धन्वन्तरि ई-समाचार पत्र

Dhanvantari E-Newsletter

Department of Ayurveda and Holistic Health

Dev Sanskriti Vishwavidyalaya, Haridwar

Volume 2, Issue 2, 2020

Available Online from: 17 August 2020

विभागीय समाचार




कोविड-19 से संबंधित परामर्श एवं अनुसंधान परियोजनाएँ

Various consultancy and research projects (ongoing) on COVID-19 in collaboration with Professors from IIT Delhi and other reputed institutions

कोविड-19 हेतु विभाग द्वारा जड़ी-बूटियों से निर्मित 5 इम्यूनिटी बूस्टर

कोविड-19 को ध्यान में रखते हुए, इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए विभाग द्वारा जड़ी बूटियों से निर्मित 5 इम्यूनिटी बूस्टर तैयार किए गए हैं, जो कि रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के साथ-साथ विषाणुजन्य संक्रमण से भी बचाव में सहायक हैं। इनका उपयोग अभी प्रायोगिक परीक्षण के रूप में किया जा रहा है। तैयार किए गये उत्पाद निम्नलिखित हैं-

1. प्रज्ञा इम्यून टी

2. प्रज्ञा अमृतादि क्वाथ

3. प्रज्ञा अमृतार्क

4. प्रज्ञा इम्यून टैब

5. संक्रमण नाशक हवन सामग्री

उपरोक्त सामग्री प्राप्त करने हेतु dahh@dsvv.ac.in पर ईमेल करें

'यज्ञ चिकित्सा - समग्र उपचार प्रक्रिया' पर डॉ० वंदना श्रीवास्तव द्वारा उद्बोधन

उद्बोधन यहाँ सुनें - https://youtu.be/edE-QN-qhRA

Talk on 'An Overview of Indigenous Therapeutic Interventions @ Department of Ayurveda & Holistic Health (DAHH), D.S.V.V. w.s.r. to Yagyopathy' By Dr. Alka Mishra

उद्बोधन यहाँ सुनें - https://youtu.be/fd4yMJyNJVs

Download Full Presentation Here - https://drive.google.com/file/d/1uPynBLRC0jLbnpHynR5Yk_HA6jt1hTIR/view?usp=sharing

Talks by Department's Faculty Members in the 3 Day International Webinar on Problems of COVID-19 and Solution Through Indigenous Techniques

Dr. Vandana Shrivastava was the Chief Guest and Speaker in the Online National Webinar on "Preventive Measure of COVID-19 in Ayurveda" organized by IQAC, Shri Sai Baba Aadarsh Mahavidyalaya Ambikapur (C.G.) on 11th August 2020

प्रसिद्ध आयुर्वेदविद् डॉ० ताराचंद शर्मा जी ने देव संस्कृति विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्रद्धेय डॉ० प्रणव पण्ड्या जी से भेंट वार्ता की

12 फरवरी 2020 को विभाग से एजुकेशनल टूर देहरादून आरोग्य मेला व फारेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट ले जाया गया

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यज्ञ चिकित्सा हेतु परामर्श एवं शुल्क का भुगतान

Yagya Therapy Consultancy and Payment

यज्ञ चिकित्सा हेतु परामर्श के लिए ऊपर दिया गया फॉर्म प्राप्त होने के उपरांत, आपके द्वारा दी गई जानकारी की जाँच की जाएगी, एवं उसके अनुसार शीघ्र ही आपसे सम्पर्क किया जाएगा

After receiving the Form given above for Yagya Therapy Consultancy, the information provided by you will be reviewed, and you will soon be contacted accordingly

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Research @ DAHH

(Source: https://sites.google.com/dsvv.ac.in/shodhamala-dahh/asssm22/asssm221 ; https://doi.org/10.31219/osf.io/zepgd)

