अनन्तानन्त आकाश के मध्य में लोक है, इसका आकार पुरुषाकार है। ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक के भेद से वह तीन प्रकार का है, इनमें मध्य लोक पूर्व—पश्चिम एक राजू लम्बा, उत्तर दक्षिण सात राजू मोटा एवं एक लाख ४० योजन ऊँचा है। इस मध्यलोक में सर्वप्रथम एक लाख योजन (४०००००००० मील) विस्तार (व्यास) वाला थाली के आकार का जम्बूद्वीप है, इसे वेष्टित किए हुए दो लाख योजन विस्तार वाला लवण समुद्र है, इसी प्रकार एक दूसरे को (द्वीप को समुद्र और समुद्र को द्वीप) वेष्टित किये हुए एक दूसरे से दूने—दूने विस्तार वाले अंसख्यातों द्वीप और असंख्यातों समुद्र हैं, इन समस्त द्वीप समुद्रों के ऊपर अर्थात् मध्य लोक में ज्योतिर्वासी (चन्द्रसूयादि) देवों का अवस्थान है। विेशेष इतना है कि अढ़ाई द्वीप सम्बन्धी चन्द्र सूर्य सुदर्शन मेरु की प्रदक्षिणा स्वरूप नित्य गमन करते हैं शेष द्वीप समुद्र सम्बन्धी ग्रह अवस्थित हैं। यहाँ प्रधानत: जम्बूद्वीप सम्बन्धी ज्योतिर्वासी देवों का वर्णन किया जा रहा है। जो देवगति नाम कर्म का उदय होने पर नाना प्राकर की बाह्य विभूतियों एवं अणिमादि आठ गुणों से युक्त होते हुए द्वीप समुद्रादि अनेक स्थानों में इच्छानुसार नित्य क्रीड़ा करते हैं, वे देव कहलाते हैं। भवनवासी, व्यन्तरवासी, ज्योतिर्वासी और वैमानिकों के भेद से ये चार प्रकार के होते हैं, इनमें से चन्द्र—सूर्यादि ही ज्योतिर्वासी देव हैं और यहाँ उन्हीं का कथन प्रयोजनीय है। ज्योतिर्मय स्वभाव होने के कारण इन देवों की सामान्य संज्ञा ज्योतिषी है, अर्थात् इनके विमान चमकीले हैं इसलिए इन्हें ज्योतिषी देव कहते हैं तथा चन्द्र—सूर्य आदि इनके विशेष नाम हैं। चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा के भेद से ज्योतिर्वासी देव पांच प्रकार के होते हैं इन पांचों प्रकार के देवों के विमान लोक के अन्त में पूर्व—पश्चिम दिशागत धनोदधि वातवलय का स्पर्श करते हुए अवस्थित हैं, किन्तु उत्तर—दक्षिण दिशागत लोक को स्पर्श नहीं करते हैं। ज्योतिर्विमान : ये सब ज्योतिर्विमान अर्धगोले के सदृश ऊध्र्वमुख स्थित हैं, अर्थात् जैसे गेंद के आकार वाली एक गोल वस्तु के मध्य से दो खण्ड करके उन्हें ऊर्ध्व मुख रखा जावे तो चौड़ा भाग ऊपर और गोलाई वाला संकरा भाग नीचे रहता है, उसी प्रकार इनकी अवस्थिति है। इन विमानों का मात्र नीचे वाला गोलाकार भाग ही हमारे द्वारा दृश्यमान है शेष भाग नहीं। सूर्य विमान : पृथ्वी के परिणाम स्वरूप अत्यन्त चमकीली धातु से बना है, अकृतिम है, इसका वर्ण मणिमय है। इस सूर्य के बिम्ब में स्थित पृथ्वीकायिक जीवों के आतप नामकर्म का उदय होने से उसकी किरणें चमकती हैं, तथा उसके मूल में उष्णता न होकर किरणों में ही उष्णता होती है। सूर्य की किरणें १२००० प्रमाण हैं। सूर्य विमान के व्यास का प्रमाण ४८/६१ योजन (३१४७—३३/६१ मील) तथा मोटाई २४/६१ योजन (१५७३—४७/६१ मील) है। सूर्य के विमान को पूर्व, दक्षिण, पश् िचम और उत्तर दिशा में क्रमश: सिंह हाथी, बैल और घोड़ों के रूप को धारण करने वाले वाहन जाति के चार—चार हजार देव ले जाते हैं। चन्द्रविमान : चन्द्र विमान भी पृथ्वीकायिक हैं, इसमें स्थित पृथ्वीकायिक जीवों के उद्योत नामकर्म का उदय होता है अत: इसके मूल एवं किरणों में सर्वत्र शीतलता पाई जाती है। चन्द्र विमान की किरणों का प्रमाण १२००० है। इसका व्यास ५६/६१ योजन (३६७२—८/६१ मील है और बाहुल्य २८/६१ योजन (१८३६—४/६१ मील ) मील है। चन्द्र विमान को भी चारों दिशाओं में क्रमश: चार—चार हजार सिंह ,हाथी, बैल, तथा घोड़ों के रूप को धारण करने वाले देव ले जाते हैं। शुक्र विमान : भी पृथ्वी कायिक है, इसमें रहने वाले जीवों के उद्योत नाम कर्म का उदय है। यह विमान रजतमयी अर्थात् चांदी से निर्मित है, किरणें २५०० हैं। विमान का विस्तार एक कोश (१००० मील) और मोटाई इससे आधी (५०० मील) है। वृहस्पति विमान : स्फटिक मणि सदृश पृथ्वी से निर्मित हैं, पृथ्वीकायिक जीवों के उद्योत नामकर्म का उदय है। किरणें अतिमन्द हैं। व्यास एवं बाहुल्य शुक्र विमान सदृश है। बुध विमान: स्वर्णमय चमकीले हैं, किरणें शीतल एवं मन्द हैं, मंगल विमान : पद्मरागमणि से निर्मित लाल वर्ण वाले हैं, किरणें मन्द हैं, शनि विमान : स्वर्णमय पृथ्वी से निर्मित हैं, किरणें मन्द हैं, इन तीनों विमानों में रहने वाले पृथ्वीकायिक जीवों के भी उद्योत नामकर्म का उदय है। तीनों का व्यास आधा—आधा कोश (५००—५०० मील), और बाहुल्य इसके अर्ध प्रमाण है। इन तीनों के वाहन देव प्रत्येक दिशा में दो—दो हजार हैं। नक्षत्रों के विमान : विविध रत्नों से निर्मित तथा मन्द किरणों से युक्त हैं। व्यास १००० मील और मोटाई ५०० मील है। ताराओं के विमान उत्तम उत्तम रत्नों से निर्मित तथा मन्द मन्द किरणों से युक्त हैं। उत्कृष्ट ताराओं का व्यास एक कोश, मध्यम का ३/४ एवं १/२ कोश और जघन्य का १/४ कोश प्रमाण है तथा बाहुल्य व्यास का अर्ध—अर्ध है। नक्षत्र विमानों को प्रत्येक दिशा में एक—एक हजार तथा ताराओं के विमानों को ५००—५०० सिंह, हाथी, बैल एवं घोड़ों के रूप धारी देवे ले जाते हैं। चन्द्र—सूर्य आदि सभी जयोतिर्देवों के विमानों के मध्य में उत्तम वेदी सहित एक राजाङ्गण (मध्यवर्ती आगंन ) है राजाङ्गण के ठीक मध्य में एक रत्नमय दिव्य कूट हैं, उन प्रत्येक कूटों पर चार—चार तोरण द्वारों से युक्त एक—एक जिन मन्दिर हैं, जो उत्तम वङ्कामय किवाड़ों से युक्त, मोती एवं स्वर्णमय मालाओं से रमणीक, दिव्य चन्द्रदीपकों से सुशोभित, अष्टमहामंगल द्रव्यों से समन्वित और विविध प्रकार के दिव्य वाद्यों से नित्य शब्दायमान हैं। उन जिन मन्दिरों मेें तीन छत्र, सिंहासन, भामण्डल और चामरों से युक्त अकृत्रिम जिन प्रतिमाएँ विराजमान हैं, तथा जिनेन्द्र प्रतिमाओं की दोनों बाजुओं (अगल—बगल) में श्रीदेवी, श्रुतदेवी,सर्वाण्ह यक्ष तथा सनत्कुमार यक्ष की मूर्तियां भी विराजमान हैं। प्रगाढ़ भक्ति से भरे समस्त देव उत्तम जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प नैवेद्य, दीप, धूप और फलों से नित्य भगवान की पूजन करके सातिशय पुण्य संचय करते हैं।
