=सांख्य मत==सांख्या निरीश्वरा: केचित् केचित् ईश्वरदेवता:। सर्वेषामपि तेषां स्यात्तत्त्वानां पंचविंशति:।।(षड् द.पृ.१४५२)कुछ सांख्य ईश्वर को नहीं मानकर केवल अध्यात्मवादी हैं। कुछ सांख्य ईश्वर को ही देवता मानते हैं । सभी सेश्वर तथा निरीश्वर सांख्य साधारण रूप पच्चीस तत्त्वों को स्वीकार करते हैं। सांख्य के मत में सत्त्व रज और तम ये तीन गुण हैं । प्रसाद, ताप तथा दीनता आदि कार्यों से क्रमश: उनका अनुमान होता है। एक दूसरे का उपकार करने वाले परस्पर सापेक्ष इन सत्त्वादि तीन गुणों से समस्त जगत् व्याप्त है। इन सत्त्वादि गुणों की समस्थिति ही प्रकृति कही जाती है। प्रकृति और आत्मा के संयोग से ही उत्पन्न होती है।‘‘संक्षेपेण हि सांख्यशास्त्रस्य चतस्रो विद्या: संभाव्यंते। कश्चिदर्थ: प्रकृतिरेव कश्चिद् विकृतिरेव, कश्चित् विकृति: प्रकृतिश्च, कश्चिदनुभय इति’’ (सर्व द.पृ. २५६)संक्षेप से सांख्यशास्त्र में पदार्थ के चार क्रम हैं । कोई पदार्थ केवल प्रकृति ही हैं , कोई केवल विकृति रूप हैं, कोई प्रकृति विकृति रूप एवं कोई प्रकृति विकृति से भिन्न अनुभय रूप है।मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्या: प्रकृतिविकृतय: सप्त। षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृति: पुरूष:।। (सांख्य का. ३)अर्थ— इनमें प्रकृति किसी का विकार—कार्य नहीं है अत: मूल प्रकृति विकृति रहित है। महान् अहंकार और पांच तन्मात्रायें ये सात प्रकृति और विकृति दोनों रूप हैं —अर्थात् कारण—कार्य रूप हैं । षोडश गणमात्र विकृति रूप ही हैं क्योंकि वे कार्य हैं। पुरूष तो न किसी को उत्पन्न करता है, न किसी से उत्पन्न होता है अत: कारण कार्य रूप न होने से प्रकृति विकृति से रहित है। ==सांख्य के २५ तत्त्व== प्रकृति से महान (बुद्धि) उत्पन्न होती है, बुद्धि से अहंकार, अहंकार से सोलहगण उत्पन्न होते हैं । षोडशगण— स्पर्शन, रसन , घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पांच बुद्धीन्द्रियाँ, पायु, उपस्थ, वाणी, हस्त, पाद ये पांच कर्मेन्द्रिय तथा मन ये ग्यारह इन्द्रियां तथा रूप रस, गंध , स्पर्श और शब्द ये पांच तन्मात्रायें मिलकर सोलह गण कहलाते हैं। पांच तन्मात्राओं से पांच भूतों की उत्पत्ति होती है, यथा —रूप से अग्नि , रस से जल, गन्ध से पृथ्वी, शब्द से आकाश और स्पर्श से वायु उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार से सांख्य मत में प्रकृति आदि चौबीस तत्वरूप में परिणत होने वाला प्रधान तत्त्व है। स्वयं प्रकृति, महान् , अहंकार ये तीन , सोलह गण, और पांच भूत मिलकर चौबीस तत्त्व होते हैं। इनसे भिन्न पच्चीसवां पुरूषतत्व है जो अकर्ता , निर्गुण, भोक्ता, नित्य और चैतन्य स्वरूप है।अमर्तश्चेतनो भोगी नित्य: सर्वगतोऽक्रिय: । अकर्ता निर्गुण: सूक्ष्म: आत्मा कापिलदर्शने।।अर्थ—आत्मा अमूर्त, चेतना, भोक्ता, नित्य, सर्वगत, निष्क्रिय, अकर्ता, निर्गुण और सूक्ष्म है ऐसा सांख्यमत में कहा है। सांख्य के यहां मोक्ष— प्रकृति के वियोग का नाम मोक्ष है, वह प्रकृति तथा पुरूष में विज्ञान रूप तत्त्वज्ञान से होता है। सांख्यमत में प्रत्यक्ष , अनुमान और आगम ये तीन प्रमाण हैं। ==सांख्य के प्रमाण का लक्षण—== ‘‘अर्थोपलब्धिहेतु: प्रामणं’’ अर्थोपलब्धि में जो साधकतम कारण है वह प्रमाण है। उसमें निर्विकल्प श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्ति को प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। पूर्ववत् , शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट के भेद से अनुमान के तीन भेद हैं। आप्त और वेदों के वचन आगम प्रमाण हैं इनके यहां ‘पतञ्जति’ सेश्वरसांख्य शास्त्र के प्रवर्तक माने गये हैं। इनके यहां छब्बीसवां तत्त्व ‘ईश्वर’ है। ‘‘प्रकृति इस संसार का आदि कारण है,यह एक नित्य तथा जड़ वस्तु है, सर्वदा परिवर्तनशील है। तत्त्व, रज, तभ ये प्रकृति के तीनगुण या उपादान हैं, सृष्टि के पहले ये तीन गुण साम्यावस्य में रहते हैं, ये संसार के विषय सुख, दु:ख या मोहजनक है, सुख दु:ख या विषाद होने के कारण हम इन तीन गुणों का अनुमान करते हैं…….. पुरुष और प्रकृत्ति के संयोग से सृष्टि प्रारम्भ होता है। पुरूष न तो किसी का कारण है न कार्य है , वह निरपेक्ष तथा नित्य है।’’ (भारतीय द.पृ. २७) इनके यहां चित्त वृत्ति के निरोध को योग कहते हैं। सेश्वर सेश्वर सांख्य ने ईश्वर की सत्ता मानकर यम,नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि—योग से आठ अंगों का प्रतिपादन किया है। इनके यहां प्रधान के दो भेद हैं— अव्यक्त और व्यक्त अव्यक्त । प्रधान कारण है और व्यक्त प्रधान कार्य है । इनमें व्यक्त प्रधान हेतुमान् , अव्यापि, सक्रिय, अनेक , अश्रित, लिंग, साक्यव और परतन्त्र है। लेकिन श्रव्यक्त इनसे विपरीत अहेतुमान् एक इत्यादि रूप है। ये दोनों ही प्रधान त्रिगुणात्मक हैं— सत्त्व, रज, तम, रूप हैं। अविवेकी, विषय सामान्य, अचेतन और प्रसवधर्मी हैं। परन्तु पुरूष में त्रिगुण आदि नहीं है। प्रधान से उत्पन्न हुआ सारा जगत प्रधान रूप है। सांख्य किसी भी पदार्थ की उत्पत्ति और नाश नहीं मानते हैं। किन्तु आविर्भाव और तिरोभाव मानते हैं , ये कूटस्थ, अपरिणामी नित्य एकांत को स्वीकार करते हैं। इनके यहां सत्कार्यवाद की मान्यता बड़ी ही विचित्र है । इसका कहना है कि कारण में कार्य सदैव विद्यमान रहता है कारणों से उत्पन्न नहीं होता है। कार्य कारणों से अभिव्यक्त—प्रगट होता है। मिट्टी में घट विद्यमान है कुंभार, दण्ड चक्र आदि निमित्तों से प्रगट हो गया है आदि। नित्र्यकांत की ये सब बातें प्रत्यक्षविरूद्ध है। सांख्यों के यहाँ ज्ञान पुरूष का गुण न होकर अचेतन प्रकृति का परिणाम है । मोक्ष में प्रकृति का संयोग समाप्त होते ही ज्ञान का भी अभाव हो जाता है । उपसंहार— सांख्य ने अचेतन को सृष्टि कत्र्री माना है यह सर्वथा असम्भव है। आत्मा को कूटस्थ नित्य मानने से उसमें रागादि पारिणाम न होने पर जड़कर्मों का बंध असम्भव है एवं ज्ञान और सुख आत्मा के स्वभाव हैं न कि जड़ प्रकृति के। इसलिये सांख्य के २५ तत्वों की मान्यता बिल्कुल असंगत है। आत्मा को निर्गण, निष्क्रिय, अकर्ता मानना नितांत भूल है। प्रकृति के अपराध के आत्मा संसार में दु:ख उठावे यह बात तो स्वयं उनके कूटस्थ नित्य मत का निराकरण कर लेती है। इनके द्वारा मान्य मोक्ष तत्व का भी कथन विरूद्ध है। क्योंकि ये ज्ञानमात्र से मोक्ष मानते हैं क्या आज तक कोई औषधि के जानने मात्र से स्वस्थ हुये हैं। इनका सत्कार्यवाद भी भी बड़ा विचित्र है मिट्टी में सदा घट को विद्यमान कहना और कुमार आदि से उसकी प्रकटता बिल्कुल गलत है। हां! शक्तिरूप से मिट्टी में घट को हम जैन भी मान लेते हैं। जैसे कि संसारी आत्मा में परमात्मा शक्ति रूप से है। इनके प्रमाण और प्रमेय दोनों की व्यवस्था भी अघटित है। ये सर्वथा नित्य एकांतवादी हैं यदि कथंचित् आत्मा को कर्ता, भोक्ता मान लें तो बहुत ही अच्छा हो जावे । तब तो स्याद्वाद शासन ही उन्हें श्रेयस्कार हो जावे। नैयायिक मत के प्रस्थापक गौतम मुनि है । इस न्याय दर्शन का दूसरा नाम अक्षपाद दर्शन है। ‘‘प्रमाणप्रमेयेत्यादितत्त्वज्ञानन्नि: श्रेयसाधिगम:’’ यह न्याय शास्त्र का प्रथम सूत्र है। प्रमाण प्रमेय इत्यादि तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है।