(सिद्धान्तचिंतामणि टीका) से संग्रहीत
मंगलाचरणम्
अनन्तानन्तमाना ये, सिद्धास्तेभ्यो नमो नम:।
द्रव्यप्रमाणज्ञानार्थ-मेतं ग्रन्थमपि स्तुम:।।१।।
श्लोकार्थ-अनंतानंत प्रमाण जो सिद्ध भगवान हैं उनको मेरा बारम्बार नमस्कार होवे। अपने संख्याज्ञान-द्रव्यप्रमाणानुगम ज्ञान की वृद्धि के लिए इस ग्रंथ की भी हम स्तुति करते हैं।
इस प्रकार प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान से लेकर अयोगीजिन (चौदहवें गुणस्थान)पर्यन्त तीन कम नौ करोड़ मुनियों की संख्या हो जाती है। धवला टीका में श्री वीरसेन स्वामी ने कहा है- ‘‘ इस प्रकार प्ररूपण की गई सम्पूर्ण संयत जीवों की राशि को एकत्रित करने पर कुल संख्या आठ करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ सत्तानवे (८९९९९९९७)होती है।’’ अन्यत्र गंरथ में भी इसी प्रकार का कथन आया है-
गाथार्थ – सात का अंक आदि में और अंत में आठ का अंक लिखकर दोनों के मध्य में छह बार नौ के अंक लिखने पर ८९९९९९९७ तीन कम नौ करोड़ संख्याप्रमाण सब संयमियों को मैं हाथों की अंजलि मस्तक से लगाकर मन-वचन-काय की शुद्धि से नमस्कार करता हूँ।
उसी का स्पष्टीकरण करते हैं – प्रमत्तसंयत मुनियों की संख्या पांच करोड़ तिरानवे लाख अट्ठानवे हजार दो सौ छह (५९३९८२०६) है। अप्रमत्तसंयत मुनियों की संख्या दो करोड़ छियानवे लाख निन्यानवे हजार एक सौ तीन (२९६९९१०३) है। चार गुणस्थानवर्ती (आठवें,नवमें,दशवें और ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती) उपशामक मुनि ग्यारह सौ छियानवे (११९६) होते हैं तथा क्षपक श्रेणी सम्बन्धी चार गुणस्थानवर्ती और अयोगकेवली जीवों की संख्या दश कम तीन हजार (२९९०) है। तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली जीव आठ लाख अट्ठानवे हजार पाँच सौ दो (८९८५०२) प्रमाण हैं। इस प्रकार यह सम्पूर्ण संख्या मिलकर आठ करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ सत्तानवे अर्थात् तीन कम नौ करोड़ प्रमाण हो जाती है और ये सभी प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगकेवलीजिनपर्यन्त संयत-मुनि की संज्ञा से जाने जाते हैं। एक समय में एक सौ सत्तर कर्मभूमियों में होने वाले संयत इतनी संख्याप्रमाण होते हैं, ऐसी दक्षिणप्रतिपत्ति है। उपर्युक्त गाथाओं का कथन उचित नहीं है, ऐसा कोई आचार्य युक्ति के बल से बताते हैं। वह कौन सी युक्ति है ? उसे कहते हैं- सभी तीर्थंकरों की अपेक्षा पद्मप्रभ भट्टारक(भगवान)का शिष्य परिवार सबसे अधिक-तीन लाख तीस हजार संख्याप्रमाण है। यह संख्या एक सौ उत्तर से गुणित करने पर पांच करोड़ इकसठ लाख संयतों की संख्या होती है परन्तु यह संख्या पूर्वकथित संयतों की संख्याप्रमाण नहीं प्राप्त होती है। इसलिए पूर्वकथित प्रमाण उचित नहीं है ऐसा कहने पर उसका समाधन किया जाता है-समस्त अवसर्पिणी कालों की अपेक्षा वर्तमान काल में यह हुण्डावसर्पिणी काल चल रहा है इसलिए युग के माहात्म्य से घटकर ह्रस्वभाव को प्राप्त हुए हुण्डावसर्पिणी कालसम्बन्धी तीर्थंकरों के शिष्यपरिवार को ग्रहण करके गाथासूत्र को दूषित करना शक्य नहीं है, क्योंकि शेष अवसर्पिणियों के तीर्थंकरों के बड़ा शिष्यपरिवार पाया जाता है।
अन्य और भी कथन है कि भरत और ऐरावत क्षेत्र में मुनष्यों की अधिक संख्या नहीं पाई जाती है जिससे उन दोनों क्षेत्रसम्बन्धी एक तीर्थंकर के संघ के प्रमाण से विदेहक्षेत्रसम्बन्धी एक तीर्थंकर का संघ समान माना जाय किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यों से विदेहक्षेत्र के मनुष्यों की संख्या संख्यातगुणी अधिक है। अन्तद्र्वीपों के मनुष्य सबसे थोड़े हैं। उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। हरि और रम्यक क्षेत्रों के मनुष्य उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों के मनुष्य हरि और रम्यव् के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रों के मनुष्य हरि और रम्यक के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। विदेह क्षेत्र के मनुष्य भरत और ऐरावत के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। बहुत मनुष्यों में क्योंकि संयत बहुत ही होगे, इसीलिए इस क्षेत्रसम्बन्धी संयतों के प्रमाण को प्रधान करके जो दूषण कहा गया है, वह दूषण प्राप्त नहीं हो सकता है क्योंकि इस कथन का इसी अल्पबहुत्व के साथ विरोध आता है। अब आचार्य श्री वीरसेन स्वामी उत्तरप्रतिपत्ति का दिग्दर्शन कराते हैं- उत्तर प्रतिपत्ति-मान्यता के अनुसार प्रमत्तसंयतों का प्रमाण चार करोड़ छयासठ लाख छयासठ हजार छह सौ चौंसठ (४६६६६६६४) है। अप्रमत्तसंयतों का प्रमाण दो करोड़ सत्ताइस लाख निन्यानवे हजार चार सौ अट्ठानवे (२२७९९४९८)है। उपशामक, क्षपक और अयोगकेवली महामुनियों की संख्या पूर्वोक्त ही है तथा उपशामक संयतों की संख्या ग्यारह सौ छियानवे (११९६)है।