इन जिन मंन्दिरों के चारों ओर अर्थात् राजाङ्गण के चारों कोनों पर समचतुष्कोण, लम्बे और नाना प्रकार के विन्यास से रमणीय चन्द्र के प्रासाद हैं, जिनमेें कितने ही प्रासाद मरकत वर्ण के, कितने ही कुन्द—पुष्प, चन्द्र, हार एवं बर्पâ जैसे वर्ण वाले हैं, कोई स्वर्ण सदृश और कोई मूंगा सदृश वर्ण वाले भी हैं, इन प्रासादों में उपवाद गृह, स्नानगृह, भूषणगृह, मैथुन शाला, क्रीड़ा शाला, मन्त्रशाला तथा सभा भवन आदि भी हैं। ये प्रासाद सात—आठ मंजिल ऊँचे, उत्तम परकोटों एवं विचित्र गौपुरों से संयुक्त, मणिमय तोरणों से रमणीक, चित्रमयी दीवालों से संयुक्त , विचित्र उपवन वाटिकाओं एवं सुवर्ण मय विशाल खम्भों से शोभायमान, शयन,—आसन आदि सामग्रियों से परिपूर्ण दिव्य धूप की गंध से व्याप्त तथा अनुपम एवं शुद्ध रूप, रस, गंध आदि पंचेन्द्रियों को सुख देने में समर्थ हैं। इन चन्द्र भवनों के मध्य में मणिमय सिंहासन पर चन्द्रदेव रहते हैं। चन्द्र की अग्र—महिषी ४ हैं, चन्द्राभा, सुसीमा, प्रभंकरा और अर्चिमालनी। सूर्यदेव की भी द्युति—श्रुति, प्रभंकरा, सूर्यप्रभा और अर्चिमालनी नाम की चार अग्रमहिषी हैं। चन्द्र—सूर्य की इन एक—एक प्रधान देवियों की ४—४ हजार परिवार देवियां हैं एवं एक—एक अग्रमहिषी विक्रिया से ४—४ हजार प्रमाण रूप बना लेतीं हैं। चन्द्र का परिवार : ज्योतिर्लोक का इन्द्र (राजा) चन्द्रदेव है। एक चन्द्रदेव के परिवार में सूर्य प्रतीन्द्र (युवराज) है, सामानिक (पत्नी सदृश ) देव, तनुरक्षक (अंग रक्षक सदृश), पारिषद् (सभासदों के सदृश), अनीक (सेना सदृश), प्रकीर्णक (व्यापारी सदृश), आभियोग्य (दास दासी सदृश), किल्विषिक (गा बजाकर आजीविका चलाने वालों के सदृश) तथा ८८ ग्रह, २८ नक्षत्र और ६६९७५ कोड़ाकोड़ी तारे होते हैं। इन सभी ज्योतिर्देवों का जन्म उपपाद गृह में उपपाद शय्या पर होता है, अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनिट से कम समय) में ही पर्याप्त एवं नवयौवन सम्पन्न हो जाते हैं। जन्म होने के बाद स्नान करके सर्वप्रथम भगवान जिनेन्द्र की पूजन करते हैं। समचतुरस्र संस्थान शरीर के धारी इन देवों के शरीर में हड्डी, नस, रुधिर, चर्बी, मल, मूत्र, केश, रोम, चमड़ा और मांस आदि तथा दाढ़ी मूंछ आदि नहीं होते। देव कभी वृद्धावस्था को प्राप्त नहीं होते, इनके नेत्रों में टिमकार नहीं होता। इनके शरीर का निर्माण वैक्रियक दिव्य स्कन्धों से होता है अत: इनके