नेमिनाथ भगवान को, वंदन बारम्बार |
उनके वचनामृत सभी, भविजन को सुखकार ||१||
स्वात्मनिधी को प्राप्त कर,किया आत्मकल्याण |
चालीसा के पाठ से,जिनवर का गुणगान ||२||
जय जय जय श्री नेमि जिनेश्वर, कहलाए प्रभु तुम परमेश्वर ||१||
गर्भ में माता के जब आए, सोलह स्वप्न उन्हें दिखलाए ||२||
धनकुबेर करता है वृष्टी, पन्द्रह महिने तक नित होती ||३||
श्रावण शुक्ला छठ तिथि पावन,धन्य शिवादेवी का आँगन ||४||
राजा समुद्रविजय हरषाए , शौरीपुर में खुशियाँ छाएं ||५||
तीन लोक में आनंद छाया, स्वर्ग से इन्द्र सपरिकर आया ||६||
मेरु सुदर्शन पर ले जाकर, कलशे खूब ढुराए प्रभु पर ||७||
नीलकमल सम सुन्दर काया, बालपने से यौवन आया ||८||
राजुल के संग ब्याह करन को, चले प्रभू जब जूनागढ़ को ||९||
पशुओं की चीत्कार सुनी जब, तत्क्षण हुए विरागी जिनवर ||१०||
श्रावण सुदि छठ की शुभ तिथि में, सहस्राम्र वन में प्रभु पहुचे ||११||
नमः सिद्ध कह दीक्षा ले ली, आत्मरमण की शिक्षा दे दी ||१२||
बाल ब्रम्हचारी वे जिनवर, वीतराग सर्वज्ञ हितंकर ||१३||
आश्विन सुदि एकम की तिथि में, ऊर्जयंतगिरि पर जा तिष्ठे ||१४||
प्रभु को केवलज्ञान हो गया, आत्मा का उत्थान हो गया ||१५||
धनद ने समवशरण रचवाया, दिव्यध्वनि सुन् जग हरषाया ||१६||
राजुल ने जब सुनी ये घटना, फ़ेंक दिया श्रृंगार फिर पुनः ||१७||
बहुत दुखी हो रोती जाती, ऊर्जयंतगिरि चढ़ती जाती ||१८||
उपदेशामृत पान कर लिया, संयम का शुभ मार्ग लख लिया ||१९||
दीक्षा ले गणिनी कहलाईं, सच्ची प्रभु से प्रीति लगाई ||२०||
समवशरण में कमलासन पर, चतुरंगुल भी रहें प्रभु अधर ||२१||
चारों दिश में मुख है दिखता, तभी जगत है ब्रम्हा कहता ||२२||
समवशरण का वैभव न्यारा, ग्रंथों में है वर्णन सारा ||२३||
ऊर्जयंतगिरि पर्वत से ही, मोक्ष पधारे त्रिभुवनपति जी ||२४||
लोकशिखर पर आन विराजे, नेमिनाथ जिनराज हमारे ||२५||
वे तो वीतराग जिनदेवा, किन्तु करे जो भक्ती सेवा ||२६||
उनके मनवांछित फल जाते, रोग,शोक,भय,व्याधि भगाते ||२७||
आतमज्ञान उन्हें मिल जाता,भवि निज पर कल्याण कराता ||२८||
राहूग्रह के स्वामी तुम हो, मेरे सभी अमंगल हर लो ||२९||
ग्रह का चक्र अनादिकाल से, प्राणी को भटकाता जग में ||३०||
जन्मकुंडली में यदि यह ग्रह, अशुभ जगह पर हो जाते हैं ||३१||
प्राणी को पीड़ा देते हैं, जीव दुखी तब ही होते हैं ||३२||
अगर उच्च स्थान पे होते, सुख,समृद्धि सभी दे देते ||३३||
स्वस्थ शरीर मिले धन सम्पति,और साथ में यशकीर्ती भी ||३४||
राहू ग्रह की बढ़े असाता, तन में है बहु रोग सताता ||३५||
धर्म में रुचि नहिं बढ़ पाती है,मन में शांति न हो पाती है ||३६||