क्षपक संयतों एवं अयोगकेवली जिन संयतों की संख्या दो हजार नौ सौ नब्बे प्रमाण (२९९०) है तथा सयोगकेवली संयतों की संख्या का प्ररूपण करने वाली गाथा निम्न प्रकार है- गाथार्थ – तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली जिनों की संख्या पाँच लाख उनतीस हजार छह सौ अड़तालीस है। इन सभी संयतों की संख्या एकत्रित करने पर एक सौ सत्तर कर्मभूमिगत जो सम्पूर्ण ऋषि होते हैं, उन सबका प्रमाण छह करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार नौ सौ छियानवे (६९९९९९९६) है। यहाँ श्रीवीरसेनाचार्य ने दक्षिण और उत्तर इन दोनों प्रतिपत्तियों के द्वारा दो मतों का व्याख्यान किया है। उन दोनो मतों को भी पूर्वाचार्यों द्वारा निरूपित गाथाओं का उद्धरण दे देकरके ही किया है पुनः धवला टीकाकार के द्वारा दक्षिणप्रतिपत्ति का व्याख्यान प्रवाह्यमान आचार्यपरम्परागत है तथा उत्तरप्रतिपत्ति का व्याख्यान प्रवाहरूप से नहीं आ रहा है तथा आचार्यपरम्परा से अनागत है ऐसा पूर्व में ही कहा गया है । इस प्रकरण से ऐसा ज्ञात होता है कि- श्री वीरसेनाचार्यपर्यन्त दक्षिण की आचार्यपरम्परा अविच्छिन्न परम्परा थी और उत्तर की आचार्य परम्परा व्युच्छिन्न परम्परा है। तात्पर्य यह है कि दक्षिणप्रतिपत्ति के अनुसार ही वर्तमान काल में तीन कम नौ करोड़ संयत-मुनियों की संख्या प्रसिद्ध है। उसी को कहते हैं- सिद्धान्तचक्रवर्ती श्रीनेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार ग्रंथ में इसी तीन कम नौ करोड़ संख्या का कथन किया है। श्रीवसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य ने मूलाचार की तात्पर्यवृत्ति टीका में यही संख्या लिखी है तथा अन्य अनेक ग्रंथों में भी ऐसा ही सुना जाता है- श्लोकार्थ-ढाई द्वीपों में जो तीन कम नव करोड़ मुनिराज हैं, उन सबकी हम गुरुभक्तिपूर्वक वन्दना करते हैं। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. ३३ से ३६)
मनुष्यिनियों में मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं ? कोड़ा कोड़ाकोड़ी ऊपर और कोड़ा कोड़ाकोड़ा कोड़ी के नीचे छठे वर्ग के ऊपर और सातवें वर्ग के नीचे मध्य की संख्याप्रमाण हैं ।।४८।।
हिन्दी टीका- इस सूत्र का व्याख्यान मनुष्य पर्याप्त की संख्या प्रतिपादन करने वाले सूत्र के व्याख्यान के समान ही है। अन्तर केवल इतना है कि पंचम वर्ग के त्रिभाग को पाँचवें वर्ग में प्रक्षिप्त कर देने पर मनुष्यिनियों का प्रमाण लाने के लिए अवहारकाल होेता है। उस अवहारकाल से सातवें वर्ग के भाजित करने पर मनुष्यिनियों के द्रव्य का प्रमाण आता है। इस प्रकार जो मनुष्यिनियों की संख्या प्राप्त हो, उसमें से तेरह गुणस्थान के प्रमाण के घटा देने पर मिथ्यादृष्टि मनुष्यिनियों का प्रमाण होता है। पुनः मनुष्यिनियों में सासादन से प्रारम्भ करके अयोगिकेवलीपर्यन्त संख्या निरूपण के लिए सूत्र अवतरित होता है- मनुष्यिनियों में सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान मे जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं ? संख्यात हैं ।।४९।।
हिन्दी टीका-मनुष्यों के गुणस्थान में कथित सासादन आदि गुणस्थानवर्तियों का संख्यातवां भाग सासादन आदि गुणस्थानप्रतिपन्न जीवों का प्रमाण मनुष्यिनियों मे होता है।
प्रश्न-ऐसा कैसे ?
उत्तर – क्योंकि, अप्रशस्त वेद के उदय के साथ प्रचुर जीवों को सम्यग्दर्शन का लाभ नहीं होता है।
प्रश्न-यह भी कैसे जाना जाता है?
उत्तर -‘‘नपुंसक वेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सबसे स्तोक हैं। स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव उनसे असंख्यातगुणे हैं और पुरुषवेदी असंयत सम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणे हैं।’’
इस अल्पबहुत्व के प्रपिपादन करने वाले सूत्र से स्त्रीवेदियों के अल्प होने का कारण जाना जाता है और इसी से सासादन सम्यग्दृष्टि आदिक के भी स्तोकपना सिद्ध हो जाता है परन्तु इतनी विशेषता है कि उन सासादन सम्यग्दृष्टि आदि योनिनियों का प्रमाण इतना है, यह नहीं जाना जाता है क्योंकि इस काल में यह उपदेश नहीं पाया जाता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. ७२)
अर्थात् कहाँ कम हैं, कहाँ अधिक हैं यह निरूपण है