Yagya has been one of the core elements of the ancient Indian Culture ever since the Vedic era, and is also an effective therapeutic procedure. The present review article explores the applicability of Yagya during the present time, wherein the principles, procedure and the possible mode of action of Yagya have been described; the efficacy of Ayurvedic medicines and medicinal herbs in the management of various diseases caused by viruses, as well as the diseases that have symptoms similar to those prevalent during present time, have been discussed; the ethnobotanical use of herbal fumigation in the management of various diseases, has been presented; as well as, the efficacy of Yagya Therapy / Integrative approach (including Yagya Therapy) in the management of symptoms of various disease conditions has been illustrated. The review also briefly illustrates the ancient Ayurvedic perspective about epidemics and the possible role of Yagya as a management approach for the same. Based on the information presented herein, the applicability of Yagya in the present time seems to be a promising possibility, that is worth exploring further through proper experimentation and analysis.

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(Source: https://sites.google.com/dsvv.ac.in/shodhamala-dahh/asssm21/asssm211 ; https://doi.org/10.31219/osf.io/bqf5r)

Background: A case report about a female patient has been presented here, who was suffering from multiple complaints including severe breathlessness, low grade fever, node in the chest, sleeplessness, etc., and whose diagnostic tests indicated acute pulmonary edema and mild cardiomegaly. Ever since the occurrence of low grade fever and breathlessness, the patient had been on allopathic medication. It was considered to be a possible case of Sarcoidosis. Since about four and a half months, the patient had been on a tapering dose of steroids, and these were recommended to be continued for another two months. The persisting symptoms of low grade fever, breathlessness, and other associated ailments had significantly degraded the quality of life of the patient.

Methodology: The patient was prescribed an integrated approach including Yagya Therapy (using an appropriate herbal formulation - havan samagri), and some other Ayurvedic treatments like decoction of medicinal herbs, Ayurvedic medicines, dietary recommendations, etc., which had to be taken alongside the already continuing allopathic treatment (which continued for about 2.5 months).

Results: According to a feedback collected from the patient about 2 years after starting the integrated approach including Yagya Therapy, the complaints of low grade fever, sleeplessness, body pain, loss of appetite, constipation and weakness were completely resolved; the complaint of breathlessness was almost completely resolved; the node in the chest had disappeared about seven months after starting the integrated approach (including Yagya Therapy); X-ray Chest (done about four months after starting the integrated approach, and also after about two years), and CT scan (CECT Chest and Abdomen) (done about seven months after starting the integrated approach) indicated normal condition. After starting the integrated approach (including Yagya Therapy), within about 2 to 3 months, the patient had started feeling improvement in her condition - now the patient was feeling completely normal, and expressed willingness to continue with the integrated approach (including Yagya Therapy)

Conclusion: The integrated approach including Yagya Therapy showed encouraging results with regards to the treatment of the present disease condition.

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आयुर्वेद एवं समग्र स्वास्थ्य

हमने 'स्वास्थ्य संरक्षण' के अपने पिछले अंक में प्रथम उपस्तम्भ अर्थात् आहार के बारे में जाना था। इस बार हम द्वितीय व तृतीय उपस्तम्भ (निद्रा एवं ब्रह्मचर्य) के बारे में चर्चा करेंगे।

तो पहले द्वितीय उपस्तम्भ अर्थात् 'निद्रा', व स्वास्थ्य हेतु इसके महत्व के बारे में जानते हैं -

देह विश्राम के लिए निद्रा अत्यन्त आवश्यक है। निद्रा से इन्द्रियों की कार्य शक्ति पुन: ठीक होती है तथा सुख व आयु की वृद्धि होती है। शरीर को पुष्ट व सबल बनाना, स्वास्थ्य तथा आरोग्य, निद्रा पर ही निर्भर है। निद्रा की स्थिति में हृदय व नाड़ी की गति कम हो जाती है तथा फेफड़ों व आंतरिक अंगों को भी विश्राम मिलता है।