नेमीप्रभु की जपते माला, वे पाएंगे सौख्य निराला ||३७||
प्रभु भक्ती से पाप कटेंगे,ग्रह भी उच्च और शुभ होंगे ||३८||
सांसारिक दुःख से घबराया, अतः आपकी शरण में आया ||३९||
परम क्रपालु दया अब कर दो, राहू ग्रह की बाधा हर लो ||४०||
श्री नेमिनाथ का चालीसा, जो चालीस दिन तक पढ़ते हैं |
फिर साथ-साथ विधि के संग में,उन नाम की माला जपते हैं ||
विघ्नों का शीघ्र शमन होकर, सब व्याधि व्यथाएँ नश जातीं |
सुख सम्पति संतति बढ़े सदा,आत्मा में परम शांति आती ||१||
चालीसा विधिवत पढ़े , चालिस चालिस बार |
राहू ग्रह के कष्ट से,वो हो जाता पार ||१||
-दोहा-
नेमिनाथ भगवान ने, लिया जहाँ अवतार।
उस शौरीपुर तीर्थ को, वन्दन बारम्बार।।१।।
पुन: प्रभू जी ने जहाँ, पाया पद निर्वाण।
सिद्धक्षेत्र गिरनार को, नमन करूँ शत बार।।२।।
बाइसवें तीर्थेश के, चालीसा का पाठ।
पढ़ने से हो जाएगा, तुमको भी वैराग।।३।।
विद्यादेवी को नमूँ, वो ही देंगी ज्ञान।
बिना ज्ञान वैâसे करूँ, नेमिनाथ गुणगान।।४।।
-चौपाई-
नेमिनाथ भगवान हमारे, सब भक्तों के पालनहारे।।१।।
श्री समुद्रविजय महाराजा, शौरीपुर के थे अधिराजा।।२।।
उनकी रानी शिवादेवि थीं, वो साधारण जननी नहिं थीं।।३।।
वे थीं तीर्थंकर की माता, जिन्हें नमावें देव भी माथा।।४।।
तिथि कार्तिक शुक्ला षष्ठी थी, गर्भ में आए नेमिनाथ जी।।५।।
पुन: आई श्रावण शुक्ला छठ, उस दिन था शुभ चित्रा नक्षत्र।।६।।
तीन ज्ञान के धारक प्रभु श्री-नेमिनाथ तीर्थंकर जन्मे।।७।।
वर्ण आपका इतना सुन्दर, बिल्कुल नील कमल के सदृश।।८।।
आयू एक हजार वर्ष की, ऊँचाई चालिस कर१ की थी।।९।।
यौवन में परिजन ने प्रभु का, राजमती से रिश्ता जोड़ा।।१०।।
नेमिनाथ जी सज-धजकर अब, निकले दूल्हा बन करके जब।।११।।
देखे उनने मूक पशू जो, बंधे हुए थे इधर-उधर वो।।१२।।
डरे हुए चिल्लाते थे वे, भूख-प्यास से व्याकुल थे वे।।१३।।
दयासहित हो प्रभु ने पूछा, कहो सेवकों! ये सब है क्या ?।।१४।।
कहा सेवकों ने हे राजन्! ये पशु बन जाएँगे भोजन।।१५।।
ब्याह में आएंगे जो अतिथी, उनके लिए व्यवस्था है ये।।१६।।
सुनकर प्रभु को करुणा आ गई, जग-वैभव से विरक्ती हो गई।।१७।।
समझ गए वे सारी बातें, तत्क्षण अपने अवधिज्ञान से।।१८।।
अब प्रभु के सुकुमार काल के, वर्ष तीन सौ बीत चुके थे।।१९।।
तभी देव लौकान्तिक आए, प्रभु को अपना शीश झुकाएँ।।२०।।
की अनुशंसा प्रभु विराग की, सत्यपंथ निर्ग्रन्थ मार्ग की।।२१।।
देवकुरू पालकि से प्रभु को, ले गए देव सहस्राम्रवन।।२२।।
वहँ श्रावण कृष्णा षष्ठी दिन, प्रभु जी ने जिनदीक्षा ले ली।।२३।।
राजीमति भी वैरागी बन, तप करने पहुँचीं प्रभु के संग।।२४।।
वहाँ आर्यिका दीक्षा ले ली, आर्यिकाओं में गणिनी बन गईं।।२५।।