शरीर में कभी रोग उत्पन्न नहीं होते। ये देव अमृतमय, दिव्य, अनुपम एवं तुष्टि—पुष्टि कारक मानसिक आहार करते हैं। इनका शरीर सात धनुष (२८ हाथ) का होता है। ये स्त्री—पुरूषों के सदृश काम सेवन करते हैं। इनमें चन्द्र देव की उत्पकृष्ट आयु एक पल्य—एक लाख वर्ष, सूर्य की एक पल्य, एक हजार वर्ष, शुक्र की एक पल्य १०० वर्ष, गुरु की एक पल्य, बुध, मंगल और शनि आदि की आधा—आधा पल्य, नक्षत्रों और ताराओं की उत्कृष्टायु पाव—पाव पल्य एवं जघन्यायु पल्य के आठवें भाग है। सूर्यादिकों की जघन्य आयु १/४ पल्य प्रमाण है। समस्त ज्योतिष्क देवांगनाओं की आयु अपने अपने (भर्तार) देवों की आयु के अर्धभाग प्रमाण होती है। ज्योतिर्देवों का अवस्थान : इस मध्यलोक की जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं, उसका नाम चित्रा पृथ्वी है। मध्य लोक के ठीक मध्य में सुदर्शन मेरु पर्वत है। सुदर्शन मेरु को ११२१ योजन (४४,८४००० मील) छोड़कर अर्थात् मेरु पर्वत से ११२१ योजन दूर और चित्रा पृथ्वी से ७९० योजन (३१,६०,००० मील) ऊपर तारागण स्थित हैं, ताराओं से दश योजन अर्थात् ८०० योजन (३२,००,००० मील) ऊपर सूर्य, सूर्य से ८० योजन अर्थात् ८८० योजन (३५,२०,००० मील) ऊपर चन्द्र, इससे ४ योजन अर्थात् ८८४ योजन (३५३६००० मील) ऊपर नक्षत्र, (८८४ ± ४) · ८८८ यो० (३५,५२,००० मील) ऊपर बुध (८८८ ± ३) · ८९१ यो. (३५,६४,०० मील) ऊपर शुक्र (८९१ ± ३) · (३५७६००० मील) ऊपर गुरु, ८९७ योजन (३५,८८,००० मील) ऊपर मंगल और ९०० योजन (३६,००,००० मील) ऊपर शनि ग्रह स्थित है। इस प्रकार चित्रा पृथ्वी से ७९० योजन ऊपर जाकर और मेरू से ११२१ योजन हटकर (दूर) एक राजू लम्बा, एक राजू चौड़ा और १०±८०±४±४±३±३±३±३)·११० योजन (४,४०,००० मील) मोटा आकाश क्षेत्र ज्योतिषी देवों के निवास करने व संचार करने का स्थान है, इससे ऊपर नीचे या बाजू आदि में नहीं। राहु—केतु ग्रहों का अवस्थान आदि : अरिब्ट मणि से र्नििमत राहु—केतु के विमानों का वर्ण अण्वन सदृश व्यास कुछ कम एक—एक भोजन, वाहुल्य कुछ क्रम अर्ध—अर्ध योजन और उवस्थान चन्द्र—सूर्य के विमानों के नीचे है। अर्थात् राहु के विमान की ध्वजा दण्ड से चार प्रमाणागुल (आठ यो का एक उत्सेधागुल, व्यवहारगुल या सूच्यांगुल होता है; तथा पाँच सौ उत्सेह संख्यों का एक प्रमाणागुल होता है। यह प्रमाणांगुल अवर्सिवणी काल के भरत (प्रथम) चक्रवर्ती का एक अंशुल है) ऊपर चन्द्र का विमान और केतु विमान की ध्वजा दण्ड से चार प्रमाणांगुल ऊपर सूर्य का विमान है। अन्य ग्रहों का अवस्थान : सम्पूर्ण ग्रह ८८ हैं, उनमें बुध, शुक्र, गुरु, मंगल और शनि इन पांच ग्रहों को छोड़कर शेष ८३ ग्रहों की ८३ नगरियाँ बुध और शनि ग्रह के अन्तराल में अवस्थित हैं। चारक्षेत्र : चन्द्र—सूर्य के गमन करने के मार्ग को चार क्षेत्र कहते हैं। अर्थात् आकाश के जितने भाग में ये