राष्ट्रीय शिक्षा नीति – 2020
राष्ट्रीय गौरव और अंतरराष्ट्रीयता का रोडमैप
मिथिलेश
भारत की नई शिक्षा नीति पर केंद्रित शैक्षिक उन्मेष पत्रिका के आगामी विशेषांक खंडों (ई-पत्रिका) के लिए आलेख आमंत्रण
मिथिलेश
केंद्र सरकार ने डॉ० के० कस्तूरीरंगन के नेतृत्व में गठित कमेटी की सिफारिशों के मद्देनजर ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति़–2020’ को स्वीकार करते हुए प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चतर शिक्षा तक में बदलाव का रोडमैप प्रस्तुत कर दिया है। इस नीति के संदर्भ में केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने आरंभ में ही ‘भारत द्वारा 2015 में अपनाये गये ʺसतत विकास एजेंडा 2030ʺ के लक्ष्य 4 (एसडीजी4) में परिलक्षित वैश्विक शिक्षा विकास एजेंडा के अनुसार विश्व में 2030 तक ‘सभी के लिए समावेशी और समान गुणवत्तायुक्त शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवन–पर्यंत शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिये जाने’ का लक्ष्य निर्धारित किया है।ʺ (राष्ट्रीय शिक्षा नीति – 2020‚ पृष्ठ सं० 3)
राष्ट्रीय शिक्षा नीति – 2020 के आद्योपांत अवलोकन के पश्चात् यह बात निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि इसमें भारत के प्राचीन गौरव की वापसी की योजना के साथ–साथ भारतीय युवाओं की योग्यता और दक्षता को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप गढ़ने की तैयारी है। यह शिक्षा नीति 34 वर्षों के लंबे इंतजार के बाद आयी है‚ इसलिए भी लोग इसे लेकर कुछ ज्यादा आशान्वित हैं। भारत में शिक्षा नीति को लेकर चिंताएँ स्वतंत्रता के बाद से ही जतायी जाती रही हैं‚ लेकिन ठोस कार्रवाई होते देखने में अरसे गुजर जाते रहे हैं। आजाद भारत में प्रो० डी० एस० कोठारी के नेतृत्व में 1968 में पहली बार राष्ट्रीय शिक्षा नीति पेश की गयी और उसके बाद 1986 में श्री राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में शिक्षा नीति बनी‚ जिसमें 1992 में कुछ संशोधन हुए। इसकी अपर्याप्तता का आभास बहुत पहले से हो रहा था और इसी के आलोक में 2014 के आम चुनाव के दौरान आज के सत्ताधारी दल ने ‘नयी शिक्षा नीति’ लाने की बात अपने घोषणा–पत्र में भी कही। हालांकि 2014 के घोषणा–पत्र की बातों को साकार करने में छह साल गुजर गये। बहरहाल‚ ‘देर आयद दुरूस्त आयद’ की तर्ज पर यह नयी शिक्षा नीति सामने आयी है। इसे लागू करने के पूर्व लगभग ढाई लाख लोगों से राय–मशविरा कर प्राप्त सुझावों के हवाले से इस नयी शिक्षा नीति का खाका देश के समक्ष प्रस्तुत किया गया। देशवसियों की आकांक्षाओं के अनुरूप मानव संसाधन विकास विभाग अब शिक्षा विभाग कहलायेगा।