भारत की नई शिक्षा नीति पर केंद्रित शैक्षिक उन्मेष पत्रिका के आगामी विशेषांक खंडों (ई-पत्रिका) के लिए आलेख आमंत्रण
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् से अब तक भारत सरकार ने देश में फैले अशिक्षा की समस्या को दूर करने के लिए कई तरह के कार्यक्रमों की परिकल्पना एवं योजनाओं का क्रियान्वयन किया है | स्वतंत्रता के बाद के सालों में केंद्र सरकार ने भारत की शिक्षा प्रणाली को आधुनिक बनाने के लिए विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948-1949), माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952-1953), विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और कोठारी आयोग (1964–66) की स्थापना की। भारत के शिक्षा नीति को प्रारंभिक आकार तथा सुनिश्चित दिशा प्रदान करने में कोठरी आयोग का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है | इस आयोग की स्थापना भारत सरकार द्वारा 14 जुलाई 1964 को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में की गई थी। इस आयोग का उद्देश्य पूरे देश में शैक्षिक क्षेत्र के सभी पहलुओं की जांच करना तथा कई स्तरों पर शिक्षा के नवीनतम मानकों का विकास करना था । आयोग ने 29 जून 1966 को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी; इसकी सिफारिशों को 1968 में भारत की प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति में समायोजित किया गया था। त्रि-भाषा सूत्र की अनुशंसा भी इसी आयोग की देन है | 1968 के पश्चात 1986 में एक और नई शिक्षा नीति को भारत में लागू किया गया जिसमें भारतीय महिलाओं, अनुसूचित जाति (एससी), और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए विषमताओं को दूर करने तथा शैक्षिक अवसरों की सुनिश्चित उपलब्धता पर विशेष जोर दिया गया | 1986 के शिक्षा नीति में आंशिक बदलाव के पश्चात् 1992 में रास्ट्रीय शिक्षा नीति का एक संशोधित रूप लागु किया गया |
हालाँकि बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक से ही देश के कई वरिष्ट शिक्षाविद, अध्यापक एवं बुद्धजीवी भारतीय शिक्षा प्रणाली के उन्नयन तथा आवश्यक संरचनात्मक बदलाव के पक्ष में अपने मतों को विभिन्न अकादमिक माध्यमों से देश के समक्ष प्रस्तुत करते आ रहे हैं | बीते कुछ वर्षों के अकादमिक शोधों, लेखों तथा सरकारी अथवा गैर-सरकारी सर्वेक्षणों से यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि भारतीय शिक्षण व्यवस्था इक्कीसवीं सदी के अनुकूल नहीं है | इन सर्वेक्षणों (असर रिपोर्ट 2018, 2019) के माध्यम से प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तर पर बुनियादी साक्षरता एवं संख्या ज्ञान की स्थिति काफी निराशाजनक स्थिति में पाई गई | नव राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी इस तथ्य को स्वीकार करती है की “वर्तमान में प्राथमिक विद्यालयों में बड़ी संख्या में शिक्षार्थीयों ने – जिसकी अनुमानित संख्या 5 करोड़ से भी अधिक है – बुनियादी साक्षरता और संख्या-ज्ञान भी नहीं सीखा है; अर्थात ऐसे बच्चों को सामान्य लेख को पढ़ने, समझने और अंकों के साथ बुनियादी जोड़ और घटाव करने की क्षमता भी नहीं है (पृ. 11)|” इस सन्दर्भ में, रास्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 आधुनिक भारत के नव निर्माण तथा इक्कीसवीं सदी के अनुरूप भारतीय शिक्षा प्रणाली के उन्नयन की दिशा में एक व्यवस्थित एवं व्यावहारिक प्रयास है |
नव शिक्षा नीति कई संरचनात्मक बदलावों की बात करती है | जैसे, विद्यालयी शिक्षा जो पहले 10+2 की व्यवस्था पर आधारित थी, उसे बदल कर 5+3+3+4 की एक नई व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया गया है | इस परिवर्तन के कारण विद्यार्थी अब तीन वर्ष की उम्र से ही विद्यालयी शिक्षण व्यवस्था से जुड़ सकेंगे | प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल एवं शिक्षा (ECCE) बच्चों के सर्वांगीण विकास को ध्यान में रखकर शिक्षा नीति में शामिल किया गया है | इस अमूलचूल परिवर्तन के साथ ही प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा के लिए मातृभाषा अथवा क्षेत्रीय भाषा को प्रयोग में लाने की एक सार्थक पहल भी की गई है | प्राथमिक स्तर की शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता को खत्म करने तथा भारतीय भाषाओं के व्यापक प्रयोग से बुनियादी शिक्षा में दूरगामी परिणाम देखने को मिलेंगे |