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हमारे शरीर पर खान-पान के अलावा ॠतुओं और जलवायु का भी प्रभाव पड़ता है। एक ॠतु में कोई दोष बढ़ता है तो दूसरा शान्त होता है। अत: आयुर्वेद में प्रत्येक ॠतु में दोषों में होने वाली वृद्धि, प्रकोप या शान्ति के अनुसार सब ॠतुओं के लिए अलग-अलग खानपान व रहन-सहन का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार आहार विहार अपनाने पर स्वास्थ्य-रक्षण होता है तथा व्याधियों से बचाव होता है।

प्रत्येक ॠतु 2-2 मास की होती है। चैत्र-वैशाख में बसन्त, ज्येष्ठ-आषाढ़ में ग्रीष्म, श्रावण-भाद्रपद में वर्षा, आश्विन-कार्तिक में शरद, मार्गशीष-पौष में हेमन्त तथा माघ-फाल्गुन में शिशिर ॠतु होती है। इन ॠतुओं का आधार सूर्य की गति होती है जिसे अयन कहा जाता है। अयन दो प्रकार के है- उत्तरायण व दक्षिणायन ।

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औषधीय पौधे

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मसाला वाटिका से घरेलू उपचार - "सौंफ"

(संदर्भ: श्रीराम शर्मा आचार्य. मसाला वाटिका से घरेलू उपचार. गायत्री तपोभूमि, मथुरा, उत्तर प्रदेश, भारत: युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट, गायत्री तपोभूमि; 2018.)

सौंफ शीतल प्रकृति की औषधि है। उसके फल जीरे से मिलते जुलते हैं। उन्हीं को काम में लाया जाता है। पान, सुपारी, इलायची की जगह सौंफ को अतिथि सत्कार के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए। गर्मी के दिनों में ठंडाई पीने का प्रचलन है। उसमें सौंफ प्रमुख है। उसकी मात्रा भी अधिक रखी जाती है। स्वाद में मीठी और सुगंधित होने के कारण वह सर्व प्रिय भी है, सस्ती भी।

जिन रोगों में गर्मी की अधिकता का प्रभाव दृष्टिगोचर होता हो, उनमें सौंफ का प्रयोग बेखटके किया जाता है। डंठलों के तिनके जैसे प्राय: जुड़े रहते हैं, उन्हें हटाने के लिए उनकी धुलाई –मजाई की जा सकती है। हथेलियों से भी रगड़ा जा सकता है। तवे पर हल्की आग से भून लेने पर भी जुड़े हुए तिनके अलग हो जाते हैं। इतना कर लेने पर सौंफ का उपयोग थोड़ी-थोड़ी मात्रा में मुँह में डालते हुए पान की तरह चबाकर किया जा सकता है। सिल पर चटनी की तरह बारीक पीसकर, शहद या चीनी के साथ मिलाकर चाटा जा सकता है। सौंफ को बारीक कूटकर उसे पानी में भिगोया जाए, ऊपर से पानी निथारते रहा जाए। पानी सुखाकर अंत में जो गाढ़ा सा तलछट बच जाए, उसे सुखा लिया जाए, यही सौंफ का सत है। इसी प्रकार गिलोय आदि का भी सत निकालते हैं, सत्व को हमेशा कम मात्रा में लेते हैं।

आयुर्वेदिक मत से सौंफ चरपरी अग्निप्रदीपक, वात, ज्वर एवं शूलनाशक तथा तृष्णा, वमन को शांत कर देने वाली औषधि है। यह पेशाब की जलन कम करती है। यह आँतों की मरोड़ शांत करती है एवं श्रेष्ठ अम्ल, पित्त नाशक है। सौंफ को घी में तला जाए व मिश्री के साथ मिलाकर लिया जाए, तो अतिसार (डायरिया) मिटता है। बेल के गूदे के साथ चूर्ण खाने से अजीर्ण मिटता है। सौंफ के बीज, गुलाब के फूल, कमल गट्टे की मगज, चंदन चूर्ण, खस, काली-मिर्च, छोटी इलायची, खरबूजे का बीज व बादाम आदि में से जो उपलब्ध हो, उन्हें मिलाकर, पीसकर ठंडाई बनाई जाती है, जो मेधावर्धक भी है एवं लू, पित्त, ज्वर, हैजा, दस्त दमन की श्रेष्ठ औषधि भी है।