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति – 2020 की व्यवस्था में परिर्वतन संभव हो पायेगा। सबसे मार्के की बात मुझे यह लगती है कि मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षण का संकल्प व्यक्त किया गया है। इससे देशी भाषाओं की उन्नति का मार्ग प्रशस्त होने के साथ– साथ भारतीयता व राष्ट्रीय एकता की भावना के विकास में काफी मदद मिलने की गुंजाइश बढ़ी है। मातृभाषा और भारतीय भाषाओं को सही तरीके से शिक्षा का आधार बनाया जाता है और इनसे जीविकोपार्जन की संभावनाएँ यदि बढ़ती हैं तो आत्मविश्वास से संपन्न भावी पीढ़ी के निर्माण में हम सफल होंगे। इसमें अंकों के अर्जन पर जोर देने के बजाय आत्मनिर्भरता‚ अवधारणा व समझदारी के साथ–साथ सर्वांगीण विकास से नयी पीढ़ी के भविष्य को गढ़ने की आकांक्षा है। संस्कृत‚ तामिल‚ तेलुगू‚ कन्नड़ आदि भारतीय भाषाओं के ज्ञान प्राप्त कर ही वास्तव में जाति‚ धर्म‚ क्षेत्रीयता व सांप्रदायिकता की भावनाओं से ऊपर उठकर देशोत्थान की कल्पना को धरातल पर उतारना संभव होगा। देशोत्थान के लक्ष्य के संधान के पश्चात् अंग्रेजी तथा अन्य विदेशी भाषाओं को सीखने की कोशिश यदि हम करते हैं और वैश्विक आवश्यकताओं के अनुकूल हमारी नयी पीढ़ी यदि तैयार हो पाती है तो फिर यह ‘सोने पे सुहागा’ की स्थिति होगी। वर्ष 2019 के प्रारूप में चीनी भाषा के अध्ययन की बात थी‚ लेकिन मौजूदा नीति में उसे विलोपित कर दिया गया है‚ प्रतिद्वंद्वी देश की रणनीति व कार्यनीति को समझने के लिए ऐसा किया जाना अपेक्षित नहीं था।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति – 2020 में बहुभाषिकता पर जोर देने के साथ–ही स्कूली शिक्षा प्रणाली में जिस किस्म के बदलाव प्रस्तावित हैं‚ उसमें विद्यार्थियों के बहुआयामी व्यक्तित्व के उभरने की संभावना है। 10+2 की शिक्षा–प्रणाली के स्थान पर 5+3+3+4 की प्रणाली को लागू किया जाना है। यानी प्री–प्राइमरी शिक्षण के लिए एक अलग व विशिष्ट पाठ्यक्रम तैयार होगा‚ जिसके दायरे में तीन से छह साल की आयु–वर्ग के बच्चे होंगे। 2025 तक तीसरी कक्षा तक विद्यार्थी मूलभूत साक्षरता तथा अंकज्ञान कौशल से संपन्न किये जाऐगे। इस प्रणाली में हर बच्चे की विशिष्ट क्षमताओं की पहचान व उसके विकास पर जोर के साथ ही उनके सीखने के तौर–तरीकों को उनकी प्रतिभा व रूचि के अनुरूप अवसर उपलब्ध कराना है। इतना ही नहीं‚ कला–विज्ञान के विषयों की असंबद्धता व अलगाव को दूर कर ज्ञान की एकता व बहुविषयक शिक्षा के विकास पर जोर से जीवन–कौशल की प्राप्ति में मदद मिलने की पर्याप्त संभावना है। इससे भी महत्त्वपूर्ण्ा बात यह कि मौजूदा शिक्षा नीति को भारतीय जड़ों और प्राचीन गौरव से जोड़ना एक प्रमुख उद्देश्य है‚ जिसमें आधुनिक संस्कृति और ज्ञान प्रणालियों तथा परंपराओं से प्रेरित होना भी है। इस नीति में एक सुदृढ़‚ जीवंत सार्वजनिक शिक्षण प्रणाली में निजी और सामुदायिक भागीदारी को प्रोत्साहित कर पर्याप्त निवेश को भी आकर्षित करने पर ध्यान केंद्रित किया गया है। बच्चों को रटंत प्रद्धति के बोझ से उबारकर अवधारणात्मक समझ की ओर उन्मुख करने और स्कूली से लेकर उच्चतर शिक्षा तक