अकादमिक दृष्टि से देखें तो बुनियादी शिक्षा और मातृभाषा अथवा क्षेत्रीय भाषा के सम्बन्ध को समझने के साथ ही यह भी आवश्यक है की भाषा तथा समाज के आन्तरिक सम्बन्ध को समझा जाए | स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् संविधान निर्माताओं ने भारतीय भाषाओं के साथ अंग्रेज़ी भाषा की सत्ता भी कायम रखी | परिणाम स्वरुप धीरे-धीरे आधुनिक शिक्षा तथा अंग्रेजी भाषा एक दूसरे के पर्याय से बनते गए | बाद के वर्षो में एक ऐसी धारणा ने भी जन्म लेना प्रारंभ किया जिसके अनुसार भारतीय भाषाएँ साहित्य तथा हाट-बाज़ार की भाषा तो हो सकती हैं परन्तु विज्ञानं तथा गंभीर अकादमिक शिक्षण के लिए अंग्रेजी भाषा का ज्ञान अनिवार्य है | ऐसी स्थिति में पूरे देश में हज़ारों की संख्या में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय खुलने लगे और भारतीय भाषाओं के माध्यम के विद्यालयों की गुणवत्ता में निरंतर कमी आने लगी | इन सबका परिणाम यह हुआ कि क्षेत्रीय भाषाएँ विद्यालयों से दूर होती चली गई और अंग्रेजी भाषा प्राथमिक स्तर से उच्च शिक्षा तक की भाषा के रूप में अनौपचारिक रूप से स्वीकार कर ली गई |
इसके विपरीत, भाषा तथा समाज के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में कई अकादमिक अध्ययन हुए है जिनके निष्कर्षो ने यह स्थापित किया है किसी विश्व की समस्त भाषाएँ शिक्षा का माध्यम बनाने के लिए पूर्णतया उपयुक्त है | नवीन वैज्ञानिक शोधों ने यह भी स्पष्ट कर दिया है की सभी भाषाएं, और तदनुसार सभी बोलियां, एक भाषाई व्यवस्था के रूप में समान है, जिसका अर्थ यह है की कोई भी भाषा एक भाषिक व्यवस्था के रूप में किसी भी दूसरी भाषा से कमतर नहीं है | सभी भाषाएं संरचनात्मक, जटिल, नियम-शासित, प्रणालियां हैं जो अपने वक्ताओं की आवश्यकता के लिए पूरी तरह से पर्याप्त हैं । व्यावहारिक स्तर पर किन्ही दो भाषाओं का अन्तर भाषिक न होकर सामाजिक अथवा राजनैतिक होता है | इस प्रकार मातृ अथवा क्षेत्रीय भाषा ही अपने सामाजिक मूल्यों तथा ज्ञान को प्रारंभिक शिक्षा के माध्यम से नई पीढ़ी के समक्ष सम्पूर्ण गूढ़ता में व्यक्त कर सकती है |
समाजभाषा वैज्ञानिक पिटर ट्रडगिल के मतानुसार “भाषा एक सामाजिक स्थिति के रूप में किसी भी समाज की सामाजिक संरचना और मूल्य प्रणाली के साथ निकटता से जुड़ी होती है (पृ 8) |” इस प्रकार अगर कोई भाषा किसी क्षेत्र अथवा समाज विशेष का प्रतिनिधित्व करती है तो उस समाज की पृष्ठभूमि से आए किसी भी बच्चे के लिए अपनी भाषा में बुनियादी शिक्षा को नवीनता से समझने में आसानी होगी | विश्व के कई प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक, शिक्षाविद तथा मनोवैज्ञानिकों ने, जैसे स्टीवन पिंकर, नोआम चोमस्की, पिटर ट्रडगिल आदि , अपने शोध के माध्यम से यह स्पष्ट कर दिया है कि मातृभाषा अथवा विद्यार्थी के सामाज की सबसे निकटतम भाषा ही प्रारंभिक शिक्षा के लिए सबसे उपयुक है |
रास्ट्रीय शिक्षा नीति ने यह तो स्पष्ट कर दिया है कि इस शिक्षा नीति के अमल में आने के बाद से भारतीय भाषाएँ ही प्रारंभिक शिक्षा का माध्यम होगीं, परन्तु इन भाषाओं को शिक्षानुकूल बनाने के लिए संरचनात्मक एवं संकल्पनात्मक स्तर पर सुदृढ़ करने की नितांत आवश्यकता है | भारत की कुछ प्रमुख भाषाओं को छोड़ कर, जैसे हिंदी, तमिल, तेलुगु, बांग्ला आदि, ऐसी बहुत सी भाषाएँ हैं जिनमें पारिभाषिक तथा तकनीकी शब्दावली का अभाव है | अभी तक भारत की कई भाषाओं का मानकीकरण भी पूर्ण रूप से नहीं हो पाया है | अतः मानकीकरण तथा तकनीकी शब्दावली के बिना इन भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने और पाठ्य पुस्तकों का निर्माण करने में कठिनाई होगी |
इसके साथ ही भारतीय भाषाओं के शैक्षणिक प्रयोग के साथ ही शिक्षण की गुणवत्ता को सुधारने हेतु नई शिक्षा नीति ने कई उपाय सुझाए हैं | जैसे शिक्षको के लिए सतत व्यावसायिक विकास (Continuous Professional Development) का प्रशिक्षण; शिक्षकों को ऑनलाइन माध्यम से प्रशिक्षित करने के लिए स्वयं/ दीक्षा जैसे प्रोद्योगिक प्लेटफार्मों का उपयोग आदि | ये प्रयास निश्चय ही प्राथमिक शिक्षण में आई रूढ़िता को खत्म करने में सहायक सिद्ध होंगे | हालाँकि, पूर्व में भी शिक्षकों को समयानुकूल प्रशिक्षित करने के लिए कई सारे कार्यक्रमों की शुरुवात की गई, परन्तु उनके परिणाम संतोषजनक नहीं रहें | अतः नव शिक्षा नीति के माध्यम से शिक्षा मंत्रालय को शिक्षक प्रशिक्षण की गुणवत्ता सुनिश्चित करनी होगी |
संदर्भ
Trudgill, P. (2000). Sociolinguistics: An introduction to language and society. Penguin UK.
क्षेत्रीय निदेशक, केंद्रीय हिंदी संस्थान, शिलांग केंद्र
लोवर लाच्छुमियर, डाटा एक्सेज प्रोडक्ट के समीप, शिलांग-793014 (मेघालय)
ई-मेल – kpkhs19@gmail.com