अदरक गीली गाँठ है, जो जमीकन्द की तरह जमीन के नीचे बढ़ती रहती है। उसमें से जितनी आवश्यकता है, काटकर शेष भाग को फिर जमीन में गाड़ा और भविष्य के लिए बढ़ते रहने दिया जाता है। यही अदरक जब सुखा लिया जाता है, तब सोंठ बन जाता है। बोने के लिए इसके टुकड़े काट–काट कर ही गाड़ दिए जाते हैं। इसमें बीज नहीं होता।

अदरक पाचक है। पेट में कब्ज, गैस बनना, वमन, खाँसी, कफ, जुकाम आदि में इसे काम में लाया जाता है। नमक मिली चटनी बनाकर चाटते रहने, बारीक न पीस सकें तो टुकड़े मुँह में डालकर चूसते रहने से लाभ होता है। बच्चों के लिए रस के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। अदरक का रस और शहद मिलाकर चाटते रहने से दमा, श्वास, खाँसी से लेकर क्षय रोग तक में सुधार होता है। हिचकी, जम्हाई का अनुपात बढ़ जाए, तो भी इसका प्रयोग किया जा सकता है। दाढ़ के दर्द में भी इसका सेवन उपयोगी है। अदरक और सोंठ के गुण एक जैसे होते है, पर जब चूर्ण में उसका प्रयोग करना हो, तो सोंठ लेना ही उपयुक्त है। उसमें अदरक की तरह बार–बार पीसने का झंझट नहीं रहता।

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(संदर्भ: उद्यान विभाग शांतिकुंज, संपादन. गमलों में स्वास्थ्य. मथुरा, उत्तर प्रदेश, भारत: युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट, गायत्री तपोभूमि; 2015.)

विषम ज्वर तथा शीतजीर्ण ज्वर में– इसका क्वाथ तथा इसमें छोटी पीपल एवं मधु मिलाकर देने से लाभ होता है, इसके अतिरिक्त कफ, प्लीहावृद्धि एवं अरुची दूर होती है।

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(संदर्भ: श्रीराम शर्मा आचार्य. तुलसी के चमत्कारी गुण. मथुरा, उत्तर प्रदेश, भारत:युग निर्माण योजना विस्तार ट्रस्ट, गायत्री तपोभूमि, 2015.)

भारतीय चिकित्सक प्राचीनकाल से खांसी – जुकाम आदि में तुलसी का प्रयोग करते आए हैं। 'चरक संहिता' के अनुसार खांसी में छोटी मक्खी के शहद के साथ तुलसी का रस विशेष लाभदायक होता है। 'चरक' में भी यही कहा गया है कि दमा (श्वास) को ठीक करने वाली प्रमुख औषधियों में से तुलसी एक है।

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भारतीय संस्कृति और धर्म में तुलसी को उसके महान गुणों के कारण ही सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है। भारतीय संस्कृति में यह पूज्य है। तुलसी का धार्मिक महत्व तो है ही लेकिन विज्ञान के दृष्टिकोण से तुलसी एक औषधि है। तुलसी को हजारों वर्षों से विभिन्न रोगों के इलाज के लिए औषधि के रूप में प्रयोग किया जा रहा है। आयुर्वेद में तुलसी तथा उसके विभिन्न औषधीय प्रयोगों का विशेष स्थान हैं। आयुर्वेद में तुलसी को संजीवनी बूटी के समान माना जाता है। आपके आंगन में लगा छोटा सा तुलसी का पौधा, अनेक बीमारियों का इलाज करने के आश्चर्यजनक गुण लिए हुए होता है। तुलसी में कई ऐसे गुण होते हैं जो बड़ी-बड़ी जटिल बीमारियों को दूर करने और उनकी रोकथाम करने में सहायक हैं।