बेहतर तालमेल की स्थापना पर जोर देने के कारण इस शिक्षा नीति से उम्मीदें बढ़ी हैं। नई शिक्षा नीति में टेक्नोलॉजी तथा ऑनलाइन शिक्षण पर बल देने के साथ प्रत्येक जिले में कला‚ करियर व खेल संबंधी गतिविधियों में भाग लेने हेतु एक विशेष बोर्डिंग स्कूल के रूप में ‘बाल भवन’ की स्थापना किये जाने का प्रशंसनीय प्रस्ताव है। इन लक्ष्यों की प्राप्ति में यदि यह नीति कारगर हो पाती है तो भारत वैश्विक ज्ञान–महाशक्ति के रूप में उभर पायेगा और सही मायने में वैश्विक नागरिक के निर्माण में भी हम सफल हो पायेंगे।
सीखने–सिखाने की प्रक्रिया एकपक्षीय न होकर बहुपक्षीय होगी‚ जिसमें शिक्षक के अलावा सहपाठी भी सहभागी प्रक्रिया के तहत परस्पर सीखते हुए मूल्यांकन में भी योग देंगे। सीखने व मूल्यांकन की इस सहभागी प्रक्रिया से ही परीक्षाओं का भय बच्चों पर हावी नहीं होगा और आज हर वर्ष हम बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम–प्रकाशन के दरम्यान नौनिहालों की आत्महत्या की खबरों से दो–चार होते हैं‚ उससे मुक्ति संभव होगी। इस नीति के मुताबिक दसवीं तथा बारहवीं बोर्ड की परीक्षाओं के महत्त्व को कम करते हुए सतत मूल्यांकन पर ध्यान केन्द्रित किया जाएगा और कोचिंग की जरूरत से मुक्ति भी संभव होगी। इस नीति में शिक्षा को प्रारंभ से ही जीवनोपयोगी बनाने की दिशा में सार्थक कदम उठाने के प्रावधान हैं। इन लक्ष्यों की पूर्त्ति के लिए बढ़ईगिरी‚ बिजली का काम‚ धातु का काम‚ बागवानी‚ मिट्टी के बर्तनों के निर्माण आदि के लिए तैयार किया जाएगा। कक्षा छह से इन कार्यानुभवों से उन्हें जोड़ने का फल यह हो सकता है कि वे अपनी पसंद के पेशे का चुनाव भी सही समय पर कर सकेंगे। 5+3+3+4 की शिक्षा पद्धति के लागू होने से ‘शिक्षा के अधिकार’ के दायरे इस नीति में बढ़ाया गया है‚ क्योंकि इसके पूर्व 6 से 14 वर्ष के बच्चे ही इस अधिकार के दायरे में आ रहे थे जो अब तीन से 18 वर्ष के बच्चों के लिए यह लागू हो जाएगा। यह सरकारी व निजी दोनो क्षेत्रों के लिए बाध्यकारी होगा। सार्वजनिक शिक्षा–प्रणाली की मजबूती के जो सुझाव इस नयी शिक्षा नीति में प्रस्तावित हैं‚ यदि उन पर समुचित रूप से अमल हो पाता है तो फिर निजी पॅूजीपतियों की मनमानी से भी शिक्षा–व्यवस्था को उबारना संभव हो पाएगा।
12 वीं के बाद की शिक्षा में बदलाव के जो प्रस्ताव हैं‚ वह इसके लचीलेपन की ओर संकेत करते हैं। अब छात्र चार साल के स्नातक पाठ्यक्रम में शामिल होंगे‚ जिसमें बीच में भी पढ़ाई से मुक्त होने के प्रावधान रखे गये हैं। कोई विद्यार्थी स्नातक में एक या दो वर्ष के बाद अध्ययन स्थगित कर कुछ दूसरे काम या कोई अन्य कौशल अर्जित कर सकेगा। एक वर्ष की पढ़ाई पूरी करने पर ‘सर्टिफिकेट’‚ दो वर्ष की पढ़ाई पर डिप्लोमा‚ तीन साल के कार्यक्रम पूरा करने पर स्नातक की डिग्री ले सकेगा। वहीं चार वर्षीय स्नातक या पाँच वर्षों के एकीकृत स्नातक⁄ स्नातकोत्तर की डिग्री पीएच० डी० के