भारत की नई शिक्षा नीति पर केंद्रित शैक्षिक उन्मेष पत्रिका के आगामी विशेषांक खंडों (ई-पत्रिका) के लिए आलेख आमंत्रण
कहा जा रहा है कि भारतीय वोटर अँग्रेजी मीडियम की शिक्षा चाहता है। एक आम आदमी अपनी संतान को इंगलिश मीडियम में पढ़ाना चाहता है । इसके लिए वह कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति की मीडिया-चर्चा से उसके मन में एक शंका पैदा हुई है कि पाँचवी से पहले अब बच्चों को अपनी मातृभाषा में और पाँचवी से आठवीं कक्षा तक बच्चों को अपनी मातृ भाषा, क्षेत्रीय भाषा या घरेलू भाषा में शिक्षा दी जाएगी और यह उसके बच्चों के हित में नहीं होगा। भाषा और भाषा-शिक्षण से जुड़े विद्वान अवश्य मातृभाषा के महत्व को जानते हैं और इसके पक्ष में बहुत से आधिकारिक प्रमाण देंगे। बालक जिस भाषा के माध्यम से सबसे पहले अपनी माता, परिवार और परिवेश से संवाद करता है उसी में यदि वह पहले कुछ वर्षों तक शिक्षा प्राप्त करे तो उसका मानसिक विकास बेहतर होगा। भाषा अर्जन और अधिगम के लिए अर्थ पर ध्यान केन्द्रित करने की अनुशंसा एन.एस.प्रभु ने की है। 'अर्थ' पर ध्यान केन्द्रित करना है तो बाल्यावस्था में माध्यम-भाषा का मातृभाषा होना बेहतर होगा । कुछ राजनीतिक आलोचक येन केन प्रकारेण इस नीति को अजेंडा विशेष से जोड़कर देखने का प्रयास करेंगे। पर दो भाषा की नीति के दक्षिणी पक्षधर भी मातृभाषा से गुरेज न कर सकेंगे। उनको स्मरण रखने की आवश्यकता है कि 1961 में तत्कालीन भारत सरकार ने भारतीय बहुभाषिकता के विविध पक्षों पर विचार करने के लिए विभिन्न राज्यों के मुख्य मंत्रियों और केंद्र के मंत्रियों की एक बैठक में सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया था कि ‘प्राथमिक शिक्षा के संदर्भ में यह मान लिया जाए कि सभी भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सुरक्षित रखते हुए इस स्तर की शिक्षा उनकी मातृभाषा में दी जाए।’ इसके लिए भारत सरकार की विज्ञप्ति 1973 में प्रकाशित हुई थी। यदि 1961 में इसका सही अर्थों में अनुपालन सुनिश्चित हो गया होता तो भारत में साक्षरता की दर कभी की शत-प्रतिशत के आसपास हो गयी होती। इसे भाषाई अल्पसंख्यकों को केवल तुष्टीकरण के निमित्त प्रस्तुत करने से भी नीति कागजी रह गई।
यह स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता के इतने वर्षों के पश्चात भी हम खुद को अँग्रेजी के व्यामोह के विरुद्ध जागरूक और एकजुट नहीं कर पाए हैं। मैकाले की तथाकथित शिक्षा-नीति की प्रासंगिकता अब भी यदि बनी हुई है तो किसको दोष देना होगा ? प्रेमचंद ने अँग्रेजी के द्वारा समाज में विभाजन को लगभग सौ वर्ष पूर्व इन शब्दों में स्वीकार किया था, “ पुराने समय में आर्य और अनार्य का भेद था, आज अँग्रेजीदाँ और गैर अँग्रेजीदाँ का भेद है।”