भारत की नई शिक्षा नीति पर केंद्रित शैक्षिक उन्मेष पत्रिका के आगामी विशेषांक खंडों (ई-पत्रिका) के लिए आलेख आमंत्रण
हाल ही में कैबिनेट ने विद्यालय और उच्च शिक्षा दोनों ही स्तरों पर शिक्षा के क्षेत्र में व्यापक बदलाव और सुधार लाने के लिए नई शिक्षा नीति 2020 को मंजूरी दी है। यह नई शिक्षा नीति 1986 में बनी और 1992 में संशोधित शिक्षा नीति पर आधारित मौजूदा शिक्षा प्रणाली का स्थान लेगी। इस शिक्षा नीति की लम्बे समय से प्रतीक्षा थी। पिछले लगभग तीन दशकों में दुनिया पूरी तरह से बदल गयी है। आज की चुनौतियाँ और प्राथमिकताएं तीन दशक पहले की दुनिया से बिलकुल भिन्न हैं। नई शिक्षा नीति में इस स्थिति का पर्याप्त ध्यान रखा गया है।
इस नई शिक्षा नीति में यह स्पष्ट कहा गया है कि भारत द्वारा 2015 में अपनाए गए सतत विकास एजेंडा 2030 के लक्ष्य 4 (एसडीजे 4) में परिलक्षित वैश्विक शिक्षा विकास एजेंडा के अनुसार विश्व में 2030 तक “सभी के लिए समावेशी और सामान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवन पर्यंत शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिए जाने” का लक्ष्य है। अब इस बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जाहिर है वर्तमान शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन अनिवार्य है। ऐसे में 21वीं सदी की इस पहली शिक्षा नीति को इस तरह से तैयार किया गया है कि यह हमारे देश के विकास के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला हो। आने वाली पीढ़ी की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं के अनुकूल हो तथा भारतीय ज्ञान और मूल्य परंपरा के विशिष्ट उपयोग से राष्ट्रीय चरित्र को परिष्कृत करने वाला हो।
“ज्ञान, प्रज्ञा और सत्य की खोज को भारतीय विचार परंपरा और दर्शन में सदा सर्वोच्च मानवीय लक्ष्य माना गया है। भारत और भारतीयता के प्रति दुनिया भर के देशों की आस्था और विश्व गुरु के रूप में इसकी प्रतिष्ठा के मूल में इसकी समृद्ध ज्ञान और चिंतन की परंपरा और उससे निकले सूत्र और मार्ग ही रहे हैं। अपनी इसी विशिष्टता के बल पर वह सदैव संसार का पथ प्रदर्शन करता रहा है। भारत में हमेशा ऐसी शिक्षा व्यवस्था रही है जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास को महत्व देती हो। इस व्यवस्था के माध्यम से व्यक्ति में ऐसे चारित्रिक और नैतिक गुणों के साथ-साथ सामाजिक भावना का विकास किया जाता रहा है जिससे कि आगे चलकर वह संस्कृति तथा सभ्यता का संरक्षण करते हुए उत्तम नागरिक के रूप में सामाजिक सुधार करके राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए तत्पर रहे। राष्ट्रीय एकता, भावात्मक एकता, सामाजिक कुशलता तथा राष्ट्रीय अनुशासन आदि भावनाओं को विकसित करने में सहायक हो। वह अपने सामाजिक कर्त्तव्यों को पूरा करने के साथ ही राष्ट्रीय हित को प्राथमिकता देने की भावना से ओत प्रोत हो।
