भारत की नई शिक्षा नीति पर केंद्रित शैक्षिक उन्मेष पत्रिका के आगामी विशेषांक खंडों (ई-पत्रिका) के लिए आलेख आमंत्रण
इसमें कोई संशय नहीं कि हमारे ब्रह्मांड की सुंदरता विविधता में है, न कि समरूपता में। समरूपता या एकरूपता अच्छा विचार है लेकिन एक बहुत ही सामान्य मनुष्य की तरह उस दृष्य की कल्पना कीजिए जिसमें पूरी मानव जाति का रहन – सहन, खान – पान, वेश – भूषा एक ही प्रकार की हो। हो सकता है कि कुछ समय के लिए यह बड़ा चित्ताकर्षक लगे क्योंकि यहाँ सभी समान दिखेंगे लेकिन जब इसमें सबकी पहचान खो जाएगी तब निरसता औऱ अन्य अनेक प्रकार की समस्याएँ प्रारंभ होगी। अतः इस विविधता को बचाए रखना न्यायप्रिय समाज की जिम्मेदारी है चाहे वह विविधता पेड़ – पौधों, पशु – पक्षियों, की हो या संस्कृतियों और भाषाओं की।
हमें भाषाओं के संकटापन्न या विलुप्त होने पर इतनी चिन्ता क्यों करनी चाहिए? परिवर्तन प्रकृति का नियम है। कोई भी वस्तु जो आज अस्तित्व में है कल समाप्त हो जाएगी। कितने राजे-रजवाड़ों का अस्तित्व समाप्त हो गया। कितने तारे टूट कर विलुप्त हो गए। कितनी जीव – जंतुओं की प्रजातियाँ विलुप्त हो गईं। इसे परिवर्तनशील प्रकृति का हिस्सा मान कर मौन धारण कर लिया जाता है और यही भाषाओं और संस्कृतियों के साथ भी हुआ। लेकिन वर्तमान में विद्वनों का ध्यान भाषाओं की तरफ विशेष रूप में तब आकर्षित जब उन्हें महसूस हुआ कि विश्व की बहुत सारी भाषाएँ नई पीढ़ी के द्वारा सीखी ही नही जा रही हैं और अल्पसंख्यक भाषाओं के बोलने वाले अपने भौगोलिक क्षेत्र की आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं तकनीकि रूप से सशक्त एवं प्रतिष्ठित भाषाओं को अपना रहे हैं। कुछ भाषाई अल्पसंख्यक समुदायों द्वारा ऐसी प्रभावशाली भाषाओं को अपने रोजगार एवं प्रतिष्ठा हेतु मुखौटों के रूप में धारण कर लिया गया और मुखौटों के अस्तित्व को ही भूल गए। परिणामस्वरूप ऐसे समुदाय मुखौटों से ऐसे चिपके कि अपनी जड़ से कटकर अपने अस्तित्व एवं पहचान को भी गवाँ बैठे। और सबसे बड़ी भूमिका निभाई प्रभावशाली भाषाई समुदायों ने क्योंकि वे धीरे – धीरे उनकी भाषाओं को एक तुच्छ बोली मानकर उनके अस्तित्व को ही नकारना प्रारंभ कर दिया।
भाषाओं के विलुप्त होने के संदर्भ में पूरा विश्व यह हो-हल्ला तब मचा रहा है जब विश्व की आधी से ज्यादा भाषाओं को खोने के बावजूद भी दिनों-दिन आर्थिक संपन्नता की तरफ पूरा विश्व अग्रसर है। हमारे पास विश्व के कई ऐसे देशों के उदाहरण हैं जहाँ सिर्फ एक ही भाषा बोली जाती है और आज वे विकसित देशों की श्रेणी में शुमार हैं जबकी विश्व में भाषाई बहुलता का झंडा बुलंद करने वाले देश आज भी विकसित देशों की तुलना में पिछड़े हुए हैं। जो लोग भाषावैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं अपनाते वो यही मानते हैं कि अगर पूरे विश्व में एक ही भाषा का व्यवहार किया जाने लगे तो समाज में स्वतः ही शान्ति व्यवस्था कायम हो जाएगी और बहुतेरे विवाद जैसे क्षेत्रवाद, सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक विवाद स्वतः ही समाप्त हो जाएँगे। वस्तुतः ऐसे विद्वान यह भूल जाते हैं कि भाषा को लेकर बहुत कम विवाद हुए हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कितने ही देशों में गृहयुद्ध चले एवं कई विश्वयुद्ध हुए जिनकी जड़ में भाषा-विवाद का नामो-निशान तक नहीं था। भारत में हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख और ईसाईयों के बीच होने वाले फसाद की मुख्य जड़ भाषा नही अपितु राजनैतिक एवं सामाजिक कारण रहे हैँ। इसके विपरीत भाषाएँ तो कभी-कभी उन विवादों के निपटारे में अहम भूमिका निभाती हैं।