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Ayurveda @ Literature of All World Gayatri Pariwar (www.awgp.org)

अखण्ड ज्योति पत्रिका - जून 1999 अंक से (http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1999/June/v2.35)

आयुर्वेद के स्वास्थ्य के नियमों की विगत अंकों में की गयी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत लेख में संध्योपासना एवं योगाभ्यास तथा भोजन लेने के नियमों की चर्चा करेंगे।

आयुर्वेद एक समग्र जीवन है, जिसका आविर्भाव ही विश्वमानव को आधि-व्याधि मुक्त-स्वस्थ, अक्षुण्ण यौवन भरा जीवन जीने के लिए ॠषिगणों द्वारा हुआ है। मानव जीवन के जितने भी पहलू हो सकते हैं, सभी को आयुर्वेद में स्पर्श किया गया है। सर्वाधिक महत्व जीवनचर्या के सुव्यवस्थित परिपालन पर इस विद्या में दिया जाता रहा है।

ॠषिगणों का मत रहा है की यदि दिनचर्या सही हो तो कभी बीमार होने का कोई कारण ही नहीं पैदा होगा। 'स्वस्थ व्रत समुच्चय' प्रकरण में ॠषियों ने देश-काल की परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए नियम-उपनियम बनाए हैं। यदि इनका कुछ प्रतिशत भी हमारे जीवन में उतर सके, तो आज की भागा-दौड़ से भरी दुनिया में हमारा अस्पतालों का चक्कर-दवाओं का खर्च काफी कुछ बच सकता है।

इस लेखमाला में आयुर्वेद के मतानुसार दैनन्दिन जीवनचर्या पर विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है। यद्यपि रोजमर्रा की ये गतिविधियाँ लगती तो छोटी-छोटी-सी हैं, किन्तु इनके परिपालन पर ही स्वास्थ्य टिका है, यह बहुत कम लोग समझ पाते हैं।

आयुर्वेद का उद्देश्य - प्रयोजन कितना पवित्र है, यह निम्नलिखित श्लोक से प्रतीत होता है।

धर्मार्थ नार्थ्कामार्थामयुर्वेडोरा महर्षिभिः। प्रकाशितो धर्मं प्रैरिचाधिभ्दिः स्थान्नाम्क्श्रम।।

अर्थात् "स्वर्ग में अक्षय स्थान प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले धर्मनिष्ठ महर्षियों ने आयुर्वेद का प्रकाशन धर्म का पालन करने की दृष्टि से किया है, न कि काम या धन प्राप्त करने की दृष्टि से।"

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From Akhand Jyoti English magazine-November-December 2003 issue (http://literature.awgp.org/akhandjyoti/2003/Nov_Dec/v1.HealthGuidelinesAyurveda_III)

The comprehensive approach of Ayurveda pays attention to every aspect of life. It gives us practical guidance on the secrets of perfect health, which lie in its principle of living in complete harmony with our natural system.

It is amazing to note that the recommendations made in the Ayurvedic scriptures ages ago remain valid and effective even today. The ancient experts of this Vedic science had compiled a volume entitled "Swastha Vratta Sammuchchaya" to give specific guidelines on prevention of sickness and maintenance of health under changing conditions of weather, place, time, etc.

The present series of articles on health-tips from Ayurveda gives the excerpts most relevant in today’s context from such scriptures for our ready-reference. If we could adopt even a fraction of these in our daily life, lot of our time and money would be saved from running around the clinics and dispensaries in our hectic and stress-inducing schedules.

Now, let us look at the noble purpose of the founders of Ayurveda to realize the majestic strength and grandeur of knowledge this science of healthy life holds in its roots.

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यज्ञ का ज्ञान विज्ञान

यज्ञ की अनिर्वचनीय महत्ता

(संदर्भ: ब्रह्मवर्चस (सम्पादक). यज्ञ का ज्ञान-विज्ञान - पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य वांगमय - खण्ड 25. मथुरा, उत्तर प्रदेश, भारत:अखण्ड ज्योति संस्थान, 1998, पृष्ठ 2.1-2.7.)