अधुना चतुर्गत्यपेक्षया सम्यग्दृष्टिषु क्व क्व बहुभागाधिका: क्व क्व हीना: इति दश्र्यंते- सर्वाधिकसम्यग्दृष्टय: सौधर्मैशानयो: सन्ति। ततो बहुखंडहीना: सानत्कुमार-माहेन्द्रयो:, ततो हीना: ब्रह्म-ब्रह्मोत्तरयो:, ततो हीना लांतवकापिष्ठयो:, ततो हीना: शुक्रमहाशुक्रयो:, ततो हीना शतार-सहस्रारयो:, ततो बहुभागहीना: ज्योतिष्कदेवेष, ततो हीना वाणव्यन्तरेषु, ततो हीना भवनवासिदेवेषु, ततो हीना: तिर्यक्षु, ततो हीना: प्रथमनारकपृथिव्यां, ततो हीना: द्वितीयपृथिव्यां, ततो हीना: तृतीयपृथिव्यां, ततो हीना: चतुर्थपृथिव्यां, ततो हीना: पंचमपृथिव्यां, ततो हीना: षष्ठपृथिव्यां, ततो हीना: सप्तमपृथिव्यां। पृनश्च ततो हीना: आनतप्राणतयो:, ततो हीना: आरणाच्युतयो:, ततो हीना: अधस्तनाधस्तन-ग्रैवेयकेषु, ततो हीना: अधस्तनमध्यमग्रैवेयकेषु, ततो हीना: अधस्तनोपरिमग्रैवेयकेषु, ततो हीनाः मध्यमाधस्तनग्रैवेयकेषु, ततो हीना: मध्यममध्यमग्रैवेयकेषु, ततो हीना: मध्यमोपरिमग्रैवेयकेषु, ततो हीना: उपरिमाधस्तनग्रैवेयकेषु, ततो हीना: उपरिममध्यमग्रैवेयकेषु, ततो हीना: उपरिमोपरिमग्रैवेयकेषु। ततो हीना: नवानुदिशषु, ततो हीना: विजयवैजयंत-जयंतापराजितानुत्तरेषु, ततो हीना: सर्वार्थसिद्धिषु, ततोऽपि बहुभागहीना: एकभागमात्रा: वा मनुष्येषु इति ज्ञातव्या:। इमानि द्वात्रिंशत् स्थानानि सम्यग्दृष्टीनां भवन्तीति। अथवा संक्षेपेण-सर्वाधिका: सम्यग्दृष्टयो देवगतिषु, ततो हीना: तिर्यग्गतिषु, ततो हीना नरकगतिषु, ततोऽपि हीना: मनुष्यगतिषु सन्तीति।
अब चतुर्गति की अपेक्षा सम्यग्दृष्टियों में कहाँ-कहाँ बहुभाग अधिक संख्या है और कहाँ-कहाँ हीन हैं? यह प्रदर्शित करते हैं- सौधर्म और ईशान स्वर्ग में सर्वाधिक सम्यग्दृष्टि जीव हैं। उससे बहुख्डहीन सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में हैं। उससे कम ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में हैं, उससे कम लांतव-कापिष्ठ स्वर्ग में हैं, उससे कम शुक्र-महाशुक्र स्वर्ग में हैं,उससे कम शतार-सहस्रार स्वर्ग में हैं, उससे बहुभागहीन ज्योतिषी देवों में सम्यग्दृष्टि होते हैं, उससे कम वाण-व्यंतर देवों मे हैं, उससे कम भवनवासी देवों में हैं, उससे कम सम्यग्दृष्टि तिर्र्यंचों में होते हैं, उससे कम प्रथम नरक में होते हैं, उससे कम द्वितीय नरक पृथिवी में हैं, उससे कम तृतीय नरक पृथिवी में हैं, उससे कम चतुर्थ नरक में हैं, उससे कम पंचम नरकपृथिवी में हैं, उससे कम छठी नरक पृथिवी में और उससे कम सम्यग्दृष्टि सातवीं नरकपृथिवी में पाये जाते हैं। पुनः उससे कम सम्यग्दृष्टि जीव आनत-प्राणत स्वर्ग में होते हैं, उससे कम आरण-अच्युत स्वर्ग में हैं, उससे कम नीचे-नीचे के ग्रैवेयक विमानों में, उससे कम अधस्तन मध्यम ग्रैवेयक में, उससे कम अद्यस्तन उपरिम ग्रैवेयक विमानों में, उससे कम मध्यम अधस्तन ग्रैवेयकों में,उससे कम मध्यम-मध्यम ग्रैवेयकों में,उससे कम मध्यम उपरिम ग्रैवेयकों में , उससे कम उपरिम अधस्तन ग्रैवेयकों में, उससे कम उपरिम मध्यम ग्रैवेयकों में और उससे कम सम्यग्दृष्टि देवों की संख्या उपरिम-उपरिम ग्रैवेयकों में पाई जाती है। इसी प्रकार आगे उससे कम सम्यग्दृष्टि जीव नव अनुदिश विमानों में होते हैं, उससे कम विजय-वैजयंत-जयन्त और अपराजित नामक चार अनुत्तर विमानों में तथा उससे भी कम सर्वार्थसिद्धि नामक अंतिम अनुत्तर विमान में हैं, उससे भी बहुभागहीन अथवा एक भागमात्र सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्यों में होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। सम्यग्दृष्टियों के ये उपर्युक्त ३२ स्थान होते हैं। अथवा संक्षेप से वर्णन इस प्रकार है कि देवगति में सबसे अधिक सम्यग्दृष्टि होते हैं, उससे कम तिर्यंच गति में, उससे कम नरकगति में और उससे भी कम मनुष्यगति में होते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. ९०-९१)
कश्चिदाशंकते-असंख्यातप्रदेशिनि लोके अनन्तसंख्याजीवाः कथं तिष्ठन्तीति चेत्? तस्य परिहार: क्रियते-‘‘अवगेज्झमाणजीवाजीवसत्तण्णहाणुववत्तीदो अवगाहण धम्मिओ लोगागासो त्ति इच्छिदव्वो खीरकुंभस्स मधुकुंभो व्व२१।’’ यथा मधुभृते कुंभे तत्प्रमाणदुग्धे प्रक्षिप्ते सति समस्तमपि दुग्धं तस्मिन्नेव सम्माति एतदवगाहन-शक्तिस्तत्र दृश्यते तथैव असंख्यातप्रदेशिनि लोकाकाशे अपि अनन्ताः जीवाः अनन्तानन्त-पुद्गलाश्चापि सम्मान्ति।