गमन कराते हैं, उस सीमा का नाम चारक्षेत्र है। जम्बूद्वीप में दो सूर्य और दो चन्द्र हैं, इन दो—दो चन्द्र सूर्य का एक—एक चार क्षेत्र है। यह चारक्षेत्र ५१०—४८/६१ योजन (२०४३१४७—१३—६१ मील) चौड़ा और परिधि प्रमाण लम्बा है, विशेष इतना है कि जम्बूद्वीप के चार क्षेत्र का विस्तार जम्बूद्वीप में तो मात्र १८० योजन (७२०००० मील ) है शेष ३३०—४४/६१ योजन विस्तार लवण समुद्र में है। इस ५१०—४८/६१ योजन प्रमाण वाले चार क्षेत्र में चन्द्रमा की १५ गलियाँ हैं। प्रत्येक गली का विस्तार चन्द्र बिम्ब के प्रमाण ५६/६१ योजन (३६७२—८/६१ मील) सदृश है, तथा एक गली (वीथी) से दूसरी गली का अन्तर ३५—२१४/४२७ योजन (१४२००४—२९२/४२७ मील ) है। प्रतिदिन दोनों चन्द्र आमने—सामने रहते हुए एक—एक गली का परिभ्रमण पूर्ण करके दूसरी गली में चले जाते हैं। अर्थात् एक चन्द्र पूर्वदिशागत अर्धगली में और दूसरा चन्द्र पश्चिम दिशागत अर्ध गली में पंक्तिक्रम से संचार करते हें शेष अर्धभाग में नहीं जाते। सूर्य के चार क्षेत्र का प्रमाण भी ५१०—४८/६१ योजन प्रमाण है, इसमें सूर्य की १८४ गलियाँ है, प्रत्येक गली का विस्तार सूर्य बिम्ब के प्रमाण सदृश ४८/६१ योजन (३१४७—३३/६१ मील) है, तथा एक गली से दूसरी गली का अन्तराल २ योजन (८००० मील) है। प्रतिदिन दोनों सूर्य एक गली का में आमने—सामने रहते हुए एक—एक गली को पूर्ण करके दूसरी गली में जाते हैं। अभयन्तर (प्रथम) गली की परिधि का प्रमाण ३,१५,०८९ योजन (१,२६,०३,५६००० मील) है। दो सूर्य इस परिधि को एक दिन—रात्रि में पूर्ण करते हैं, जब एक सूर्य भरत क्षेत्र में रहता है, तब दूसरा उसके ठीक सामने ऐरावत क्षेत्र में रहता है, अत: उसके समय भरत—ऐरावत क्षेत्रों मेें दिन और पूर्व—पश्चिम विदेह में रात्रि रहती है, किन्तु जब परिभ्रमण करते हुए ऐरावत क्षेत्र का सूर्य पूर्व विदेह में और भरत क्षेत्र का सूर्य पश्चिम विदेह में आ जाते हैं तब इन दोनों क्षेत्रों में दिन और भरतैरावत क्षेत्रों में रात्रि रहती है। जब सूर्य प्रथम वीथी में रहता है तब भरतैरावतक्षेत्र में दिन १८ मुहूर्त (१४ घण्टे २४ मिनिट) का एवं रात्रि १२ मुहूर्त (९ घ. ३६ मि.) की होती है और जब सूर्य प्रथम वीथी को पूर्ण कर दो योजन प्रमाण अन्तराल के मार्ग को पार करता हुआ दूसरी गली में जाता है, तब दूसरी गली का प्रमाण उसे १७—३८/६१ योजन (७०४९१—४९/६१ मील) अधिक मिलता है और मेरु से भी भी सूर्य की दूरी कुछ अधिक और बढ़ जाती है अत: दूसरे दिन २/६१ मुहूर्त (१—३५/६१ मिनिट दिन घट जाता है और रात्रि बढ़ जाती है । इसी प्रकार प्रत्येक परिधि में प्रतिदिन १३५/१६१ मिनिट दिन घटना जायेगा और रात्रि बढ़ती जायेगी। इसी प्रकार परिभ्रमण करते हुए जब सूर्य मध्य की ९२ वीं गली में पहुँचता है तब १५ मुहूर्र्त अर्थात् (१२ घण्टे) का दिन और १५ मुहूर्त (१२ घण्टे) की रात्रि