एक दौर था जब विद्वान एकल भाषा-भाषी देशों की आर्थिक प्रगति, सामाजिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक एकता का गुणगान करते थे और उसकी तमाम खूबियाँ गिनाते थे। उस समय किसी देश में एक भाषा की प्रमुखता को आर्थिक प्रगति के लिए अनिवार्य माना जाता था। पूल (1972) लिखते हैं कि ऐसे नीति निर्धारक जो सांस्कृतिक एवं भाषाई बहुलता के संरक्षण पर जोर देते हैं उन्हें आर्थिक विकास को तिलांजलि भी देने के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि विश्व का एक भी देश इन परिस्थितियों में भाषाई बहुलता के साथ विकास का कोई मॉडल प्रस्तुत नहीं कर पाया है। भाषाई एवं सांस्कृतिक बहुलता वाले देशों के नीति निर्धारक एक भ्रमजाल में फँस गए जहाँ एक ओर एकभाषावाद को राष्ट्रीय एकता के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक समानता एवं आधुनिकता के लिए आवश्यक माना गया वहीं दूसरी तरफ एकीकरण के लिए वही भाषाएँ मान्य हुईं जिनके जानने और समझने वालों की तादात तुलनात्मक रूप से अधिक थी। यही नहीं भाषा नीति के जानकार केलमन (1971: 44) जैसे विद्वान यह लिखते हैं कि राष्ट्रीय भाषा वही होनी चाहिए जो देश के सभी समुदायों के लिए समान रूप से हानिकारक हों। इन मानकों पर सिर्फ औपनिवेशक भाषाएँ ही खरी उतर रहीं थीं। इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी को खूब फूलने-फलने का मौका मिला। भारत के संदर्भ में अंग्रेजी को बढ़ावा देने का एक कारण यह भी था कि अंग्रेजी किसी की मातृभाषा नहीं थी अतः इसे किसी व्यक्ति, समाज, जाति, धर्म की अस्मिता से जुड़ी न मानकर इन संदर्भों में अंग्रेजी को तटस्थ मान लिया गया। प्रो. हंस राज दुआ (2008: 44) मानते हैं कि इस तरह की सोच और उसके क्रियान्वयन से भारतीय समाज पर दो दूरगामी प्रभाव हुए। जहाँ एख तरफ अंग्रेजी को खूब बढ़ावा मिला और इस प्रकार आर्थिक रूप से प्रभावशाली अभिजात्य वर्ग के आर्थिक हितों एवं विचारों का पोषण हुआ वहीं दूसरी ओर स्थानीय भाषाओं की सामाजिक स्थिति, प्रकार्यों एवं स्थानीय विकास के मॉडल को भारी क्षति पहुँची। इस प्रकार एकभाषावाद के सिद्धांतों ने बहुभाषिकता, अल्पसंख्यक भाषा समुदायों एवं उनके भाषाई अधिकारों के विनाश के साथ-साथ अकादमिया को भाषाई विविधता के प्रकार्यों एवं लाभों को उचित परिदृष्य में समझने – समझाने में भी रोड़ा अटकाया।