यहाँ कोई शंका करता है कि असंख्यात प्रदेश वाले लोक में अनन्त संख्या वाले जीव कैसे रह सकते हैं ? इसका समाधान करते हैं कि अवगाह्यमान जीव और अजीव द्रव्यों की सत्ता अन्यथा न बन सकने से क्षीरकुंभ का मधुकुंभ के समान अवगाहनधर्म वाला लोकाकाश है। जैसे क्षीरकुंभ का मधुकुम्भ में अवगाहन हो जाता है अर्थात् मधु से भरे हुए कलश में तत्प्रमाण वाले दूध से भरे हुए कलश का दूध डाल दिया जाए, तो समस्त दूध उसी में समा जाता है, ऐसी अवगाहनाशक्ति देखी जाती है। उसी के समान आकाश की भी ऐसी अवगाहनाशक्ति है कि असंख्य प्रदेशी होते हुए भी उसमें अनन्त जीव और अनंतानंत पुद्गलों का अवगाहन हो जाता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १८३)
५ प्रमत्त संयत के उपशमसम्यक्त्व के साथ तैजस व आहारक नहीं होते हैं विशेषेण तु प्रमत्तसंयतस्य उपशमसम्यक्त्वेन सह तेजसाहारौ न स्तः। प्रमत्तसंयत के उपशमसम्यक्त्व के साथ तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात नहीं होते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. २७९)
६ द्रव्यप्रमाणानुगम अर्थात् पुस्तक तीन से आगे के सूत्रों की रचना श्री भूतबली आचार्य ने की है।
प्रारंभ के सत्प्ररूपणा सूत्र श्री पुष्पदंताचार्य ने बनाये हैं
अस्मिन् षट्खण्डागमग्रन्थे सत्प्ररूपणाप्रतिपादकानि सप्तसप्तत्य- धिकशतसूत्राणि श्रीपुष्पदन्ताचार्यविरचितानि सन्ति। तत: परं अत: प्रभृति द्रव्यप्रमाणानुगमादिप्रतिपादकानि सूत्राणि श्रीभूतबल्याचार्यविरचितानि सन्ति इति ज्ञातव्यं भवद्भि:। तथैवोत्तं श्रीवीरसेनाचार्येण- ‘‘संपहि चोद्दसण्हं जीवसमासाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव परिमाणपडिबोहणट्ठं भूदबलियाइरियो सुत्तमाह२२-’’सिद्धान्तचिंतामणि
टीका-इस षट्खण्डागम ग्रंथ में सत्प्ररूपणा का प्रतिपादन करने वाले एक सौ सतत्तर (१७७) सूत्र श्री पुष्पदंत आचार्य के द्वारा रचित हैं। उसके आगे यहाँ इस द्रव्यप्रमाणानुगम के प्रथम सूत्र से द्रव्यप्रमाणानुगम आदि का प्रतिपादन करने वाले ये सभी सूत्र श्रीभूतबली आचार्य के द्वारा विरचित हैं, ऐसा आप लोगों को जानना चाहिए। उसी बात को श्रीवीरसेन आचार्य ने भी कहा है- ‘‘जिन्होंने चौदहों गुणस्थानों के अस्तित्व को जान लिया है, ऐसे शिष्यों को अब उन्हीं चौदहों गुणस्थानों के अर्थात् चौदहों गुणस्थानवर्ती जीवों के परिमाण (संख्या) का ज्ञान कराने के लिए भूतबलि आचार्य आगे का सूत्र कहते हैं’’- तृतीय पुस्तक के प्रारंभ में यह भूमिका श्री भूतबली आचार्य ने बनाई है इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आगे के सभी सूत्र श्री भूतबली आचार्य द्वारा बनाये गये हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. ७-८)
अत्रानन्ता: इति प्रमाणे कथिते सति तदपि अनन्तमनेकविधं। नामानन्त-स्थापनानन्त-द्रव्यानन्त-शाश्वतानन्त-गणनानन्त-अप्रदेशिकानन्त-एकानन्त-उभयानन्त-विस्तारानन्त-सर्वानन्त-भावानन्तैरनन्तस्य एकादश भेदा: सन्ति। तत्र कारणनिरपेक्ष संज्ञा इति नामानन्तं। काष्ठादिकर्मसु तदिदमनन्तं इति स्थापनानन्तं। वर्तमानपर्यायनिरपेक्षं द्रव्यानन्तं। न विद्यते अन्तो विनाशो यस्य तदनन्तं द्रव्यं शाश्वतानन्तं। यद् गणनानन्तं तद् बहुवर्णनीयं अनंतरमेव प्रतिपाद्यते। एकप्रदेशे परमाणौ अप्रदेशानन्त:। लोकमध्ये आकाशप्रदेशानां एकश्रेणीं दृश्यमाने अन्ताभावात् एकानंतं। लोकमध्ये आकाशप्रदेशपंक्तीनां उभयदिशो: अवलोक्यमाने अन्ताभावाद् उभयानन्तं। आकाशस्य प्रतररूपेणावलोक्यमाने अन्तो नास्तिइति विस्तारानन्तं। तदेवाकाशस्य घनरूपेणाव-लोक्यमाने अन्तो नास्तीति सर्वानन्तं। त्रिकालजाता-नन्तपर्यायपरिणतजीवादिद्रव्यं भावानन्तमिति।
यहाँ सूत्र में ‘‘अनंत’’ इस प्रमाण शब्द का कथन करने पर वह अनन्त शब्द भी अनेक प्रकार का माना गया है- नाम अनंत, स्थापना अनंत, द्रव्य अनंत, शाश्वत अनंत, गणना अनंत, अप्रदेशिक अनंत, एक अनंत, उभय अनंत, विस्तार अनंत, सर्व अनंत और भाव अनंत इस प्रकार अनंत के ग्यारह भेद हैं। उनमें से कारण के बिना ही संज्ञा का होना नाम अनंत है। काण्ड आदि कर्मो में यह अनंत है, इस प्रकार की स्थापना करना स्थापनानंत है अर्थात् काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पुस्तकर्म, लेप्यकर्म, लेनकर्म, शैलकर्म, भित्तिकर्म, गृहकर्म, भेंडकर्म अथवा दन्तकर्म में अथवा अक्ष(पासा) हो या कोड़ी हो अथवा दूसरी कोई वस्तु हो उसमें यह अनंत है, ऐसी स्थापना कर देना स्थापना अनंत कहलाता है । वर्तमान पर्याय की अपेक्षा के बिना ही उसे अनंतरूप कथन करना द्रव्य अनंत है । जिसका कोई अंत नहीं होता,जो कभी नष्ट नहीं होता है वह अनंतद्रव्य शाश्वतानंत कहलाता है। जो गणना में अनंत है, वह बहुवर्णनीय है एक परमाणु को अप्रदेशिकानन्त कहते हैं। लोक के मध्य से आकाश-प्रदेशों की एक श्रेणी को देखने पर उसका अन्त नहीं पाया जाता है, इसलिए उसे एकानन्त कहते हैं। लोक के मध्य से आकाशप्रदेश पंक्ति को दो दिशाओं में देखने पर उसका अन्त नहीं पाया जाता है, इसलिए उसे उभयानन्त कहते हैं। आकाश को प्रतररूप से देखने पर उसका अंत नहीं पाया जाता है अतः उसे विस्तारानंत कहते है उसी आकाश को घनरूप से देखने पर उसका अन्त नहीं पाया जाता है इसलिए उसे सर्वानन्त कहते हैं। त्रिकालजात-तीनों कालों में उत्पन्न होने वाली अनंत पर्यायों से परिणत जीवादि द्रव्य नोआगम भावानन्त हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १५)