शास्त्रों में यज्ञ की महत्ता पर बहुत कुछ कहा गया है-

यज्ञ ही संसार का सर्वश्रेष्ठ शुभ कार्य है। यज्ञ न करने वाले का तेज नष्ट हो जाता है। हे विद्वानों, संसार में यज्ञ का प्रचार करो। यह यज्ञ सब कामनाएँ पूर्ण करने वाला है। प्रत्येक शुभ कार्य को यज्ञ के साथ आरम्भ करो। जो हवन करते हैं उनके हृदय में परमात्मा का तेज प्रकाशित होता है। सभी बाधाओं की निवृत्ति के लिये, बुद्धिमान पुरुषों को देवताओं की यज्ञ द्वारा पूजा करनी चाहिए। सब पापों में रत व्यक्ति भी यज्ञ करने से पाप मुक्त हो जाता है। ब्राह्मण ग्रन्थों, संहिताओं तथा उपनिषदों में अनेक स्थलों पर यज्ञ का ईश्वर परक, देव परक एवं अत्यन्त प्रतिष्ठित एवं महत्वपूर्ण शब्दों में स्मरण किया गया है। यज्ञ से प्रसन्न होकर देवता अभीष्ट सुख प्रदान करते हैं। जो हवन करते हैं उनके हृदय में परमात्मा का तेज प्रकाशित होता है। निष्काम भाव से यज्ञ करने से परमात्मा की प्राप्ति होती है। आरोग्य चाहने वाले को वेदोक्त रीति से हवन करना चाहिए। यज्ञ के समान और कोई दान नहीं। यज्ञ के समान और कोई विधान नहीं। मनुष्य का जीवन यज्ञ के साथ आरम्भ होता है और यज्ञ के साथ ही उसकी समाप्ति होती है। यज्ञ करने से सद्बुद्धि, तेज और भगवान की प्राप्ति होती है। स्वाध्याय, व्रत, होम, वेदाध्ययन, सुप्रजनन, यज्ञ तथा महायज्ञों द्वारा यह शरीर ब्राह्मण किया जाता है। यज्ञ ऐसा आवश्यक कर्म है कि उसे करते ही रहना चाहिए क्योंकि इससे परमात्मा प्रसन्न होता है, प्रभु की प्राप्ति होती है, जिस पर परमात्मा प्रसन्न होता है उसे किसी वस्तु की कमी नहीं रहती।

यज्ञों द्वारा मनुष्य को अनेक आध्यात्मिक एवं भौतिक शुभ परिणाम प्राप्त होते हैं। वेद मंत्रों के साथ-साथ शास्त्रोक्त हवियों के द्वारा जो विधिवत हवन किया जाता है, उससे एक दिव्य वातावरण में बैठने मात्र से रोगी मनुष्य निरोग हो सकते हैं। चरक ॠषि ने लिखा है कि 'आरोग्य प्राप्त करने की इच्छा करने वालों को विधिवत हवन करना चाहिए'। बुद्धि शुद्ध करने की यज्ञ में अपूर्व शक्ति है। जिनके मस्तिष्क दुर्बल हैं या बुद्धि मलिन है वे यदि यज्ञ करें तो उनकी अनेकों मानसिक दुर्बलताएँ शीघ्र ही दूर हो सकती हैं।

यज्ञ से आकाश में अदृश्य रूप से ऐसा सद्भावनापूर्ण सूक्ष्म वातावरण पैदा होता है जिससे संसार में फैले हुए अनेक प्रकार के रोग, शोक, भय, क्लेश, द्वेष, अन्याय, अत्याचार नष्ट हो सकते हैं और सब लोग प्रेम और सुख-शान्तिपूर्वक रह सकते हैं।