‘‘तच्चतुविधं प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दभेदात् । प्रमेयं द्वादशप्रकारं, आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिान: प्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदु:खापवर्गभेदात् ’’ । (सर्व दर्शन सं.पृ. २०१)प्रमाण के चार भेद हैं— प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम। प्रमेय के बारह भेद हैं— आत्मा, शरीर, इन्द्रिय,अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव, फल, दु:ख और अपवर्ग। नैयायिक के मत में सोलह तत्त्व हैं— १. प्रमाण , २. प्रमेय, ३. संशय, ४. प्रयोजन, ५. दृष्टांत, ६. सिद्धांत, ७. अवयव, ८. तर्क, ९. निर्णय, १०.वाद, ११. जल्प, १२. वितण्डा, १३. हेत्वाभास, १४. छल, १५. जाति, १६. निग्रहस्थान। इन्हें पदार्थ भी कहते हैं। (षट्दर्शन पृ.८२) प्रमाण के १६ भेद, प्रमेय के १२ , संशय के ३, प्रयोजन के २, दृष्टान्त के २, सिद्धान्त के ४, अवयव के ५, तर्क के ११, निर्णय के ४, वाद का १, जल्प का १, वितण्डा का १, हेत्वाभास के , छल के ३, जाति के २४ , एवं निग्रह स्थान के २२ भेद हैं। इनके नाम और लक्षण सर्वदर्शन संग्रह और षड्दर्शन समुच्चय ग्रन्थों से देखना चाहिये। (सर्व द. पृ. २०१ से २०४)अक्षपादमते देव: सृष्टिसंहारकृत् शिव: । विभुर्नित्यैकसर्वज्ञो नित्यबुद्धिसमाश्रय:।।१३।। (षड् द.पृ.७८)नैयायिक मत में जगत् की सृष्टि तथा संहार को करने वाला,व्यापक, नित्य, एक सर्वज्ञ, नित्य ज्ञानशाली, शिव देवता हैं। अक्षपाद नाम के आदिगुरु ने नैयायिक मत के मूल सूत्रों की रचना की है इसलिये नैयायिक अक्षपाद कहलाते हैं। नैयायिक ने अनुमान के पांच अवयव माने हैं, प्रतिज्ञा, हेतु उदाहरण, उपनय और निगमन ।हेतु के पांच अवयव माने हैं —पक्षधर्मत्व आदि। अनुमान के तीन भेद माने हैं— केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी, अन्वयव्यतिरेकी। इनके यहां—‘‘ जिनके द्वारा प्रमिति— उपलब्धि या ज्ञान उत्पन्न किया जाता है उस ज्ञान के जनक कारण को ‘प्रमाण’ कहते हैं। एवं अक्षपाद ने स्वयं न्यायसूत्र में कहा है कि —‘‘ इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से होने वाला अव्यपदेश्य, अव्यभिचारी तथा व्यवसायात्मक ज्ञान ‘प्रत्यक्ष’ है।‘‘ ==वैशेषिक दर्शन== न्याय और वैशेषिक इन दोनों दर्शनों का ‘यौग’ नाम उल्लेख किया गया है। कुछ बातों को छोड़कर न्याय और वैशेषिक में समानता पाई जाती है। शिवादित्य (११ शताब्दी) के ‘सप्तपदार्थो’ में उक्त दोनों का समन्वय किया गया है। मालूम पड़ता है कि दोनों के योग—जोड़ी को ‘योग’ नाम दे दिया गया है। न्याय सूत्र के रचियत गौतम ऋषि हैं जैसा कि ऊपर कह आये हैं । वैशेषिक दर्शन के सूत्रकार महर्षि ‘कणाद’ हैं। विशेष नामक पदार्थ की विशिष्ट कल्पना से इस दर्शन का वैशेषिक दर्शन के सूत्रकार महर्षि ‘कणाद’ हैं। विशेष नामक पदार्थ की विशिष्ट कल्पना से इस दर्शन का वैशेषिक नाम हुआ है। ऐसा माना जाता है। वैशेषिक ने सात पदार्थ माने हैं— ‘‘ द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाभावा: सप्तपदार्था:’’ । द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष,समवाय और अभाव ये सात पदार्थ हैं। इनमें से द्रव्य के नव भेद हैं— पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन। गुण चौबीस हैं— रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिणाम, पृथक्क्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, शब्द, बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म, और संस्कार। सामान्य के दो भेद हैं— परसामान्य,अपरसामान्य। विशेष केवल नित्य द्रव्यों में रहता है और बह अनंत है। पूर्वोक्त नव द्रव्य और परमाणु नित्य द्रव्य हैं। ‘समवायस्त्वेक एव’ समवाय एक ही है। अभाव के चार भेद हैं— प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव,और अत्यंताभाव । (तर्क सं.) आत्म द्रव्य का लक्षण और भेद— ‘ज्ञानाधिकरणमात्मा’ स द्विविध:— जीवात्मा परमात्मा चेति, तत्रेश्वर: सर्वज्ञ:, परमात्मा एक एव। जीवास्तु प्रतिशरीरं भिन्नो विभुर्नित्यश्च । जिस द्रव्य में समवाय से ज्ञान रहता है वही आत्मा है क्योंकि आत्मा में ज्ञान समवाय सम्बन्ध से रहता है। आत्मा के दो भेद हैं— जीवात्मा,परमात्मा। परमात्मा ईश्वर, सर्वज्ञ और एक है। जीवात्मा प्रत्येक शरीर में भिन्न—भिन्न है, व्याप्क और नित्य है। (तर्वâ संग्रह) वैशेषिक के यहां द्रव्य गुण आदि परस्पर में भिन्न—भिन्न हैं। समवाय सम्बन्ध में रहते हैं। ये लोग शब्द को आकाश का गुण मानते हैं नैयायिक और वैशेषिक दोनों ही ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानते हैं— ‘पृथ्वी पर्वत आदि पदार्थ किसी बुद्धिमान् पुरुष के द्वारा उत्पन्न किये गये हैं, क्योंकि वे कार्य हैं।’ इस अनुमान के द्वारा ये लोग बुद्धिमान् ईश्वर को सृष्टिकर्ता सिद्ध करते हैं। इन्होंने कारण को तीन प्रकार से माना है— ‘कारणं त्रिविधं— समवाय्यसमवायिनिमित्तभेदात’ । कारण तीन प्रकार के हैं— समवायिकारण , असमवायिकारण, और निमित्तकारण। जिस द्रव्य में समवाय सम्बन्ध से कार्य उत्पन्न हो वह समवायिकारण होता है। जैसे— तन्तुओं में पट समवायसम्बन्ध से उत्पन्न होता है अत: तंतु पट के समवायिकारण हैं। समवायिकारण द्रव्य ही होता है (जिसे जैन उपादान कारण कहते हैं)।तन्तु का संयोग पट का असमवायिकारण है। असमवायिकारण संयोग रूप गुण ही होता है। जो इन दोनों कारणों से भिन्न है वह निमित्तकारण है जैसे— तुरी, वेम, शलाका आदि वस्त्र के निमित्तकारण हैं। यहां ईश्वर भी पृथ्वी आदि सृष्टि को बनाने से निमित्तकारण है। ==प्रत्यक्ष प्रमाण का लक्षण== ‘इंद्रियार्थसन्निकर्षजन्यं ज्ञानं प्रत्यक्षं तद् द्विविधं निर्विकल्पकं सविकल्पकं चेति’। जो ज्ञान इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष—सम्बन्ध से उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्ष है उसके दो भेद हैं— नर्विकल्प और सविकल्प। सन्निकर्ष के ६ भेद‘‘प्रत्यक्षज्ञानहेतुरिन्द्रियार्थसन्निकर्ष: षड्विध:— संयोग:, संयुक्तसमवाय:, संयुक्तसमवेतसमवाय:, समवाय:, समवेतसमवाय:, विशेषणविशेष्यभावश्चेति’’।