लिए आवश्यक होगी। अब जो विश्वविद्यालय होंगे वे बहुविषयक शिक्षा और शोध पर केंद्रित होंगे‚ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के वैश्विक मानकों को पूर्ण करना उनके लिए आवश्यक होगा। इन विश्वविद्यालयों को अंतर–विषयक अनुसंधान व नवाचार पर ध्यान केंद्रित करना होगा। जिसमें सामाजिक विकास ही चरम लक्ष्य होगा। देश का मुद्रा विदेश न जाए इसके लिए शीर्ष विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसर देश में खोलने का प्रस्ताव है। इस प्रस्ताव से देश में उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों के आगमन के साथ विदेशी छात्रों का अध्ययन के लिए आना भी संभव हो पाएगा‚ जिससे राष्ट्रीय आय में वृद्धि भी हो सकेगी। नयी शिक्षा नीति में अध्यापकों के प्रशिक्षण व नियुक्ति के लिए भी नयी अनुशंसाएँ हैं‚ जिससे शिक्षक बनने के इच्छुक लोगों के ही शिक्षण पेशे में आने की गुंजाइश बढ़ेगी। शिक्षण मजबूरी का पेशा न होकर इच्छित पेशा हो पाएगा तो फिर शिक्षा–व्यवस्था में निश्चित सुधार संभव है।
स्नातक पाठ्यक्रमों में दाखिले के लिए नेशनल टेस्टिंग एजेंसी के माध्यम से प्रवेश परीक्षा के अलावा क्षेत्रीय‚ राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर ओलंपियाड परीक्षाएँ भी करायी जाएंगी। आई आई टी में प्रवेश के लिए इन परीक्षाओं को आधार बनाकर दाखिला देने की बात भी क्रांतिकारी प्रतीत होती है। इसी तरह चिकित्सा शिक्षा पाठ्यक्रम में भी महत्त्वपूर्ण बदलाव अपेक्ष्ति हैं। अब सभी विश्वविद्यालयों में अलग–अलग विषयों व ज्ञानानुशासनों की पढ़ाई एक साथ करायी जाएगी यानी एकल अनुशासन के विश्वविद्यालय नहीं होंगे। उच्चतर शिक्षा के विनियमन के लिए चिकित्सा व विधि को छोड़कर एक विनियामक संस्थान होगा‚ जिससे समरूपता लाने में व्यापक तौर पर सहायता मिलेगी। संस्थानों के बीच क्रेडिट टांसफर के लिए अकादमिक बैंक ऑफ क्रेडिट का निर्माण भी उल्लेखनीय है पर इसे कार्यरूप दे पाने में कठिनाइयां भी कम नहीं होंगी।
नई शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा में छात्रवृत्ति के लिए भी कई प्रावधान हैं। खासकर‚ सामाजिक–आर्थिक रूप से वंचित समूह के छात्रों की सहायता के लिए ‘राष्ट्रीय छात्रवृत्ति पोर्टल’ के दायरे को और विस्तार देने के विचार इसमें है। सार्वजनिक संस्थानों के साथ–साथ निजी संस्थानों के लिए भी 25 फीसदी से सौ फीसदी तक की छात्रवृत्ति अपने 50 फीसदी छात्रों को दिये जाने की बाध्यता है। नई शिक्षा नीति में अनुसंधान के लिए नेशनल रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना‚ प्रधानमंत्री के नेतृत्व में ‘राष्ट्रीय शिक्षा आयोग’ की स्थापना‚ केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड के सशक्तीकरण के साथ–साथ डिजीटल इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण समेत शैक्षिक डिजिटल कंटेट की तैयारी जैसे अनेकों प्रावधान हैं‚ जिनसे हमारे देश की शिक्षा का उद्धार राष्ट्रीय आकांक्षाओं के अनुरूप संभव है।
