सृष्टि के उदय के साथ ही मनुष्य के लिए स्वास्थ्य एवं रोग - इन दोनों अनिवार्य तत्वों का भी उदय हुआ, जिन्हें सुख दुःख के साथ देखा समझा गया तथा इनके निवारण हेतु प्रकृति को सर्वोपरि स्थान प्राप्त हुआ। दोनों का प्रसव प्रकृति के माध्यम से हुआ; तो निवारण, संरक्षण, बचाव भी प्रकृति में ही निहित रहा। संतुलन-असंतुलन का ज्वार-भाटा समाज के साथ-साथ चलता रहा, परंतु सभ्यता के विकास और मानवीय बुद्धि के जागरण - विस्तार के साथ संतुलन के मायने और परिवेश में परिवर्तन, बदलाव आते गए तथा प्राकृतिक अनुकूलन, समायोजन, सामंजस्य और सहयोग के स्थान पर भौतिक वातावरण एवं सुविधाओं ने बाजी मारी और मनुष्य प्रकृति का अभिन्न अंग होते हुए भी अपनी प्रसव धर्मिणी रक्षणकर्त्री धरती माता से दूरी बढ़ाता चला गया और परिणाम यह हुआ कि जो पोषण, स्वास्थ्य, समृद्धि, खुशहाली, पर्यावरण की सुरक्षा का अनुपम वरदान था वह धीरे-धीरे अभिशाप बनता गया।
21 से 27 सितम्बर 2020 की तिथियों में 'आयुर्वेद का दैनिक जीवन में महत्व' विषय पर ऑनलाइन कार्यशाला सफलतापूर्वक सम्पन्न हुई।
देश भर के लोगों ने इसमें उत्साहपूर्वक भागीदारी की एवं लाभान्वित हुए।
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2 नवम्बर 2020 से, नवीन सत्र के विद्यार्थियों हेतु, छ: मासीय "समग्र स्वास्थ्य प्रबंधन" प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम की कक्षाएँ ऑनलाइन माध्यम से प्रारम्भ हो गईं।
अगस्त और सितंबर माह के प्रत्येक शनिवार एवं रविवार को "यज्ञ चिकित्सा" पाठ्यक्रम के ऑनलाइन लेक्चर हुए।
19 नवम्बर 2020 से 15 दिवसीय ऑनलाइन पाठ्यक्रम - 'प्राचीन मर्म चिकित्सा विज्ञान: स्वप्रबंधन की कुंजी' प्रारम्भ हो गया।
इस पाठ्यक्रम के बारे में अधिक जानकारी हेतु कृपया यहाँ क्लिक करें
विभाग में विश्वकर्मा पूजन किया गया तथा सभी के स्वस्थ जीवन की कामना की गई।
विभाग की धन्वन्तरि वाटिका में सामूहिक पूजन किया गया, एवं शांतिकुंज फार्मेसी में यज्ञ के माध्यम से धन्वन्तरि जयंती मनाई गई।
On 8 October 2020 Dr. Vandana Shrivastava delivered this lecture in the online event "International Mental Health Week (07 Oct to 13 Oct 2020) (Theme - MIND {Moving in New Direction} to Unlock Your True Self)", organized by Divya Karuna Kalyan Samiti (NGO)
24 August 2020: Dr. Alka Mishra delivered a lecture on 'Effect of Ayurveda on Holistic Health', as a Resource Person, in an online short-term course on "YOGA AND WELLNESS", organized by UGC - Human Resource Development Centre, Ranchi University, Ranchi
यज्ञ चिकित्सा हेतु परामर्श के लिए ऊपर दिया गया फॉर्म प्राप्त होने के उपरांत, आपके द्वारा दी गई जानकारी की जाँच की जाएगी, एवं उसके अनुसार शीघ्र ही आपसे सम्पर्क किया जाएगा
After receiving the Form given above for Yagya Therapy Consultancy, the information provided by you will be reviewed, and you will soon be contacted accordingly
(Source: https://sites.google.com/dsvv.ac.in/shodhamala-dahh/asssm23/asssm231 ; https://doi.org/10.31219/osf.io/rfu9q)
Background: A case report about a female patient has been presented here, who was suffering from multiple complaints including hypothyroidism-(since more than 2 years), leucorrhoea, cervical pain, continuous feverish feeling-(since more than 12 years), etc. According to Ayurvedic texts, the multiple complaints experienced by the patient involve the vitiation of all the three Doshas, i.e. Vata, Pitta and Kapha. Panchakarma Therapy procedures are known to balance the three Doshas, as well as provide tissue nourishing, strengthening and rejuvenating effects.