भारतीय भाषाओं के लिए सबसे बड़ा दबाव वर्तमान शिक्षा व्यवस्था से आता है जहाँ कुछ भाषाओं को बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है तो वहीं कुछ भाषाओं को बोलने के लिए न सिर्फ हतोत्साहित किया जाता है वरन कुछ स्कूलों में तो दंडित भी किया जाता है। भारतीय भाषा अभियान नामक एक फेसबुक खाते से 26 जुलाई 2014 को एक पोष्ट डाली गई जिसमें महाराष्ट्र के पिंपरी के एक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में मराठी भाषा का प्रयोग करने पर आठवीं कक्षा के 29 छात्रों को बेरहमी से पीटने की जानकारी दी गई थी। इसमें यह भी बताया गया था कि सप्ताह भर में मराठी भाषा के जितने शब्द अथवा वाक्य छात्रों द्वारा बोले गए उनकी संख्या मानीटर द्वारा एक पंजिका पर अंकित की गई और इसके दंडस्वरूप उतनी बार ही छात्रों के उपर छड़ी से प्रहार किया गया। ऐसे वाकए हिंदी क्षेत्र में भी अधिकांश अखबारों में जगह पाते हैं जहाँ अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में हिंदी बोलने पर दंडित किया जाता है। यह स्थिति वस्तुतः भारत के अधिकांश अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में है जहाँ अपनी मातृभाषा बोलने पर या तो आर्थिक दण्ड दिया जाता है या शारीरिक। जब हिंदी और मराठी जैसी समृद्ध भाषाओं की अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में यह स्थिति है तो संकटापन्न भाषाओं की कल्पना आप स्वंय से कर सकते हैं। प्रसिद्ध समाज भाषा वैज्ञानिक जोशुआ फिशमैन (1987) अपने एक लेख में लिखते हैं कि ‘राष्ट्रवाद’ की अपेक्षा ‘राष्ट्रविकास’ पर जोर रहने से भाषा-शिक्षण में मातृभाषा सिद्धांत से हाथ खींच लिया जाता है। फिशमैन का यह कथन भारत के संदर्भ में अंग्रेजी के बढ़ते प्रभावों से प्रमाणित हो जाता है। भारत की पूर्व में स्थापित शिक्षा की दोहरी और अभिजात्य व्यवस्था ने भारतीय भाषाओं को हासिए पर धकेलकर अंग्रेजी को केंद्र में स्थापित होने के अनुकूल अवसर प्रदान किया। अंग्रेजी को शिक्षा व्यवस्था के केंद्र में स्थापित होने से भारतीय समाज में अंग्रेजी एवं भारतीय भाषाओं के मध्य दरार पैदा हो गई और इससे सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को बढ़ावा मिला जिससे न्यायपूर्ण समाज की अवधारणा पर कुठाराघात हुआ।
लेकिन समय बदला, लोगों की आँखें खुली तो पता चला कि आर्थिक प्रगति की अंधी दौड़ में कितनी भाषाएँ एवं संस्कृतियाँ पीछे छूट गईं और कितनों ने दम तोड़ दिया। भारत सरकार द्वारा प्रस्तुत राष्ट्रीय शिक्षानीति 2020 सभी भारतीय भाषाओं के लिए उम्मीद की किरण लेकर आयी है। राष्ट्रीय शिक्षानीति 2020 में मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने पर जोर दिया गया है। इस नीतिगत दस्तावेज के ‘बहुभाषावाद और भाषा की शक्ति’ शीर्षक के अंतर्गत पैरा 4.11 में इस बात को स्वीकार किया गया है कि छोटे बच्चे अपनी घर की भाषा / मातृभाषा में सार्थक अवधारणाओं को अधिक तेजी से सीखते हैं और समझ लेते हैं। अतः जहाँ तक संभव हो, कम से कम ग्रेड 5 तक लेकिन बेहतर यह होगा कि यह ग्रेड 8 और उससे आगे तक भी हो, शिक्षा का माध्यम घर की भाषा / मातृभाषा / स्थानीय भाषा / क्षेत्रीय भाषा होगी। इसके बाद, घर / स्थानीय भाषा को जहाँ भी संभव हो भाषा के रूप में पढ़ाया जाता रहेगा। सार्वजनिक और निजी दोनों तरह के स्कूल इसकी अनुपालना करेंगे। विज्ञान सहित सभी विषयों में उच्चतर गुणवत्ता वाली पाठ्यपुस्तकों को घरेलू भाषाओं / मातृभाषा में उपलब्ध कराया जाएगा। हालांकि इसमें अंग्रेजी के महत्व को भी नकारा नहीं गया है। राष्ट्रीय शिक्षानीति 2020 के पैरा 4.14 में लिखा गया है कि उच्चतर गुणवत्ता वाली विज्ञान और गणित में द्विभाषी पाठ्यपुस्तकों और शिक्षण – अधिगम सामग्री को तैयार करने के सभी प्रयास किए जाएँगे ताकि विद्यार्थी दोनों विषयों पर सोचने और बोलने के लिए अपने घर की भाषा / मातृभाषा और अंग्रेजी दोनों में सक्षम हो सकें।