इतो विस्तर:-एकत्र अनंतानंतावसर्पिण्युत्सर्पिणीनाम् समयान् स्थापयित्वा अन्यत्र मिथ्यादृष्टिजीवराशीश्च संस्थाप्य कालेभ्य: एक: समय: मिथ्यादृष्टिराशिभ्य: एको जीवश्च निष्कासयितव्य:। एवं क्रियमाणे अनंतानंतावसर्पिण्युत्सर्पिणीनां सर्वे समया: समाप्तिमवाप्नुवन्ति किन्तु मिथ्यादृष्टिजीवराशिप्रमाणं न समाप्यते इति ज्ञातव्यम्।
एक तरफ अनन्तानन्त अवसर्पिणी और अनन्तानन्त उत्सर्पिणी काल के समयों को स्थापित करके दूसरी तरफ मिथ्यादृष्टि जीवों की राशि करके काल के समयों में से एक-एक समय और उसी के साथ मिथ्यादृष्टि जीवराशि के प्रमाण में से एक-एक जीव कम करते जाना चाहिए-निकालते जाना चाहिए। इस प्रकार करते रहने पर अनंतानंत अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियोें के सब समय समाप्त हो जाते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीवराशि का प्रमाण समाप्त नहीं होता है ऐसा जानना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १७)
खेत्तेण अणंता लोगा।।४।। क्षेत्रापेक्षया मिथ्यादृष्टयो जीवा अनंतलोकप्रमाणा: सन्ति। क्षेत्रप्रमाणेन मिथ्यादृष्टिजीवराशि: कथं माप्यते? बुद्ध्यामाप्यते आगमाधारेणेति। बुद्ध्या पि सा राशि: कथं माप्यते? तदेव कथयन्ति, एवैकस्मिन् लोकाकाशप्रदेशे एकमेकं मिथ्यादृष्टिजीवं निक्षिप्य एको लोक: इति मनसा संकल्पयितव्य:। एवं पुन: पुन: माप्यमाने मिथ्यादृष्टिजीवराशि: अनंतलोकमात्रो भवति।क्षेत्रप्रमाण की अपेक्षा अनन्त लोकप्रमाण मिथ्यादृष्टि जीवराशि का प्रमाण है ।।४।।
हिन्दी टीका-क्षेत्र की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तलोकप्रमाण माने गये हैं।
प्रश्न-क्षेत्रप्रमाण के द्वारा मिथ्यादृष्टि जीवराशि कैसी मापी जाती है ?
उत्तर – आगम के आधार से बुद्धि के द्वारा मिथ्यादृष्टि जीव मापे जाते हैं।
प्रश्न-बुद्धि से वे जीव कैसे मापे जाते हैं ?
उत्तर – उसी को कहते हैं-लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक मिथ्यादृष्टि जीव को निक्षिप्त करके एक लोक हो गया, इस प्रकार मन से संकल्प करना चाहिए। इस प्रकार पुनः पुनः माप करने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनन्तलोकप्रमाण होती है। आचार्यदेव के द्वारा कहा भी है-
श्लोकार्थ-लोकालोक के एक-एक प्रदेश पर एक-एक मिथ्यादृष्टि जीव को निक्षिप्त करे, इस प्रकार पूर्वोक्त लोकप्रमाण के क्रम से गणना करते जाने पर अनन्तलोक हो जाते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. २०)
अत्र कश्चिदाह-यो योजनसहस्रायामो महामत्स्य: स्वयंभूरमणसमुद्रस्य बाह्ये तटे वेदनासमुद्घातेन पीडित: कापोतलेश्यया१-वातवलयेन लग्न: इति एतेन वेदनासूत्रेण सह विरोध: किं न भवति इति चेत? आचार्य: प्राह-न भवति, स्वयंभूरमणसमुद्रस्य बाह्यवेदिकाया: परभागस्थित-पृथिव्या: ग्रहणं भवति ‘बाह्यतट’ इति पदेन। यदि एतत् तर्हि अपि महामत्स्य: कापोतलेश्यया संसक्तो न भवितुं अर्हति? इति चेत्? नैतत् शंकनीयं, किंच पृथिवीस्थितप्रदेशेषु अधस्तन वातवलयानामवस्थानं विद्यते एव। एष अर्थ: यद्यपि पूर्वाचार्यसंप्रदायविरुद्धस्तह्र्यपि आगमयुक्तिबलेन श्रीवीरसेनाचार्येण प्ररूपित:। उत्तं च धवलाटीकायां-‘‘एसो अत्थो जइवि पुव्वाइरियसंपदायविरुद्धो तो वि तंतजुत्तिबलेण अम्हेहिं परुविदो। तदो इदमित्थमेवेत्ति णेहासंगहो कायव्वो, अइंदियत्थविसए छदुमत्थवियप्पिदजुत्तीणं णिण्णयहेउत्ताणुववत्तीदो। तम्हा उवएसं लद्धूण विसेसणिण्णयो एत्थ कायव्वो त्ति।’’
यहाँ कोई कहता है कि जो एक हजार योजन का महामत्स्य है, वह वेदना समुद्घात से पीड़ित हुआ स्वयंभूरमण समुद्र के बाह्य तट पर कापोतलेश्या अर्थात् तनुवातवलय से लगता है, इस वेदनाखंड के सूत्र के साथ पूर्वोक्त व्याख्यान विरोध को क्यों नहीं प्राप्त होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्यदेव कहते हैं कि नहीं होता है क्योंकि यहां पर ‘‘बाह्यतट ’’इस पद से स्वयंभूरमण समुद्र की बाह्य वेदिका के परभाग में स्थित पृथिवी का ग्रहण किया गया है।
प्रश्न-यदि ऐसा माना जाय तो महामत्स्य कापोत लेश्या से संसक्त नहीं हो सकता है ?