Methodology: Panchakarma therapy was administered for 9 days to the patient. Therapeutic procedures and herbal medicines that pacify the three Doshas, and also provide strengthening, tissue nourishing and rejuvenating effect, were used.
Results: The patient experienced notable relief in continuous feverish feeling (90%), neck pain (70%), and white discharge P/V (50%). The complaints of burning mictuition, weakness and fatigue were completely resolved. Overall, the patient was feeling energetic and happy after taking the therapy.
Conclusion: Panchakarma therapy showed encouraging results in the simultaneous management of symptoms associated with multiple complaints including hypothyroidism, leucorrhoea, cervical pain, continuous feverish feeling, as well as other associated ailments, in short duration of time.
वर्षा के बाद शरद ॠतु का आगमन होता है। इसमें आश्विन-कार्तिक नामक हिन्दी मासों को लिया गया है। इस काल में सूर्य देव दक्षिणायन में होते हैं। इस काल में सूर्य की किरणों की प्रबलता कम हो जाती है। वर्षा से भूमि जल से तृप्त हो जाती है। नदी, नाले, तालाब, झील, खेतों में जल की अधिकता से यह सब लबालब भरे हुए दिखाई देते हैं। खरीफ की मुख्य फसल धान के खेत लहलहा रहे होते हैं। इसलिए यह सौम्य काल कहलाता है। वायु में नमी का अंश होता है। चन्द्रमा का बल अधिक होने के कारण प्राणियों में प्रसन्नता होती है। आदान-काल में शारीरिक बल की जो क्षति हुई थी उसकी पूर्ति होकर शरीर में पुष्टता आती है। विश्व को चन्द्रमा बल-पुष्टता प्रदान करने वाला होता है। प्राणियों तथा वनस्पतियों में मधुर, खट्टा और नमकीन रस की वृध्दि होने लगती है।
1 से 3 फीट ऊँचा इसका पौधा सारे भारत में पाया जाता है। फूल सफेद या बैगनी होते हैं। फल गोलाकार, पीले-भूरे होते हैं, जो दबाने पर दो भागों में बँट जाते हैं, जिनमें एक-एक बीज होता है। शीत ॠतु के अंत में फूल और फल लगते हैं। इसे धणा या कौथमीर भी कहते हैं। सारे भारत में हरी हालत में चटनी बनाने के काम में व सूखी हालत में मसाले में डालने के काम आता है।
आयुर्वेद मतानुसार यह चरपरा, कसैला, उष्णवीर्य, जठराग्नि को प्रदीप्त करने वाला है। पाचक एवं ज्वर नाशक भी है। तीनों दोषों को यह शमन करता है। फलों का चूर्ण 3 से 6 ग्राम, हरे पचांग का हिम 20 से 40 मिली लीटर, तैल 1 से 3 बूँद तक प्रयुक्त होता है।
हरी-धनिया की पत्ती पीसकर सिर दर्द तथा अन्य सूजनों पर इसका लेप करते हैं। मुँह के छालों या गले के रोगों में हरे धनिया के रस से कुल्ला करते हैं। नेत्रों की सूजन व लाली में धनिया को कूटकर पानी में उबाल कर, उस पानी को कपड़े से छानकर आँखों में टपकाने से दर्द कम होता है, लाली मिटती है एवं पानी जाना बंद हो जाता है। पत्तों का स्वरस नाक से नकसीर फूटने पर डालते ही रक्त आना बंद हो जाता है।
धनिया का छिलका उतारकर उसकी मज्जा (मिंगी) को दूध में उबाल कर उस दूध का सेवन मूर्छा या मतिभ्रम में करते हैं। यह प्यास, अरूचि, वमन, अग्निमन्दता, अजीर्ण एवं उदरशूल को मिटाता है। गर्मी की वजह से पेट में होने वाले दर्द में धनिया के चूर्ण को मिश्री के साथ देते हैं। दस्त लगने पर भुना धनिया पीसकर खिलाते हैं। अगर दस्तों के साथ खून आता है, तो धनिया को पानी में भिगोकर पीस-छानकर पीना चाहिए।