स्वतन्त्रता के पश्चात इस भेदभाव को दूर करने का परिणाम यही हुआ दिखाई देता है कि 'किंग'स इंग्लिश' के स्थान पर 'सिंह'स इंग्लिश' आ बैठी है। एक ऐसा बुद्धिजीवी वर्ग पैदा हो गया जो यह समझता आ रहा है कि उनके सामाजिक एवं प्रशासनिक प्रयोजनों के लिए अँग्रेजी भाषा सर्वश्रेष्ठ है। कुछ राज्य भी ऐसे जुझारू हैं जो विजातीय अँग्रेजी को गले लगाते रहे पर सजातीय राजभाषा के प्रति अनुदार बने रहे हैं । ‘शिक्षा’ को संविधान की समवर्ती सूची में स्थान दिया गया है, इसलिए यह राज्यों की इच्छा पर निर्भर है कि वे भारतीय भाषाई रंगों की विविधता को किस हद तक सराहते हैं। तीन दशकों के बाद नयी शिक्षा नीति ने प्राथमिक स्तर पर अँग्रेजी के स्थान पर शिक्षार्थी की मातृ भाषा , क्षेत्रीय भाषा, भारतीय भाषा को माध्यम बनाने का जो प्रस्ताव रखा है उसे अब सबसे पहले उससे सीधे प्रभावित होने वाले वर्ग तक पहुँचाना होगा। सभी को यह बताना होगा कि जब कोई बालक कक्षा में पहली बार जाता है तो उसे वहाँ के वातावरण में वही भाषा मिलनी चाहिए जो वह सबसे अधिक समझता और प्रयोग में लाता है। तेलगु भाषी भारत के वर्तमान उपराष्ट्रपति श्री एम. वेंकय्या नायडू ने अगस्त 2020 के प्रथम सप्ताह में अनेक ट्वीट करके इस मिशन का एक प्रकार से शुभारंभ भी कर दिया है । उनके महत्वपूर्ण ट्वीट हैं – मैं एक बात पर हमेशा से ज़ोर देता रहा हूँ कि हर किसी को प्राथमिक शिक्षा उसकी मातृभाषा में मिलनी चाहिए । यह समय की मांग है। अँग्रेजी भी रहेगी, हिंदी भी रहेगी। आप सीखिये ...पर फोकस अपनी मातृभाषा पर होना चाहिए।
भाषा शिक्षण से जुड़े विद्वान जानते हैं कि शिक्षण के संदर्भ में 'माध्यम' और 'विषय' दो अलग अलग मुद्दे हैं। नयी शिक्षा नीति ने प्राथमिक शिक्षा के लिए मातृभाषा के माध्यम का प्रावधान किया है और एक विषय के रूप में 'अँग्रेजी' का पठन-पाठन त्याज्य नहीं माना है। सोशल मीडिया और ई-लर्निंग के युग में यह संभव भी नहीं कि कोई अँग्रेजी से बिलकुल अछूता रह जाए । आगे जाकर वह अपनी आवश्यकतानुसार इसे सीख सकता है। इसकी व्यवस्था का दायित्व भी शिक्षा-नीति में यथास्थान कर दिया गया है। स्पेनिश, रूसी और जर्मन भाषाओं की तरह अँग्रेजी ठेठ विदेशी भाषा भी नहीं। माध्यम के रूप में 'अपनी' भाषा के प्रयोग से लाभ यह होगा कि प्रारम्भिक हिचकिचाहट, भय और चिंता से छुटकारा मिल जाएगा-
एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
'रहिमन' मूलहि सींचिबो, फूलहि फलहि अघाय॥
मूल भाषा को सींचना अपरिहार्य मानकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति में यह बंदोबस्त करना दूर की कौड़ी लाना है। यहाँ यह ज़ोर देकर कहना होगा कि भारत के गाँव-गाँव और शहर शहर में कई भाषाओं और बोलियों का प्रयोग बालक स्वभावतः करते हैं। पारिवारिक ( परिवार में प्रयुक्त बोली/ भाषा), स्थानीय ( स्थानीय गाँव में प्रयुक्त भाषा/ बोली), क्षेत्रीय ( क्षेत्रीय स्तर की