होती है । इसी प्रकार प्रत्येक गली में प्रतिदिन २/६१ मुहूर्त अर्थात् १—३५/६१ मिनिट घटते घटते अन्तिम गली में पहँुचने पर १२ मुहूर्त ( ९ घण्टे ३६ मिनिट ) का दिन और १८ मुहूर्त (१४ घण्टे २४ मिनिट) की रात्रि हो जाती है। श्रावण मास में सूर्य कर्वâ राशि पर विचरण करते हुये प्रथम गली में रहता है। कार्तिक एवं वैशाख मास में मध्य की ९२ वीं गली में रहता है तथा मकर राशि का सूर्य माघ मास में अन्तिम गली में रहता है। प्रथम गली की परिधि का प्रमाण ३१५०८९ योजन (१२६०३५६००० मील) है, इस गली में सूर्य एक मिनिट में ४३७६२३—११/१८ मील चलता है। मध्यम (९२ वीं) वीथी की परिधि का प्रमाण ३१६७०२ योजन (१२६६८०८००० मील) है, इसमें सूर्य एक मिनिट में ४३९८६३—७/८ मील चलता है। अन्तिम (बाह्य) वीथी की परिधि का प्रमाण ३१८३१४ योजन (१२७३२५६००० मील) है, इस वीथी में सूर्य एक मिनिट में ४४२१०२—७/९ मील चलता है। ताप का प्रमाण : अभ्यन्तर (प्रथम) वीथी में स्थित सूर्य का प्रकाश उत्तर दिशा में ४९,८२० योजन (१९,९२८०,००० मील) तक, दक्षिण दिशा में लवण समुद्र के छठवें भाग पर्यंत अर्थात् ३३,५१३—१/३ योजन (१४,२०,५३,३३३—१/३ योजन मील) तक, ऊपर ज्योतिर्लोेक पर्यन्त अर्थात् १०० योजन (४,००,००० मील) तक और नीचे १८०० योजन (७२,००,००० मील) तक पैâलता है। दक्षिणायन—उत्तरायण : अभ्यन्तर वीथी से प्रारम्भ कर बाह्य वीथी पर्यन्त गमन करने में सूर्य को ६ माह लगते हैं, और यह समय दक्षिणायन कहलाता है, इसी प्रकार बाह्य वीथी से अभ्यन्तर बीथी पर्यन्त के परिभ्रमण में भी छह माह लगते हैं, अत: यह समय उत्तरायण कहलाता है। अधिक मास होने का कारण : जब सूर्य एक वीथी से दूसरी वीथी में प्रवेश करता है तब मध्य के दो योजन (८००० मील) के अन्तराल को पार करता हुआ ही जाता है। प्रत्येक दिन एक एक अन्तराल को पार करता है जिसमें उसे एक मुहूर्त (४८ मिनिट) अधिक लगते हैं। अर्थात् एक दिन में ४८ मिनिट की ३० दिन में एक दिन, एक वर्ष में १२ दिन की, अढ़ाई वर्ष में एक मास की वृद्धि होती है, इसीलिए प्रत्येक अढ़ाई वर्ष में एक लौंद का मास होता है। चन्द्र का एक मिनिट का गमन क्षेत्र : चन्द्र की प्रथम वीथी की परिधि का प्रमाण ३,१५,०८९ योजन (१२६,०३,५६,००० मील) है, इसे पूर्ण करने में चन्द्र को ६६—२३/२२१ मुहूर्त ( कुछ कम २५ घण्टे) लगते हैं। इसका त्रैराशिक लगाने पर चन्द्र प्रथम वीथी में एक मिनिट में ४२२७९७—३१/१६४७ मील चलता है। बाह्य पथ की परिधि का प्रमाण ३१८३१४ योजन (१२७३२५६००० मील) है, इसमें चन्द्र एक मिनिट में ४३१६७८—२७४/१६४७ मील चलता है। चन्द सूर्यादि का गमन : चन्द्र सूर्य की प्रथम वीथी से आगे आगे की वीथियों का प्रमाण वृद्धिगंत होता गया है और वापिस लौटते हुए बाह्य वीथी से प्रत्येक वीथी का प्रमाण क्रमश: हीन होता गया है, चन्द्र इन छोटी, बड़ी प्रत्येक वीथियों को ६६—३३/२२१ मुहूर्त (कुछ कम २५ घंटे) में और सूर्य ६० मुहूर्त (२४ घंटे) में नियम से पूर्ण कर लेते हैं, कारण कि ये अभ्यन्तर वीथियों में हाथी की चाल के सदृश अत्यन्त मन्द गति से चलते हैं, और जैसे—जैसे आगे की वीथियों में पहँुचते जाते हैं, वैसे ही गति क्रमश: तेज होते हुए मध्यम वीथियों में अश्व सदृश और अन्तिम वीथियों में सिंह सदृश तेज गति से चलने लगते है, वापिस लौटते हुए भी गति इसी क्रम से मन्द मन्द होती जाती है। कृष्णपक्ष—शुक्लपक्ष का क्रम : चन्द्र विमान का विस्तार ५६/६१ योजन ३६७२—८/६१ मील) है। चन्द्रमा की कुल १६ कलाएँ होती है। एक कला का विस्तार २२९—३१/६१ मील का है। नेमिचन्दाचार्य के मत से प्रतिदिन चन्द्र की एक—एक कला कृष्ण रूप परिणमन करती जाती है। १५ दिन बाद जब मात्र एक कला श्वेत रूप बचती है तब उसे अमावस्या कहते हैं। प्रतिपदा से पुन: एक—एक काला श्वेत रूप परिणमन करती है तब चन्द्र १५ दिन में क्रमश: शुक्ल रूप होते हुए पूर्ण शुक्ल हो जाता है, इसे पूर्णिमा कहते हैं। अन्य—मतानुसार : अञ्जन वर्ण राहु विमान के ध्वजा दण्ड के चार प्रमाणांगुल ऊपर चन्द्र विमान है। राहु का विमान प्रतिदिन एक—एक वीथी में पन्द्रहकला पर्यन्त चन्द्र बिम्ब के एक—एक भाग को आच्छादित करता है, जो कृष्णपक्ष कहलाता है, पुन: वही राहु प्रतिपदा से एक—एक वीथि में अपने गमन विशेष के द्वारा पूर्णिमा पर्यन्त एक—एक कला को छोड़ता जाता है, जो शुक्ल पक्ष कहलाता है। चन्द्र ग्रहण—सूर्य ग्रहण : राहु का विमान चन्द्र विमान के नीचे और केतु का विमान सूर्य विमान के नीचे गमन करते हैं अपनी गति विशेषों के द्वारा प्रत्येक छह माह बाद पर्व के अस्त में अर्थात् राहु का विमान चन्द्र विमान को र्पूिणमा के दिन और केतु का विमान सूर्य विमान की अमावस्या के दिन आच्छादित कर लेते हैं, दूसरी को क्रमश: चन्द्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण कहते हैं। गमन विशेष : चन्द्रमा सबसे मन्द गति वाला है। चन्द्र से शीघ्र गति सूर्य की, इससे शीघ्र गति ग्रहों की , ग्रहों से शीघ्र गति नक्षत्रों की और नक्षत्रों से भी अधिक शीघ्र गति ताराओं की है। सुदर्शन मेरु से चन्द्र सूर्य की दूरी, एक चन्द्र से दूसरे चन्द्र की, एक सूर्य से दूसरे सूर्य की, सूर्य से चन्द्रों की, तारागणों आदि की दूरी का प्रमाण; परिधि प्रमाण आकाश के कुल गगन खण्ड, प्रत्येक नक्षत्रों के गगन खण्ड, सूर्य, चन्द्र, राहु आदि के द्वारा इन गगन खण्डों का भुक्तिकाल तथा उत्तरायण—दक्षिणायन सूर्य की आवृत्तियों के वर्ष, मास, तिथि एवं नक्षत्रों आदि का तथा ज्योतिर्लोक सम्बन्धी अन्य सभी विषयों का सांगोपांग वर्णन त्रिलोक—सार तिलोयपण्णत्ति, लोक विभाग एवं राजवार्तिक आदि ग्रंथों से जानना चाहिये तथा चन्द्र सूर्य आदि के विषय—जन्य लोक प्रचलित मिथ्याभ्रान्ति का परित्याग करना चाहिए।