बुखार में देने से, साथ जुड़े कष्ट यथा तृष्णा, वमन, सिर दर्द शांत होते है। कामोन्माद को शांत करने के लिए भी धनिया को पानी में भिगोकर दिया जाता है। बच्चों की खाँसी में धनिया को चावल के माड़ में घोंट कर पिलाते हैं। गर्भावस्था की उल्टी में धनिया के काढ़े में मिश्री मिला कर देते हैं। पागलपन, मिर्गी, हिस्टीरिया, उन्माद को यह जल्दी ही शांत कर देता है।
मसाले स्वाद बढ़ाने के साथ-साथ संक्रमण से भी हमें बचाते हैं। किसी भी घातक रोगों से लड़ने में हमारी क्षमता को मजबूत करते हैं। दैनिक जीवन में स्वास्थ्य संबंधी बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ता है, इन परेशानियों से बचने के लिए हमारे घर के रसोई में रखे हुए मसाले हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है। इन्हीं में से एक है - 'मेथी'।
कड़ुवी हूँ पर भाती सबको मेरी यारी, भाजी हो या बीज सभी मेरे गुणकारी।
वातरोग, मधुमेह में हूँ बहुत चमत्कारी, मेरे लड्डू खाओ या खाओ तरकारी।।
मेथी मसाले का एक महत्वपूर्ण घटक है। इनके बीजों एवं पत्तियों का इस्तेमाल सब्जी एवं आयुर्वेदिक औषधियों में सदियों से करते आ रहे हैं।
वानस्पतिक नाम – ट्रिगोनेला फोनीम ग्रीक
कुल – लेग्युमिनोसी (उपकुल - पैपिलिओनेटी)
हिन्दी – मेथी
संस्कृत – बहुपर्णी कहते हैं।
पहचान – यह पौधा झाड़ीदार, अनेक शाखाओं तथा प्रशाखाओं में विभाजित होता है। प्राय: यह छोटा वृक्ष रूप में होता है। इसकी शाखाएँ एवं प्रशाखाएँ अग्र भाग पर थोड़ी नुकीली काँटेदार होती है। इसके पत्र एक से डेढ़ इंच लंबे आयताकार चिकने तथा छोटे वृंत वाले होते हैं। यह विपरीत या न्यूनाधिक विपरीत या समूहबंध होते हैं। पत्रों पर पारभासक सूक्ष्म छीटे होते हैं।
अतिसार तथा संग्रहणी में – अतिसार, प्रवाहिका में फल की छाल का क्वाथ पिलाने से लाभ होता है। इसके संपूर्ण फल को जरा भूनकर, कूटकर रस निकालकर देने से अतिसार तथा प्रवाहिका में लाभ होता है।
मनुष्य शरीर में ये तीनों इंद्रियाँ बहुत महत्वपूर्ण और साथ ही कोमल हुआ करती हैं। अत एव इनकी किसी व्याधि में एका एक तीव्र औषधि का व्याहार करना उचित नहीं। तुलसी ऐसी सौम्य और निरापद औषधि है जो अपने सूक्ष्म प्रभाव से इन अंगों को शीघ्र निरोग कर सकती है। इस संबंध में 'चरक संहिता' का निम्न वचन विशेष महत्वपूर्ण है -
गोरवे शिरसे शूले पीनसे अर्धभेदके ।
क्रिमी व्याधावपस्मारे घ्राणनाशे प्रपोहके ।।
अर्थात 'तुलसी का प्रयोग मस्तक में एकत्रित दोषों को दूर करके सिर का भारीपन, मस्तक शूल, पीनस, आधा सीसी, कृमि, मृगी, सूँघने की शक्ति नष्ट होने आदि को ठीक कर देता है।
अश्वगंधा प्राचीन काल से आयुर्वेद में उपचार होने वाली एक कारगर औषधि है। कई गंभीर बीमारियों में हजारों साल से अश्वगंधा का प्रयोग किया जाता रहा है। इसके पत्तियों तथा जड़ो में घोड़े के मूत्र जैसी गंध आने के कारण व अश्व की तरह बलवर्धक होने के कारण इसका नाम अश्वगंधा पड़ा। अश्वगंधा की खेती - महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, पंजाब, उत्तरप्रदेश में की जाती है।
अश्वगंधा सभी प्रकार के शारीरिक, मानसिक रोगों में लाभकारी है।
अश्वगंधा शक्तिवर्धक रसायन है, शारीरिक कमजोरी को दूर करता है एवं शुक्रवर्धक रसायन है।
अश्वगंधा का सेवन करने से हृदय संबंधित बीमारियों का खतरा कम हो जाता है, क्योंकि इसमें पाए जाने वाले एंटी-ऑक्सीडेंट और एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण कोलेस्ट्राल को कम करने में सहायक होते हैं।
