शंका—यहां यह बात स्पष्ट ज्ञात हो गई, कि जीव कर्मों का कर्ता है, भोक्ता है, तथा वह अपने प्रयत्न द्वारा मोक्ष भी जाता है। कर्मों के निमित्त से संसार में जीव भ्रमण करता है। इस कथन में निमित्त कारण का महत्व ज्ञात होता है। हमने कुछ लोगों से सुना था, निमित्त कुछ नहीं करता है। कार्य के समय वह उपस्थित मात्र रहता है। इस निमित्त उपादान के बारे में कुन्दकुन्द स्वामी की क्या देशना है ?
समाधान—कुन्दकुन्द मुनिराज उपादान कारण के साथ निमित्त कारण का भी महत्व स्वीकार करते हैं। परमागम में कहा है ‘‘कारणद्वय—सानिध्यात्, सर्वकार्यसमुद्भव’’ दोनों कारणों के होने पर सभी कार्य होते हैं। (उत्तरपुराण) महान् आचार्य समन्तभद्र कहते हैं—
बाह्येतरोपाधि समग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगत: स्वभाव:।। ‘वासुपूज्य भगवान का स्तवन ६०’
बाह्य उपाधि अर्थात् निमित्त कारण, अंतरंग उपाधि अर्थात् उपादान कारण की परिपूूर्णता कार्य में आवश्यक है। यह पदार्थ का स्वभाव है। ‘उदाहरणार्थ हमारे समक्ष काष्ठ का आसन है। इसमें उपादान कारण रूप लकड़ी है तथा उस काष्ठ को बढ़ई ने अपना श्रम तथा बुद्धि की सहायता प्रदान करके काष्ठासन रूप दिया है। कभी काष्ठ रूप उपादान सामग्री रहती है और बढ़ई रूप निमित्त कारण नहीं रहता, तब उस निमित्त कारण को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न किया जाता है। कभी निमित्त कारण बढ़ई मौजूद रहता है किन्तु उपादान रूप सामग्री नहीं रहने पर उसके लिए प्रयत्न होता है। दोनों के होने पर कार्य होता है। सरोवर में पानी की लहरें दिखाई देती हैं। उन लहरों के होने में जलरूप उपादान तथा पवन संचाररूप निमित्त जरूरी है। निमित्त का महत्व: मोक्ष के हेतु वस्त्र त्यागरूप निमित्त कारण का महत्व है। कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं—
णवि सिज्झइ वत्थधरो जिण सासणे जइ वि होइ तित्थयरो।
णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे।।२३।।सूत्रपाहुड
तीर्थंकर होते हुए भी वस्त्रधारी होने पर वे सिद्ध नहीं बनते, ऐसा जिनशासन में कहा है। मोक्ष का मार्ग दिगम्बरत्व है। शेष वेषधारी उन्मार्गी हैं। यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि वस्त्र धारण करने से मनुष्य कषाय विमुक्त नहीं हो सकता। वस्त्रों के प्रति यदि ममत्व तथा आसक्ति का अभाव हो तो उन्हें शरीर पर धारण करने का क्या प्रयोजन है? उस सामग्री के रहने पर मनुष्य की एकाग्रता तथा स्वोन्मुखता में विघ्न आता है। जीव अकारण बहिर्मुख बनता है।
चाह घटी चिंता हटी मनुआ बेपरवाह। जिन्हें कछू नहिं चाहिए वे शाहन के शाह।।
एकांतवादियों का आश्रय : एकांतवादी समयसार की इस गाथा को अपना आश्रय बनाते हैं—
ववहारिओ पुण णओ दोण्णिवि लिंगाणि भणइ मोक्खपहे।
णिच्छयणओ ण इच्छइ मोक्खपहे सव्वलिंगाणि।।४१४।।
व्यवहारनय मोक्षपथ में श्रावक तथा मुनिमुद्रा को कारण कहता है, किन्तु निश्चयनय मोक्षपथ में किसी भी लिंग को कारण नहीं मानता। इस गाथा के आधार पर एकांतवादी बाह्य दिगम्बर मुद्रा को हृदय से अनावश्यक मानते हैं । श्वेताम्बर साधुओं के समान उनकी परिकल्पना इस श्लोक में दी गई है।
न श्वेताम्बरत्वे न दिगम्बरत्वे न तत्त्ववादे न च तर्कवादे।
