जैन परम्परा में ध्यान.- अपने आप में एक मौलिक, अनुभूत तथा एक व्यवस्थित अवधारणा है । इस परम्परा की एक विशेषता है कि वह अतीन्द्रिय अनुभूति भी अनायास या उसके मार्ग में अव्यवस्था, अक्रम स्वीकार नहीं करती । उसकी अनुभूति? शब्दातीत अवर्णनीय भले ही होती हो किन्तु उसकी प्राप्ति का मार्ग व्यवस्थित है तथा शब्दों से वर्णनीय है । मुकेश जैन विगत चार वर्षों से ध्यान-योग पर शोधकार्य कुरर रहे हैं । उनके इस शोधालेख में आत्मविकास की आगमोक्त प्रक्रिया का सप्रमाण विवेचन किया गया है । ध्यान के साथ गुणस्थान के संबंध को भी दर्शाया है । ‘अनेकान्त’ का उद्देश्य नये शोधार्थियों के जैनविद्या तथा प्राकृत भाषा के शोध हेतु प्रोत्साहित करना- भी है । उदीयमान प्रतिभाओं? के महत्वपूर्ण आलेखों का हमेशा स्वागत है । सहसम्पादक जैनदर्शन अध्यात्म प्रधान है । आत्मोथान ही इसका प्रधान उद्देश्य है । इसी संन्दर्भ में यहाँ ध्यान-योग साधना का विकास देखा जा सकता है । ध्यानयोग साधना के स्वरूप को समझने में गुणस्थान ही जीव के क्रमिक विकास को दर्शाता है । ध्यान योग विषयक सभी जैन ग्रंथों में गुणस्थान की चर्चा ध्यान के अधिकारियों के प्रसट्टू: में की गयी है ।
ज्ञानार्णवकार ने भी इसका उल्लेख किया है-
मुख्योपचारभेदेन द्धौ मुनी स्वामिनी मतौ । अप्रमत्तप्रमताख्यौ धर्मस्यैतौ यथायथम् । ।
अप्रमत्त: सुसंस्थानो वजकायो वशीस्थिर: । पूर्व विस्संवृतो धीरो ध्याता संपूर्णलक्षण: ।
भावों के आधार पर जीव की विविध अवस्थाओं का वर्णन ही गुणस्थान की प्रक्रिया है । आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं के अनुभव एवं ज्ञान के लिए गुणस्थान का विशेष महत्व है ।’
गुणस्थान-अर्थ और स्वरूप- ‘गुण’ शब्द से तात्पर्य है- आत्मा की दर्शन, ज्ञान और चरित्र रूप विशेषताएँ एवं स्थान का अर्थ है- इन शक्तियों की शुद्धता की तारतम्यभाव युक्त अवस्थायें ।3 गोम्मटसार में जीवों को ही ‘गुण’ कहा जाता है । 4 अत: गुणस्थान को भावों के आधार पर जीव का स्थिति बोधक कहा जाता है । जीव की मोह और मन-वचन काय की प्रवृत्ति के कारण अन्तरके परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार चढ़ाव का नाम गुणस्थान है । दर्शन मोहनीयादि कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपाशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले भावों को गुणस्थान कहा गया है ।र्प गुणस्थान परिणामाधारित होते हैं- उकृष्ट मलिन परिणामों से लेकर उकृष्ट विशुद्ध परिणामों तक तथा वीतराग परिणामों की अनन्त वृद्धियों के क्रम को कथन योग्य बनाने के लिए गुणस्थानों के रूप में उन्हें 14 श्रेणियों में विभाजित किया गया है
”गुणस्थान के भेद- उपर्युक्त आधार पर जीव की विविध अवस्थाओं को जैन साहित्य में चौदह गुणस्थानों में विभाजित किया गया है । ‘ इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है।
जिस अवस्था में दर्शन मोहनीय कर्म की प्रबलता के कारण सम्यख्र गुण आवृत्त हो जाता है, आत्मा की तत्वार्थ रूचि प्रकट नहीं हो पाती उस अवस्था को मिथ्यादृष्टि कहा जाता है । इस गुणस्थान में जीव को धर्म अधर्म का ज्ञान नहीं होता ।9 निमित्त पाकर मिध्यात्व को दूर कर लेने पर जीव चतुर्थ गुणस्थान की प्राप्ति कर लेता है एवं पतित होने पर पुन: प्रथम गुणस्थान में आ जाता है ।