उत्तर – ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए ,क्योंकि पृथिवी स्थित प्रदेशों में अधस्तन वातवलय का अवस्थान रहता ही है। यह अर्थ यद्यपि पूर्वाचार्यों के सम्प्रदाय से विरूद्ध है तो भी आगम के आधार पर युक्ति के बल से श्रीवीरसेनाचार्य द्वारा प्रतिपादित किया गया है। जैसाकि धवला टीका में कहा भी है- ‘‘यद्यपि यह अर्थ पूर्वाचार्यों के सम्प्रदाय से विरुद्ध है, तो भी आगम के आधार पर युक्ति के बल से हमने इस अर्थ का प्रतिपादन किया है। इसलिए यह अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है, इस विकल्प का संग्रह यहाँ छोड़ना नहीं, क्योंकि अतीन्द्रिय पदार्थों के विषय में छद्मस्थ जीवों के द्वारा कल्पित युक्तियों के विकल्प रहित निर्णय के लिए हेतुता नहीं पाई जाती है। इसलिए उपदेश को प्राप्त करके इस विषय में विशेष निर्णय लेना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. २१-२२)
सर्वतीर्थकरापेक्षया पद्मप्रभभट्टारकस्य शिष्यपरिवारोऽधिक:, त्रयलक्ष-त्रिंशत्सहस्रसंख्य:। इयं संख्या सप्तत्यधिकशतेन गुणिते सति कोटिपंच एकषष्टिलक्षा: संयता: भवन्ति।
सभी तीर्थंकरों की अपेक्षा पद्मप्रभ भट्टारक(भगवान)का शिष्य परिवार सबसे अधिक-तीन लाख तीस हजार संख्याप्रमाण है। यह संख्या एक सौ सत्तर से गुणित करने पर पांच करोड़ इकसठ लाख संयतों की संख्या होती है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. ३४)
सर्वावसर्पिण्यपेक्षया वर्तमानकाले इयं हुंडावर्सिपणी वर्तते। अतो युगमाहात्म्येन ह्रस्वभावं प्राप्तहुंडावसर्पिणीकालसंबंधितीर्थंकराणां शिष्यपरिवारान् गृहीत्वा पूर्वोक्तगाथासूत्राणि दूषयितुं न शक्यन्ते, शेषावसर्पिणीतीर्थकरेषु बहुशिष्य-परिवारोपलम्भत्वात्। अन्यच्च-न च भरतैरावतक्षेत्रयो: मनुष्याणां बहुत्वमस्ति, येन तदुभयक्षेत्रसंबंधि-एकतीर्थकरशिष्यपरिवारै: विदेहक्षेत्रस्यैकतीर्थकरशिष्यपरिकर: सदृशो भवेत्। किंतु भरतैरावतक्षेत्रयो: मनुष्याणां विदेहक्षेत्रस्य मनुष्या: संख्यातगुणा: सन्ति। ‘‘तं जहा-सव्वत्थोवा अंतरदीवमणुस्सा। उत्तरकुरुदेवकुरुमणुवा संखेज्जगुणा। हरिरम्मयवासेसु मणुआ संखेज्जगुणा। हेमवदहेरण्णवदमणुआ संखेज्जगुणा। भरहेरावदमणुआ संखेज्जगुणा। विदेहे मणुआ संखेज्जगुणा त्ति।’’
समस्त अवसर्पिणी कालों की अपेक्षा वर्तमान काल में यह हुण्डावसर्पिणी काल चल रहा है इसलिए युग के माहात्म्य से घटकर ह्रस्वभाव को प्राप्त हुए हुण्डावसर्पिणी कालसम्बन्धी तीर्थंकरों के शिष्यपरिवार को ग्रहण करके गाथासूत्र को दूषित करना शक्य नहीं है, क्योंकि शेष अवसर्पिणियों के तीर्थंकरों के बड़ा शिष्यपरिवार पाया जाता है। अन्य और भी कथन है कि भरत और ऐरावत क्षेत्र में मुनष्यों की अधिक संख्या नहीं पाई जाती है जिससे उन दोनों क्षेत्रसम्बन्धी एक तीर्थंकर के संघ के प्रमाण से विदेहक्षेत्रसम्बन्धी एक तीर्थंकर का संघ समान माना जाय किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र के मनुष्यों से विदेहक्षेत्र के मनुष्यों की संख्या संख्यातगुणी अधिक है। अन्तद्र्वीपों के मनुष्य सबसे थोड़े हैं। उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। हरि और रम्यव् क्षेत्रों के मनुष्य उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों के मनुष्य हरि और रम्यव् के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रों के मनुष्य हरि और रम्यक के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। विदेह क्षेत्र के मनुष्य भरत और ऐरावत के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. ३४)
तस्य किंचिदुहारणं दीयते-सामान्येन कथितासंयतसम्यग्दृष्टिजीवराशे: असंख्यातबहुभागप्रमिता देवगतौ असंयतसम्यग्दृष्टिजीवराशि: अस्ति। कथमेतत्? देवेषु बहूनां सम्यक्त्वोत्पत्तिकारणानामुपलम्भात्। देवानां सम्यक्त्वोत्पत्तिकारणानि कानि इति चेत्? उच्यते श्रीवीरसेनाचार्येण- ‘‘जिणबिंबिद्धिमहिमादंसण-जाइस्सरण-महिद्धिंदादिदंसण-जिणपायमूलधम्म-सवणादीणि। तिरिक्खणेरइया पुण गरुवपावभारेणोट्ठद्धत्तादो संकिलिट्ठतरत्तादो मंदबुद्धित्तादो बहूणं सम्मत्तुप्पत्तिकारणाणम-भावादो च सम्माइट्ठिणो थोवा हवंति।’
सामान्य से कही गई असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि का असंख्यात बहुभागप्रमाण देवगति में असंयतसम्यग्दृष्टि जीवराशि है।
प्रश्न-ऐसा क्यों है ?