इस शिक्षानीति के क्रियान्यवयन की बाधाओं में मातृभाषाओं को चिह्नित करना भी होगा। मातृभाषाओं के दृष्टिकोण से अगर भारत की 1961 की जनगणना को देखें तो भारतवर्ष में 1652 मातृभाषाओं के होने का प्रमाण प्रस्तुत करता है जिसमें 103 विदेशी मातृभाषाएँ भी शामिल थीं। लगभग एक तिहाई भाषाएँ (574) भारो-आर्य परिवार की, 226 भाषाएँ चीनी-तिब्बती परिवार की 153 भाषाएँ द्रविण परिवार की एवँ 65 भाषाएँ आष्ट्रो-एसियाटिक परिवार की थीं। 28 जून 2018 को जारी भारत की 15वीं जनगणना 2011 के आँकड़ों के अनुसार लोगों द्वारा दर्ज कराई गयी मातृ-भाषाओं की संख्या (raw returns) 19569 है। इन मातृ-भाषाओं के नामों का विश्लेषण एवं समीक्षा के पश्चात् 1369 रैशनलाईज्ड मातृ-भाषाएँ एवँ 1474 अवर्गीकृत भाषाओं के अस्तित्व को इस प्रतिवेदन में स्वीकृत किया गया है। 10000 से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं के नाम प्रकाशित नहीं किए गए हैं और 10000 से ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं की कुल संख्या 121 है जो भारतीय जनगणना-प्रतिवेदन 2001 से एक कम है। इन आँकड़ों पर ध्यान देने के पश्चात पाठकों के मस्तिष्क में एक प्रश्न का कौंधना स्वाभाविक है कि क्या इतनी मातृभाषाओं को शिक्षा का माध्यम बना पाना संभव हो पाएगा? इसका उत्तर देना न तो इतना सरल है और न ही इस स्तर पर संभव। इसका उत्तर तो भविष्य के गर्त में है, प्राथमिकता में अभी 22 अनुसूचित भाषाएँ हैं, लेकिन वर्तमान शिक्षा नीति से उम्मीद तो जगी है, इसमें कोई शक नहीं।
वस्तुतः भारत सरकार का शायद यह पहला नीतिगत दस्तावेज है जिसमें संकटग्रस्त भाषाओं की बात इतनी संजीदगी से रखी गई है। राष्ट्रीय शिक्षानीति 2020 के पैरा 22.4 में भाषा को कला एवं संस्कृति से जोड़ते हुए भाषाओं के महत्व पर चर्चा की गई है तथा यह कहा गया है कि संस्कृति के सरंक्षण, संवर्धन एवं प्रसार के लिए हमें उस संस्कृति की भाषाओं का संरक्षण एवं संवर्धन करना होगा। पैरा 22.5 में भारत में भाषाओं के विलुप्त होने पर चिंता व्यक्त की गई है। इस पैरा में लिखा गया है कि “दुर्भाग्य से, भारतीय भाषाओं को समुचित ध्यान और देखभाल नहीं मिल पाई जिसके तहत देश ने विगत 50 वर्षों में ही 220 भाषाओं को खो दिया है। यूनेस्को ने 197 भारतीय भाषाओं को ‘लुप्तप्राय’ घोषित किया है। विभिन्न भाषाएँ विलुप्त होने के कगार पर हैं विशेषतः वे भाषाएँ जिनकी लिपि नहीं है। जब किसी समुदाय या जनजाति के उस भाषा को बोलने वाले वरिष्ठ सदस्य की मृत्यु होती है तो अक्सर वह भाषा भी उनके साथ समाप्त हो जाती है; और प्रायः इन समृद्ध भाषाओं/संस्कृति की अभिव्यक्तियों को संरक्षित या उन्हें रिकार्ड करने के लिए कोई ठोस कार्रवाई या उपाय नहीं किए जाते हैं।” यह भी सत्य है कि इस द्स्तावेज में प्राकृतिक रूप से विलुप्त होने वाली भाषाओं के बारे में संकेत तो किया गया है लेकिन शायद भाषा विस्थापन की वजह से होने वाली संकटग्रस्तता पर नीति निर्धारकों का ध्यान नहीं गया। वैसे भी यह कोई संकटापन्न भाषाओं पर कोई श्वेत पत्र नहीं है जहाँ इनसे संबंधित सभी पक्षों पर चर्चा करना अनिवार्य हो। कम से कम शिक्षानीति में इन्हें स्थान तो मिला।
