपत्रो गजाशन:।
भा.प्र.नि., पृ.—५१३ बोधिद्रु, पिप्पल, अश्वत्थ, चलपत्र और गजाशन ये सब पीपल के संस्कृत नाम हैं । लेटिन ficus religiosa fam. moraceae है । पीपल के वृक्ष देश के प्राय: सभी प्रान्तों में लगाये हुये पाये जाते हैं।इसका वृक्ष बहुत ऊंचा होता है और खूब फैलता है । पीपल वृक्ष पवित्र माना जाता है ।
पिप्पलो दुर्जर: शीत: पित्तश्लेष्मब्रणास्रजित्। गुरुस्तुवरको रूक्षो वर्ण्यो योनिविशोधन: ।।३।।
भा.प्र.नि.,पृ.—५१३ पीपल कषायरसयुक्त, कठिनता से पचने वाला,शीतल, गुरु, रूक्ष, वर्ण को उत्तम बनाने वाला, योनि का शोधन करने वाला एवं पित्त, कफ, व्रण तथा रक्त विकार को दूर करने वाला है ।
शिबिकां नागदत्ताख्यामारूह्य सुरसत्तमै: । सह शालवनोद्यानं गत्वषष्ठोपवासवान् ।।३८।।
तथैकवर्षच्छद्मस्थकालेऽतीते पुरातने। वने सप्तच्छदस्याध: कृतषष्ठोपवासक:।।४२।।
उत्तर पुराण,पृ.—१३०शालवन के उद्यान में (पुरातन वन में) सप्तच्छद वृक्ष के नीचे दो दिन के उपवास का नियम लेकर योग धारण किया।
सप्तच्छद वृक्ष ” सप्तपर्ण: पत्रवर्ण: शुक्तिपर्ण: सुपर्णक:। सप्तच्छदो गुच्छपुष्पोऽयुग्मपर्णो मुनिच्छद: ।।३५।।
बृहत्त्वग्बहुपर्णश्च तथा शाल्मलिपत्रक:। मदगन्धो गन्धिपर्णो विज्ञेयो वङ्कि भूमित:।।३६।।
राजनिघण्टु, पृ.—४०१ सप्तपर्ण, पत्रपर्ण, शुक्तिपर्ण, सुपर्णक, सप्तच्छद, गुच्छपुष्प, अयुग्मपर्ण, मुनिच्छद, बृहत्वक्, बहुपर्ण, शाल्मलिपत्रक, मदगन्ध तथा गन्धिपर्ण, ये सब छतिवन के तेरह नाम हैं। सप्तपर्ण (सप्तच्छद) का वर्णन पूर्व में भ. अजितनाथ के साथ किया जा चुका है ।
बहुभिर्मुनिभि: सार्द्ध श्रीमान् चक्रायुधादिभि:। सहस्राम्रवनं प्राप्य नन्द्यावर्ततरोरध: ।।४८१।।
उत्तर पुराण, पृ.—२०९ भगवान ने सहस्राम्रवन में प्रवेश किया और नन्द्यावर्त वृक्ष के नीचे बेला के उपवास का नियम लेकर वे विराजमान हो गये। नन्द्यावर्त/ तगर राजकीय आयुर्वेद विद्यालय झांसी से सम्पर्क करने पर उनके द्वारा बतलाया गया कि तगर ही नन्द्यावर्त है ।
कालानुसार्य तगरं कुटिलं नहुषं नतम् । अपरं पिण्डतगरं दण्डहस्ती च बर्हिणम् ।।२८।।
तगरद्वयमुष्णं स्यात्स्वादु स्निग्धं लघु स्मृतम् । विषापस्मारशूलाक्षिरोगदोषत्रयापहम् ।।२९।।
भा.प्र.नि.,पृ.—१९९ दोनों प्रकार के तगर उष्णवीर्य स्वादिष्ट, स्निग्ध तथा लघु होते हैं। यह विष, अपस्मार (मिर्गी रोग), शूल, नेत्ररोग तथा त्रिदोष को दूर करने वाले होते हैं इस प्रकार का उल्लेख कूर्परादिवर्ग— भावप्रकाश निघण्टु में मिलता है । इसके वृक्ष हिमालय पहाड़ के साधारण भाग में काश्मीर से भूटान तक ४ हजार से १२ हजार फीट की ऊंचाई पर तथा खासिया के पहाड़ों पर ४ से ६ फीट की ऊंचाई पर बहुत पाये जाते हैं।
स्वयं सम्प्राप्य देवेन्द्रै: शिविकां विजयाभिधाम् । आरुह्यामरसंवाह्यां सहेतुकवनं प्रति ।।३८।।