जीव का आरोहण प्रथम गुणस्थान से द्वितीय गुणस्थान में नहीं होता अपितु उच्च गुणस्थानों से अवरोहण के समय कुछ समय के लिए जीव इस गुणस्थान में रूकता है । अत: उपशम सम्यक से पतित जीव जब तक मिध्यात्व को प्राप्त नहीं होता तब तक उसे सासादन सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । ” सासादन यह अन्तर्थ संज्ञा है । आसादन का अर्थ विराधना है जो आसादन के साथ हो वह सासादन है । सासादन के साथ सम्यग्दृष्टि सासादन सम्यग्दृष्टि कहा जाता है । ‘
इस गुणस्थान में सम्यग्दर्शन और मिध्यादर्शन दोनों के मिले जुले भाव रहते हैं इसलिए इस अवस्था को ‘मिश्रगुणस्थान’ या ‘सम्बग्मिथ्यादृष्टि’ गुणस्थान कहते हैं । ‘4 प्रथमबार उपशम सम्यक प्राप्त करते हुए जीव मिध्यात्व के तीन विभाग-मिध्यात्व, सम्बग्मिध्यात्व और सम्बक्यकृति करता है । इनमें से उपशम सम्यक का अन्तर्मुहूर्त काल पूर्ण होते ही यदि सम्बग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय होता है तो वह जीव सम्बक्ल और मिथ्यात्व से युक्त अवस्था वाला होता जाता है यही सम्बग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है । इस गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त माना हे इसके पश्चात जीव या तो पुन: चतुर्थ गुणस्थान में पहुँच जाता है या पतित होकर प्रथम गुणस्थान में पहुँच जाता है । ऐसे जीव पुन: गुणस्थान वृद्धि के समय प्रथम से तृतीय गुणस्थान में पहुँचते हैं लेकिन जिन जीवों ने कभी सम्यक प्राप्त नहीं किया है वे प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान ही प्राप्त करते हैं । इसकी तुलना दही और गुड के मिश्रित स्वाद से की गयी है ।
गुणस्थान की चतुर्थ अवस्था सम्यग्दर्शन है । जीवादि तत्वों का यथार्थ श्रद्धान हो जाने पर जीव इस गुणस्थान में प्रवेश करता है । जो जीव इन्द्रिय विषयों से विरक्त न होते हुए भी तत्वों के प्रति यथार्थ श्रद्धान रखता है वह 1 ‘अविरत सम्यग्दृष्टि’ ‘ गुणस्थानवर्ती कहलाता है । ” यहाँ वह सात प्रकृतियों का उपशम क्षय अथवा क्षयोपशम करता है । मिध्यात्व, सम्बग्मिध्यात्व, सम्यक् और अनन्तानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ । चतुर्थ गुणस्थान के बाद की सभी अवस्थायें सम्यग्दर्शन से युक्त होती हैं । एक बार सम्यक प्राप्त हो जाने पर ऊपर के गुणस्थानों से पतित होने पर भी वह जीव पुन: कभी न कभी लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेता है । जीव के लिए यह गुणस्थान सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है ।
चतुर्थ गुणस्थान में जीव अनन्तानुबंधी कषाय से रहित होता है लेकिन अप्रत्यख्यानावरण कषाय का उदय होता है, पंचम गुणस्थान में अप्रत्यख्यानावरण कषाय का भी उपशम हो जाता है । चारित्रमोहनीय कर्म की शिथिलता होने से जीव आशिक रूप से व्रतादिक का पालन करना भी प्रांरभ कर देता है । ‘ 9 इसलिए पंचम गुणस्थानवर्ती को विरताविरत, देशविरति अथवा संयतासंयत कहा गया है ।
इस गुणस्थान में जीव देशविरत से सर्वविरत हो जाता है । समस्त परिग्रह का त्यागकर वह महावती बन जाता है । चूंकि इस गुणस्थान में वह संयमी होते हुए भी प्रमाद से युक्त होता है इसलिए इस गुणस्थान को ‘प्रमत्तसंयत’ (विरत) गुणस्थान कहते हैं ।र्ड’ इस गुणस्थान में जीव सप्तम गुणस्थान से पतित होकर प्रवेश करते हैं जीव पंचम से सीधे ‘प्रमत्तविरत’ की स्थिति को प्राप्त नहीं होता दिमॅ
