सृष्टि के उदय के साथ ही मनुष्य के लिए स्वास्थ्य एवं रोग - इन दोनों अनिवार्य तत्वों का भी उदय हुआ, जिन्हें सुख दुःख के साथ देखा समझा गया तथा इनके निवारण हेतु प्रकृति को सर्वोपरि स्थान प्राप्त हुआ। दोनों का प्रसव प्रकृति के माध्यम से हुआ; तो निवारण, संरक्षण, बचाव भी प्रकृति में ही निहित रहा। संतुलन-असंतुलन का ज्वार-भाटा समाज के साथ-साथ चलता रहा, परंतु सभ्यता के विकास और मानवीय बुद्धि के जागरण - विस्तार के साथ संतुलन के मायने और परिवेश में परिवर्तन, बदलाव आते गए तथा प्राकृतिक अनुकूलन, समायोजन, सामंजस्य और सहयोग के स्थान पर भौतिक वातावरण एवं सुविधाओं ने बाजी मारी और मनुष्य प्रकृति का अभिन्न अंग होते हुए भी अपनी प्रसव धर्मिणी रक्षणकर्त्री धरती माता से दूरी बढ़ाता चला गया और परिणाम यह हुआ कि जो पोषण, स्वास्थ्य, समृद्धि, खुशहाली, पर्यावरण की सुरक्षा का अनुपम वरदान था वह धीरे-धीरे अभिशाप बनता गया।
स्वास्थ्य संरक्षण का दायरा घटते-घटते अस्तित्व हीन होने की कगार पर आ गया और कृत्रिमता, भौतिकता एवं साधनों को सुख का, स्वास्थ्य का, आधार माना जाने लगा। परन्तु ईश्वरीय योजना को यह स्वीकार्य न हुआ और विज्ञान, आविष्कार, धन को श्रेष्ठता की श्रेणी से एकदम नीचे गिराकर यह फिर एक बार जता दिया कि प्राकृतिक जीवन, प्राकृतिक फल, औषधियाँ एवं भारतीय जीवन शैली ही जीवन की रक्षक हो सकती है। जीवन की समग्रता का सारा खजाना आज भी उसी प्रकृति के पास है, उन्हीं प्राकृतिक फलों, औषधियों, पौधों, वनस्पतियों में हैं, जिनसे जीवन को सुरक्षित और संरक्षित किया जा सकता है; स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाया जा सकता है। और, बात जब औषधियों, वनस्पतियों, प्राकृतिक फलों की हो, तो आयुर्वेद के बिना पूरी नहीं हो सकती। कारण - आयुर्वेद में जीवन की समग्रता है, समग्र स्वास्थ्य है, समग्र स्वास्थ्य रक्षण की विधियाँ हैं, ज्ञान है, उपदेश है।
मनुष्य के जीवन को समुन्नत, सुखी, शतायु बनाने हेतु, जीवनी शक्ति के संवर्धन हेतु तथा प्राकृतिक वृक्ष वनस्पतियों को सुरक्षित रखने हेतु, सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक तथ्यों से जोड़ा गया; तथा जिससे आध्यात्मिक, आत्मिक उन्नति का पथ भी प्रशस्त होता रहे, इस हेतु तथा पर्यावरण सुरक्षा का भी स्थायित्व सुनिश्चित हो, इस कारण पूजा- पर्व- त्यौहारों पर वृक्ष- वनस्पतियों को महत्व दिया गया। ऐसे ही रक्षक पोषक जीवनी शक्तिवर्धक तथा रोग निवारक वृक्षों की श्रेणी में आता है 'आंवला'।
'आंवला' ऐसा प्राकृतिक फल है जो जीवनी शक्तिवर्धक की श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ स्थान रखता है। आंवले को माँ का स्थान प्राप्त है, कारण कि मनुष्य के स्वास्थ्य रक्षण - रोग निवारण हेतु आयुर्वेद में छ: रसों की अनिवार्यता है, भोजन में और औषधि रूप में। साथ ही जिसका दुष्प्रभाव न हो और शरीर के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग को पोषण प्रदान कर जीवनी शक्ति का संवर्धन कर सके ऐसी विशेषता आंवले में है। आंवले को पोषणकर्त्री माँ अर्थात् 'धात्री' कहा गया है, और प्रकृति में भगवान विष्णु का प्रतीक रूप। इस क्रम में ऐसी मान्यता है कि एकादशी के दिन आंवले की पूजा, अर्चन, वंदन तथा सेवन पुण्यदायी होता है। ऐसी मान्यताओं के क्रम में एक पौराणिक तथ्य प्राप्त होता है, जिसमें कहा गया है कि एकादशी के दिन यदि आंवले का स्पर्श हो जाय तो ''चांडाल योनि से मुक्ति तथा बैकुण्ठ की प्राप्ति होती है।''
इसी प्रकार एक उदाहरण और प्राप्त होता है कि जिस घर में आंवला किसी भी रूप में हो वहां लक्ष्मी का वास होता है। यही कारण है कि आंवला नवमी, आंवला एकादशी व्रत इत्यादि का विधान भारतीय संस्कृति में बताया गया है। आधुनिक वैज्ञानिक-शोध यही मानते हैं कि स्वास्थ्य रक्षण जीवनी शक्ति (इम्युनिटी) हेतु विटामिन सी आवश्यक है और सबसे ज्यादा विटामिन सी इसमें प्राप्त होता है।
कुछ प्राकृतिक औषधियों को माता के रूप में स्वीकृत किया गया है, इनके गुणों के आधार पर आजीवन माता सदृश रक्षा होती है। हर परिस्थिति में जीवन का संरक्षण करने वाली औषधियों में एक श्रेष्ठ औषधि है - आंवला; यह इसलिए कि मानव जीवन के संतुलित विकास के लिए, प्रकृति प्रदत्त जो छ: रस उपहार स्वरूप प्रदान किए गए हैं, जो जीवन की हर अवस्था में स्वास्थ्य संरक्षण हेतु अनिवार्य हैं, एवं जिनका उपयोग मनुष्य आहार तथा औषधि के रूप में अवश्य करता है, वे सब आंवले में पाए जाते हैं।
आंवले को इण्डियन गूज़बेरी (Indian Gooseberry) कहा गया है और आंवले से बने औषधीय द्रव्य जीवनी शक्ति वर्धक होते हैं,जिनमें च्यवनप्राश, ब्राह्मरसायन, धात्री लौह, धात्री रसायन आदि हैं।
किसी महामारी में व्याधि में जीवनी शक्ति वर्धक सुरक्षात्मक विधियों को प्रधानता दी जाती है और ऐसी स्थिति में आंवले का चयन किया जाता है। इसका कारण इसमें निहित शक्ति व पोषण क्षमता है तथा यही उद्देश्य रहा सदैव से कि आंवले का प्रयोग हर भारतीय घर में अचार, चटनी मुरब्बा, कैण्डी, शर्बत, जैम, चूर्ण, इत्यादि के रूप में किया जाता रहा है।
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