निजदीक्षावने षष्ठेनोपवासेन शुद्धिभाक् । तिलकद्रुममूलस्थश्चैत्रज्योत्स्नापराह्वके ।।४२।।
उत्तर पुराण, पृ.—२१५भगवान सहेतुक वन (दीक्षा लेने के वन) में तिलक वृक्ष के नीचे विराजमान हुये। तिलक वृक्ष तिलक: क्षुरक: श्रीमान्पुरुषश्छिन्नपुष्पक:।।भा.प्र.नि.,पृ.—५०५ तिलक, क्षुरक, श्रीमान, पुरुष, छिन्न पुष्पक ये सब तिलक के संस्कृत नाम हैं। लेटिनwendlandia exerta dc fam. rubiaceae. है । यह हिमालय के उष्णप्रदेशीय शुष्क जंगलों में चेनाब से नेपाल तक ४००० फीट की ऊंचाई तक एवं उड़ीसा, मध्यभारत, कोंकण एवं उत्तरी डेक्कन में पाया जाता है । यह खुली हुई और छोटी—छोटी वनस्पतियों से रहित भूमि जैसे नालों के ढालों पर अधिक होते हैं। इसके वृक्ष सुन्दर, झुके हुये तथा छोटे होते हैं। पुष्पकाल (मार्च— अप्रैल) में वृक्ष का शिखर चांदनी से ढ़का मालूम होता है ।
तिलक: कटुक: पाके रसे चोष्णो रसायन:। कफकुष्ठक्रिमीन्वस्तिमुखदन्तगदान्हरेत् ।।५६।।
भा.प्र.नि., पृ.—५०५ तिलक पाक तथा रस में कटु, उष्ण, रसायन एवं कफ, कुष्ठ,कृमि, वस्ति — मुख—दन्त संबंधी रोगों को दूर करने वाला है । निघण्टुओं में वर्णित इस तिलक वृक्ष के बारे में अभी तक किसी को पता नहीं था कि यह वृक्ष कैसा होता है तथा इसका लेटिन नाम क्या है । सर्वप्रथम ठा. बलवंत सिंह जी ने अपनी पुस्तक बिहार की वनस्पतियाँ (पृष्ठ ६८) में अनेक प्रमाणों के आधार पर तिलक कोwendlandio exerta dc सिद्ध किया है तथा इसका वैज्ञानिक वर्णन किया है । इसके जंगलों में प्रचलित स्थानिक नाम, शास्त्रीय परिचयात्मक पर्याय तथा प्रचलित गुणधर्म सभी आधारों से यह तिलक सिद्ध होता है ।
शिविकां वैजयन्त्याख्यां सहेतुकवनं गत:। दीक्षां षष्ठोपवासेन रेचत्यां दशमीदिने।।३३।।
ततो दीक्षावने मासे कार्तिके द्वादशीदिने। रेवत्यां शुक्लपक्षेऽपराह्णे चूततरोरध:।।३७।।
उत्तर पुराण, पृ.—२२०भगवान सहेतुक वन (दीक्षावन) में आम्रवृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर विराजमान हुये। आम्रवृक्ष आम्रश्चूतो रसालश्च सहकारोऽतिसौरभ:। कामाङ्गो मधुदूतश्च माकन्द: पिकबल्लभ:।।भा.प्र.नि.,पृ.—५५० आम का लेटिन नाम mangifera indica linn fam. anacardiaceae है । आम का वृक्ष सभी जगह पाया जाता है । इसका वृक्ष बड़ा होता है । कृत्रिम रीति से पकाये गये आम के फल के गुण—आम्रं कृत्रिम पक्वञ्च तद्भवेत्पित्तनाशनम् । रसस्याम्लस्य हीनस्तु माधुर्याच्च विशेषत:।।०७।। चूषितं तत्परं रूच्यं बलवीर्यकरं लघु। शीतलं शीघ्रपाकि स्याद्वातपित्तहरं सरम् ।।१८।।भा.प्र.नि.पृ.—५५०यदि आम का फल कृत्रिम रीति से पकाया गया हो तो वह पित्तनाशक होता है क्योंकि उसमें का अम्लरस निकल जाता है तथा मधुर रस की विशेषता हो जाती है । यदि वह चूसा जाये तो अत्यन्त रुचिजनक, बलवीर्यकारक, लघु, शीतल, शीघ्र हजम होने वाला, सारक एवं वात—पित्तनाशक है ।१९६
