दोहा
पंचनमस्कृति मंत्र है, सर्व सुखों की खान।
पंचपदों युत मंत्र को, वंदूँ शीश नवाय।।१।।
पंचपरमगुरु को नमूँ, पंचमगति मिल जाए।
रोग-शोक बाधा टलें, सुख अनन्त मिल जाए।।२।।
श्रीमुनिसुव्रतनाथ का, यह चालीसा पाठ।
पढ़ लेवें जो भव्यजन, शनिग्रह होवें शांत।।३।।
शारद माता तुम मुझे, दे दो आशिर्वाद।
तभी पूर्ण हो पाएगा, यह जिनवर गुणगान।।४।।
चौपाई
मुनिसुव्रत जी सुव्रतदाता, भक्तों को सन्मार्ग प्रदाता।।१।।
नमन करूँ मैं तुमको प्रभु जी, करना सब कार्यों की सिद्धी।।२।।
राजगृही नगरी अति प्यारी, सुखी वहाँ की जनता सारी।।३।।
वहाँ के महाराजा सुमित्र थे, शिरोमणी वे हरीवंश के।।४।।
उनकी महारानी सोमा थी, जीवन अपना धन्य समझतीं।।५।।
श्रावण बदी दूज को माँ ने, सुन्दर सोलह स्वप्न विलो के।६।।
मुनिसुव्रत जी गर्भ में आए, इन्द्र गर्भकल्याण मनाएँ।।७।।
पुन: हुआ जब जन्म प्रभू का, वह दिन भी अतिशय पावन था।।८।।
थी वैशाख वदी बारस तिथि, स्वर्गों से आई सुरपंक्ती।।९।।
नामकरण भी सुरपति करते, पाण्डुशिला पर अभिषव करते।।१०।।
तीस सहस वर्षायु प्रभू की, ऊँचाई थी बीस धनुष की।।११।।
साढ़े सात हजार वर्ष का, बीता जब सुकुमार काल था।।१२।।
तब पितु ने राज्याभिषेक कर, सौंप दिया था राजपाट सब।।१३।।
राज्य अवस्था में प्रभुवर के, बीते पन्द्रह सहस वर्ष जब।।१४।।
इक दिन बादल गरज रहे थे, तब उनके इक मागहस्ति ने।।१५।।
वन का कर स्मरण हृदय में, भोजन-पान न किया तनिक भी।।१६।।
तत्क्षण मुनिसुव्रत जिनवर ने, जान लिया निज अवधिज्ञान से।।१७।।
हाथी के मन की सब बातें, पुन: कहें वे सबके सामने।।१८।।
सुनों! ये हाथी पूरब भव में, नगर तालपुर के अधिपति थे।।१९।।
मिथ्याज्ञान से ये संयुत थे, अशुभ तीन लेश्या थीं इनमें।।२०।।
ऊँचे कुल का मान किया था, पात्र-अपात्र को दान दिया था।।२१।।
इसीलिए वह राजा मरकर, बने यहाँ हाथी इस भव में।।२२।।
अभी भी यह हाथी अपने उस, वन का ही कर रहा स्मरण है।।२३।।
इसे वो कारण याद नहीं है, जिससे गजयोनी पाई है।।२४।।
इतना सुनते ही हाथी को, बातें स्मरण हुई ज्यों की त्यों।।२५।।
उसने प्रभु के पास बैठकर, ग्रहण कर लिया सम्यग्दर्शन।।२६।।
इस घटना के ही निमित्त से, प्रभु जी हुए विरक्त जगत से।।२७।।
लौकान्तिक सुर आए तब ही, नानाविध स्तुति की प्रभु की।।२८।।
सुन्दर नील वर्ण युत प्रभु जी, नील नाम के वन में पहुँचे।।२९।।
वहँ वैशाख बदी दशमी में, प्रभु जी ने जिनदीक्षा ले ली।।३०।।
प्रथम पारणा का शुभ अवसर, प्राप्त किया नृप वृषभसेन ने।।३१।।
दीक्षा के ग्यारह महिने जब, बीते तब केवली बने प्रभु।।३२।।
थी वैशाख बदी नवमी तब, प्रभु की खिरी दिव्यध्वनि थी जब।।३३।।
कई वर्षों तक भव्यजनों को, धर्मपियूष पिलाया प्रभु ने।।३४।।
अन्त समय में देखो! प्रभु जी, पहुँच गए सम्मेदशिखर जी।।३५।।
शाश्वत तीर्थराज से प्रभु को, प्राप्त हो गई शाश्वत पदवी।।३६।।
वह तिथि थी फाल्गुन बदि बारस, आज भी लाडू चढ़ता उस दिन।।३७।।
कछुआ चिन्ह सहित जिनवर जी, शनिग्रह दोष निवारक भी हैं।।३८।।
प्रभु मेरा बस जन्म दोष ही, कर दो नष्ट यही इच्छा है।।३९।।
बनूँ अजन्मा मैं भी इक दिन, यही ‘‘सारिका’’ भाव रात-दिन।।४०।।
शंभु छंद
मुनिसुव्रत प्रभु का चालीसा, जो चालिस दिन तक पढ़ते हैं।
उनके शनि दोष विनश जाते, जो चालिस बार उचरते हैं।।
इस सदी बीसवीं में इक गणिनी ज्ञानमती माताजी हैं।
उनकी शिष्या इक दिव्यज्योति चन्दनामती माताजी हैं।।१।।
उनकी ही मिली प्रेरणा तब ही, लिखा ये चालीसा मैंने।
