धन्वन्तरि ई-समाचार पत्र

Dhanvantari E-Newsletter

Department of Ayurveda and Holistic Health

Dev Sanskriti Vishwavidyalaya, Haridwar

Volume 2, Issue 2, 2020

स्वास्थ्य संरक्षण

हमने 'स्वास्थ्य संरक्षण' के अपने पिछले अंक में प्रथम उपस्तम्भ अर्थात् आहार के बारे में जाना था। इस बार हम द्वितीय व तृतीय उपस्तम्भ (निद्रा एवं ब्रह्मचर्य) के बारे में चर्चा करेंगे।

तो पहले द्वितीय उपस्तम्भ अर्थात् 'निद्रा', व स्वास्थ्य हेतु इसके महत्व के बारे में जानते हैं -

देह विश्राम के लिए निद्रा अत्यन्त आवश्यक है। निद्रा से इन्द्रियों की कार्य शक्ति पुन: ठीक होती है तथा सुख व आयु की वृद्धि होती है। शरीर को पुष्ट व सबल बनाना, स्वास्थ्य तथा आरोग्य, निद्रा पर ही निर्भर है। निद्रा की स्थिति में हृदय व नाड़ी की गति कम हो जाती है तथा फेफड़ों व आंतरिक अंगों को भी विश्राम मिलता है।

निद्रा अवधि - भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में तथा भिन्न-भिन्न कार्यों के अनुसार नींद की आवश्यकता पड़ती है -

नवजात शिशु - २२ घंटे

२ वर्ष का बालक - १४ घंटे

छोटे बच्चे - ८ से १० घंटे

युवक - ६ से ८ घंटे

वृद्ध - ६ से ७ घंटे

शारीरिक श्रम करने वालों को गहरी नींद आती है। मानसिक श्रम करने वालों को कुछ समय सोने से भी स्फूर्ति आ जाती है। निद्रा पूर्ण तब मानी जाती है जब व्यक्ति सोकर उठे तो थकान से रहित, प्रसन्नचित्त व आनंदित महसूस करे।

रात्रि के प्रथम प्रहर में गहरी निद्रा आती है। अत: १० बजे तक अवश्य सो जाना चाहिए। सोते समय अंधकार होना चाहिए। सोने से पूर्व लघुशंका अवश्य करनी चाहिए। आयुर्वेद में गीले पैर भोजन व सूखे पैर सोना कहा गया है, इससे आयु की वृद्धि होती है।

यथा समय सेवित युक्त निद्रा - पोषण, बल, उत्साह, अग्निदीप्ति, चेतनता व धातु साम्य प्रदान करने वाली होती है।

अयुक्त निद्रा से होने वाली हानियाँ -

१. असमय व अधिक मात्रा में सोने से सुख व आयु का नाश होता है।

२. असमय सोने से मोह, ज्वर, शरीर में ढ़ीलापन, जुकाम, सिरदर्द, जी मिचलाना, जठराग्नि का मंद होना, शोथ, स्रोतों में रुकावट आदि होता है।

३. भोजन के तत्काल बाद सोने से कफ़ दोष कुपित होकर जठराग्नि (पाचन शक्ति) को नष्ट कर देता है।

आजकल निद्राकारक औषधियों का सेवन अधिक किया जाता है तथा दिन व रात्रि दोनों में सोने का क्रम अपनाया जा रहा है। इससे शरीर में कई प्रकार के विकार उत्पन्न हो जाते हैं व शरीर रोगग्रस्त हो जाता है। अत: रात में अधिक देर तक नहीं जागना चाहिए तथा दिन में सोना नहीं चाहिए (ग्रीष्म ॠतु को छोड़कर)।

स्वाभाविक निद्रा में आहार-विहार का संयम तथा मानसिक विकारों से बचने का प्रयास करना चाहिए।

इस प्रकार हमने देखा कि उत्तम स्वास्थ्य हेतु उचित निद्रा की कितनी आवश्यकता होती है। हमारा स्वास्थ्य व रोग दोनों इसी के अधीन होते हैं। अत: हमें सदैव उचित रूप से ही ली जाने वाली नींद का अभ्यास करना चाहिए ।

अब तृतीय उपस्तम्भ अर्थात् 'ब्रह्मचर्य', व जीवन में इसका महत्व समझेंगे --

सामान्य रूप से ब्रह्मचर्य का अर्थ जननेन्द्रिय संयम या वीर्यपात न करना समझा जाता है। परन्तु यह अधूरा अर्थ है। ब्रह्मचर्य का व्यापक अर्थ है - ब्रह्म (परमात्मा) में विचरण करना, जीवन लक्ष्य में तन्मय हो जाना, सत्य की शोध में सब ओर से चित्त हटाकर जुट पड़ना।

ब्रह्मचर्य किसी एक इन्द्रिय का संयम नहीं, अपितु ब्रह्मचर्य जीवन का संयम है। ब्रह्मचर्य तभी संभव है, जब आँख, कान, नाक, जिह्वा आदि सभी इन्द्रियों को संयमित रखा जाए। नेत्रों से अश्लील चित्र न देखना, कानों से अश्लील गीत न सुनना, जिह्वा से तीक्ष्ण, मिर्च- मसालेदार, उत्तेजक पदार्थों का सेवन न करना, कटु वचन न बोलना आदि बातों का पालन करना चाहिए। यदि प्रारम्भ से ही बच्चों को शास्त्र, इतिहास, साहित्य, राजनीति, शिक्षा, खेल, व्यापार, आरोग्य, सद् वृत्त, जननेन्द्रिय की जानकारी, स्वच्छता का ज्ञान आदि बातें बताई जाएं, बच्चों को आहार-विहार एवं निरोग कैसे रहें - इनका शिक्षण होता रहे, तो ब्रह्मचर्य पालन में कोई कठिनाई न होगी।

ब्रह्मचर्य पालन द्वारा हम अपनी शक्तियों का क्षरण (कमी) होने से रोकते हैं, व उन शक्तियों का सदुपयोग अपने आत्मोत्थान, आरोग्य, सुख व शांति प्राप्त करके, एक आदर्श जीवनयापन में लगा सकते हैं।

ब्रह्मचर्य का तेज ऐसा है जो शरीर में फैलता है। वह आँखों में दिखाई देता है, वाणी में उतर आता है व चेहरे पर खिल उठता है। ब्रह्मचर्य की महिमा अपार है। जिसे अपना जीवन सार्थक बनाना हो, उसके लिए ब्रह्मचर्य से बढ़कर कोई मार्ग नहीं है।

****************