प्राचीन काल में ॠषियों ने यज्ञ के इन लाभों को भली प्रकार समझा था, इसलिये वे उसे लोक-कल्याण का अतीव आवश्यक कार्य समझकर अपने जीवन का एक तिहाई समय यज्ञों के आयोजन में ही लगाते थे। स्वयं यज्ञ करना और दूसरों से यज्ञ कराना उनका प्रधान कर्म था। जब घर-घर में यज्ञ की प्रतिष्ठा थी तब यह भारत भूमि स्वर्ण सम्पदाओं की स्वामिनी थी। आज यज्ञ को त्यागने से ही हमारी दुर्गति हो रही है। वेदों में यज्ञाग्नि की पग-पग पर प्रशंसा और प्रार्थना है। इस प्रशंसा और प्रार्थना में यज्ञ में सन्निहित शक्तियों और लाभों का वर्णन है।

यज्ञ - एक समग्र उपचार प्रक्रिया

यज्ञाग्नि एवं शब्दशक्ति का सूक्ष्मीकरण

(संदर्भ: ब्रह्मवर्चस (सम्पादक). यज्ञ : एक समग्र उपचार प्रक्रिया - पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य वांगमय - खण्ड 26. मथुरा, उत्तर प्रदेश, भारत:अखण्ड ज्योति संस्थान, 1998, पृष्ठ 1.7-1.9.)

गायत्री को देव संस्कृति की माता और यज्ञ को भारतीय धर्म का पिता कहा गया है। दोनों का युग्म है। गायत्री अनुष्ठान की पूर्ति यज्ञ का शतांश पूरा करने पर हुई मानी जाती है।

'शतपथब्राह्मण' के अनुसार-

जो व्यष्टिगत एवं समष्टिगत जगत की व्यवस्था बैठाती एवं सामंजस्य स्थापित करती है, वही गायत्री है। गायत्री मंत्र का मनन करने वाले सिद्ध-साधक इसी ऊँचे उद्देश्य के साथ भू: लोक से भुव: एवं स्व: लोक में ऊर्ध्वगमन करते एवं अपने सूक्ष्म किंतु विराट रूप द्वारा समष्टि का कल्याण करते हैं।

गायत्री जहाँ त्रिपदा है, वहाँ यज्ञ अपने भावार्थ के कारण त्रिष्टुप भी है। त्रिष्टुप का अर्थ – तीनों की स्तुति।

गायत्री-साधना एवं यज्ञ के माध्यम से उनकी पूर्णता के मूल में दोनों के मध्य पारस्परिक संबंधों को अच्छी तरह समझना होगा। यज्ञ की समूची प्रक्रिया ही सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया है। गायत्री स्थूल वहाँ तक है, जहाँ तक कि उसके साथ यज्ञोपवीत और शिखा-धारण वाले द्विजत्व संस्कार का संबंध है। यह स्थूल पक्ष है, जिसे धूम-धाम के साथ मनाया जाता है। गायत्री की दिव्यता इतने से संपन्न नहीं हो जाती। उसके माध्यम से देवत्व प्राप्त किया जाता है।

गायत्री व यज्ञ, दोनों सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद के समन्वित रूप के कारण परस्पर अविच्छिन्न रूप से जुड़े हैं। सामवेद में याज्ञिक कर्मकांड की नहीं, सूक्ष्मता की महत्ता है। यहाँ स्थूल हवि के स्थान पर भावनात्मक धरातल पर सूक्ष्म शब्द ऊर्जा से अभिपूरित मानसिक हवि का प्रयोग होता है।

गायत्री व यज्ञ, दोनों के ही सूक्ष्मीकृत रूपों की महत्ता उपादेयता शास्त्रों में वर्णित है। गायत्री मंत्र से ही यज्ञ कर्म किए जाने को प्रधानता देते हुए इन ॠचाओं का स्वर कहता है-

वागेवर्क् प्राण: साम: एवं ॠचं वाचं प्रपद्ये, मनो यजु: प्रपद्ये, साम प्राणं प्रपद्ये।