प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से कहीं अधिक समुन्नत और उत्कृष्ट थी लेकिन कालांतर में शिक्षा व्यवस्था का ह्रास हुआ। विदेशी आक्रान्ताओं ने भारतीयता की सनातन धारा को अवरुद्ध करने के क्रम में शिक्षा व्यवस्था को काफी क्षति पहुंचायी और इसको उस अनुपात में विकसित नहीं किया जिस अनुपात में होना चाहिए था। स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ ही शिक्षा को लेकर भी जद्दोजहद चलती रही। स्वतंत्रता के पश्चात् भारत सरकार ने सार्वजनिक शिक्षा के विस्तार के लिए अनेक प्रयास किए किन्तु उसमें कई खामियाँ थी। हमारी प्राचीन शिक्षा व्यवस्था जिस महान आध्यात्मिक मूल्यों पर अधिष्ठित थी मैकाले की शिक्षा नीति के प्रभाव में उसकी उपेक्षा की गयी। इससे भारतीय शिक्षा व्यवस्था का बड़ा नुकसान हुआ। ऐसे में यह नई शिक्षा नीति अत्यंत ही उत्साहजनक है। इसकी व्यापकता और दूरदर्शिता स्पष्टतः देखी जा सकती है। भारतीय परिवेश और परंपरा के अनुकूल यह शिक्षा नीति भारतीयता की प्रतिष्ठा की दृष्टि से बेहद निर्णायक सिद्ध हो सकती है। इक्कीसवीं सदी की भारत की इस पहली और महत्वाकांक्षी शिक्षा नीति में भारत की परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों को बरकरार रखते हुए नई सदी की शिक्षा के आकांक्षात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में ठोस कदम उठाया गया प्रतीत होता है।
भारतीय ज्ञान परंपरा और संस्कृति से सम्बंधित हमारी ऐतिहासिक विरासत को सहेजने, उसका अनुसन्धान करने, बहुज्ञता को बढ़ावा देने और एक बहु विषयक और समग्र शिक्षा की भूमिका तैयार करने तथा भारतीय भाषाओं को शिक्षा प्रक्रिया में आधारभूत रूप में शामिल करने वाली, शिक्षा के हर स्तर पर समन्वय को बढ़ावा देने तथा सतत मूल्यांकन, बहुभाषिकता, स्वायतता आदि को प्रोत्साहित करने वाली यह शिक्षा नीति भारतीय परंपरा, परिवेश और युगीन आवश्यकताओं के सर्वथा अनुकूल है। इस शिक्षा नीति में पहले की शिक्षा नीति में निहित जरुरी किन्तु अधूरे कार्यों को पूरा करने का जो प्रयास और संकल्प दिखा है वह भी सराहनीय है। इसमें ज्ञान-विज्ञान की विशिष्ट शिक्षा प्रणाली का एक ऐसा ढांचा खड़ा करने का प्रयास होता हुआ दिखाई देता है जिसमें लोगों की क्षमता, उनकी रूचि, उनके लिए रोजगार के अवसर और प्रशिक्षण आदि सभी पहलुओं को बारीकी के साथ देखा गया है।
अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अनेक क्रांतिकारी बदलाव को इस शिक्षा नीति में समावेशित किया गया है। ऐसे बदलावों में पिछले 10+2 वाले अकादमिक ढाँचे की जगह 5(3,2)+3+3+4 वाले नए शैक्षणिक और पाठ्यक्रम ढांचे का विकास, कोर्स चयन में अधिक लचीलेपन का होना, कौशल विकास को शिक्षा पाठ्यक्रम से जोड़ना, शिक्षण शास्त्र को एक मजबूत स्थानीय और भारतीय सन्दर्भ देने की दृष्टि का होना जैसे ऐसे अनेक तत्व शामिल हैं जिसे सशक्त और समर्थ भारत के लिए एक बड़े प्रस्थान बिंदु के रूप में देखा जा सकता है।
उच्चतर शिक्षा में संस्थागत पुनर्गठन और समेकन के क्रम में बड़े बहुविषयक विश्वविद्यालयों का गठन, उच्चतर शिक्षा संस्थान क्लस्टरों का निर्माण आदि से सम्बंधित अनुशंसाएँ भी शिक्षा में सुधार के नए मार्ग खोलने वाले हैं। इसके लिए 2030 तक प्रत्येक जिले में या उसके समीप कम से कम एक बड़ा बहुविषयक शिक्षा संस्थान होने का संकल्प भी इस शिक्षा नीति में व्यक्त किया गया है। उच्चतर शिक्षा के सम्बन्ध में एक बड़ी भूमिका नियामक संस्थाओं की रही है। जिस प्रकार की प्रणाली हमने अब तक विकसित की है वह बेहद कृत्रिम और विघटनकारी स्वभाव की रही है। इन नियामक संस्थाओं के बीच समन्वय का सतत अभाव रहा है। इसका उच्चतर शिक्षा पर बड़ा प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इस कमी को दूर करने के ध्येय से नई शिक्षा नीति में इन संस्थाओं की अनेक खामियों मसलन कुछ संस्थाओं में अधिक शक्ति का केन्द्रीकरण, इनके आपसी हितों का टकराव, जवाबदेही की कमी, परस्पर समन्वय का अभाव आदि को दूर करने का प्रयास किया गया है। इन नियामक संस्थाओं के समन्वय और साझा हितों की तारतम्यता को बनाने के लिए भारतीय उच्च शिक्षा आयोग का गठन और इन सभी नियामक संस्थाओं को उससे सम्बद्ध करने की व्यवस्था जो इस शिक्षा नीति में की गयी है वह भी बेहद सकारात्मक है।