न पक्षमेवाश्रयणेन मुक्ति कषायमुक्ति: किल मुक्तिरेव।।
चाहे तुम श्वेताम्बर रहो, चाहे दिगम्बर बनो, तत्त्ववाद को मानो या तर्कवेत्ता बनो अथवा किसी पक्ष विशेष का आश्रय लो, तुमको मोक्ष नहीं प्राप्त होगा। सच्चा मुक्ति का मार्ग कषायों से मुक्त होना है। विचारणीय रहस्य : यह बात, कि कषायों के क्षय से निर्वाण प्राप्त होता है, मिथ्या नहीं हैं किन्तु क्या धन, धान्यादि, स्त्री, पुत्रादि के मध्य रहने वाला वस्त्रधारी गृहस्थ लोभ कषाय से मुक्ति को पा सकेगा? जिसके लिए तीर्थंकर दिगम्बर रूप अंगीकार करते हैं। तीर्थंकरों ने परिग्रह त्याग करके दिगम्बर मुद्रा धारण की थी। जैनधर्म संबंधी प्राचीनतम मूर्तियाँ दिगम्बर मुद्रायुक्त प्राप्त होती हैं। एक भी प्राचीन जैन मूर्ति नहीं मिली है जो यह ज्ञापित करे कि वस्त्रादिधारी होते हुए भी परमात्म पद की प्राप्ति होती है। सूफी शायर का कथन मार्मिक है—
है नजर धोबी पै जामा पोश की है तजल्ली जेवरे उरियातनी।।
वस्त्र धारण करने वाले की दृष्टि धोबी पर जाती है। स्व. सिद्धान्तभूषण ब्र. रतनचन्द्रजी सहारनपुर को उच्च कर्मसिद्धांत की चर्चा हेतु एक श्वे.साधु महाराज ने उन्हें आदरपूर्वक अपने यहाँ बुलाया। ब्र. जी श्वे. साधु के निवासगृह में पहुंचे तो वे मुनिजी कपड़ो में साबुन लगा धुलाई में मग्न थे। उसे देख ब्र.रतनचंद्रजी कहते हुये लौट गए कि मैं यहाँ साधु के पास आया था, इन वस्त्रों ने तो आपको धोबी बना दिया। वस्त्रादि परिग्रह जीव को बहिर्मुख बनाते हैं। मुक्ति का हेतु अंतर्मुखता है यह नहीं भूलना चाहिए। दिगम्बर पद तो दिव्य आभूषण रूप है। दशलक्षण पूजा का यह कथन अनुभवपूर्ण है कि दिगम्बर मुद्रा धारण किए बिना समता की प्राप्ति नहीं होती।
पावै न समता सुख कभी नर बिना मुनि मुद्रा धरै। धनि नगन पर तन नगनि ठाड़े सुर—असुर पायनि पड़े।।
वस्त्र धारण रूप छोटा सा निमित्त कारण जीव को शुक्लध्यान करने में असमर्थ बना देता है। जैसे खटमलों से भरी हुई खाट पर सोने वालों को नींद नहीं आती उसी प्रकार परिग्रह भी जीव को सच्चिदानंद रूप की प्राप्ति में बाधा पैदा करता है। प्रश्न—मोक्ष जाने में दिगम्बर मुद्रा की उपयोगिता ज्ञात हुई, किन्तु क्या दिगम्बर वेष मात्र से मोक्ष प्राप्त हो जाएगा? समाधान—अंतरंग निर्मलता रहित नग्नता मोक्ष का कारण नहीं है। इस विषय में कुन्दकुन्द ऋषि कहते हैं—
णग्गो पावइ दुक्खं णग्गो संसार सायरे भमइ।
णग्गो न लहइवोहिं जिण—भावण—वज्जिओ सुइदं।।भावपाहुड।। ६८।।
जिन रूप निर्मल भावनाशून्य नग्न व्यक्ति दु:ख भोगता है, वह भावशून्य नग्न जीव संसार सागर में भ्रमण करता है तथा चिरकाल तक बोधि (रत्नत्रय) को प्राप्त नहीं करता है। आचार्य कहते हैं—
कम्मपयडीण णियरं णासइ भावेण दव्वेण।।५४।। भावपाहुड
कर्मप्रकृतियों के समुदाय का क्षय द्रव्य तथा भाव रूप से दिगम्बरत्व द्वारा संपन्न होता है। संस्कृत टीका का यह स्पष्टीकरण उपयोगी है, ‘‘भाव—द्रव्य लिंगाभ्यां कर्म प्रकृति निकरो नश्यति न त्वेकेन भावमात्रेण, द्रव्यमात्रेण वा कर्म क्षयो भवति।’’ (षट्प्राभृत टीका, पृष्ठ २०२) तीर्थंकर भगवान् दीक्षा लेते समय अन्तरंग—बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग करते हैं।