जो इन्द्रिय और अर्थ का सन्निकर्ष सम्बन्ध है वही प्रत्यक्ष ज्ञान का कारण है उस सन्निकर्प के ६ भेद हैं— संयोग— नेत्र से जो घट पट आदि का प्रत्यक्ष होता है वह संयोग है। घट पट आदि के रूप का नेत्रों से ज्ञान है— वह ‘संयुक्तसमवाय’ है। घट के रूप में जो रूपत्व है उसका नत्रों से प्रत्यक्षज्ञान ‘संयुक्तसमवेतसमवाय’ है। कर्ण इंद्रिय से शब्द के प्रत्यक्ष में ‘समवाय’ सन्निकर्ष है। श्रोत्र से शब्दत्व का साक्षात्कार करने में ‘समवेतसमवाय’ सन्निकर्ष है। एवं अभाव को— घटाभाव, पटाभाव आदि को इन्द्रियों से प्रत्यक्ष करने में ‘विशेषण विशेष्सभाव’ सन्निकर्ष होता है। (तक संग्रह) वैशेषिक ने बुद्धि सुख दु:ख आदि आत्मा के नव विशेष गुणों के विनाश को मुक्ति माना है। एवं वैशेषिक, न्यायिकों ने ज्ञान को अस्वसंविदित माना है। एवं धारावाहिकज्ञान को भी प्रमाण माना है ।तथा पदार्थ और आलोक को ज्ञान का कारण माना है। समवाय की कल्पना तो इनके यहां बहुत ही विचित्र है।‘‘य इहायुतसिद्धानामाधाराधेयभूतभावानाम् । संबंध इह प्रत्ययहेतु: स हि भवति समवाय:।।’’ (षड् द. पृ. ४२४)अर्थ— अयुतसिद्ध और आधार आधेयभूत पदार्थों का ‘यह इसमें है’ इस इहेदं प्रत्यक्ष में कारणभूत सम्बन्ध समवाय कहलाता है। एवं प्रागभाव आदि अभावों को इन लोगों ने सर्वथा तुच्छाभाव रूप सिद्ध किया है। वैशेषिक ने नैयायिक के समान चार प्रमाण न मानकर प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही प्रमाण माने हैं। ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ में इस वैशेषिक दर्शन को ‘औलुक्य’ दर्शन कहा है। उपसंहार— नैयायिक और वैशेषिक का बहुत से विषयों में एक मत हैं पदार्थ गणना, प्रमाण संख्या आदि में ही अंतर है। दोनों ही ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानते हैं किन्तु आगे ईश्वर परीक्षा में इसका अच्छा समाधान किया जायेगा। वास्तव में कृतकृत्य ईश्वर विश्व की रचना में राग द्वेष के बिना कैसे प्रवृत्त होगा ? रागद्वेष सहित होने से सर्वज्ञ, हितोपदेशी और इष्टदेव कैसे कहलायेगा? अत: सर्वज्ञ सृष्टि के ज्ञाता द्रष्टा हैं कर्ता नहीं हैं । इनके द्वारा मान्य पदार्थ, द्रव्य, गुण आदि की व्यवस्था भी ठीक नहीं है।समवाय सम्बन्ध तो सिद्ध नहीं हो सकता, हां! यदि उसे तादात्म्य सम्बन्ध कह दो तब तो ठीक होगा। मुक्ति में सुख ज्ञान आदि गुणों का नाश मानना, ज्ञान को अपने संवेदन से रहित मानना, द्रव्य से गुणों को भिन्न मानकर समवाय से उसमें स्थापित करना सर्वथा अशक्य है। इनका सन्निकर्ष प्रमाण भी अव्याप्त है मन और चक्षु से पदार्थ को छूकर ज्ञान नहीं होता है, प्रत्युत दूर से ही हो जाता है। एवं सन्निकर्ष को प्रमाण मानने से सर्वज्ञ की सिद्धि होना शक्य नहीं है क्योंकि भूत , भविष्यत् पदार्थों का सन्निकर्ष होगा नहीं, और सन्निकर्ष से विश्व का ज्ञान हुये बिना सर्वज्ञ होगा नहीं। आत्मा को व्यापक कहना, दिशा और मन को द्रव्य कहना बिल्कुल गलत है आत्मा शरीर प्रमाण है, मन आत्मा में ज्ञानावरण की नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशम से होता है। अत: सर्वज्ञ को वीतराग एवं निर्दोश मानना उचित है उनके तत्वों पर श्रद्ध करना ही सम्यक्त्व है। ==मीमांसा दर्शन== मीमांसा शब्द का अर्थ है किसी वस्तु स्वरूप का यथार्थ विवेचन । मीमांसा करने वालों को मीमां—सक कहते हैं इसे ही जैमिनीय मत भी कहते हैं। मीमांसा के दो भेद हैं— कर्ममीमांसा, ज्ञानमीमांसा। यज्ञ—विधि कर्मकाण्ड अनुष्ठान आदि का वर्णन कर्ममीमांसा का विषय है, एवं जीव जगत् ईश्वर के स्वरूप सम्बन्ध आदि का निरुपण ज्ञानमीमांसा का विषय है। कर्ममीमांसा को पूर्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा को उत्तर मीमांसा या उत्तरमीमांसा को ‘वेदान्त’ शब्द से कहा जाता है। महर्षि जैमिनि मीमांसादर्शन से सूत्रकार हैं। मीमांसकों में कुमारिलभट्ट के शिष्य भाट्टों ने छह प्रमाण माने हैं एवं प्रभाकर मिश्र के शिष्य प्रभाकरों ने अभाव के बिना पांच प्रमाण माने है। इस प्रकार से मीमांसादर्शन में भाट्ट और प्राभाकार ये दो संप्रदाय हो जाते हैं । सूत्रकारों ने मीमांसक, प्राभाकर और जैमिनीय इन तीनों नामों से इस दर्शन का उल्लेख किया है। प्राभाकर की मान्यतानुसार पदार्थ आठ हैं— द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, परतन्त्रता, शक्ति,सादृश्य और संख्या। भाट्टों के अनुसार पदार्थ पांच हैं—द्रव्य , गुण, कर्म, सामान्य और अभाव। भाट्टों के अनुसार पदार्थ पांच हैं — द्रव्य, गुण, कर्म , सामान्य और अभाव। भाट्ट ग्यारह द्रव्य मानते हैं— वैशेषिक के नव द्रव्यों में अंधकार और शब्द ये दो द्रव्य मिलकर ग्यारह होते हैं। प्राभाकर—प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आगम और अर्थापत्ति ये पांच प्रमाण मानते हैं एवं भाट्ट अभाव सहित छह प्रमाण मानते हैं। मीमांसकों ने ज्ञान को परोक्ष माना है। ज्ञान न तो स्वयं वेद्य है न ज्ञानान्तर से वेद्य है। अतएव वह परोक्ष है। मीमांसक कहते हैं कि कोई सर्वज्ञ या अतीन्द्रियदर्शी नहीं है।‘‘जैमिनीया: पुन: प्राहु: सर्वज्ञादिविशेषण:। देवो न विद्यते कोऽपि यस्य मानं बचो भवेत् ।।६८।। तस्मादतीन्द्रियार्थानां साक्षाद् द्रष्टुरभावत:। नित्येभ्यो वेदवाक्येभ्यो यथार्थत्वविनिश्चय: ।।६९।। (षट् द.पृ. ४३२)जैमिनीय कहते हैं कि— सर्वज्ञत्व आदि विशेषण वाला कोई सर्वदर्शी देव नहीं है कि जिससे वचन प्रमाणीक माने जा सके। इस तरह जब अतीन्द्रिय पदार्थों का कोई साक्षात्कार करने वाला ही नहीं है तब नित्य वेद वाक्यों से ही अतीन्द्रिय पदार्थों का यथावत् ज्ञान हो सकता है, अन्यथा नहीं। इनके यहाँ ‘नहीं जाने गये अनधिगत पदार्थ को जानने वाला ज्ञान प्रमाण है।’ ‘विद्यमान पदार्थों से इंद्रियों का सम्बन्ध होने पर जो आत्मा में बुद्धि उत्पन्न होती है वह प्रत्यक्ष, प्रमाण है।’ ‘लिंग से उत्पन्न होने वाले लैंगिक ज्ञान को अनुमान कहते हैं।’ नित्य वेद वाक्य से उत्पन्न होने वाला ज्ञान ‘आगम’ है। ‘सादृश्य ज्ञान को उपमान कहते हैं’ । ‘इष्ट पदार्थों की अनुपपत्ति के बल से किसी अदृष्ट अर्थ की कल्पना को अर्थापत्ति कहते हैं’। प्रत्यक्ष आदि छह प्रमाणों के निमित्तों से अर्थापत्ति के भी छह भेद हो जाते हैं— प्रत्यक्षपूर्विकाप्रर्थापत्ति, अनुमान—पूर्विका अर्थापत्ति, उपमानपूर्विका अर्थापत्ति, आगमपूर्विका अर्थापत्ति, अर्थापत्तिपूर्विका अर्थापत्ति, अभावपूर्विका अर्थापत्ति । ==अभाव प्रमाण का लक्षण— ==‘‘ प्रमाणपञ्चकं यत्र वस्तुरूपे न जायते। वस्तुसत्ताबोधार्थ तत्रभावप्रमाणता’’।।