उत्तर – क्योंकि देवों में सम्यक्त्व की उत्पत्ति के बहुत से कारण पाये जाते हैं। देवों में सम्यक्त्व उत्पत्ति के कौन-कौन से कारण हैं? ऐसा प्रश्न होने पर श्रीवीरसेनाचार्य ने धवला टीका मे कहा है- जिनबिम्बसम्बन्धी अतिशय की महिमा का दर्शन, जातिस्मरण का होना, महद्र्धिक इन्द्रादिक का दर्शन और जिनेन्द्रभगवान के पादमूल में धर्म का श्रवण आदि कारणों से देवों में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति होती है। किन्तु चूंकि तिर्यंच और नारकी गुरुतर पापों के भार से व्याप्त रहते हैं, उनके परिणाम अतिशय संक्लिष्ट रहते हैं, वे मन्दबुद्धि होते हैं इसलिए उनमें सम्यक्त्व की उत्पत्ति के बहुत से कारणों का अभाव पाया जाता है और संख्या में भी वहाँ कम जीवों को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. ४३)
तात्पर्यमेतत्-कदाचित् केचित् बद्धायुष्का: मनुष्या: तिर्यक्षु उत्पद्यन्ते तर्हि भोगभूमिष्वेव, मनुष्येषु उत्पद्यन्ते तर्हि भोगभूमिष्वेव इमे स्वल्पप्रमाणा: एव। अत: अत्र टीकायां देवा: नारका: एव गृहीता: तेऽपि मनुष्येषु एव उत्पद्यन्ते अत: संख्याता: एव। किंच मनुष्यराशे: संख्यातत्वात्। तथैव केवलिनां समुद्घाते कपाटे आरोहन्त: विंशतिप्रमाणा: अवरोहन्त: विंशतिप्रमाणा भवन्ति इति कथितं अस्ति। किंच औदारिकमिश्रयोगस्य कपाटसमुद्घाते एव संभवत्वात्।
तात्पर्य यह है कि कदाचित् कोई बध्दायुष्क मनुष्य तिर्यंचगति में उत्पन्न हो जाते हैं तो भोगभूमियाँ तिर्यंचों में ही उत्पन्न होते है, यदि मनुष्यों मे उत्पन्न होते हैं तो भोगभूमियों मेें ही उत्पन्न होते हैं, इनकी संख्या थोड़ी ही है अतः यहाँ टीका में देव और नारकी को ही ग्रहण किया है वे भी मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं अतः संख्यात ही हैं क्योंकि मनुष्यराशि संख्यात ही है। इसी प्रकार केवलियों के समुद्घात काल में कपाट समुद्घात में चढ़ते हुए बीस की संख्या रहती है और उतरते हुए भी बीस की संख्या रहती है, ऐसा कहा गया है क्योंकि औदारिकमिश्रकाययोग वाले जीव कपाट समुद्घात में ही पाए जाते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १२०)
सिद्धान्तचिन्तामणि टीका-वेदानुवादेन स्त्रीवेदराशिषु मिथ्यादृष्टय: द्रव्यप्रमाणेन कियन्त: इति प्रश्ने सति उत्तरं दीयते-देवीभ्य: सातिरेका: इति। देवेभ्य: देव्य: द्वात्रिंशद्गुणा भवन्ति। अस्मिन् प्रमाणे भावस्त्रीवेदमानुषीणां भावस्त्रीवेदतिरश्चीनां संख्यामेलने सति देवीभ्य: सातिरेका:, स्त्रीवेदा: भवन्ति। वेदमार्गणा के अनुवाद से स्त्रीवेदियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं? देवियों से कुछ अधिक है।१२४।।
हिन्दी टीका-वेदमार्गणा की अपेक्षा स्त्रीवेदी जीवराशियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर दिया गया है कि स्त्रीवेदी राशि देवियों से साधिक होती है। देवों से देवियाँ बत्तीसगुणी अधिक होती हैं। इस प्रमाण मे भावस्त्रीवेदी मनुष्यिनियों मेें भावस्त्रीवेदी तिर्यंचों की संख्या मिलाने पर देवियों से स्त्रीवेदी जीवो की संख्या साधिक होती है। अर्थात् देवियां सबसे अधिक हैं उनमें मनुष्यिनी और तिर्यंचिनियों की संख्या मिलाने पर समस्त स्त्रीवेदियों की संख्या हो जाती है। उनमें से यहां मिथ्यादृष्टि स्त्रीवेदियों की संख्या ली है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १२९)
अथवा सर्व जीवराशि के अनंत खंड करने पर बहुभाग मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के अनंत खण्ड करने पर बहुभाग केवलज्ञानी जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खंड करने पर बहुभाग विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खंड करने पर बहुभाग तीन ज्ञान वाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के संख्यात खंड करने पर बहुभाग तीन ज्ञान वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खंड करने पर बहुभाग तीन ज्ञान वाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खण्ड करने पर बहुभाग दो ज्ञान वाले असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के संख्यात खंड करने पर बहुभाग दो ज्ञान वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खंड करने पर बहुभाग दो ज्ञान वाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खंड करने पर बहुभाग दो ज्ञान वाले संयतासंयत जीव हैं। शेष एक भाग के असंख्यात खंड करने पर बहुभाग तीन ज्ञान वाले संयतासंयत जीव हैं। शेष का जानकर कथन करना चाहिए।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १४६-१४७)
श्रुत-मन:पर्ययज्ञानयो: दर्शनं किन्नोच्यते? न तावत् श्रुतज्ञानस्य दर्शनमस्ति, तस्य मतिज्ञानपूर्वत्वात्। न मन:पर्ययज्ञानस्यापि दर्शनमस्ति, तस्य तथाविधत्वात्।
शंका – श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान का दर्शन क्यों नहीं कहा जाता है ?
समाधान – श्रुतज्ञान का दर्शन तो हो नहीं सकता है, क्योंकि वह मतिज्ञानपूर्वक होता है। उसी प्रकार मनःपर्ययज्ञान का भी दर्शन नहीं है, क्योंकि, मनःपर्ययज्ञान भी उसी प्रकार है अर्थात् मनःपर्ययज्ञान भी मतिज्ञानपूर्वक होता है, इसलिये उसका दर्शन नहीं पाया जाता है।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १५७)
द्रव्यार्थिकनयं प्रतीत्य चैकविधं। अथवा प्रयोजनमाश्रित्य द्विविधं लोकाकाशम-लोकाकाशं चेति। लोक्यन्ते उपलभ्यन्ते यस्मिन् जीवादिद्रव्याणि स लोकः। तद्विपरीतोऽलोकः। अथवा देशभेदेन त्रिविधः, मंदरचूलिकातः ऊध्र्वमूध्र्वलोकः, मंदरमूलादधः अधोलोकः, मंदरपरिच्छिन्नो मध्यलोक इति।