बोली/भाषा), राष्ट्रीय( राष्ट्रीय स्तर की भाषा ), और वैश्विक ( विदेशी किन्तु व्यवहार में आती जा रही भाषा- अँग्रेजी ) बोलियों - भाषाओं के न्यूनाधिक प्रयोग से परिचित बालक को यदि किसी भाषा में सबसे पहले कक्षा में संबोधित किया जाना चाहिए तो वह इनमें से अंतिम नहीं हो सकती। परिवार, समाज और देश के जीवन मूल्य और भाषा प्रयोग में जितनी समीपता होगी उतनी ही शैक्षिक गतिविधियाँ रोचक और प्रभावी होंगी। इसको समझना होगा और समझाना भी होगा। अँग्रेजी माध्यम से , दो माध्यमों से एक साथ अथवा कुछ विषयों को एक भाषा माध्यम और कुछ को दूसरी भाषा माध्यम उपलब्ध कराया जाता रहा है और आगे भी होगा । भारतीय बहुभाषी समाज की जटिल कोड मेट्रिक्स में एक भाषा-बोली कभी रही ही नहीं । इसलिए अँग्रेजी का प्रयोग समाप्त नहीं होगा बल्कि और अधिक व्यवस्थित और प्रयोजनपरक हो जाएगा।
प्रयोजनमूलक हिंदी के पैरोकार भी स्वीकार करते हैं कि रोजगार के प्रयोजन को हिंदी से अधिक अँग्रेजी साधती है और इस स्थिति में परिवर्तन होना कठिन है। इसका अर्थ यह नहीं है कि इस प्रयोजन की सिद्धि के लिए पहले दिन से ही विद्यार्थी को लगा दिया जाना चाहिए। यह भी कहाँ सिद्ध है कि तथाकथित अँग्रेजी माध्यम (कुछ इने गिने कोनवेंट स्कूलों को छोड़कर) के द्वारा शिक्षित छात्र अँग्रेजी में निष्णात हो ही जाता है? उसकी स्थिति कुछ बेहतर अवश्य हो जाती है । उसे अँग्रेजी में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए आगे जाकर सायास प्रयत्न करने होते हैं। टोफ़ेल की परीक्षा में अच्छे अच्छे फ़ेल हो जाते हैं। समय से पूर्व अँग्रेजी का अनावश्यक बोझ बाल-मन पर डालना कहाँ की समझदारी है?
हिंदी भाषा के उद्भव और विकास का गहन अध्ययन करने पर दो कहावतों की ओर ध्यान आकृष्ट होता है- हाथ कंगन को आरसी क्या, पढे लिखे को फारसी क्या... ये देखो किस्मत का खेल , पढ़ें फारसी बेचें तेल। ये दोनों कहावतें भारतीय समाज में 'फारसी' भाषा के उत्थान और पतन की ओर संकेत करती हैं। भारतीय भाषाओं के लिए ऐसी कोई कहावत है या नहीं ? अँग्रेजी के संबंध में एक है - अंग्रेज़ चले गए, अँग्रेजी छोड़ गए । इस कहावत में छिपा व्यंग्य अंग्रेज़ और अंग्रेज़ियत पर अधिक है , भाषा पर नहीं । बताया जाता है कि 'रेपिडेक्स इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स' जैसी पुस्तकों की करोड़ों प्रतियाँ बेची जा चुकी हैं और यदि इन कोर्सों से इस भाषा में प्रवीणता प्राप्त हो सकती तो आधा भारत अँग्रेज़ हो जाता। कहना न होगा कि हमारा बहुत सा धन, शक्ति और समय इसे 'मास्टर' करने में खप जाता है । इसलिए इसका बोझ कमजोर कंधों पर डालना समझदारी नहीं। प्राथमिक स्तर पर अपनी भाषा को माध्यम बनाना सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप से उचित है।