७६वस्तु के सत्ता के ग्राहक प्रत्यक्षादि पांच प्रमाण जिस वस्तु में प्रवृत्ति नहीं करते, उसमें अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति होती है। प्रत्यक्ष आदि पांच प्रमाण जिस भूतल आदि आधार में घटादि रूप आधेय के ग्रहण करने के लिये प्रवृत्त नहीं होते, उस घटादि आधेय से शून्य शुद्ध भूतल के ग्रहण करने के लिये अभाव की प्रमाणता है। अभाव प्रमाण का विषय भूत अभाव पदार्थ वस्तुभूत है तथा वह चार प्रकार का है— प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव, अत्यन्ताभाव। (षड्दर्शन सं.) मीमांसक वेद को अपौरूषेय मानते हैं। क्योंकि वेद मुख्य रूप से अतींद्रिय धर्म का प्रतिपादक है और अतींद्रिय दर्शी कोई पुरुष संभव नहीं है। इसलिये इन लोगों ने प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणों के द्वारा सर्वज्ञ की असिद्धि बतलाकर अभाव प्रमाण के द्वारा उसके अभाव को सिद्ध कर दिया है। अत: इन मीमांसकों ने धर्म में वेद को ही प्रमाण माना है । एवं वेद के दोषों से मुक्त रखने के लिए ही अपौरुषेय माना है, और इसलिए उन्हें शब्द मात्र को नित्य मानना पड़ा, क्योंकि यदि शब्द को अनित्य मानते तो शब्दात्मक वेद को भी अनित्य और पौरूषेय मानकर शब्द को अनित्य मानते तो शब्दात्मक वेद को भी अनित्य और पौरूषेय मानना पड़ता जो कि अभीष्ट नहीं है। उपसंहार— मीमांसक ने सर्वज्ञ का अभाव कर दिया है एवं वेद को अपौरूषेय मानकर शब्द को नित्य, एक, अमूर्त, सर्वव्यापी मानते हैं किन्तु अनुमान एवं आगम से सर्वज्ञ का स्वभाव सिद्ध है, शास्त्र कथंचिंत् अर्थ की अपेक्षा अनादि अनन्त है फिर भी रचना की अपेक्षा सादि साँत है। शब्द वर्गणायें पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा नित्य—अनादि अनन्त होते हुये भी पर्याय की अपेक्षा अनित्य हैं, अनेक हैं मूर्तिक , अव्यापि हैं। इन मीमाँसकों द्वारा मान्य प्रमाणों के लक्षण, पदार्थों के लक्षण गलत हैं।कहीं अभाव को प्रमाण कहा जा सकता है? जैनों के मान्य प्रागभावों का लक्षण इनके द्वारा मान्य अभाव के लक्षणों को बाधित कर देता है। मीमांसकों के ज्ञान को परोक्ष कहा है, किन्तु ज्ञान स्वयं का अनुभव स्वयं कर रहा है। इसलिए ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है। अत: मीमांसक दर्शन की मीमांसा करने से इनका प्रमाण प्रमेय तत्त्व बाधित हो जाने से जैनसिद्धांत ही अबाधित सिद्ध होता है। ==वेदांत दर्शन==‘सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन। आरामं तस्य पश्यन्ति न तं पश्यति कश्चन।। (छांदोग्योपनिषत् ३—१४—१)यह सारा जगत् एक ब्रह्म स्वरूप ही है, यहां अन्य कुछ भी नहीं है, सब उसके प्रभाव को देखते हैं, उसे कोई नहीं देख सकता। ‘‘ये तूत्तरमीमांसावादिन: ते वेदान्तिनो ब्रह्माद्वैतमेव मन्यंते ।’’ उत्तर मीमांसावादी वेदाँती मात्र अद्वैत ब्रह्म को मानते हैं, यह उनका मूल सिद्धान्त है कि ‘‘सर्वं वै खल्विदं ब्रह्म’’ इत्यादि। इनके यहां ध्यान करने के लिये ‘‘आत्मा वा अरे द्रष्टय: श्रोत्वयो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:’’ अरे भक्त ! तुम आत्मा को देखों, सुनो, मानो और ध्यान करो। (सर्वदर्शन. ११६) उनका यह कहना है कि एक ही ब्रह्म सभी प्राणियों के शरीर में भासमान होता है। यथा —‘‘ एक ही भ्रूतात्मा, सिद्ध, ब्रह्म प्रत्येक प्राणियों में व्यवस्थित है वही एक रूप से तथा अनेक रूप से जल में चन्द्रमा की तरह चमकता है’’। (षड् दर्शन. ४३०) उपनिषदों के सिद्धान्तों पर प्रतिष्ठित होने के कारण इस दर्शन का नाम वेदान्त (वेद का अन्त उपनिषद्) प्रसिद्ध हुआ है। ब्रह्मसूत्र— वेदांत सूत्र के रचियता महर्षि वादरायण व्यास हैं। शंकर, रामानुज और मध्व ये ब्रह्म सूत्र के प्रसिद्ध भाष्यकार हैं। मीमांसकों की तरह वेदांती भी छह प्रमाण मानते है। इनके मतानुसार ‘ब्रह्म’ की सिद्धि करते हैं, उक्त श्रुति के समर्थन में ये लोग प्रत्यक्ष तथा अनुमान प्रमाण की दुहाई भी देते हैं। फिर इन प्रमाणों को भी अविद्या का विलास कह देते हैं। अत: उनका मान्य तत्त्व ही अविद्या का विलास प्रतीत होता है। उपसंहार— यदि अद्वैततत्त्व को आगम से माना जाता है तो आगम और ब्रह्म दो होने से द्वैत आ जाता है, यदि प्रत्यक्ष से कहो तो बाधा आती हैं, क्योंकि एक को सुख अन्य को दु:ख आदि विचित्रतायें दृष्टिगोचर है, अनुभव गोचर हैं। यदि एक ही ब्रह्म सबमें है तो सभी को एक साथ सुख—दु:ख का अनुभव होना चाहिये, किन्तु ऐसा तो है नहीं। बड़े आश्चर्य की बात है कि चेतनस्वरूप ब्रह्म से चेतन अचेतन रूप जगत् मान लिया जावे। क्या आप स्वयं चेतन ब्रह्म अचेतन बनना अच्छा समझेगा? वास्तव में अस्तित्व रूप से सभी चेतन—अचेतन कथंचित् एक रूप है। इसी का विपर्यास करके वेदांतवादियों ने सारे जगत् को ब्रह्म रूप से एकरूप मान लिया है किन्तु यह मान्यता कथमपि शक्य नहीं है। किसी भी तरह से इस अद्वैत को सिद्ध करने में द्वैत आ ही जाता है। यदि सब द्वैत को अविद्या का विलास कहो, तब तो यह अद्वैत भी अविद्या का ही विलास सिद्ध होगा। ==जैन दर्शन== यह जैन धर्म अनादि निधन धर्म है इसकी स्थापना किसी ने भी नहीं की है। स्याद्वाद, अहिंसा, अपरिग्रह, आदि इसके मौलिक सिद्धांत हैं। जैन सिद्धांत हैं। जैन सिद्धांत में— सात तत्त्व, नव पदार्थ, छह द्रव्य और पांच अस्तिकाय माने गये हैं । ‘जीवाजीवास्रववंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्’ इस सूत्र से जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व हैं। इन्हीं में पुण्य और पाप मिलाने से नव पदार्थ बन जाते हैं । जीव, पुद्गल , धर्म, अधर्म आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं। इनमें काल को छोड़कर पांच अस्तिकाय कहलाते हैं। ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’ इस सूत्र से सम्यग्दर्शन , सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है। एवं संपूर्ण कर्मों से आत्मा का छूट जाना ही मोक्ष है। सर्वज्ञ प्रणीत आगम ही सच्चे शास्त्र हैं, एवं घातिया कर्म मल से रहित शुद्ध हुई आत्मा ही अर्हत् सर्वज्ञ वीतराग और हितोपदेश है। उन सर्वज्ञ के वचनों पर पूर्ण श्रद्धान करना ही सम्यक्तव है।‘छप्पंचणवविहाणं अत्थाणं जिणवरोवइट्ठाणं। आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं ।।५६।। (गोम्मटसार जी.)