चौथा अथर्ववेद है, जिसके मंत्रों की प्रेरणा साधक को स्थितप्रज्ञ बनाकर आत्मशक्ति के उद्भव में सहायक भूमिका निभाती है। आत्मशक्ति में आत्मोत्कर्ष के स्वरूप एवं प्रक्रिया को इनमें पिरो दिया गया है।

गायत्री-साधना एवं यज्ञ–विधान, दोनों में ही स्थूल की नहीं सूक्ष्म की महत्ता है। वही उस प्रभाव के लिए उत्तरदायी मानी जा सकती है, जो साधक को अदृश्य के अधिकाधिक निकट लाने, देवत्व एवं द्विजत्व प्रदान करने तथा उसे ॠषि-महामानव स्तर के पद तक ऊँचा उठाने की महती भूमिका निभाती है।

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आध्यात्मिक चिकित्सा / कायाकल्प

(स्व-शिक्षण पाठ्यक्रम) (अध्यात्म द्वारा दैनिक जीवन के प्रश्नों के समाधान)

(परम पूज्य गुरुदेव, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के उद्बोधनों पर आधारित)

पूर्ण पाठ्यक्रम इस वेब-लिंक पर देखें - https://sites.google.com/view/adhyatmik-kayakalp/adhyatmik-paddhatiyan-gyan-vigyan

नीचे दिए गए वेब-लिंक पर दिए गए उद्बोधन (.mp3 फाइल) को सुनें, एवं उस पर आधारित प्रश्नोत्तरी को हल करें

https://sites.google.com/view/adhyatmik-kayakalp/adhyatmik-paddhatiyan-gyan-vigyan/pragya-yog-ki-sadhana

(स्व-शिक्षण पाठ्यक्रम) (अध्यात्म द्वारा दैनिक जीवन के प्रश्नों के समाधान)

(परम पूज्य गुरुदेव, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी के उद्बोधनों पर आधारित)

पूर्ण पाठ्यक्रम इस वेब-लिंक पर देखें - https://sites.google.com/view/adhyatmik-kayakalp/antarik-utkrishtata-ka-vikas

नीचे दिए गए वेब-लिंक पर दिए गए उद्बोधन (.mp3 फाइल) को सुनें, एवं उस पर आधारित प्रश्नोत्तरी को हल करें

https://sites.google.com/view/adhyatmik-kayakalp/antarik-utkrishtata-ka-vikas/kalpa-sadhana-kaise

आध्यात्मिक चिकित्सा का अनुपम ग्रंथ - 'गीता'

(श्रद्धेय डॉ० प्रणव पण्ड्या जी की 'गीता' पर कक्षाएँ)

शारदीय नवरात्रि 2019 में श्रद्धेय डॉ० प्रणव पण्ड्या की गीता पर कक्षाएँ

द्वितीय दिवस की कक्षा - https://www.youtube.com/watch?v=Pzb_8oSKaaM&t=5s

प्रथम एवं द्वितीय दिवस के उद्बोधन के कुछ बिंदु पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करें

आध्यात्मिक चिकित्सा का सुदृढ़ आधार - 'ध्यान'

(श्रद्धेय डॉ० प्रणव पण्ड्या जी की 'ध्यान' पर कक्षाएँ)

देव संस्कृति विश्वविद्यालय में श्रद्धेय डॉ० प्रणव पण्ड्या की ध्यान पर कक्षाएँ

27 फरवरी 2020 की ध्यान की कक्षा - https://www.youtube.com/watch?v=-nakg9qY-BY

आध्यात्मिक कायाकल्प का विशिष्ट ग्रंथ - 'रामचरितमानस'

(श्रद्धेय डॉ० प्रणव पण्ड्या जी की 'रामचरितमानस' पर कक्षाएँ)

चैत्र नवरात्रि 2019 में श्रद्धेय डॉ० प्रणव पण्ड्या की रामचरितमानस पर कक्षाएँ

प्रथम दिवस की कक्षा - https://www.youtube.com/watch?v=YGPuooWqWgg