इस शिक्षा नीति में महंगी होती शिक्षा और उससे निबटने की दिशा में कदम उठाने का भी संकेत मिलता है। इसके तहत शिक्षा शुल्क के उच्चतम स्तर को निर्धारित करने की दिशा में एक विशिष्ट प्रणाली के विकास और ‘फेलोशिप’ तथा ‘फ्रीशिप’ को बढ़ावा देने की बात कही गयी है। अगर ऐसा होता है उन लोगों के लिए जिनकी पहुँच से शिक्षा आज भी बहुत दूर है बेहद राहत की बात होगी।
नई शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं के विकास की दृष्टि से अनेक अनुकूल बिंदु शामिल किए गए हैं। इनमें कई ऐसे बिंदु भी हैं जिनकी मांग लम्बे अरसे से की जा रही थी। इनमें 5 वीं कक्षा तक शिक्षा के माध्यम के रूप में स्थानीय भाषा/मातृभाषा को स्वीकार करना अत्यंत ही स्वागत योग्य पहल है। इससे छात्रों को उस वातावरण के साथ अपने विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक संबंध स्थापित करने में सहायता मिलेगी जिसमें वे रह रहे हैं। इसके माध्यम से भारत के संविधान के उस प्रावधान को कि बच्चों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा के लिए हर राज्य और स्थानीय प्राधिकरण को पर्याप्त सुविधाएं प्रदान करने का प्रयास करना चाहिए लागू किया जा सकेगा। इसके साथ ही उनमें अपनी संस्कृति, परंपरा और विरासत के प्रति गौरव का भाव भी पैदा होगा।
किसी भी देश की संस्कृति के उन्नयन के लिए उस संस्कृति की भाषाओं का संवर्द्धन आवश्यक है। दुर्भाग्य से भारतीय भाषाओं को समुचित ध्यान और देखभाल नहीं मिल पाई। परिणाम यह हुआ कि बहुत सारी भाषाएँ विलुप्त हो गई। भारत ने पिछले 50 वर्षों में 220 भाषाओं को खो दिया है। यूनेस्को ने 197 भारतीय भाषाओं को लुप्तप्राय घोषित किया है। और भी कई भाषाएँ विलुप्ति के कगार पर हैं खासकर जिनकी लिपि नहीं हैं। अब नई शिक्षा नीति में जिस प्रकार से प्राथमिक स्तर से ही भारतीय भाषाओं को महत्त्व प्रदान किया गया है उससे काफी हद तक भाषाओं को विलुप होने से बचाने में भी सहायता मिलेगी। इस नीति में यह भी कहा गया है कि भाषा शिक्षकों की कमी को देखते हुए भारतीय भाषाओं विशेषकर संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भारतीय भाषाओं में बड़ी संख्या में भाषा शिक्षकों में निवेश के प्रयास किए जाएंगे। इसमें साफ़ साफ़ कहा गया है कि संवैधानिक प्रावधानों, लोगों, क्षेत्रों और संघ की आकांक्षाओं और बहुभाषावाद और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने की जरुरत का ध्यान रखते हुए त्रिभाषा फार्मूला को लागू किए जाने की प्रक्रिया को जारी रखा जाएगा। हाँ, इसमें काफी लचीलापन होगा जिससे किसी को यह न लगे कि यह उस पर जबरन थोपा जा रहा है।