पंचमगुणस्थान में जब साधक प्रत्याख्यानावरण कषाय का भी उपशम कर देता है तो वह जीव अप्रमतसंयत गुणस्थान में प्रवेश करता है । इसमें वह समस्त परिग्रह से रहित प्रमादहीन चरित्र का पालन करता है इसलिए इस अवस्था को ‘अप्रमससंयत’ गुणस्थान कहा जाता है मित्र प्रमाद के उदय होने पर जीव पतित होकर छठे गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार वह छठे और सातवें गुणस्थान में वह झेले की भांति आरोहण-अवरोहण करता है । सांतवें गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त तक निर्बाध स्थिति में वह आठवें गुणस्थान में प्रवेश कर जाता
आत्मविकास की इस अवस्था में जीव निरन्तर शुद्धतर होने वाले अभूतपूर्व आत्मपरिणाम रूप विशुद्धि को प्राप्त करता है इसलिए इस गुणस्थान को ‘अपूर्वकरण’ कहते हैं । इस गुणस्थान का दूसरा नाम निवृत्ति बादर भी है । आठवें गुणस्थान से आगे बढ़ने वाले जीवों की दो श्रेणियां प्रारंभ हो जाती है । उपरशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी” । चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम के लिए परिणामों की सन्तति श्रेणी कहलाती है । जिस श्रेणी में जीव कर्मों का उपशम करते हुए आगे बढ़ता है वह ‘उपशम श्रेणी’ एवं जिसमें कर्मों का क्षय करते हुए आगे बढ़ता है वह ‘क्षपक श्रेणी’ कहलाती है ।र्मों दर्शनमोह का क्षय या उपशम करने वाला ही ‘उपशम श्रेणी’ एवं दर्शन मोह का क्षय करने वाला ही ‘क्षपक श्रेणी’ चढ़ सकता है मि8 आठवें गुणस्थान में जीव के क्रोध और मान का लोप हो जाता है एवं शुक्लध्यान प्रारंभ हो जाता है ।
इस गुण स्थान में जब जीव निर्विकल्प समाधि के अभिमुख होता है तो उसे ‘अनिवृत्तिकरण’ कहते है । इस अवस्था में सभी जीवों के परिणाम तारतम्यता रहित एक समान होते है ।’० परिणामों में जघन्य या उकृष्ट भेद नहीं होता है ।’ ‘ अन्य गुणस्थानों की अपेक्षा इस गुणस्थान में कषायों का उपशम अथवा क्षय खूल रूप से होता है ।र्भं’ आठवें गुणस्थान में लोभ को छोड्कर शेष सभी कषायों का उपशम अथवा क्षय हो जाता है ।”
सूक्ष्मलोभ की अवस्थिति होने से उसका उपशम या क्षय वह दसवें गुणस्थान के अंत समय में करता है इस कारण इसका नाम ‘सूक्ष्म साम्पराय’ है । यहाँ से आत्मा क्षपक श्रेणी से बारहवें गुणस्थान में प्रवेश करता है । उपशम श्रेणी से बारहवें गुणस्थान में प्रवेश नहीं होता ।3′
क्षपक श्रेणी से इस गुणस्थान में प्रवेश नहीं होता मात्र उपशम श्रेणी वाले जीव जिन्होंने क्रोधादि कषायों का क्षय करने के बजाय उपशम किया हो इस गुणस्थान में प्रवेश होता है । मोह के उपशम के कारण ही इसे उपशान्त मोह कहते है । इस गुणस्थान से आगे जीव की उन्नति नहीं होती वह अधिकतम अन्तर्मुहूर्त के लिए मोहनीय कर्म का उपशम कर वीतराग अवस्था प्राप्त करता है लेकिन अन्तर्फर्त के पश्चात् वह पुन: इसके प्रभाव में आ जाता है एवं आत्मा पतित हो जाती है । पतित आत्मा इस गुणस्थान से प्रथम गुणस्थान को भी प्राप्त हो जाती है अत: इसे अध: पतन का स्थान भी कहा जाता है । लेकिन इस स्थान तक पहुँचने वाला जीव पुन: आत्मरेत्थान में शीघ्र ही प्रवृत्त होता है ।
मोहनीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय करके ही जीव ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त किये बिना सीधे बारहवें गुणस्थान में प्रवेश करता है इसलिए ‘क्षीण कषाय’ कहलाता है । यहाँ से जीव पतन को प्राप्त नहीं होता अपितु अन्तर्मुहूर्त तक यहाँ रहकर केवल ज्ञान प्राप्त कर लेता है । इस गुणस्थान में कर्म संबंध होने के कारण इस प्रकार चौदह गुणस्थानों के माध्यम से अध्यात्म विकास की धारा को दर्शाया गया है । इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि आत्मा का क्रमिक विकास किस रूप में होता है । गुणस्थान के वर्णन से यह भी स्पष्ट है कि ध्यान भी गुणस्थान का अभिन्न अह है ।