सकल घरेलू उत्पाद का अब तक मात्र 4.43% ही शिक्षा पर व्यय किया जाता रहा है‚ जिसे 6 प्रतिशत तक बढ़ाने की बात मौजूदा सरकार ने मान ली है‚ हालांकि आज की आवश्यकताओं के मद्देनजर यह भी पर्याप्त नहीं है। मौजूदा शिक्षा को पूरी तरह अमल में लाने के का लक्ष्य 2030–40 तक रखा गया है तब तक अन्य कई और परिवर्तन अपेक्षित हो सकते हैं‚ जिनकी समीक्षा की बात भी कही गयी है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति – 2020 में क्रांतिकारी परिवर्तन के भाव निहित हैं‚ और भारतीय मूल्यों के अनुरूप शिक्षा–व्यवस्था के पुनर्निर्माण की आकांक्षा समाहित है‚ परंतु इसे लेकर कुछ आशंकाएँ भी व्यक्त की गयी हैं। इन आशंकाओं को बल केन्द्रीय शिक्षा मंत्री के वक्तव्य से भी मिलता है। मंत्री जी ʺदैनिक भास्करʺ के साथ एक साक्षात्कार में कहते हैं कि ‘ऑनलाइन और डिजिटल प्रणाली में शिक्षा भविष्य के लिए तैयार करती है। हालाँकि इसका फायदा तभी होगा जब डिजिटल इंडिया अभियान और सस्ते कंप्यूटर की उपलब्धता सुनिश्चित करायी जा सके।’ (14 अगस्त‚ 2020‚ राँची) इस शिक्षा नीति से कुछ शिक्षाविद् शिक्षा के कॉरपोरेटीकरण की आशंका भी प्रकट करते हैं। साथ ही तीन प्रकार के विश्वविद्यालयों की मौजूदगी से शिक्षण संस्थानों में अलग–अलग श्रेणियों के निर्माण व अति–केंद्रीकरण का खतरा भी जताते हैं। इस नीति में कई ऐसे प्रवधानों के होने की बात कही जा रही है’ जिससे अच्छे व मजबूत संस्थानों के और मजबूत होते जाने तथा कमजोर संस्थानो के और कमजोर हो जाने की आशंका है। बालिका व ट्रांसजेंडर शिक्षा के सुनिश्चयन पर अलग से इस शिक्षा नीति में बातें स्पष्ट नहीं की गयी हैं‚ जबकि बालिकाओं व ट्रांसजेंडर के प्रति सामाजिक पूर्वग्रहों की मौजूदगी बड़े पैमाने पर है। बहरहाल‚ कोई भी नीति केवल दस्तावेज के स्तर पर मुकम्मल नहीं हो सकती‚ उस पर पूर्णता में अमल करके ही उत्पन्न होनेवाली समस्याओं का पता लगाया जा सकता है और उनका समाधान भी ढूँढ़ा जा सकता है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के लिए शिक्षकों की नियुक्ति के लिए ʺइंडियन एडुकेशन सर्विसʺ का गठन और उसके उच्च मानकों का निर्माण जरूरी होगा। शिक्षा समवर्ती सूची में शामिल विषय है‚ इसलिए राज्यों के साथ बेहतर समन्वय स्थापित किया जाना आवश्यक होगा। यदि केन्द्र सरकार यह समन्वय स्थापित कर लेती है और कुछ आशंकाओं को दूर करने में समर्थ होती है तो यह शिक्षा नीति भारतीय गौरव के साथ–साथ अंतरराष्ट्रीयता के मानकों को भी साकार करने में सफल होगी‚ इसमें संदेह नहीं है। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि अब तक हम अपने बच्चों च युवाओं को गुणवक्तापूर्ण शिक्षा देने की चुनौती से ही जूझते रहे हैं।
प्रधानाचार्य, रामगढ़ महाविद्यालय‚ रामगढ़ – 829122 (झारखंड)
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