छप्पन दिन तक नेमिप्रभू ने, घोर तपस्या की थी वन में।।२६।।
पुन: नियम तेला का लेकर, तिष्ठे बांस वृक्ष के नीचे।।२७।।
दिव्यज्ञान की प्राप्ति हो गई, केवलज्ञान ज्योति तब जल गई।।२८।।
प्रभु ने कई वर्षों तक जग में, धर्मवृष्टि की समवसरण में।।२९।।
आयु अन्त में नेमिप्रभू जी, पहुँच गए श्री ऊर्जयंतगिरि।।३०।।
श्री गिरनार भी कहते उसको, हुआ वहीं से मोक्ष प्रभू को।।३१।।
तिथि आषाढ़ सुदी सप्तमि थी, मोक्ष-गमन से हुई पूज्य थी।।।३२।।
प्रभु जी बाह्य और अभ्यन्तर, अनुपम लक्ष्मी के स्वामी अब।।३३।।
हमको भी प्रभु कुछ तो दे दो, ज्यादा नहिं तो शिवपथ दे दो।।३४।।
जिससे धीरे-धीरे हम भी, पहुँचें सिद्धिसदन में इक दिन।।३५।।
वहाँ मिलेंगे सिद्ध अनन्तों, यहीं से वन्दन है उन सबको।।३६।।
करते-करते प्रभु को वन्दन, कटें ‘‘सारिका’’ भव के बंधन।।३७।।
नेमिनाथ तीर्थंकर प्रभु जी, कहलाते हैं तृतिय बालयति।।३८।।
ग्रह राहू यदि हो अरिष्ट तो, नेमिनाथ की भक्ती कर लो।।३९।।
निश्चित ही शान्ती मिल जाए, ग्रह की सब बाधा टल जाए।।४०।।
-दोहा-
नेमिनाथ भगवान का, यह चालीसा पाठ।
राहू ग्रह की शान्ती हित, पढ़ लो चालिस बार।।१।।
इस युग में विख्यात हैं, प्रथम बालसति मात।
गणिनीप्रमुख महान हैं, ज्ञानमती जी मात।।२।।
शिष्या उनकी चन्दनामती मात हैं प्रसिद्ध।
इन्हें राष्ट्रगौरव कहें, बुन्देलखण्ड के भक्त।।३।।
पाई इनकी प्रेरणा, तभी लिखा यह पाठ।
इसको पढ़ना भक्ति से, मिलेगा सुख-साम्राज्य।।४।।
श्री गिरनार गिरी जजूँ , पावन सिद्धस्थान |
नेमिनाथ के मोक्ष से , उसकी कीर्ति महान ||१||
चालीसा उस तीर्थ का, पढ़ो भव्य मन लाय |
रोग,शोक संकट टले, मनवांछित मिल जाय ||२||
है गुजरात प्रांत भारत में, कई कथानक जुड़े यहाँ से ||१||
जिनशासन का तीर्थ है प्यारा, सिद्धक्षेत्र कहलाया न्यारा ||२||
बाइसवें तीर्थंकर स्वामी, नेमिनाथ की कथा बखानी ||३||
शौरीपुर से जूनागढ़ तक, पञ्चकल्याणक की है कहानी ||४||
तीन कल्याणक हुए यहाँ पर, कहते इसको ऊर्जयंत गिरि ||५||
षटखंडागम आदि ग्रन्थ में , इसे क्षेत्र मंगल हैं कहते ||६||
इस पर्वत का नाम जो लेता, महासती राजुल को नमता ||७||
नेमिनाथ प्रभु जूनागढ से, ब्याह हेतु निकले राजुल से ||८||
पशुओं की चीत्कार सुनी जब, तब वैराग्य जगा उनके मन ||९||
जा गिरनार ग्रहण की दीक्षा, राजुल कर अनुशरण उन्हीं का ||१०||
सुकुमारी बन गयी आर्यिका , यहीं पे प्रभु को ज्ञान था प्रगटा ||११||
पुनः यहीं से मोक्ष पधारे, बाल ब्रह्मचारी प्रभु प्यारे ||१२||
श्री अनिरुद्ध प्रद्युम्न आदि मुनि, इस ही गिरि से पाई सिद्धिश्री ||१३||
गजकुमार मुनि इस पर्वत से, कर्म नाशकर मुक्त हुए थे ||१४||