जैन दर्शन विभाग – द्र श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ अँइइ-ऐंईँ?-र्त्रेँ -३ ?एं-? इं? ऐं इइए इँ नई दिल्ली- 16 संदर्भ ज्ञानार्णव, 28725-26 तत्रगुण: ज्ञानदर्शन चारित्र रूपा: जीव स्वभाव विशेषा:, कर्मग्रन्थ टीका, भाग-2, या-? 3. जैनधर्म का प्राण, पू. 87 उद्धृत-वही पू. 19′ ह गोम्मटसार जीवकाण्ड, 7 (क) पंच संग्रह प्राकृत, 173 जेहिं दु लक्सिज्जते उदयादिसु संभवेहिं भागेहिं । जीवा ते गुणसण्णा णिछिट्ठा सबदरिसीहिं । । (ख) गोम्मटसार जीवकाण्ड अ टीका, 872०9 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भाग-2 पू. 245 इश् २२२ मैँ ज्र इँ डटे- – ल्थंrएrँइँ?-इश्ए?-ँअइDंइ:उँएऐ rएrइं ‘ ?-? दें- (क) षट्खण्डागम, 171, ग्ल-9-22,16-192 ड्डुर र -ह – ००…. खां आचार, 1195-1196 (ग) पंचसंग्रह प्राकृत, 174-5 ८ राजवार्तिक 971711758878 (छ) गोम्मटसार जीवकाण्ड, 9-1०730 षट्खण्डागम, २११८०-८१; गोम्मटसार जीवकाण्ड, 7; पंचसंग्रह प्राकृत; १४.. ?_?ऊ?Tn.’2ऋन्-_;-_-?-अट गुणस्थान क्रमारोहण, 8 षट्खण्डागम, १०१३१० गोम्मटसारजीवकाण्ड, -2० पंचसंग्रह, ”4 ..-२२२२?? एं धवला, १७०६? १-०१०१६५६५५ गोम्मटसार जीवकाण्ड, 11०2 राजवार्तिक, 9717137589718 ठइrc?.–ए षट्खण्डागम, 17171 1; गोम्मटसार जीवकाण्ड, 21; पंचसंग्रह प्राकृत, 1710 ह द्वू– ऐंए -ऐं ६ -ए? तत्त्वार्थसार, 2721 तत्त्वार्थवार्तिक, 971714 षट्खण्डागम, गोम्मटसार (जीवकाण्ड, २७-२३; पंचसंग्रह प्राकृत, ११ धवला, पुस्तक 1, पू. 173, गोम्मटसार जीवकाण्ड, 29 षट्खण्डागम, १७०१७१ गोम्मटसार (जीवकाण्ड, ३२०-३५१ पंचसंग्रह प्राकृत, ऐ2) तत्त्वार्थसार, 2722 अनेकान्त 62-1 2०. षट्खण्डागम, गोम्मटसार जीवकाण्ड, -33 पंचसंग्रह, १३७४ ल्लैं 21. तत्त्वार्थ सार, 2723 22. जैनेन्द्रसिद्धांत कोश, भाग-? पू. 247 23. षट्खण्डागम, गोम्मटसार जीवकाण्ड, ५०-५५४ पंचसंग्रह प्राकृत, 1716 24. जैनधर्म, कैलाश चन्द्र शास्त्री, पू. 236 25. षट्खण्डागम, गोम्मटसार जीवकाण्ड, ५०-५५४ पंचसंग्रह प्राकृत, 172०-21 26. तत्त्वार्थसार, 2723 -दूं- ह धवला, पुस्तक 6, पू. 317 जैनसिद्धान्त, पू. 81-82 षट्खण्डागम, १३-१३८०७७ गोम्मटसार जीवकाण्ड, १८५ पंचसंग्रह प्राकृत, _72०-21एं जैनेन्द्र सिंद्धात कोश, भाग-१, पू. 6?’ गोम्मटसार जीवकाण्ड, 57 गाथा व टीका तत्त्वार्थसार, २१२६ गोम्मटसार जीवकाण्ड, 58 षट्खण्डागम, गोम्मरसार जीवकाण्ड, -६० ??? प्राकृत 1722-23 न् श, भाग-? पू. 247 – षट्खण्डागम, गोम्मटसार (जीवकाण्ड), 61; पंचसंग्रह प्राकृत, 1724 षट्खण्डागम, गोम्मटसार जीवकाण्ड, 62; पंचसंग्रह प्राकृत, 1725 जैनसिद्धान्त, पू. 83 षट्खण्डागम, गोम्मटसार जीवकाण्ड, ६३-१६ पंचसंग्रह प्राकृत, 1727 जैनसिद्धान्त, पू.-83ईई तत्त्वार्थसूत्र: भुतसागरीय वृत्ति, 971 षट्खण्डागम, गोम्मटसार जीवकाण्ड, 65; पंचसंग्रह प्राकृत 17100 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग-2, पू. 247 कद तदविरत् देशविरत प्रमत्त संयतानामृ । तत्त्वार्थक्त, . तत्त्वार्थसूत्र, ८५५ बृहद्द्रव्यसंग्रह टीका, सर्वार्थसिद्धि |