लिवर की सूजन एवं फैटीलिवर की समस्याओं को भी कम करने में सहायक होता है।
अश्वगंधा रक्त विकार, शोथ एवं गठिया- वात रोगियों के लिए भी लाभदायक है।
अश्वगंधा का पाक शक्तिवर्धक है एवं वृद्धावस्था में आने वाली समस्त व्याधियों से बचाता है।
अखण्ड ज्योति पत्रिका - जुलाई 1999 अंक से (http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1999/July/v2.32)
आहार के अनेकानेक पक्षों पर विगत अंक में चर्चा की जा चुकी हैं। आयुर्वेद के अनुसार शरीर में ग्रहण किया जाने वाला भोजन सप्त धातुओं का निर्माण करता है। रस, रक्त, माँस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र के रूप में क्रमशः धातुओं का पोषण करते हुए निर्माण करने में महत्वपूर्ण भूमिका होने के नाते आहार का महत्व आयुर्वेद में अत्यधिक माना गया है। पथ्य-अपथ्य का विमर्श करते हुए भी, आयुर्वेद के विद्वान, रोग से बचने एवं हो जाने पर ठीक होने के लिए औषधियों के साथ-साथ आहार पर सर्वाधिक जोर देते हैं। यूँ आहार-निद्रा ब्रह्मचर्य रूपी त्रय उपस्तंभ तथा वात, कफ़, पित्त रूपी त्रिदोष की साम्यावस्था ही सप्तधातुओं के निर्माण की मूल कारक मानी गई है। फिर भी इन सभी में आहार को सबसे ऊपर माना गया हैं। जहाँ एलोपैथी में औषधि के साथ कुछ भी खाते रहने, कोई संयम-नियम का पालन न करने की सलाह दी जाती है, वहाँ आयुर्वेद आहार को भी चिकित्सा का एक घटक मानते हुए यथोचित निर्देश विभिन्न विकारों के लिए देता है।
आहार-विधि - चरक सूत्र के अनुसार कुल छ: मुख्य पथ्यापथ्य घटक हैं, जिनका ध्यान रखा जाना चाहिये। चरक ने मात्रा (भोजन कितना लिया जाए), काल (किस समय लिया जाए), क्रिया (किस पद्धति से बनकर तैयार हुआ है), भूमि (किस देश-स्थान पर पैदा हुआ है), देह (संरचना कैसी है), दोष ( उनकी आंतरिक संघटना में कोई त्रुटि) को मुख्य घटक माना है। इन घटकों के प्रभाव से पथ्य (ली जाने योग्य भोज्य पदार्थ) भी अपथ्य सिद्ध हो सकता है। भोजन सिद्धि प्राप्त करने के लिये चरक का निर्देश है कि कुछ पदार्थ जो स्वभाव से ही अपथ्य होते हैं, उनके अतिरिक्त अन्य औषधीय-अन्न-शाकादि पदार्थों का उपयुक्त श्लोकानुसार, कालादि मात्रा आदि का विचार करके, प्रयोग किया जाना चाहिए।
आहार सेवन विधि चरक संहिता विमान स्थान में आठ प्रकार की आहार सेवन विधि संबंधी भावों का उल्लेख आता है। ये आठों भव अष्टविध आहार विधि विशेषायतन कहलाते हैं, शुभाशुभ फलदायक हैं, तथा एक दूसरे के पूरक हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं -
(1) प्रकृति (नेचुरल क्वालिटी)
(2) करण संस्कार (तैयार करने की विधि)
(3) संयोग (काँबिनेशन)
(4) राशि मात्रा-क्वान्टिटी
(5) देश ( स्थान विशेष की परिस्थितियाँ)
(6) काल (आहार ग्रहण का समय)
(7) उपयोग संस्था (उपयोग करने की विधि)
(8) उपभोक्ता (उपयोग करने वाला)
स्वाभाविक गुण युक्त द्रव्यों में जो संस्कार किया जाता है उसे करण कहते है। द्रव्यों में दूसरे गुणों को जल अग्नि संयोग, मंथन, भावना तथा विभिन्न पात्रों में रखकर समाविष्ट किया जाता है। इस प्रकार यह आहार निर्माण सेवन का उपक्रम पूर्णतः विज्ञान सम्मत ही नहीं - अति सूक्ष्म एक प्रक्रिया भी है।
From Akhand Jyoti English magazine-January-February 2004 issue (http://literature.awgp.org/akhandjyoti/2004/Jan_Feb/v1.GuidelinesAyurveda_IV)
What should be our food?