छह द्रव्य, पांच अस्तिकाय और नव पदार्थ इनका जिनेंद्रदेव ने जिस प्रकार वर्णन किया है, उस ही प्रकार से श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह दो प्रकार से होता है— एक तो केवल आज्ञा से, दूसरा अधिगम से । जिनेन्द्र देव ने जो भी वस्तु तत्त्व का वर्णन किया है वह ठीक है क्योंकि ‘जिनदेव असत्यवादी नहीं हो सकते’ ऐसा केवल आज्ञा मात्र से श्रद्धान करना आज्ञा सम्यक्त्व है। तथा इन द्रव्यादिकों का प्रत्यक्ष, परोक्ष प्रमाण, नय आदि से निर्णय करके श्रद्धान करना अधिगम सम्यक्तव है। सम्यक्त्व होने के बाद जो यथार्थ ज्ञान है वह सम्यग्ज्ञान है उसके भी प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोगवे भेद से चार भेद हो जाते हैं। सम्यग्दर्शन और ज्ञान के बाद रागद्वेष को दूर करने के लिये जो चारित्र ग्रहण किया जाता है वह सम्यक्चारित्र है। इसके पंचमहाव्रत आदि रूप से सफल चारित्र और पंच अणुव्रत आदि रूप से विकल चारित्र ऐसे दो भेद होते हैं। इन जैन सिद्धांत में सप्तभंगी, नय पद्धति आदि विशेष बातें बहुत ही उत्तम हैं वस्तु तत्त्व को ज्यों की त्यों समझाने वाली हैं। द्रव्यार्थिक नय से आत्मा आदि पदार्थ नित्य हैं किन्तु पर्यायार्थिक नय से ये अनित्य भी हैं। इत्यादि रूप से वस्तु की व्यवस्था सुघटित सिद्ध है। यह अनेकांत शासन, आत्मा, सर्वज्ञ, परलोक, मोक्ष आदि की व्यवस्था करते हुये सदा जय शील हो रहा है।सभी दार्शनिकों के मुख्य—मुख्य सिद्धांत चार्वाक— भूतचैतन्यवाद , प्रत्यक्षैक—प्रमाणवाद।बौद्ध— निर्विकल्पप्रत्यक्षवाद, साकारज्ञानवाद, क्षणभंगवाद, चित्राद्वैतवाद, विज्ञानाद्वैतवाद, शून्यवाद, त्रैरूप्यहेतुवाद, अपोहवाद। सांख्य— प्रकृतिकर्तृत्ववाद, अचेतनज्ञानवाद, इंद्रियवृत्तिवाद, सत्कार्यवाद, नित्यैेकांतवाद। नैयायिक वैशेषिक— षोड़शपदार्थवाद, सप्तपदार्थवाद, सन्निकर्षवाद, कारकसाकल्यवाद, ज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवाद, ईश्वरकर्तृत्ववाद, पांचरूप्यहेतुवाद, समवायवाद। मीमांसक— वेद अपौरकर्तृत्ववाद, परोक्षज्ञानवाद, अभावप्रमाणवाद, शब्दनित्यत्ववाद। वैयाकरण— शब्दाद्वैतवाद, स्फोटवाद। वेदांती— ब्रह्मवाद, अविद्यावाद। इन सबके प्रमुख गुरू एवं मतों के नाम १.चार्वाक को लौकायतिक भी कहते हैं इनके गुरू वृहस्पति हैं। २.नैयायिक— न्याय दर्शन के प्रवर्तक महर्षि गौतम हैं। इन्हीं का नाम अक्षपाद भी है अत: इसे अक्षपाद दर्शन भी कहते हैं, इनका मूलग्रन्थ ‘न्यायसूत्र’ है। नयाय भाष्य के अनेकों ग्रन्थ हैं। जैसे— वात्स्यायन का ‘न्यायभाष्य’ उद्योतकर का ‘न्यायवार्तिक’ वाचस्पति की ‘न्यायवार्तिक तात्पर्य टीका,’ उदयन की ‘न्याय वार्तिक तात्पर्य परिशुद्धि’ तथा ‘कुसुमाञ्जलि’ जयन्त की ‘न्याय मंजरी’ आदि । ऐसे ही श्रीकण्ड अभय तिलकोपाध्याय विरचित न्यायालंकार वृत्ति आदि प्रमुख तर्क ग्रन्थ हैं। भासर्वज्ञ कृत न्यायसार की अठारह टीकायें हैं। इनमें न्यायभूषण नाम की टीका सर्वप्रमुख है। प्राचीना समय के न्याय को ‘प्राचीनन्याय’ एवं आधुनिक काल के न्याय को ‘नव्यन्याय’ कहते हैं। प्राचीन न्याय के अंतर्गत ‘गौतम’ का न्यायसूत्र, उसके भाष्य आदि है। नव्यन्याय का प्रारंभ गंगेश की ‘तत्त्वचिंतामणि’ से हुआ है, इसे ‘न्यायदर्शन’ या शैव दर्शन भी कहते हैं एवं ‘योग’ भी कहते हैं।=३— वैशेषिक— == वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक ‘महर्षिकणाद’ हैं। कहा जाता हैं। कहा जाता है कि ये इतने बड़े संतोषी थे कि खेतों से चुने हुये अन्नकणों के सहारे ही जीवन यापन करते थे। इसलिये इनका उपमान ‘कणाद’ पड़ा है। उनका वास्तविक नाम ‘उलूक’ था अतएव वैशेषिक दर्शन कणाद या ‘औलूक्य’ दर्शन नाम से प्रसिद्ध है। इस दर्शन में ‘विशेष’ नामक पदार्थ की विशद विवेचना है अत: इसे ‘वैशेषिक’ भी कहते हैं। अन्यत्र भी यही बाता है।‘‘मुनिविशेषस्य कापोतीं वृत्तिमनुतिष्ठवतो रथ्यानिपतांस्तंडुलानादायादाय कृताहारस्याहार नि—मित्तात्कणादसंज्ञा अजनि। तस्य कणादस्य पुर: शिवेनोलूकरुपेण मतमेतत्प्रकाशितम् ‘तत औलूक्यं प्रोच्यते। पशुपतिभक्तत्वेन पाशुपतं चोच्यते’’।कापोत सदृशवृत्ति का अनुसरण करने वाले मार्ग में पतित तंदुल कणों को खाने वाले होने से इन्हें कणाद संज्ञा हुई, इनके आगे शिव ने उल्लू का शरीर धारण करके इस मत को चलाया अत: ‘औलूक्य’ हैं। वैशेषिक लोग पशुपति—शिव के भक्त हैं अत: यह दर्शन ‘पाशुपात’ भी कहलाता है। वैशेषिक कणाद के शिष्य हैं अत: काणाद भी कहलाते हैं। (षड्द. ४०६) इनके यहां कणाद कृत मूलग्रन्थ ‘षट्पदार्थी—वैशेषिक सूत्र’ नाम ये है। इस पर प्रशस्त का ‘पदार्थ धर्म संग्रह’ है, इस प्रशस्तपाद भाष्य—पदार्थ धर्मसंग्रह पर दो उत्तम टीकायें हैं, उदयन आचार्य की किरणावली, और श्रीधराचार्य की ‘न्यायकंदली’। इसके बाद का जो वैशेषिक साहित्य है वह न्याय और वैशेषिक इन दोनों का संमिश्रण है। ऐसे ग्रन्थों में शिवादित्य की ‘सप्तपदार्थी’ लौगाक्षि भास्कर की ‘तर्ककौमुदी’ वल्लभाचार्य की ‘न्यायलीलावती’ और विश्वनाथ पंचानन का भाषा परिच्छेद (सिद्धांत मुक्तावली टीका के साथ) प्रमुख है। (भारतीयद. पृ. १४६) व्योमशिवाचार्य कृत व्योमवती टीका, श्रीवत्साचार्यकृत लीलावती तर्क, आत्रेयतन्त्र आदि। ==४—मीमांसक— == मीमांसक का मूल ग्रन्थ है ‘जैमिनिसूत्र’ इस जैमिनि के सूत्र पर शबरस्वामी का विशद भाष्य है जिसे ‘शाबरभाष्य’ कहते हैं। उनके बाद बहुत से टीकाकार और स्वतंत्र ग्रन्थकार हुये, उनमें दो मुख्य हैं— कुमारिल भट्ट और प्रभाकर। इन दोनों के नाम पर मीमांसा में दो प्रधान संप्रदाय चल पड़े जिनका नाम है—भाट्ट मीमांसा और प्रभाकर मीमांसा। (भारतीयद.पृ. १९९) मीमांसा दर्शन के दो भेद हैं— पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा। पूर्व मीमांसावादी यजन—याजन, अध्ययन—अध्यापन, दान और प्रतिग्रह इन छह ब्राह्मण कर्मों का अनुष्ठान करने वाले हैं ब्रह्म सूत्रधारी हैं, यज्ञादि क्रिया काण्ड में मुख्य रूप से प्रवृत्ति करते हैं। इनके साधु एक दण्डी, त्रिदण्डी, गेरुआ वस्त्रधारी मृगछाला, कमंडलु आदि रखते हैं, सिर मुंडाते हैं। इनका वेद ही गुरु और भगवान् है ये लोग वेद के सिवा किसी को सर्वज्ञ मानने को तैयार नहीं है। इनमें कुमारिल का मीमांसाश्लोकवार्तिक, प्रभाकर का ‘बृहती’ आदि ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। ==५—उत्तर मीमांसकवादी वेदांती— == कहलाते हैं ये केवल अद्वैत ब्रह्म को ही मानते हैं। इनके साधु कुटीचर, बहूदक, हंस, परमहंस ऐसे चार तरह के होते हैं । जो त्रिदण्डधारी, शिखाधारी ब्रह्म सूत्रधारी हैं यजमानों के यहां भोजन करते हैं गृह त्यागी हैं कुटिया बनाकर जंगल में रहते हैं, वे ‘कुटीचर’ कहते हैं। बहुत जल वाली नदी में स्नान करने से बहूदक होते हैं । ‘हंस’ कहलाते हैं। इन हंस साधु को तत्त्वज्ञान होने के बाद ‘परमहंस‘ कहते हैं। इसे ही वेदांत दर्शन कहते हैं। वेदांत का अर्थ है वेद का अंत। उपनिषदों को भिन्न—भिन्न अर्थों में वेद का अंत कहा जाता है। वैदिक काल में तीन तरह के साहित्य होते हैं। सबसे प्रथम वैदिक मंत्र जो भिन्न—भिन्न संहिताओं ऋग्वेद यजुर्वेद, सामवेद में संकलित हैं। तत: पर ब्राह्मण भाग जिसमें वैदिक कर्मकाण्ड की विवेचना