गौरव गरिमा सदाकाल ही, हो अक्षुण्ण इसी हेतू ही ||१५||
इन्द्र ने सिद्धशिला को बनाकर, वज्र से चरणचिन्ह अंकित कर ||१६||
भव्य मूर्ति भी स्थापित की, शास्त्र ग्रन्थ में बड़ी प्रसिद्धी ||१७||
इक काश्मीर देश का श्रावक, रत्न नाम आया यात्रा हित ||१८||
जल से न्हवन किया मूर्ती का, प्रतिमा गल गयी बड़ा दुखी था ||१९||
रात्री मात अम्बिका प्रगटीं, बोलीं स्थापित हो मूर्ती ||२०||
रजत, स्वर्ण, पाषाण की प्रतिमा , रत्न ने फिर बनवाई अनुपमा ||२१||
यात्री आकर दर्शन करते, प्रभु जयकारा नित्य उचरते ||२२||
पर्वत से कई कोटि मुनी ने, सिद्धि पाई यह तीर्थराज है ||२३||
पांच टोंक इस पर्वत पर हैं , जिनसे जुड़े कथानक बहु हैं ||२४||
जब दो मील चढाई करते, राजुल सति की गुफा को नमते ||२५||
पुनः धर्मशाला त्रय मंदिर , बाहुबली जिनप्रतिमा सुन्दर ||२६||
कुन्दकुन्द स्वामी की छतरी, जिनमंदिर अरु पञ्चपरमेष्ठी ||२७||
गोमुख से निकले जलधारा, कई कुंडों का भव्य नजारा ||२८||
चरणचिन्ह चौबिस जिनवर के, इस प्रकार यह प्रथम टोंक है ||२९||
आगे सहस्राम्र वन प्यारा, राखन्गार दुर्ग का द्वारा ||३०||
टोंक दूसरी चढें पुनः जब, श्री अनिरूद्ध मुनीश्वर के पग ||३१||
निकट अम्बिका देवी मंदिर, इसकी कथा बड़ी ही सुन्दर ||३२||
नेमिनाथ प्रभु शासन देवी , एक बार श्री कुन्दकुन्द मुनि ||३३||
संघ सहित पहुंचे गिरनारा , दिगम्बरत्व का बजा नगाड़ा ||३४||
तीजी टोंक शम्बु मुनि की है, आगे चौथी टोंक बनी है ||३५||
खड़ा है पर्वत कठिन चढ़ाई , किन्तु करो साहस सब भाई ||३६||
पर्वत की चोटी पर चढ़ के, श्री प्रद्युम्न मुनी को नमते ||३७||
पंचम टोक पे नेमि चरण हैं ,भव्य दिगंबर प्रतिमा वहं पे ||३८||
पुरातत्व अधिकार में अब है , सभी करें यात्रा अनुपम है ||३९||
नीचे भी है सुन्दर मंदिर, तीरथयात्रा सचमुच सुन्दर ||४०||
श्री नेमिनाथ प्रद्युम्न संबु, अनिरुद्ध आदि हैं सिद्ध हुए |
अरु जहां बहत्तर कोटि सात सौ, मुनी मोक्ष को प्राप्त हुए ||
राजुल सति की गौरव गाथा, से पूज्य परम है गिरनारी |
उसकी यात्रा ‘इंदू’ हर प्राणी , को दे सिद्धशिला न्यारी ||१||
दोहा
तीर्थंकर प्रभु नेमि का, पावन जन्मस्थान
शौरीपुर जी तीर्थ को, शत-शत करूं प्रणाम ||१||
चालीसा इस भूमि का, जग में हो सुखकार
भक्ति भाव से तुम जजो, शौरीपुर गिरनार ||२||
चौपाई
शौरीपुर जी तीरथ प्यारा, यहाँ का सुन्दर अजब नजारा ||१||
बाइसवें तीर्थंकर स्वामी, नेमीनाथ जगत में नामी ||२||
जिला आगरा है यू. पी. में, यमुना के तट बसा तीर्थ ये ||३||
सिद्धक्षेत्र भी यह कहलाया, कई मुनी निर्वाण को पाया ||४||
कई करोड़ों वर्ष पूर्व में, नेमिनाथ जिनवर थे जन्मे ||५||
कार्तिक सुदि छठ गर्भकल्याणक,महका मात शिवा का आँगन ||६||