Healthy food is compared with nectar in the Vedic scriptures. At the same time, the scriptures also alert us to be careful about the quality of food, which apart from the gross and subtle properties of the ingredients, also depends upon the way it is earned, prepared and eaten .
Annaharartham Karma Kuryadanindyam, Kuryadaharam Prana Sandharnartham | Pranaha Sandharyastatva Jijnasanartham, Tatvam Jijnasya Yena Bhuryo Na Duhkham || (Yoga Vashishtha)
Meaning: Earn your food by proper (just and honest) means. Eat it with purity to sustain your vital energy (and body-force). Elevate your vital energy to be able to gain knowledge and attain vigorous potentials to get rid ot all infirmities and sorrows.
We have discussed several aspects of eating habits as recommended by Ayurvedic scriptures in the last issue. Here we throw further light on healthy constituents of food. According to Ayurveda, the food we eat is used in the production/strengthening of seven major components/elements (dhatus) in the body; at a gross level, these dhatus are physiological fluids, blood, serum, flesh, bones, muscles and sperm/ovum. Food is given prime importance here in prevention as well as in cure of diseases.
(संदर्भ: ब्रह्मवर्चस (सम्पादक). यज्ञ का ज्ञान-विज्ञान - पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य वांगमय - खण्ड 25. मथुरा, उत्तर प्रदेश, भारत:अखण्ड ज्योति संस्थान, 1998, पृष्ठ 2.20-2.24.)
अध्यात्म विज्ञान के तत्व दर्शन एवं क्रिया प्रयोजन के दोनों ही पक्ष यज्ञ विधा से सम्बन्धित हैं। कठोपनिषद् में यम नचिकेता सम्वाद में जिन पंच प्राणाग्नियों का विवेचन हुआ है वे अग्निहोत्र से सर्वथा भिन्न प्राण परिष्कार की चिन्तनपरक दिशा धाराएँ हैं।
मीमांसा, सूत्र-ग्रन्थ ब्राह्मण एवं आरण्यकों में 'यज्ञ' शब्द यजन कृत्य के साथ सम्बध्द है। जीवन यज्ञ का तात्पर्य है चिन्तन और चरित्र को पवित्र एवं प्रखर बनाना। अग्निहोत्रों का तात्पर्य ऐसी ऊर्जा उत्पन्न करना है जो न केवल शरीर को ओजस्, मन को तेजस्, आत्मा को वर्चस् दे सके वरन् इस प्रकृति ब्रह्माण्ड में भी अनुकूलताओं का अनुपात बढ़ा सके। देवताओं में सर्व प्रथम एवं सर्व समर्थ अग्निदेव की उत्पत्ति हुई। इसके गीता से वेद-पुराणों तक में कितने ही प्रमाण मिलते हैं। भगवान ने कहा-महातेजस्वी राजन् मैने सबसे पहले ब्रह्मस्वरूप से लोकों को बनाया। लोगों की भलाई के लिए मुख से सबसे पहले अग्नि को प्रकट किया। सभी भूतों से पहले अग्नि तत्व मेरे द्वारा पैदा किया गया, इसलिए पुराण ज्ञाता मनीषी उसे 'अग्नि' कहते हैं।
अग्नि के तीन स्थान और तीन मुख्य रूप जाने जाते हैं-
व्योम में सूर्य
अन्तरिक्ष (मध्याकाश) में विद्युत
पृथ्वी पर साधारण अग्नि रूप।
जैमिनी ब्राह्मण में अग्नि की तीन संज्ञायें दी गई हैं- भूपति, भुवनपति, भूतानां