इसको पढ़कर मुनिसुव्रत प्रभु का, भक्ती से गुणगान करें।।
यदि शनिग्रह का होवे प्रकोप, तो निश्चित ही टल जाएगा।
यह बिल्कुल सच है भव्यात्मन्!, भक्ती से सुख मिल जाएगा।।२।।
दोहा
मुनिसुव्रत जिन जन्म भू, पावन तीर्थ प्रसिद्ध
सिद्धक्षेत्र माना इसे, कई हुए हैं सिद्ध ||१||
चालीसा इस तीर्थ का, जग में मंगलकार
रोग,शोक, संकट टले , भरे पुण्य भण्डार ||२||
चौपाई
मुनिसुव्रत प्रभु जन्मथली है, राजगृही पावन नगरी है ||१||
सुर,नर,मुनिगण द्वारा वंदित, इन्द्रगणों के द्वारा पूजित ||२||
प्रांत बिहार जिला नालंदा , जहां पवित्र तीर्थ है अपना ||३||
सोमावति माँ रात्रि प्रहर में, देख रहीं थीं सोलह सपने ||४||
पिता सुमित्रराज हरषाये , धनदराज नित रतन लुटाएं ||५||
श्रावण कृष्णा दूज तिथी थी, गर्भ पधारे त्रिभुवनपति जी ||६||
वदि वैशाख दुवादशि जानो, जन्मकल्याणक बेला मानो ||७||
मुनिसुव्रत भगवान थे जन्में, तीन लोक की जनता हरषे ||८||
ऐरावत हाथी पर चढ़कर, सौधर्मेंद्र चला ले परिकर ||९||
त्रय प्रदक्षिणा नगरी की दे, शचि को भेजा प्रसूतिगृह में ||१०||
प्रथम दर्श प्रभुवर का पाया, तत्क्षण स्त्रीलिंग नशाया ||११||
प्रभु ने राज्यविभव को भोगा , पुनः विरागी हो सब छोड़ा ||१२||
जातिस्मृति से आई विरक्ती, लौकान्तिक सुर आ की स्तुति ||१३||
दशमी वदि वैशाख की प्यारी , जब जिनवर ने दीक्षा धारी ||१४||
नवमी वदि वैशाख की आई, श्री कैवल्यरमा प्रगटाई ||१५||
ग्राम ज्रम्भिका में था प्यारा, समवसरण का भव्य नजारा ||१६||
किन्तु दिव्यध्वनि नहीं खिरी थी,समवसरण रचना विघटी थी ||१७||
राजगृही में श्री विपुलाचल , प्रथम देशना का यह स्थल ||१८||
बड़ी ही सुन्दर इसकी घटना, शास्त्र कहें विपुलाचल महिमा ||१९||
समवसरण में सभा लगी थी किन्तु दिव्यध्वनि नहीं खिरी थी ||२०||
इन्द्र ने अवधिज्ञान से माना, गौतम को लाने की ठाना ||२१||
युक्ती से गौतम को लाया, समवसरण में मानी आया ||२२||
मानस्तम्भ से मान गलित था,प्रभु के चरण में नतमस्तक था ||२३||
शिष्यों के संग दीक्षा लेकर, गौतम ने पाया गणधर पद ||२४||
धर्मचक्र का हुआ प्रवर्तन, वह तिथि श्रावण कृष्णा एकम ||२५||
छ्यासठ दिन पश्चात वहाँ पर, दिव्यदेशना खिरी थी अनुपम ||२६||
दिव्यध्वनी प्रभु ने प्रगटाई , तब त्रैलोक्य धरा हरषाई ||२७||
जैन वाङ्मय आदि ग्रन्थ में, कई नाम इसके बतलाए ||२८||
गिरिव्रज,वसुमति, कुशाग्रपुर,अरु ऋषभपुरी भी यह कहलाए ||२९||
राजगृही में पञ्च पहाड़ी , जुड़ी अनेकों घटना प्यारी ||३०||
विपुलाचल,ऋषिगिरि आदिक से, कई मुनियों ने सिद्धी पाली ||३१||
जीवन्धर मुनि,विद्द्युत्चर मुनि, श्वेतसंदीव गंधमादन मुनि ||३२||
घाति-अघाती कर्म नशाये , शाश्वत सिद्धशिला को पाए ||३३||
इसीलिये यह सिद्धक्षेत्र है, श्रद्धा का यह केन्द्रबिंदु है ||३४||
राजा श्रेणिक आदि की नगरी, कई धार्मिक कथा हैं कहती ||३५||
इतिहासिक अरु राजनीति की , दृष्टि से यह महिमामय नगरी ||३६||
ज्ञानमती माँ यहाँ पधारीं , खड्गासन प्रतिमा पधरा दीं ||३७||
विपुलाचल पर्वत के नीचे, मानस्तम्भ है ऊंचा दीखे ||३८||
पर्वत पर दी ऊं की प्रतिमा , चित्र प्रदर्शनि बनी अनुपमा ||३९||
जय जय ज्ञानमती माता की , प्रणमूँ पावन राजगृही जी ||४०||
दोहा
नमूँ बीसवें तीर्थकर , मुनिसुव्रत भगवान
चार-चार कल्याण से, है पवित्र यह धाम ||१||
इस तीरथ की अर्चना, आत्मा तीर्थ बनाय
आध्यात्मिक सुख सहज में,’इंदु’ हमें मिल जाय ||२||