गत्वाश्वेतवनोद्यानमुपवासद्वयान्वित: । स्वजन्ममासनक्षत्रदिनपक्षसमाश्रित:।।४७।।
दिनषट्के गते तस्य छाद्मस्थ्ये प्राक्तने वने। अधस्तरोरशोकस्य त्यक्ताहद्वितयाद् गत: ।।५१।।
पूर्वाेक्तवन (श्वेतवन) में अशोकवृक्ष के नीचे दो दिन के लिए गमानागमन त्याग कर दिया।
अशोकवृक्ष अशोको हेमपुष्पश्च वञ्जुलस्ताम्रपल्लव:। कङकेलि: पिण्डपुष्पश्च गन्धपुष्पो नटस्त्था ।।४७।।
भा. प्र. नि., पृ.— ५०० अशोक, हेमपुष्प, वञ्जुल, ताम्रपल्लव, कङकेलि, पिण्डपुष्प, गन्धपुष्प, नट संस्कृत नाम हैं। लेटिन नाम saraca indica fam. anacardiaceae है । यह मध्य और पूर्वी हिमालय, पूर्व बंगला और दक्षिण भारत में पाया जाता है । बंगाल में इसका अधिक आदर है और प्राय:वहां की सब वाटिकाओं में देखा जाता है । इसका वृक्ष बड़ा, सीधा और झोपड़ाकार होता है तथा यह बारहाें मास हरा भरा दिखाई पड़ता है ।
अशोक: शीतलस्तिक्तो ग्राही वर्ण्य: कषायक:। दोषापचीतृषादाहकृमिशोषविषास्रजित् ।।
भा.प्र.नि., पृ.—५०० अशोक तिक्त तथा कषायरसयुक्त, शीतल, ग्राही , शरीर के वर्ण को उत्तम करने वाला एवं वातादिदोष, अपच, तृषा, दाह, कृमि, शोष, विष और रक्तविकार को दूर करने वाला है ।
प्राप्य षष्ठोपवासेन वनं नीलाभिधानकम् । वैशाखे बहुले पक्षे श्रवणे दशमीदिने ।।४१।।
मासोनवत्सरे याते छाद्मस्थ्ये स्वतपोवने । चम्पकद्रुममूलस्थो विहितोपोषितद्वय:।।४६।।
उत्तर पुराण, पृ.—२४७ भगवान ने दीक्षा लेने के वन (नील वन) में चम्पक वृक्ष के नीचे स्थित होकर दो दिन के उपवास का नियम लिया।
चम्पक वृक्ष चाम्पेयश्चम्पक: प्रोक्तो हेमपुष्पश्च स स्मृत:। एतस्य कलिका गन्धफलेति कथिता बुधै:।।३१।।
भा.प्र.नि., पृ.—४९३ चाम्पेय, चम्पक, हेमपुष्प ये सब संस्कृत नाम हैं । इसकी कली को पण्डित लोग गन्धफली कहते हैं । लेटिन नाम saraca indica linn fam. leguminosae है । चम्पा के वृक्ष प्राय: वाटिकाओं में रोपड़ किये जाते हैं किन्तु हिमालय में ३००० फुट तथा आसाम, पश्चिमी घाट एवं दक्षिण भारत में वन्य अवस्था में भी पाया जाता है । इसका वृक्ष छोटा करीब २० फीट ऊंचा होता है और बारहों माह हरा भरा रहता है ।
चम्पक: कटुकस्तिक्त:, कषायो मधुरो हिम:। विषक्रिमिहर: कृच्छ्रफवातास्रपित्त जित् ।।३२।।
चम्पा कटु—तिक्त—कषाय—मधुर रसयुक्त, शीतल एवं विष, कृमि, मूत्रकृच्छ, कफ, वात, रक्तविकार या वातरक्त और पित्त को दूर करने वाला है ।
गत्वा चैत्रवनोद्यानं षष्ठोपवसनं श्रित:। आषाढकालपक्षेऽश्विननक्षत्रे दशमीदिनं।।५४।।
छाद्मस्थ्येन तत: काले प्रयाते नववत्सरे। निजदीक्षावने रम्ये मूले वकुलभूरुह:।।५७।।
उत्तर पुराण, पृ.—३३५भगवान दीक्षावन (चैत्रवन) में मनोहर वकुल वृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर ध्यानारूढ़ हुये।
बकुल वृक्ष बकुलो मधुगन्धश्व सिंहकेसरकस्तथा।