महाभारत में अग्नि के दस गुण गिनाते हुए बताया गया है कि अग्नि तत्व के विकास से ही मनुष्य ऊर्ध्वमुखी शक्तियों से सम्बन्ध जोड़ता है- दुर्घर्षता, ज्योति, ताप, पाक, प्रकाश, शौच, राग, लघु, तैक्षण्य, ऊर्ध्वगमन
यह अग्नि के दस गुण शरीर में प्रकट होते हैं अर्थात् शरीर में बल का संचार, चमक, गर्मी अग्नि के गुण है वही अन्न पचाता है, वही ज्ञान करता है, शरीर की अशुद्धता को वही जलाता या दूर करता है। उसी में आकर्षण का गुण है, शरीर को हल्का और शक्तिशाली रखता है। मानसिक शक्तियों को वही ऊपर उठाकर ले जाता है और देव शक्तियों को वही ऊपर उठाकर ले जाता और से मेल कराकर आत्मा का विकास करता है।
यह दस गुण पाँच प्राण और पाँच उपप्राणों की अलग-अलग क्रियायें तथा गुण हैं। इनके विकास का अपना अलग विज्ञान है जो यज्ञ, प्राणायाम, ध्यान, वैदिक मंत्रों के उच्चारण आदि के रूप में व्यवहृत हुआ है।
आज यह सब बातें लोग भूलते जा रहे हैं इसीलिए आयु, शक्ति, बल, तेजस् और दिव्य शक्तियों के सम्पर्क से प्राप्त होने वाले लाभ नष्ट होते चले जा रहे हैं। संयमित जीवन से अपने आप शरीर में अग्नि तत्व के विकास का एक नैसर्गिक उपाय था वह भी नष्ट हो चला। इस तरह अग्नि देवता को कुपित कर संसार स्वत: दु:ख की अग्नि में जलता जा रहा है। यदि शारीरिक, मानसिक, बौध्दिक, सामाजिक और आध्यात्मिक, धार्मिक उन्नति के द्वार खोलने हैं तो हमें फिर से अग्नि तत्व जैसे महाभूत की नये सिरे से खोज करनी होगी, प्रतिष्ठा देनी होगी और ॠषियों के दिये ज्ञान को धारण करना होगा।
(संदर्भ: ब्रह्मवर्चस (सम्पादक). यज्ञ : एक समग्र उपचार प्रक्रिया - पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य वांगमय - खण्ड 26. मथुरा, उत्तर प्रदेश, भारत:अखण्ड ज्योति संस्थान, 1998, पृष्ठ 1.9-1.15.)
अथर्ववेद में अनेक प्रकार के रोगोत्पादक कृमियों का वर्णन आता है। वहाँ इन्हें यातुधान, क्रव्यात, पिशाच, रक्ष: आदि नामों से स्मरण किया गया है। ये श्वास-वायु, भोजन, जल आदि द्वारा मनुष्य के शरीर में में प्रविष्ट होकर या मनुष्य को काटकर उसके शरीर में रोग उत्पन्न करके उसे यातना पहुँचाते हैं, अत: ये ' यातुधान ' हैं। शरीर के मांस को खा जाने के कारण ये ' क्रव्यात् या पिशाच ' कहलाते हैं। इनसे मनुष्य को अपनी रक्षा करना आवश्यक होता है, इसलिए ये रक्ष: या राक्षस हैं। यज्ञ द्वारा अग्नि में कृमि – विनाशक औषधियों की आहुति देकर इन रोग – कृमियों को विनष्ट कर रोगों से बचाया जा सकता है। अग्नि में डाली हुई यह हवि रोग – कृमियों को उसी प्रकार दूर बहा ले जाती है, जिस प्रकार नदी पानी के झागों को जो कोई स्त्री या पुरूष इस यज्ञ को करें, उसे चाहिए कि वह हवि डालने के साथ मंत्रोच्चारण द्वारा अग्नि का स्तवन भी करे। हे प्रकाश अग्ने गुप्त से गुप्त स्थानों में छिपे बैठे हुए भक्षक रोग – कृमियों के जन्मों को तू जानता है। वेदमंत्रो के साथ बढ़ता हुआ तू उन रोग – कृमियों को सैकड़ो बंधों का पात्र बना।