नई शिक्षा नीति में इस बात पर भी जोर दिया गया है कि सभी भाषाओं के शिक्षण को नवीन और अनुभवात्मक विधियों के माध्यम से समृद्ध किया जाएगा और भाषाओं के सांस्कृतिक पहलुओं जैसे कि फिल्म, थिएटर, कथावाचन, काव्य और संगीत को जोड़ते हुए इन्हें सिखाया जाएगा। अधिक उच्चतर शिक्षण संस्थानों तथा उच्च शिक्षा के स्तर पर विविध कार्यक्रमों में माध्यम के रूप में मातृभाषा/स्थानीय भाषा का उपयोग किया जाए अथवा इन कार्यक्रमों को द्विभाषित रूप में चलाया जाए यह निर्देश भी अपने आप में एक बड़ा कदम है। इससे भारतीय भाषाओं को मजबूती मिल सकेगी। इसके साथ ही इसमें उच्च शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत अनुवाद से सम्बंधित डिग्रियों और कार्यक्रमों को सृजित करने की बात भी कही गयी है जो भारतीय भाषाओं के कार्यान्वयन की दृष्टि से अत्यंत ही आवश्यक है। इसके लिए ‘इंस्टिट्यूट ऑफ़ ट्रांसलेशन और इंटरप्रीटेशन (आईआईटीआई)’ की स्थापना की बात भी कही गयी है। संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भारतीय भाषाओं के लिए अकादमी स्थापित करने जैसी बड़ी बात भी इस नई शिक्षा नीति में शामिल है। इसके अतिरिक्त पांडुलिपियों को इकठ्ठा करना, उसका संरक्षण करना, अनुवाद कर उसके अध्ययन को प्रोत्साहित करना यही नहीं पाली, फारसी और प्राकृत भाषाओं के लिए राष्ट्रीय संस्थानों की स्थापना का संकल्प भी अभिव्यक्त हुआ है। भाषा और कला संस्कृति आदि को इस तरह से इस नई शिक्षा नीति में समावेशित किया गया है कि विद्यार्थी स्वयं के सृजनात्मक, कलात्मक, सांस्कृतिक एवं अकादमिक आयामों का विकास कर सकें।
यदि भाषा सम्बन्धी इन संकल्पों और प्रावधानों को आने वाले समय में प्रामाणिकता के साथ लागू किया गया तो भारतीय भाषाओं को अपने खोये हुए गौरव के चिन्हों और सूत्रों को समेटने में बड़ी सहायता मिलेगी। इससे एक ऐसा भारत उभरकर सामने आएगा जिसके नागरिक अपनी भाषा, संस्कृति, परंपरा और विरासत के प्रति गौरव के भाव से संपृक्त होंगे और भारत ज्ञान के एक नए शिखर के प्रयाण पर होगा।
भाषा के साथ ही स्थानीय कला और संस्कृति का संरक्षण करने और इसके लिए सभी भारतीय भाषाओं से सम्बंधित स्थानीय कला और संस्कृति को वेब आधारित प्लेटफॉर्म्स पर दस्तावेजीकरण का प्रयास करने की बात भी इस शिक्षा नीति में शामिल है। संरक्षण के इन प्रयासों को और इससे सम्बंधित इतिहास, पुरातत्व, भाषा विज्ञान आदि से जुड़े अनुसंधान एवं परियोजनाओं को एनआरएफ की ओर से वित्तीय सहायता की व्यवस्था करने संबंधी प्रावधान इस काम को गति देने की दृष्टि से बेहद उपयोगी सिद्ध होंगे।
इस शिक्षा नीति में छोटी-बड़ी सभी चीजों का पर्याप्त ध्यान रखा गया है। ऑनलाइन शिक्षण व्यवस्था को बढ़ावा देना, डिजिटल अंतर को कम करना, केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड का गठन, अध्यापकों के रिक्त पदों की भर्ती, अध्यापन शिक्षण की व्यवस्था को दुरुस्त करना, उनके प्रशिक्षण और विकास के लिए नई प्रणालियों का विकास जैसे ढेरों कदम उठाने सम्बन्धी व्यवस्थाएं इस शिक्षा नीति के प्रावधानों को कार्यान्वित करने की दृष्टि से खास महत्व रखती हैं।
कुल मिलाकर कहें तो 21वीं सदी के भारत को विश्व का नेतृत्व करने के लिए भारतीयता से युक्त जिस भावबोध और मूल्य परंपरा की आवश्यकता थी उसका संधान करते हुए नए युग के अनुकूल निर्मित यह शिक्षा नीति एक ऐसी शिक्षा नीति है जो भारत की भविष्य की चुनौतियों और चिंताओं से निबटने में कारगर सिद्ध होगी और भारतीयता और भारत भाव को विस्तार देगी।
सहायक प्रोफ़ेसर, हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
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