समाधान – द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा क्षेत्र एक प्रकार का है अथवा प्रयोजन के आश्रय से क्षेत्र दो प्रकार का है, लोकाकाश और अलोकाकाश। जिसमें जीवादि द्रव्य अवलोकन किए जाते हैं, पाये जाते हैंं, उसे लोक कहते हैं। इसके विपरीत जहाँ जीवादि द्रव्य नहीं देखे जाते हैं, उसे अलोक कहते हैं। अथवा देश के भेद से क्षेत्र तीन प्रकार का है-मंदराचल (सुमेरूपर्वत)की चूलिका से ऊपर का क्षेत्र ऊध्र्वलोक है, मंदराचल के मूल से नीचे का क्षेत्र अधोलोक है तथा मंदराचल से परिच्छिन्न अर्थात् तत्प्रमाण मध्यलोक है। (षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १८२)
दण्डसमुद्घातगतकेवलिनः कियत् क्षेत्रे तिष्ठन्ति? चतुर्णां लोकानां असंख्यातभागे, सार्धद्वयद्वीपात् असंख्यातगुणे च निवसन्ति। कपाटगतकेवलिनः कियत् क्षेत्रे? त्रयाणां लोकानामसंख्यातक्षेत्रे, तिर्यग्लोकस्य,संख्यातभागे सार्धद्वयद्वीपात् असंख्यातगुणे च। अत्र केवली भगवान् पूर्वाभिमुखो वा उत्तरामुखो वा यदि पल्यंकेन समुद्घातं करोति, तर्हि कपाटबाहल्यं षट्त्रिंशदंगुलानि भवन्ति। अथ यदि कायोत्सर्गेण कपाटं करोति, तर्हि द्वादशांगुलबाहल्यं कपाटं भवति। प्रतरगतकेवलिनः कियत् क्षेत्रे? लोकस्यासंख्यातभागेषु। तत्र लोकस्य असंख्यातभागं वातवलयरुद्धक्षेत्रं मुक्त्वा शेषबहुभागेषु निवसंति। लोकपूरणगतकेवलिनो भगवन्तः कियत् क्षेत्रे? सर्वलोके इति ज्ञातव्यम्। अत्रापि गणितेन विस्तरः धवलाटीकायां द्रष्टव्योऽस्ति। अन्यत्रापि सरलभाषायां-‘‘दण्डसमुद्घातं कायोत्सर्गेण स्थितश्चेत्-द्वादशांगुलप्रमाणसमवृत्तं मूलशरीरप्रमाणसमवृत्तं वा। उपविष्टश्चेत्-शरीरत्रिगुणबाहुल्यं वायूनलोकोदयं वा प्रथमसमये करोति। कपाटसमुद्घातं धनुःप्रमाणबाहुल्योदयं पूर्वाभिमुखश्चेत् दक्षिणोत्तरतः करोति। उत्तराभिमुखश्चेत् पूर्वापरतः आत्मप्रसर्पणं द्वितीयसमये करोति।………प्रतरावस्थायां सयोगकेवली वातवलयत्रयादर्वागेव आत्मप्रदेशैर्निरंतरं लोकं व्याप्नोति। लोकपूरणावस्थायां वातवलयत्रयमपि व्याप्नोति। तेन सर्वलोकः क्षेत्रम्।’’ तात्पर्यमेतत्-स्वस्थानस्वस्थान-विहारवत्स्वस्थान-केवलिसमुद्घातनामानि त्रीण्येव स्थानानि सयोगिकेवलिभगवतां संभवन्ति। किं च, केवलिसमुद्घातोऽपि सर्वेषां केवलिनां नास्ति केषाञ्चित् केवलिनामेव इति ज्ञात्वा सर्वेभ्यः दशस्थानेभ्यः अनुत्तरं सिद्धस्थानमस्तीति ततः सिद्धपदप्राप्त्यर्थमेव पुरुषार्थो विधेयः अस्माभिर्मुमुक्षुजनैः।
दण्डसमुद्घात को प्राप्त हुए केवलीजीव कितने क्षेत्र में रहते हैं? सामान्यलोक आदि चार लोकों के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में और अढ़ाईद्वीपसंंबंधी लोक से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। कपाटसमुद्घात को प्राप्त हुए केवली कितने क्षेत्र में रहते हैं? सामान्यलोक आदि तीन लोकों के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र में और अढ़ाईद्वीप से असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। केवलीजिन पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख होकर समुद्घात को करते हुए यदि पल्यंकासन से समुद्घात को करते हैं तो कपाटक्षेत्र का बाहल्य छत्तीस अंगुल होता है और यदि कायोत्सर्ग से कपाटसमुद्घात करते हैं तो बारह अंगुलप्रमाण बाहल्य वाला कपाटसमुद्घात होता है। प्रतरसमुद्घात को प्राप्त हुए केवली जिन कितने क्षेत्र में रहते हैं? लोक के असंख्यात बहुभागप्रमाण क्षेत्र में रहते हैं। लोक के असंख्यातवें भागप्रमाण वातवलय से रुके हुए क्षेत्र को छोड़कर लोक के शेष बहुभागो में रहते हैं। लोकपूरण समुद्घात को प्राप्त केवली भगवान् कितने क्षेत्र में रहते हैं? सम्पूर्ण लोक में रहते हैं, ऐसा जानना चाहिए । यहाँ भी गणित के द्वारा उसका विस्तृत वर्णन धवला टीका में द्रष्टय है। अन्यत्र भी सरल भाषा में कहा है-समुद्घात करने वाले कायोत्सर्ग से स्थित हैं तो दण्ड समुद्घात को बारह अंगुलप्रमाण समवृत्त (गोलाकार) करेंगे अथवा मूल शरीरप्रमाण समवृत्त करेंगे और यदि वह बैठे हुए हैं तो प्रथम समय में शरीर से त्रिगुण बाहुल्य अथवा तीन वातवलय कम लोकप्रमाण करेंगे। कपाट समुद्घात को यदि पूर्वाभिमुख होकर करेंगे तो दक्षिण-उत्तर की ओर एक धनुषप्रमाण विस्तार होगा और उत्तराभिमुख होकर करेगा तो पूर्व-पश्चिम की ओर द्वितीय समय में आत्मप्रसर्पण करेंगे। इसका विशेष व्याख्यान संस्कृत महापुराण पंजिका में है। प्रतर की अपेक्षा लोक का असंख्यातभागप्रमाण क्षेत्र होता है। प्रतर अवस्था में सयोगकेवली तीनों वातवलयों के नीचे ही आत्मप्रदेशों के द्वारा लोक को व्याप्त करते हैं। लोकपूरण अवस्था में तीनों वातवलयों को भी व्याप्त करते हैं अतः लोकपूरण अवस्था में सर्वलोक क्षेत्र है। तात्पर्य यह है कि स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान और केवलिसमुद्घात नाम के तीन स्थान सयोगिकेवली भगवन्तों के होते हैं, क्योंकि केवली समुद्घात भी सभी केवलियों के नहीं होता है, किन्हीं-किन्हीं केवलियों के ही होता है, ऐसा जानकर सभी दश स्थानों से अनुत्तर सिद्धस्थान होेता है इसलिए सिद्धपद की प्राप्ति हेतु ही हम सभी मुमुक्षुजनों को पुरुषार्थ करना चाहिए ।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. १९३-१९४)
विशेषेण तु प्रमत्तसंयते तैजसाहारकौ न स्तः। इन परिहारविशुद्धिसंयम वालों के प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तैजस और आहारक समुद्घात नहीं होते हैं।
(षट्खण्डागम-सिद्धान्तचिंतामणिटीका, पु. ३, पृ. २६०)