यज्ञ प्रक्रिया में किस रोग में, किस विधान से, किस मंत्र एवं औषधि का उपयोग किया जाए, इसकी रहस्यमयी विद्या का सुविस्तृत उल्लेख वेदों में मिलता है। विभिन्न रोगों का शमन यज्ञोपचार में सन्निहित है –
ज्वर चिकित्सा – यज्ञाग्नि द्वारा ज्वर तथा ज्वर के सहकारी कास, शिर पीड़ा, अंगो का टूटना आदि भी दूर हो सकते हैं।
ज्वर अंग-अंग में ताप के साथ व्याप्त हुए तेरा हम हवि के द्वारा प्रतिकार करते हैं। अंगो को जकड़ने वाले जिस ज्वर ने इस रोगी के अंगो को जकड़ लिया है उसके लिए हवि के द्वारा हम प्राशों को तैयार करते हैं।
उन्माद चिकित्सा – यह जो उन्माद रोग से ग्रस्त पुरूष कसकर बँधा हुआ असंबध्द प्रलाप कर रहा है, उसे तू इस रोग से मुक्त कर दे। जब वह तेरी हविर्भाग प्रदान करता रहे, जिससे कि फिर कभी उन्मत्त न हो। यदि उन्माद के कारण तेरा मन उद्दीप्त हो गया है, तो यज्ञ चिकित्सा को जानने वाला मै तेरा इलाज करता हूँ, जिससे कि तू उन्माद रहित हो जाए।
क्षयरोग चिकित्सा – जो क्षय रोग पसलियों को तोड़ डालता है फेफड़ो में जाकर बैठ जाता है। पृष्ठवंश के उपरिभाग में स्थित हो जाता है, उस अति स्त्रीप्रसंग से उत्पन्न होने वाले क्षय रोग को हे यज्ञीय हवि तू शरीर से बाहर निकाल दे। पक्षी की भाँति उड़ने वाला अर्थात छूत द्वारा फैलने वाला यह रोग एक से दूसरे पुरूष में प्रविष्ट हो जाता है चाहे उसने जड़ जमा ली हो, चाहे जड़ न जमाई हो, हवि चिकित्सा दोनों की ही उत्तम चिकित्सा है। हे अति स्त्रीप्रसंग से उत्पन्न होने वाली क्षय रोग हम तेरे उत्पादक कारणों को जानते हैं, पर जिस पुरूष के घर में हम हवन करते हैं, उसे तू कैसे मार सकता है।
अन्य रोगों का निवारण – मनोयोग के साथ और चक्षु वाक् आदि इंद्रिय देवों के व्यापार के साथ अग्नि में डाली हुई घृत की धारा अन्य औषधियों की हवि के साथ वर्ष भर हमें बढ़ाती रहे। हमारे श्रोत्र, चक्षु, प्राण रोगादि से छिन्न न हों हम आयु और तेज से छिन्न न हों।
पूर्ण पाठ्यक्रम इस वेब-लिंक पर देखें - https://sites.google.com/view/adhyatmik-kayakalp/adhyatmik-paddhatiyan-gyan-vigyan
नीचे दिए गए वेब-लिंक पर दिए गए उद्बोधन (.mp3 फाइल) को सुनें, एवं उस पर आधारित प्रश्नोत्तरी को हल करें
पूर्ण पाठ्यक्रम इस वेब-लिंक पर देखें - https://sites.google.com/view/adhyatmik-kayakalp/antarik-utkrishtata-ka-vikas
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https://sites.google.com/view/adhyatmik-kayakalp/antarik-utkrishtata-ka-vikas/patrata-ka-mahatva
शारदीय नवरात्रि 2019 में श्रद्धेय डॉ० प्रणव पण्ड्या की गीता पर कक्षाएँ
तृतीय दिवस की कक्षा - https://www.youtube.com/watch?v=Qovo1ePbMhY
देव संस्कृति विश्वविद्यालय में श्रद्धेय डॉ० प्रणव पण्ड्या की ध्यान पर कक्षाएँ
12 मार्च 2020 की ध्यान की कक्षा - https://www.youtube.com/watch?v=DsIeNxkIQU0
चैत्र नवरात्रि 2020 में श्रद्धेय डॉ० प्रणव पण्ड्या की रामचरितमानस पर कक्षाएँ
प्रथम दिवस की कक्षा - https://www.youtube.com/watch?v=4Ns9sutVyhY