है, अंत में उपनिषद जिसमें दर्शनिक तथ्यों की आलोचना है। ये तीनों मिलकर श्रुति या वेद कहलाते हैं। अध्ययन के विचार में उपनिषदों की बारी अंत में आती थी। लोग संहिता से शुरु करते थे। गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने पर गृहस्थोचित यज्ञादि कर्म करने से ब्राह्म, वानप्रस्थ या सन्यास लेकर वन में रहने पर आरण्यक नाम होता है। उपनिषदों का विकास आरण्यक साहित्य से हुआ है। स्वयं उपनिषदों में कहा है कि वेद—वेदांग सभी शास्त्रों का अध्ययन कर लेने पर जब तक ज्ञान पूर्ण न हो जावे तब तक मनुष्य उपनिषदों की शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता, उपनिषद् (उप + नि + सद ) जो ईश्वर के समीप या गुरु के समीप पहुंचावे वह उपनिषद् है। भिन्न—भिन्न उपनिषदों के विचार भेद का परिहार करने के लिये वादरायण ने ‘ब्रह्मसूत्र’ ग्रन्थ की रचना की। इसे वेदांत सूत्र, शारीरिकमीमांसा या उत्तरमीमरंसा भी कहते हैं। ब्रह्मसूत्र पर अनेकों भाष्य हैं, शंकर, रामानुज , मध्वाचार्य, वल्लभाचार्य, निंबार्काचार्य, आदि के भाष्यों से उनके नाम पर भिन्न भिन्न— संप्रदाय चल पड़े हैं। आजकल शंकराचार्य का ‘अद्वैतवाद’ औश्र रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतवाद अधिक प्रसिद्ध है। ==६. सांख्य— == कुछ सांख्य ईश्वर मानते हैं कुछ निरीश्वरवादी हैं, जो निरीश्वर हैं उनके नारायण ही देवता हैं। इनके आचार्य विष्णु ,प्रतिष्ठाकारक चैतन्य आदि शब्दों से कहे जाते हैं। सांख्य दर्शन के रचियता महर्षि कपिल हैं। सांख्य अत्यन्त प्राचीन मत है इसमें पच्चीस तत्त्वों की संख्या होने से इसे सांख्य मत कहते हैं। सांख्य दर्शन का मूल ग्रन्थ है कपिल का ‘तत्त्वसमास’। इसमें निरीश्वर सांख्य का दर्शन है। योगदर्शन में ईश्वर का प्रतिपादन किया गया है अत: इसे ‘सेश्वर सांख्य’ कहते हैं। इस सेश्वर सांख्य मत के प्रवर्तक पतञ्जलि ऋषि है अत: इसे ‘पातञ्जल दर्शन’ भी कहते हैं। कपिल, आसुरि, पंचशिख, भार्गव तथा उलूक आदि सांख्य मत के प्रमुख प्रवक्ता हैं। इसलिए इसे सांख्य या कपिलमत भी कहते हैं। कपिल को परमर्षि कहने से इस मत को ‘पारमर्ष’ भी कहते हैं । सांख्यों का प्राचीन ग्रन्थ है ईश्वर कृष्ण की ‘सांख्यकारिका’ गौडपाद का ‘सांख्यकारिकाभाष्य’ वाचस्पति की ‘तर्क कौमुदी’ विज्ञान भिक्षु का ‘सांख्य प्रवचन भाष्य’और सांख्यसार आदि ग्रन्थ हैं। एवं इनके षष्टितंत्र का पुन: संस्कार रूप ‘माठर भाष्य’ सांख्यसप्तति, तत्त्व कौमुदी, आत्रेयतंत्र आदि हैं। ==७. बौद्ध—== बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध हैं। इन्हें सुगत भी कहते हैं अत: इनके अनुयायी बौद्ध या सौगत कहलाते हैं, इनमें चार भेद हैं —सौत्रांतिक, वैभाषिक, योगाचार और माध्यमिक। बौद्धों के ज्ञान पारमिता आदि दश ग्रन्थ हैं— तर्कभाषा, हेतुबिन्दु, अर्चटकृत, हेतुविंदु की अर्चट तर्क नाम की टीका , प्रमाणवार्तिक, तत्त्वसंग्रह, न्यायबिंदु, कमलशीलकृत तत्त्वसंग्रह पंजिका, न्यायप्रवेश आदि ग्रंथ हैं। महात्मा बुद्ध के उपदेश के तीन पिटक इनके यहां माने गये हैं उनमें—विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्म पिटक ये नाम हैं। इन पिटकों में केवल प्राचीन बौद्ध धर्म का वर्णन मिलता है। धर्मकीर्ति का ‘प्रमाणवार्तिक’ उसकी टीका में प्रभाकर गुप्त का ‘प्रमाणवार्तिकांलकार है। शांतरक्षित का ’तत्त्वसंग्रह’ दिग्नाग का ‘न्यायप्रवेश’ धर्मकीर्ति का ‘न्यायबिंदु’आदि। षड्दर्शन समुच्चय में बौद्ध , नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक और जैमिनीय इनको ‘षड्दर्शन’ कहा है। आगे चलकर नैयायिक और वैशेषिक दर्शनों को दो न कहकर एक कहने से आस्तिकवादी के पांच ही दर्शन कह देते हैं एवं उसमें नास्तिक चार्वाक की संख्या मिलाकर ‘षड्दर्शन’ कहते हैं। इस षड्दर्शन में मीमांसक और वेदांती को भी एक ही में लिया है। ८. जैनधर्म में किसी को इस जैनधर्म का प्रवर्तक नहीं माना गया है क्योंकि यह जैनधर्म अनादिनिधन धर्म है। अनादि काल से जीव कर्मों का नाशकर सर्वज्ञ होते रहे हैं और वर्तमान से लेकर अनंतानन्त काल तक सर्वज्ञ होते रहेंगे। जैन दर्शन में संसार पूर्वक—बंधपूर्वक ही मोक्ष माना गया है। अत: संसारी जीव ही आत्मा की सर्वोच्च विशुद्धि प्राप्त करके भगवान बन जाते हैं, ‘कर्मारातीन् जयतीति जिन: जिनो देवता अस्य स जैन:’ जो कर्म शत्रुओं को जीतते हैं वे जिन कहलाते हैं एवं ‘जिन’ देवता जिसके उपास्क हैं वे जैन कहलाते हैं, यह धर्म ‘अहिंसामय’ है अत: ‘‘सर्वेभ्यो हित: सार्व:’’ प्राणिमात्र का हितकारी होने से ‘सार्वधर्म’ कहलाता है। जिन भगवान के ही सार्व, सर्वज्ञ , अर्हंत, जिनेन्द्र, शिव, परमेश्वर, महेश्वर, महादेव आदि सार्थक नाम हैं। जैनधर्म में मनुष्य रत्नत्रयरूप उपाय तत्त्व से मोक्षरूप उपेयतत्त्व को प्राप्त कर लेता है जैन धर्म में — सभी वस्तुयें द्रव्यदृष्टि से नित्य हैं एवं पर्याय दृष्टि से अनित्य हैं, सत् रूप— महासत्ता से एक एवं पृथक्—पृथक् अवांतरसत्ता से अनेक हैं किन्तु इस मर्म—स्याद्वाद को न समझकर बौद्धों ने वस्तु को सर्वथा क्षणिक कह दिया है। सांख्य ने ही सर्वथा नित्य कह दिया है। वेदांती ने एक ब्रह्मरूप एवं अन्यों ने अनेक रूप कह दिया है। ऐसे ही कर्मों की विचित्रता से संसार का वैचित्र्य देखकर वैशेषिकों ने ईश्वर को सृष्टि का कर्ता कह दिया है, किन्तु जैनाचार्यों ने सृष्टि को अनादि निधन एवं जीव पुद्गल संयोग से उत्पन्न हुई सिद्ध किया है। मीमांसक ने वेद को अनादि कह दिया है किन्तु वास्तव में अर्थ की अपेक्षा आगम अनादि है एवं सर्वज्ञ की वाणी द्वारा गणधर ग्रथित होने से परम्परा कृत आचार्य प्रणीत होने से सादि भी हैं। अनेकांत शासन में कुछ भी दोष नहीं है। इसलिए इन अन्य मतावलंबियों के ग्रंथों का पठन, मनन, कुश्रुत का पठन मनन है, इससे मिथ्यात्व का आश्रव होता है, ऐसा समझना चाहिय। जैनाचार्यों ने इन ग्रन्थों का अवलोकन केवल उनके तत्त्वों की मान्यताओं का खण्डन करने के लिये ही किया है। जब बौद्ध परंपरा में दिङ्नाग के पश्चात धर्मकीर्ति जैसे प्रखरतार्विकों की तूती बोलती थी, तो ब्राह्मण परम्परा में कुमारिल जैसे उद्भट् विद्वानों की प्रतिध्वनि मंद नहीं हुई थी दोनों ही विद्वानों ने अपनी—अपनी कृतियों में जैप परम्परा के मंतव्यों की खिल्ली उड़ाई थी और समंतभद्र जैसे तार्विकों का खण्डन किया था । उस समय अकलंक देव ने आजीवन ब्रह्मचर्यव्रत लेकर बौद्धदर्शन आदि पढ़ने का संकल्प किया , उस समय श्री अकलंक देव ने न्याय प्रमाण विषयक अनेकों ग्रन्थ रचे, लघीयस्त्रयी, न्याय विनिश्चय, सिद्धि विनिश्चय, अष्टशती, प्रमाणसंग्रह आदि ग्रन्थों में दिङ्नाग, धर्मकीर्ति जैसे बौद्ध तार्विâकों की एवं उद्योतकर