बकुल, मधुगन्ध, सिंहकेसरक ये मौलसिरी के संस्कृत नाम हैं। लेटिन नाम mimuscops elengi fam. sapotceae है । शोभा तथा सुगंध के लिए यह सभी जगह बागों में लगाया हुआ पाया जाता है । दक्षिण तथा अंडमान में अधिक होता है । इसके वृक्ष ५० फीट तक ऊंचे, सघन, चिकने पत्तों से युक्त, झोपड़ाकार और सुहावने दिखाई पड़ते हैं तथा बारहों मास हरे भरे रहते हैं।
वकुलस्तुवरोऽनुष्ण: कटुपाकरसो गुरु: । कफपित्तविषश्वित्रकृमिदन्तगदापह:।।३३।।
भा.प्र.नि.,पृ.—४९४ मौलसिरी कषाय रसयुक्त, किंचित उष्ण, पाक तथा रस में कटु, गुरु एवं कफ, पित्त, विष, श्वेतकुष्ठ, कृमि एवं दांतों के रोगों को दूर करने वाला है ।
शिबिकां देवकुर्वाख्यामारुह्यामर वेष्ठित:। सहस्राम्रवने षष्ठानशन: श्रावणे सिते।।१६९।।
एवं तपस्यतस्य षट् पञ्चाशद्छिनप्रये । छद्मस्थसमये याते गिरैरैवतकामिघे।।१७९।।
षष्ठोपवासयुक्तस्यमहावेणोरध: स्थिते:। पूर्वेऽह्न्यश्वयुजं मासिशुक्लपक्षादिमे।।१८०।।
भगवान रैवतक (गिरनार) पर्वत पर तेला का नियम लेकर किसी बड़े भारी बांस के वृक्ष के नीचे विराजमान हो गये ।
बांस (वंश) वंशस्त्वक्सारकर्मारत्वचिसारतृणध्वजा:। शतपर्वा यवफलो वेणुमस्तकरतेजना।।१५३।।
भा.प्र.नि., पृ.—३७६ उपरोक्त श्लोक में बांस के संस्कृत नाम दिये हैं। लेटिन नामbambusa arundindinace a willd fam. gramiceac है । बांस देश के सभी प्रांतों में उत्पन्न किया जाता है और छोटी—छोटी पहाड़ियों के आस—पास आप ही आप जंगली भी उत्पन्न होता है ।
वंश: सरोहिम: स्वादु: कषायो बस्तिशोधन:। छेदन: कफपित्तधन: कुष्ठास्रव्रणशोथजित्।
भा. प्र. नि., पृ.-३७६ बांस सारक, शीतवीर्य, स्वादिष्ट, कषायरस युक्त, वस्तिशोधक, छेदक, कफपित्तनाशक एवं कुष्ठ रक्तविकार, व्रण तथ शोथ इन सब को दूर करता है ।
विधायाष्टममाहारत्यागमश्ववने महा।शिलातले महासत्त्वः पल्यंकासनमास्थितः।।१२८।।
नयन्स चतुरोमासान् छाद्मस्थ्येन विशुद्धिभाक्। दीक्षाग्रहवने देवदारु भूरिमहीरुह:
उत्तर पुराण, पृ.—४३८भगवान ने जिस वन में (अश्ववन) दीक्षा ली थी उसी वन में जाकर वे देवदारु नामक एक बड़े वृक्ष के नीचे विराजमान हुये।
देवदारु वृक्ष देवदारु स्मृतं दारुभद्रं दार्विन्द्र दारु च। मस्तदारु द्रुकिलिमं किलिमं सुरभूरुह:।।२४।।
भा.प्र.नि., पृ.—१९६ देवदारु, दारुभद्र, दारु, इन्द्रदारु,मस्तदारु, द्रकिलिम, किलित और सुरभरूह संस्कृत नाम हैं । लेटिन नामcedrus deodara (roxb.)loud fam pinaceac है । पश्चिमोत्तर हिमालय में कुमाऊँ से पूर्व की ओर यह पाया जाता है । जौनसार और गढ़वाल में ७ से ८.५ हजार फीट के बीच का भाग देवदारु वृक्षमाला का प्रधान उत्पत्ति स्थान है । इसका वृक्ष बहुत विशाल, चिरायु, सुन्दर, १६० से १८० फीट तक ऊंचा तथा कहीं कहीं इससे अधिक ऊंचा होता है ।
देवदारु लघु स्निग्धं तिक्तोष्णं कटुपाकि च ।