समुद्रविजय राजा के महल में , पन्द्रह मास रतन थे बरसे ||७||
इन्द्र सपरिकर स्वर्ग से आया, प्रभु का गर्भकल्याणक मनाया ||८||
श्रावण सुदि छठ जिनवर जन्मे, तब त्रैलोक्य समूचा हरषे ||९||
दो कल्याणक हुए यहाँ पर, दीक्षा ली प्रभु ऊर्जयन्तगिरि ||१०||
बाल ब्रह्मचारी कहलाए, उनके पद हम शीश झुकाएं ||११||
तीन कल्याणक श्री गिरनारा , तप अरु ज्ञान मोक्षकल्याणा ||१२||
शौरीपुर में है इक पर्वत, नाम गंधमादन है सुन्दर ||१३||
सुप्रतिष्ठ मुनिराज ध्यानरत ,घोरोपसर्ग परीषह सहकर ||१४||
अविचल ध्यानारूढ अवस्था , केवलज्ञान यहीं पर प्रगटा ||१५||
अन्धकवृष्टि व भोजकवृष्टी , इन्हीं केवली पद दीक्षा ली ||१६||
निष्ठसेन नृप के इक सुत थे, नाम ‘धन्य’ था मुनि दीक्षा ले ||१७||
ध्यानलीन यमुना के तट पर , उधर से निकला नृप शौरीपुर ||१८||
नहिं शिकार जब उसने पाया , मुनि को अपना लक्ष्य बनाया ||१९||
बाणों से मुनि को बींधा था, मुनि को शुक्लध्यान प्रगटा ||२०||
कर्म नाश शिवपद को पाया, इन्द्र ने मोक्ष्कल्याण मनाया ||२१||
अलसत नामा एक मुनी थे, यहीं से शिवपद प्राप्त किए थे ||२२||
प्रभु महावीर काल में यम मुनि ,अन्तःकृत बन गए केवली ||२३||
पुनः यहीं से मोक्ष गए हैं ,ऐसे कई इतिहास भरे हैं ||२४||
दानी कर्ण यहीं पर जन्में , लोकचन्द्र आचार्य यहीं के ||२५||
जैन न्याय का ग्रन्थ अनुपमा, प्रभाचन्द्र आचार्य यहीं के ||२६||
नाम प्रमेयकमलमार्तंड है , अति समृद्ध प्राचीन तीर्थ है ||२७||
अनुश्रुति से सुनने में आया, यहाँ हीरानग मुद्रा पाया ||२८||
कई दिगंबर मूर्ति मिली हैं, भट्टारक गद्दी भी रही है ||२९||
घटना उन्नीसवीं सदी की, उनकी सिद्धि से जनता खुश थी ||३०||
है ये दिगंबर तीर्थ पुराना, लोगों का रहता नित आना ||३१||
मुंडनादि संस्कार कराते, चमत्कार भी कई बताते ||३२||
श्री जिनेन्द्रभूषण भट्टारक, मन्त्र के वेत्ता सिद्ध पुरुष थे ||३३||
उनके चमत्कार की महिमा, अब भी प्रचलित हैं जन-जन मा ||३४||
शौरीपुर जी और बटेश्वर , वर्तमान में अलग दो तीरथ ||३५||
तीर्थ बटेश्वर में जिनमंदिर, कटने लगा था जब यमुना तट ||३६||
भट्टारक जी ने बनवाया, अजितनाथ प्रतिमा पधराया ||३७||
जल्हड़ प्राण प्रतिष्ठा करते , हम सब इस तीरथ को नमते ||३८||
ज्ञानमती माँ यहाँ पधारीं , दिया तीर्थ योजना जो न्यारी ||३९||
जन्मभूमि को मेरा वंदन, शुभ भावांजलि प्रभु को अर्पण ||४०||
शम्भु छंद
जिन जन्मभूमि का चालीसा, जो चालिस दिन तक पढते हैं
श्री नेमिनाथ की पावन भू को, श्रद्धायुत हो जजते हैं
अतिशायी कार्य सफल ‘इंदू’ इच्छित फल सबको मिल जाता
आत्मा परमात्म स्वरूप लहे, निज आत्म तीर्थ को प्रगटाता ||१||