भर्तृहरि कुमारिल जैसे ब्राह्मण तार्विकों की उक्तियों का निरसन करते हुये जैन मन्तव्यों की स्थापना तार्विक शैली से की है। इन अकलंक देव से पूर्व श्री समंतभद्र स्वामी ने भगवान की स्तुति करते हुये न्याय का बहुत ही सुन्दर विषेचन किया है। श्री उमास्वामी आचार्य के महाशास्त्र तत्त्वार्थ सूत्र के मंगलाचरण पर आप्तमीमांसा स्तुति बनाकर तो एक अलौकिक प्रतिभाशाली कहलाये हैं। श्री विद्यानंद महोदय ने आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा एवं अष्टसहस्री, श्लोक वार्तिकालंकार टीका आदि ग्रंथों में न्याय का विशद वर्णन किया है। श्री माणिक्यनन्दि के परीक्षामुखसूत्र ग्रन्थ पर प्रमेयरत्नमाला, प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि विस्तृत टीकायें हुई हैं। जैन न्याय का मतलब यही है कि ‘प्रमाणेरर्थपरीक्षणां न्याय:’ प्रमाणों के द्वारा अर्थ किया है ‘नीयतें ज्ञायते विवक्षितार्थोऽनेनेति न्याय: न्यायकु.। ‘न ितरामीयंते गम्यंते गत्यर्थानां ज्ञानार्थत्वात् ज्ञायंतेऽर्था: अनित्यत्वादयोऽनेनेति न्याय: तर्कमार्ग: (न्याय प्रवेश पं.पृ. १)’ जिसके द्वारा विवक्षित अर्थ का ज्ञान हो उसे न्याय कहते हैं। अतिशयरूप से जिसके द्वारा अनित्यत्व, अस्तित्व आदि अर्थ जाने जाये वह न्याय—तर्क मार्ग हैं। न्यायविनिश्चयालंकार में जैनाचार्यों ने भी विशेष रूप से कहा है कि—‘निश्चितं च निर्बाधं च वस्तुतत्त्वमीयतेऽनेनेति न्याय:’(न्याय विनिश्चयालंकार भा. १पृ. ३३ )जिसके द्वारा निश्चित और निर्बाध वस्तु तत्त्व का ज्ञान होता है उसे न्याय कहते हैं। इसमें ‘निर्बाध’ पद जैन न्याय की निर्दोषता को प्रकट करता है। ऐसा ज्ञान प्रमाणों के द्वारा होता है इसी से न्याय विषयक ग्रन्थों का मुख्य विषय प्रमाण होता है। प्रमाण के ही भेद प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि माने गये हैं, किन्तु प्रत्यक्ष और आगम के द्वारा वस्तु तत्त्व को जानकर भी उसकी स्थापना और परीक्षा में हेतु और युक्तिवाद का अवलम्बन लेना पड़ता है। इसी से न्याय को तर्कमार्ग और युक्तिशास्त्र भी कहा है।जैनधर्म के बारहवें दृष्टिवाद अंग में ३६३ मिथ्यामतों का स्थापनापूर्वक खंडन किया गया है। न्यायविनिश्चय के प्रारम्भ में श्री अकलंक देव ने लिखा है।—बालानां हितकामिनामतिमहापापै: पुरोपार्जिते:। माहात्म्यात् तमस:स्वयं कलिबलात् प्रायो गुणद्वेषिभि:।। न्यायोऽयं मलिनीकृत: कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते। सम्यग्ज्ञानजलैर्वचोभिरमलं तत्रानुकंपापरै: ।।कल्याण के इच्छुक अज्ञजनों के पूर्वोपार्जित पाप के उदय से एवं स्वयं कलिकाल के प्रभाव से गुण द्वेषी एकांतवादियों ने न्यायशास्त्र को मलिन कर दिया है। करुणाबुद्धि से प्रेरित हो करके हम उस मलिन किये गये न्यायशास्त्र को सम्यग्ज्ञान रूपी जल से किसी तरह प्रक्षालित करके निर्मल करते हैं। इसी भावना से ही श्री अकलंक देव ने छ: महीन तक बौद्धों की अधिष्ठात्री तारादेवी से शास्त्रार्थ करके उसे पराजित करके जैनधर्म के स्याद्वाद की विजय पताका लहराई थी। और आज भी वीरप्रभु का अनेकांत शासन जयशील हो रहा है। तीर्थंकर श्री वृषभदेव या महावीर प्रभु ने इस जैनधर्म की स्थापना नहीं की है। प्रत्युत सभी तीर्थंकर धर्मतीर्थ के प्रकाशक , उपदर्शक मात्र होते हैं, स्याद्वादमय धर्म तो वस्तु का स्वरूप होने से किसी के द्वारा प्रस्थापित नहीं है। जैनधर्म में वर्तमान दो भेद दिख रहे हैं दिगम्बर और श्वेताम्बर। श्वेताम्बर संप्रदाय में स्त्रीमुक्ति केवली कवलाहार सवस्त्रामुक्ति आदि माने गये हैं, किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में स्त्रियों को उसी भाव से मुक्ति का निषेध , केवली के कलवाहार का निषेध एवं सवस्त्रमुक्ति का निषेध किया गया है। जैनधर्म के मर्म को समझने के लिये महापुराण, पद्मपुराण, भद्रबाहुचारित्र आदि प्रथमानुयोग, तत्त्वार्थ सूत्र , गोम्मटसार, त्रिलोकसार, षट्खंडागम आदि करणानुयोग, रत्नकरण्डश्रावकाचार, वसुनंदिश्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्ध् युपाय, मूलाचार, आचारसार आदि चरणानुयोग, एवं समाधितन्त्र, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश, समयसार आदि द्रव्यानुयोग ऐसे चारों अनुयोगों के ग्रन्थों का गुरुमुख से पठन, स्वाध्याय करना चाहिये। इस प्रकार से सर्वदर्शन के सिद्धान्त की संक्षिप्त समीक्षा की गई है। ==ईश्वर सृष्टि कर्तृव्य खंण्डन== वैशेषिक कहते हैं कि —‘सदाशिव’ नाम का एक महेश्वर है जो सदा ही मुक्त है, कभी भी कर्ममल से लिप्त नहीं था अनादिकाल से ही मुक्त है और सम्पूर्ण सृष्टि का कर्ता है यथा—‘‘तनुभुवनकरणादिकं विवादापन्नं बुद्धिमन्निमित्तकम् कार्यत्वात् । यत्कार्य तद् बुद्धिन्निमित्तकं दृष्टं यथा वस्त्रादि। कार्यचेदं प्रकृतं तस्माद् बुद्धिमन्निमित्तकं योऽसौ बुद्धिमास्तद्धेतु: स ईश्वर: इति।’’‘‘शरीर जगत् इन्द्रिय आदि विवाद की कोटि में आये हुये पदार्थ बुद्धिमान् निमित्त कारण से हुये हैं, क्योंकि वे कार्य हैं। जो कार्य होता है वह बुद्धिमान् निमित्त कारण से ही होता है, जैसे वस्त्रादि। और कार्य प्रकृत शरीर आदि हैं इसलिए यह सिद्ध होता है कि अनादि सिद्ध ईश्वर ही सम्पूर्ण विश्व का बनाने वाला है। जैनाचार्यों का कहना है कि ‘‘तनुभुवनकरणादयो न बुद्धिमन्निमित्तका: दृष्टकर्तृकप्रासादादि विलक्षणत्वात आकाशादिवत् ।’’ ‘शरीर जगत् और इन्द्रिय आदि बुद्धिमान् कारण जन्य नहीं हैं, क्योंकि जिन मकानादि के कर्ता देखे जाते हैं उसने भिन्न हैं । जैसे आकाशादि।’ दूसरी बात यह है कि वह ईश्वर सृष्टिकर्ता शरीर सहित है या रहित ? यदि रहित कहो तो अन्य मुक्त जीवों के समान वह भी सृष्टि नहीं बना सकता। यह शरीर सहित कहो, तो वह कर्मसहित होने से अज्ञानी संसारी प्राणी के समान सृष्टि नहीं कर सकेगा। इन वैशेषिकों ने एक सदाशिव ईश्वर को सृष्टिकर्ता माना है, उसमें ज्ञान, इच्छा और प्रयत्न ऐसी तीन शक्तियां मानी है। पुन: प्रश्न यह भी होता है कि कर्म के बिना इच्छा शक्ति कैसे होगी ? यदि ज्ञान शक्ति से ही सम्पूर्ण कार्य करना मानो, तो भी असंभव है। यदि वैशेषिक कहे कि—समीहामंतरेणपि यथा वक्ति जिनेश्वर:। तथेश्वरोऽपि कार्याणि कुर्यादित्यप्यपेशलम् ।।१४।। सति धर्मविशेषे हि तीर्थंकृत्त्वसमाहये। ब्रूयाज्जिनेश्वरो मार्गं न ज्ञानादेव केवलात् ।।१५।। सिद्धस्यापास्तनि:शेष—कर्मणो वागसंभवात् । बिना तीर्थकरत्वेन नाम्ना नार्थोपशदेशना।।१६।।