विबन्धाध्मानशोथामतन्द्राहिक्काज्वरास्रजित्।
प्रमेहपीनसश्लेष्मकासकन्डूसमीरनुत् ।।२५।।
भा.प्र.नि., पृ—१९६ देवदारु— लघु, स्निग्ध, तिक्त, रसयुक्त, उष्णवीर्य, विपाक में कटुरसयुक्त एवं बिवंध,आध्मान, शोथ, आम, तन्द्रा, हिचकी, ज्वर, रक्तदोष, प्रमेह, पीनस, कफ, खांसी, खुजली तथा वायु को नष्ट करने वाला होता है ।
ऋजुकूलानदीतीरे मनोहरवनान्तरे। महारत्नशिलापट्टेप्रतिमायोगमावसन् ।।३४९।।
स्थित्या षष्ठोपवासेन सोऽधस्तात्सालभूरुह:। वैशाखे मासि सज्योत्स्नदशम्याम पराह्णके ।।३५०।।
उत्तर पुराण,पृ.—४६६भगवान ऋजुकूला नदी के किनारे मनोहर नामक वन के मध्य में रत्नमयी एक बड़ी शिला पर सालवृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर प्रतिमायोग से विराजमान हुये।
शाल वृक्ष शालस्तु सर्जकार्श्याश्वकर्णका: शस्यशम्बर: ।
भा.प्र.नि., पृ.—५२० शाल, सर्ज, कार्श्य, अश्वकर्णक और शत्यशम्बर ये साल के संस्कृत नाम हैं। लेटिन नाम shorea robusta gaertn. fam. dipterocarpaceae है ।
अश्वकर्ण: कषाय: स्वाद्व्रणस्वेदकफक्रिमीन। ब्रध्नविद्रधिबाधिर्ययोनिकर्णगदान् हरेत।।१९।।
भा. प्र. नि., पृ.—५२० साल—कषाय रसयुक्त एवं व्रण, स्वेद, कफ, कृमि, ब्रध्न, विद्रधि, बहरापन एवं योनि तथा कर्ण संबंधी रोग को दूर करने वाला है ।
१. आदिपुराण, भाग—एक, आचार्य जिनसेन, संपादक एवं अनुवाद— डॉ. पन्नालाल जैन, प्रकाशक— भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, पाँचवां संस्करण, १९९६।
२. उत्तर पुराण— आचार्य गुणभद्र, संपादन एवं अनुवाद—पं. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, प्रकाशक—भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, चौथा संस्करण, १९९३।
३. प्रतिष्ठा रत्नाकर, पं. पन्नालाल जैन साहित्याचार्य, जैन साहित्य सदन, चांदनी चौक, दिल्ली।
४. श्री चौबीसी पुराण, पं. गुलाबचंद्र ‘पुष्प’ प्रीतविहार, जैन समाज (पंजी), दिल्ली—९२, प्रथम संस्करण।
५. कल्पद्रुम विधान, कविवर राजमल पवैया, प्रकाशक—अखिल भारतीय जैन युवा फेडरेशन, जयपुर २००१।
६. स्मारिका पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, आयोजन और प्रयोजन—मुनि समतासागर, प्रकाशक—श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र पंचकल्याणक समिति, भोपाल।
७. भावप्रकाश निघण्टु, गंगा सहाय पाण्डेय, कृष्णचंद्र चुनेकर चौखम्बा भारतीय अकादमी, वाराणसी, पुनर्मुद्रित २००४।
८. राज निघण्टु—श्री मन्नरहरि पंडित, हिन्दी व्याख्याकार—इन्द्रदेव त्रिपाठी, कृष्णदास अकादमी, चौखम्बा प्रेस, वाराणसी, संस्करण—१९८२।
९. वन विधि संग्रह, डॉ. राधेश्याम द्विवेदी, सुविधा लॉ हाउस प्रा. लि., भोपाल।
१०. जैन तत्व विद्या, मुनि प्रमाणसागर, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, सांतवाँ संस्करण।