अपनी भाषा और अपना भाषा-समाज अपने भाषाई कोश में अँग्रेजी भाषा से शब्दों को लगातार ले रहा है। शिक्षा नीति के दस्तावेज़ के हिंदी संस्करण में भी पृष्ठ दर पृष्ठ अँग्रेजी के शब्दों का प्रयोग है। उच्च वर्ग की ही नहीं बहुतेरे लोगों की भाषा में इसका प्रभाव देखा जा सकता है। बालकों के अभिव्यक्ति प्रसंग में भी इसका प्रभाव कोड मिश्रण और कोड परिवर्तन के रूप में परिलक्षित होता है। सही समय पर वह स्वतः ही विभिन्न सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप और विभिन्न प्रयोजनों के निर्वाह के लिए माध्यम भाषा का चुनाव करने लगेगा। उसकी सम्प्रेषण व्यवस्था भी लक्ष्य श्रोता को देखकर परिवर्धित होती चली जाएगी। भाषा के माध्यम को लेकर इसके प्रयोक्ताओं के अभिभावकों को जल्दबाज़ी दिखाने में समझदारी नहीं। माध्यम भाषा को भी अपना स्थान बनाने के लिए कुछ समय देना होगा ।
भारत में भाषाई सहिष्णुता का लंबा इतिहास रहा है और बचपन से ही भाषा प्रयोग में सामाजिक सांस्कृतिक एकता का निदर्शन देखा जाता रहा है। उदाहरण के लिए 'इन मुसलमान हरिजनन पे कोटिन हिंदून वारिए' उक्ति ब्रजभाषा की है या अवधी की, किसे संबोधित है और व्यापक रूप से किस-किस को कब कब कही जा सकती है, यह कोई मुद्दा ही नहीं रहा। भाषा- सहिष्णुता की भावना भाषा-वैमनस्य को बिना साबुन और पानी के निर्मल कर देती है। एक अफ्रीकी विद्वान ने अपनी भाषा-प्रयोग के पक्ष में तर्क प्रस्तुत करते हुए उसे 'डीकोलोनाइज़िंग द माइंड' के लिए अनिवार्य माना है। अँग्रेजी प्रयोग की प्राथमिक असफलता से बाल मन में हीनता की भावना का प्रस्फुटन हो सकता है। अपनी-भाषा बोली की पीठिका पर संस्कारों का प्रासाद बनाने की राष्ट्रीय शिक्षा नीति से इस पर अंकुश लगेगा। वे अपने क्षेत्र की संस्कृति, खानपान , रहन सहन और परम्पराओं से जुड़े रहेंगे। भारत और भारतीयता का परिपाक होगा। इस नीति में कालक्रमानुसार अनेक भारतीय और विदेशी भाषाओं के प्रवेश का प्रावधान है । समुचित परिपक्वता के पश्चात ऐसा हो सकेगा , यह अच्छी बात रहेगी। इसका जब बाद में 'क्षमताओं का आकलन' कहकर मूल्यांकन किया जाएगा तो अभ्यर्थी और नियोक्ता दोनों को सुविधा होगी।
प्राचीन ज्ञान परंपरा को दर किनार करके भारत एक राष्ट्र के रूप में सबल नहीं हो सकता । अनुच्छेद 351 में भारत की जिस सामासिक संस्कृति की ओर संकेत किया गया है उसे देश की भाषिक और सांस्कृतिक समरसता के बगैर सुनिश्चित नहीं किया जा सकता । इसमें भारतीय भाषाओं की भूमिका महत्वपूर्ण है। प्रश्न हिंदी का नहीं है और है भी। 'भाषाई अस्मिता और हिंदी' में रवीद्रनाथ श्रीवास्तव ने भाषा को सामाजिक वस्तु मानते हुए कहा है कि मानसिक संकल्पना के साथ-साथ यह एक सामाजिक यथार्थ भी है। विद्यानिवास मिश्र ने इसे 'हिंदी सेवा की संकल्पना' से जोड़ा है । भाषा से भाषा विशेष की ओर गमन-आगमन को गंतव्य तक ले जाने का यह उपक्रम काबिले-गौर ही नहीं काबिले-तारीफ भी है।