जिस प्रकार से आप जैनों का जिनेश्वर बिना इच्छा के मोक्ष मार्ग का उपदेश देता है, वैसे ही हमारा महेश्वर बिना इच्छा के सृष्टि बनावे क्या बाधा है ? आचार्य ने कहा कि भाई! हमारे जिनेश्वर की तीथ्ांकर नामा नाम कर्म विशेष से उपदेश में प्रवृत्ति होती है और वे तीर्थंकर तो कर्म सहित हैं शरीरसहित हैं। हां! मोहकर्म के नष्ट हो जाने से इच्छा रहित अवश्य हैं। पूर्णकर्म रहित सिद्धों का उपदेश हम नहीं मानते हैं। यदि आप भी ईश्वर के योग विशेष मानों तो शरीर अवश्य मानना पड़ेगा, पुन: प्रश्न माला चलती जायेंगी। वह सृष्टि रचने के पहले अपना शरीर बना लेता है या शरीर रहित ही सृष्टि बनाकर अपना शरीर बनाता है ? यदि कहो ईश्वर स्वयं अपना शरीर नहीं बनाता है वह स्वयं बन जाता है, तब तो जैसे ईश्वर की इच्छा और प्रयत्न के बिना उसका शरीर बन गया वैसे ही सारी सृष्टि बन जावे। यदि ईश्वर अपने पूर्व शरीर का कर्ता पूर्व पूर्वर्ती शरीर से होता है तब तो शरीर परम्परा अनादि सिद्ध होने से अनवस्था दोष आ जाता है, एवं संसारी प्राणी और ईश्वर में कोई अन्तर नहीं दिखता है। कार्मणशरीर से सहित ही संसारी प्राणी अनादि काल से शरीरों का निर्माण करता चला आ रहा है। दूसरी बात यह भी है कि उस ईश्वर का ज्ञान नित्य है या अनित्य ? यदि नित्य कहो तो सारे कार्य एक साथ हो जावेंगे, क्योंकि ज्ञान सदा काल एक नित्य है, अनित्य कहो तो भी अनेकों दूषण आते हैं। यहां ईश्वर का ज्ञान व्यापी है या अव्यापी ? स्वसंविदित है या अस्वसंविदित ? वह ज्ञान महेश्वर के ज्ञान को महेश्वर से भिन्न या अभिन्न ? इत्यादि प्रश्न चलते ही रहेंगे। वैशेषिक महेश्वर के ज्ञान से भिन्न मानकर समवाय से महेश्वर को ज्ञानी कहता है तब आचार्य कहते हैं कि यह समवाय एक है तो समवाय महेश्वर में ही ज्ञान को जोड़े अन्यत्र आकाशादि में नहीं ऐसा क्यों ? यदि कहो आकाश अचेतन है, ईश्वर चेतन है तो भी ठीक नहीं है क्योंकि आपने ईश्वर को चेतन नहीं माना है चेतन के समवाय से ही चेतन माना है।‘‘नेशो ज्ञाता न चाज्ञाता स्वयं ज्ञानस्य केवलं। समवायात्सदा ज्ञाता यश्चात्मैव स किं स्वत: ।।६५।।यदि कहो कि ईश्वर न ज्ञाता है न अज्ञाता है किन्तुउ ज्ञान समवाय से ज्ञाता है तब तो बताओ ईश्वर आत्मा है या नहीं ? तब उसने कहा, ईश्वर न आत्मा है न अनात्मा हैं। आत्मत्व के समवाय ये आत्मा है। तब तो बताओ उस आत्मत्व सम्वाय के पहले वह क्या है ? द्रव्य है ?तब वह कहता है कि नहीं। ईश्वर न द्रव्य है न अद्रव्य है, द्रव्यत्व के समवाय से द्रव्य है तब प्रश्न होता है कि द्रव्यत्व समवाय के पहले वह सत् रूप तो अवश्य होगा ? उसने कहा नहीं। ईश्वर असत् ही रहेगा। अर्थात् उस ईश्वर का कुछ भी स्वरूप समझ में नहीं आता है। समवाय की सिद्धि तो असंभव है। क्योंकि जीव में या ईश्वर में ज्ञान समवाय के पहले वे ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? यदि ज्ञानी हैं तो समवाय ने क्या किया ? यदि अज्ञानी हैं तो पत्थर आदि अज्ञानी अचेतन में भी ज्ञान का समवाय क्यों नहीं होता है अत: समवाय सम्बन्प्ध नाम से तादात्मय सम्बन्ध मानकर स्वरूप का स्वरूपवान के साथ तादात्मय ही स्वीकार करन चाहिए अग्नि में उष्ण का जीव में ज्ञान का जो तादादत्मय सम्बन्ध है उसे ही समवाय भले ही कह दो। इस लिए उपयुक्त दोषों के निमित्त से आपका महेश्वर देहसहित, कर्मसहित, सर्वज्ञ एवं मोहरहित सिद्ध नहीं होता। दूसरी बात यह है कि वह ईश्वर सृष्टि क्यों बनाता है किसी अन्य पुरूष की प्रेरणा से या दया से, क्रीड़ा से या स्वभाव से ? यदि अन्य से प्रेरित होकर बनाता है तब तो उसकी स्वतन्त्रता समाप्त हो जाती है। यदि दया से बनाता है तो उसने दु:खी प्राणी को क्यों निर्माण किये ? यदि कहो पापियों को दण्ड देना पड़ता है तब तो उसने पाप की सृष्टि क्यों की ? परम पिता परमकारुणिक ईश्वर पाप और पापीजनों की सृष्टि क बवोंन फिर उन्हें दु:ख देवें यह तो उचित नहीं है। यदि कहो क्रीड़ा से सृष्टि का निर्माण करता है तबो तो वह प्रभु महान् कैसे रहेगा, प्रत्युत क्रीड़ा प्रिय होने से बालकवत् नादान समझा जावेगा। यदि कहो स्वभाव से वह सृष्टि का निर्माण करता है तब तो ईश्वर का स्वभाव नित्य है सदा काल है अत: सदा काल एक जैसी सृष्टि बनती रहेगी, तरह—तरह की विचित्रता का अनुभव नहीं होना चाहिये। इत्यादि अनेकों दोष आते हैं अत: ईश्वर को अनादि सिद्ध एवं सृष्टि का कर्ता मानना अनुचित्त है। यह संसारी प्राणी अनादि काल से कर्म सहित होने से स्वयं ही पुण्य पाप का कर्ता है और भोक्ता है। जब पुरुषार्थ से कर्मों का भेदन कर देता है तो ईश्वर महेश्वर, ब्रह्मा, महात्मा, परमात्मा सिद्ध शिव अक्षय, अच्युत आदि अनेकों नाम से पूज्य बन जाता है। ==सांख्य कर आप्त समीक्षा==‘कपिल एव मोक्षमार्गस्योपदेशक: क्लेशकर्मविपाकाशयानां भेत्ता च रजस्तमसोस्तिरस्करणात् ।’ (आप्त प.पृ.१५६)कपिल ही मोक्ष मार्ग का उपदेशक तथा क्लेश, कर्म, विपाक और आशयों का भेद करने वाला है, क्योंकि उसके रज और तम का सर्वथा अभाव है। यह कथन साँख्यों का है। इस पर आचार्य कहते हैं कि कपिल सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि वह स्वयं अपने ज्ञान से सर्वथा भिन्न है, इसलिये सर्वज्ञ नहीं है। सांख्य का कहना है कि मुक्त होना, संसारी होना पुरुष का धर्म नहीं हैं। प्रधान के ही संसारीपना, मुक्तपना ज्ञान और सुख का होना संभव है।प्रधानं ज्ञत्वतो मोक्षमार्गस्यास्तूपदेशकम् । तस्यैव विश्ववेदित्वात् भेदित्वात् कर्मभूभृताम् ।।८०।। इत्यसंभाव्यमेवास्याचेतनत्वात् पटादिवत् । तदसंभवतो नूनमन्यथा निष्फल: पुमान् ।।८१।। भोक्तात्मा चेत्स एवास्तु कर्ता तदविशेषत: । विरोधे तु तयोर्भोत्तिु: स्याद् भुजौ कर्तृता कथं।।८२।।प्रधान ही मोक्ष मार्ग का उपदेशक है, क्योंकि वह ज्ञानी है और ज्ञानी इसलिये है कि वी विश्व —वेदी—सर्वज्ञ है, तथा सर्वज्ञ भी इसलिये है कि कर्म पर्वतों का भेत्ता है। जैनाचार्य कहते हैं कि सांख्यों का यह मत असंभव है क्योंकि वह प्रधान वस्त्रादि की तरह अचेतन हैं। इसलिये प्रधान को कर्मों का नाशक, विश्वज्ञानी, मोक्षमार्ग का उपदेशकत्व आदि मानना असम्भव हैं। यदि मानोगे तो पुरूष की कल्पना ही व्यर्थ हो जावेगी। अगर कहो कि पुरूष भोक्ता है तब तो वही कर्ता भी होवे, क्योंकि कर्तृत्व और भोत्तृत्व दोनों एक जगह संभव हैं। यदि क्रिया के कर्तापने का विरोध कहा जावे तो भोक्ता पुरुष भुज् क्रिया का कर्ता कैसे रहा? आश्चर्य तो इस बात का है कि प्रधान सर्वज्ञ है और मुमुक्षुउ जन स्तुति पुरुष की करते हैं। तात्पर्य यह है कि कपिल ने ज्ञान के आश्रय भूत प्रधान के संसर्ग से ही ज्ञान माना है, वह पुरुष स्वयं तो ज्ञान रहित है, किन्तु यह सिद्धांत सर्वथा गलत है अचेतन में ज्ञान हो और उसके संसर्ग से संसार में पुरूष ज्ञानी बनें एवं मुक्त में अज्ञानी रहें यह कल्पना गलत है अत: ज्ञानदर्शन स्वरूप पुरूष विशेष ही कर्मों का नाशक, विश्व का ज्ञाता सर्वज्ञ और मोक्षमार्ग का उपदेष्टा आप्त है किन्तु कपिल आप्त नहीं है।