इस शिक्षानीति में इस बात का स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि सरकार विलुप्त हो रही भाषाओं के प्रति तो चिंतित है ही, साथ-साथ ही साथ वह उन भाषाओं के प्रति भी संजीदा है जिनको संकटापन्न भाषा की श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता लेकिन उनकी भी कम समस्याएँ नहीं हैं। राष्ट्रीय शिक्षानीति 2020 के पैरा 22.6 में इसका स्पष्ट उल्लेख है कि भारत की 22 अनुसूचित भाषाएँ भी कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना कर रही हैं। इन भाषाओं में अधिगम सामग्री तथा कोशों को बनाने और उनको लगातार अपडेट करते रहने के मामले में हम काफी पीछे हैं। अतः इन भाषाओं की समृद्धि के लिए इन क्रियाकलापों में तेजी लाई जानी चाहिए।
अंत में, राष्ट्रीय शिक्षानीति 2020 भाषाओं को लेकर योजना तो प्रस्तुत करती है लेकिन इसका क्रियान्वयन किस प्रकार होगा यह अभी भविष्य के गर्त में है। वैसे क्रियान्वयन के प्रति भी बहुत निराश होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकी भारत की कई संकटापन्न भाषाओं के प्रलेखन का कार्य सांस्थानिक रूप से किया जा रहा है। प्रलेखन के लिए इकट्ठे किए गए भाषाई आँकड़ों को आधार बनाकर गुणवत्ता युक्त, भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों पर आधारित व्याकरण, कोश तथा अन्य कई प्रकार की शिक्षण और अधिगम सामग्री तैयार की जा सकती है। यहाँ इसका उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा ने कई अल्पज्ञात एवं बहुत कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाओं (जैसे मोनपा, निकोबारी, निशी, मिश्मी, मीसिंग, नोक्ते, सेमा, जेलियांग, शीना, राभा इत्यादि) का हिंदी माध्यम से अध्येता कोश तैयार करवाकर न सिर्फ भाषा प्रलेखन के क्षेत्र में अपना योगदान दिया है अपितु ये कोश इन भाषाओं के संरक्षण एवं संवर्धन में सहायक होने के साथ – साथ इन भाषाओं को सीखने की इच्छा रखने वाले लोगों के लिए वरदान साबित होंगे।
संदर्भिका
Dua, Hans Raj (2008). Ecology of Multilingualism. Mysore: Yashoda Publication.
Fishman, Joshua A. (1987). Reflections on the Current State of Language Planning. In Perspectives in Language Planning. (A. Singh , U. Narayan and R.N. Srivastava , eds.). Calcutta: Mithila Darshan.
Kelman, Herbert C. (1971). Language as aid and barrier to involvement in the national system. In Joan Rubin & B. Jernudd (Eds.) Can language be planned? Sociolinguistic theory and practice for developing nations. (pp. 21-50). Honolulu: University of Hawaii Press.
Pool, J. (1972). National development and linguistic diversity. In J.A. Fishman (Ed.), Advances in the sociology of language. (Vol. 2, pp 213-230), The Hague: Mouton.
असिस्टेंट प्रोफेसर (भाषाविज्ञान) एवं क्षेत्रीय निदेशक
केंद्रीय हिंदी संस्थान, मैसूर केंद्र
वायु सेना चयन समिति के समीप, मैसूर मिल्क डेयरी के पीछे, सिद्धार्थ नगर, मैसूर-70011 (कर्नाटक)
ई-मेल - parmansingh@gmail.com