संस्कृत और अन्य क्लासिकल भाषाओं को हाशिये से केंद्र में लाकर इस नीति ने 'भारतीय लिंगुइस्टिक एरिया' को नई अर्थवत्ता प्रदान की है। भाषा की तो बात ही क्या किसी बोली की भी उपेक्षा नहीं की गई है।बल्कि इनको महत्व देकर इन्हे शिक्षण का माध्यम बनाकर इनमें प्राणों का संचार किया गया है। यह सब जानते हैं कि भाषा प्रयोग के बिना मृत-प्रायः और मृत हो जाती है। क्या यह अच्छा रहता कि शिक्षा नीति अपनी भाषा और अपनी भाषाओं को छोड़कर बाजारवाद के दबाव में अँग्रेजी को मासूमों के गले बांध देती? भारतीय पारिवारिक व्यवस्था में जिस प्रकार हर रिश्ते नाते का अपना स्थान और महत्व होता है उसी प्रकार भाषा व्यवस्था और नियोजन में हिंदी ( भारतीय भाषाएँ ) और अँग्रेजी ( मूलतः विदेशी किन्तु व्यवहारतः भारतीय) का आपसी संबंध है जिसे हरीश त्रिवेदी जेठानी देवरानी के संबंध के रूप में देखते हैं । हुआ यह है कि सम्बन्धों के इस समीकरण में जेठानी द्वारा देवरानी के नाज़ उठाते उठाते अब सत्तर बरस बीत गए हैं। उसे सहयोजित राजभाषा बनाने का निर्णय कितना सही था यह चर्चा का विषय नहीं है, विषय यह है कि इस नवीन प्रतिबद्धता से साक्षरता दर में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि होगी। यह नीति सम्पूर्ण साक्षरता ले लक्ष्य को साधेगी। अँग्रेजी के कारण जो विद्यार्थी प्राथमिक स्तर पर ही स्कूल छोड़ देते थे अब वे टिक सकेंगे।
थॉमस बेबिंग्टन मैकाले का तर्क यह था कि संस्कृत और अरबी-फारसी के विद्यार्थी पहले छात्रवृत्ति लेकर पढ़ते हैं,फिर रोजगार देने-दिलाने की याचना करते हैं। अँग्रेजी के छात्र को न कभी वजीफा दिया जाता है और न वे रोजगार मांगते हैं । फिर क्यों अरबी-फारसी और संस्कृत पर सरकार खर्च करे? उन्हे ज़रखरीद गुलाम जैसे कुछ बाबू ही तो चाहिए थे, पर स्वतंत्र भारत को भारतीय अस्मिता और संस्कृति से आप्लावित देशप्रेमी चाहिए । इसके लिए उन्हें भारतीय सांस्कृतिक संवेदना की संवाहक भाषाओं का संबल दरकार होगा। शिक्षा नीति में इन सब बातों का शुमार है ।कौशल विकास के द्वारा अब रोजगार देने वाले युवक-युवतियाँ रोजगार खोजने वालों से अधिक होंगे।
इस संक्षिप्त आलेख के कलेवर में न तो लंबे उद्धरण समा सके हैं न विषय का विस्तृत विवेचन। आपसे अब यह अपेक्षा है कि आप इस नीति को उसी तरह आम लोगों तक ले जाएँ जिस तरह खासो-आम ने लाखों की संख्या में इसके निर्माण के लिए किए गए व्यापक परामर्श के समय आगे आकर योगदान किया था। अँग्रेजी के आधिपत्य को यदि चोट पहुँचानी है तो इसके लिए अपनी भाषाओं को माध्यम बनाते हुए प्राथमिक कक्षाओं से ही शुरुआत करनी होगी , यही राष्ट्रीय शिक्षा नीति द्वारा प्रस्तावित किया भी गया है ।
प्रोफेसर(अँग्रेजी), अरबामींच विश्वविद्यालय , इथियोपिया ( अफ्रीका)
6-3-120/23 एन.पी.ए. कॉलोनी , शिवरामपल्ली , हैदराबाद – 500052
ई-मेल - prof.gopalsharma@gmail.com